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दूहा
न्याय॥
१ स्वाम मारग साचौ लीयौ, करवा जनम किल्यांण।
कुगुरु कुबुधि अति केलवी, जन भरमाया जांण। २ भागळ भेषधाऱ्या तण, ऊपनौ द्वेष अत्यंत।
लोकां भणी लगावीया, विविध वचन विलपंत॥ ३ कोई संग यांरौ कीजौ मती, लाग जावैला लाळ।
निन्हव छै ऐ नीकल्या, कोइ कहै जमाली गोसाळ।। ४ यां देव गुरां नै उथापीया, दान-दया नै उथाप।
जीव वचावै तेह मैं, ए कहै अठारै पाप।। ५ भगू भिडकाया पुत्रां भणी, साधां मैं चूक बताय।
ज्यूं भीक्खू सूं भिड़कावीया, औहीज मिलियौ ६ जिहां-जिहां भीक्खू विचरता, आगूच जोवै बाट।
कह्यौ कनैं जायजो मती, थोड़ा मैं हुय जाय थाट...' ७ केइ तौ प्रश्न पूछवा, केयक देखण काज।
कुगुरां रा भरमावीया, ऊंधा बोलता नांणै लाजा ८ उपसर्ग अनेक दे रह्या, वदै वचन विकराल।
पिण क्षमा भीक्खू तणी, वारू अधिक विसाल।। अधिक नींत आचार नीं, अधिक सुमति उपयोग। अधिक गुप्त' गुण आगला, जशधारी
सुभजोग। ढाळ : ९ (रिट्ठ नेम स्वामी तू जगनाथ अंतरयामी)
भीक्खू स्वाम भारी, जगत उधारक जश धारी॥ ध्रुवपद।। १ भारी रे खिम्या गुण भीक्खू नौ भाळ, निरलोभी मुनि निर्मळ न्हाळ।। भीक्खू स्वाम. २ कपट रहित सुद्ध सरल कहाय, निरहंकार रूड़ी नरमाय। भीक्खू स्वाम. ३ लाघव कर्म उपधि वर लाज, सत्य वचन स्वामी सुख साज॥ भीक्खू स्वाम. ४ वारू रे भीक्खू नौ संजम वाह वाह, लीधौ मनुष्य जनम नों लाह॥ भीक्खू स्वाम. १. गुप्ति।
भिक्खु जश रसायण