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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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व्याख्यान सार संग्रह पुस्तक माला का २० बाँ पुष्प.
श्री मज्जवाहिराचार्य के श्रीभगवती सूत्र पर व्याख्यान
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श्री जैन हितेच्छु श्रावक मंडल रतलाम के तरफ से पं० शोभाचन्द्रजी भारिल्ल न्यायतीर्थ व्यावर.
सम्पादक
B993 CEEC
द्रव्य सहायक
श्रीमान् सेठ इन्दर चन्दजी साहब गेली कुचेरा वाला, मद्रास.
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वीराब्द २४७२
- विक्रमाब्द २००३
·
प्रकाशक
मंत्री श्री साधुमार्गी जैन
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पूज्यंश्री हुक्मीचन्दजी महाराज की सम्प्रदाय हितेच्छु श्रावक मंडल रतलाम.
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भर्द्ध-मूल्य
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प्रथमावृति
१०००
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प्राप्तिस्थानश्री साधु मार्गी जैन--- पूज्य श्री हुक्मीचन्दजी महारार
की सम्प्रदाय का हितेच्छु श्रावक-मण्डल, रतलाम [ मालवा ]
प्रथमावृति १००० एक हजार
राधाकृष्णात्मज वालमुकन्द शर्मा श्री शारदा प्रिंटिंग प्रेस, रतलाम.
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श्राप ध्यान देगे
क्या आप जानते हैं कि आपको यह अनुपम साहित्य देखने को कैसे मिला इस साहित्य के सर्जक श्रीमजैनाचार्य पूज्यवर्य श्री जवाहिरलालजी म० सा० भौतिक देह से श्राज विद्यमान नहीं हैं फिर भी उनका प्रवचन रूप सूत्र की तल-स्पी विशद व्याख्या श्राप के समक्ष धान विद्यमान है और भविष्य में भी रहेगी ? इसके उत्तर में यही कहना होगा कि यह सब जिसके द्वारा हमें प्राप्त होसका वह श्री सानेन पूज्य श्री हुक्मीचन्द्रनी महाराज की सम्प्रदाय का हितेच्छु श्रावक मण्डक श्राफिस है।
मण्डल की प्राफिस पान वीस वर्ष से रतलाम ( मालवा) में है जिसके संचालक श्री साधुमार्गी जैन समाज के अग्रगण्य नेता
श्रीमान् स्वर्गीय सेठ वरदमागाजी साहब एवं अवैतिनक अनुभवी मंत्री । श्री वालचन्दनी श्रीश्रीमाल हैं। इनके अथक परिश्रम से ही मण्डल
श्राफिस समाज सेवा के ऐसे २ उत्तम साधन का संग्रह कर सका है। पूर्व समय में श्रीमजैनाचार्य पूज्यवर्य श्री १००८ श्री उदयसागरनी महाराज व पूज्यवर्य श्री १००८ श्री श्रीलालजी महाराज साहेब बड़े ही प्रतापी एवं अतिशयधारी तथा तत्सामयिक प्रसिद्ध वक्ता थे।
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(२)
उनके प्रवचन भी प्रतिभाशाली एवं प्रभावोत्पादक थे किन्तु समाज में कोई संगठन बल न होने से उनके प्रवचनों का संग्रह नहीं हो सका । इसी तरह अन्य भी सामुहिक रूप से करने के कार्य नहीं कर सकते ये परन्तु मण्डल का संगठन होने और उसका आफिस सेवा भावी कार्यकर्ताओं के हाथ में आने से मण्डल ने पूज्य श्रीजवाहिरलालजी म. सा. के प्रवचनों का संग्रह किया तथा अन्य भी समाज सेवा के कई कार्य किये हैं । इसी से पृथक् पृथक् विषय पर मननीय एवं बोधप्रदः साहित्य का लाभ हमें प्राप्त हो सका है।
मण्डल ने शिक्षा के विषय में भी अच्छी. सेवा बजाई व बजा रहा है। कुछ वर्षों पहले एक विद्यालय एवं एक छात्रालय भी खोला था किन्तु आर्थिक संकोच तथा अनेक कठिनाइयों के कारण हाल में यह चालू नहीं है किन्तु श्री धार्मिक परीक्षा बोर्ड जो मण्डल ने संवत् १९८६ में स्थापित किया वह अभी चाट् है । इस परीक्षाबोर्ड के द्वारा सैकड़ों ही नहीं किन्तु. हजारों छात्रों ने सामानिक संस्थाओं में अभ्यास.करके परीक्षा देकर अपनी योग्यता के प्रमाणपत्रं एवं पारितोषिक प्राप्त किये हैं व कर रहे हैं। इस वर्ष-व्यावर के मण्डल के अधिवेशन ने एक प्रस्ताव करके श्रीमजवाहिराचार्य । स्मारक फण्ड कायम, किया है और उसमें से श्रीमान्-स्वर्गीय प्राचार्य महाराज के प्रवचनों का अच्छे अाकर्षक सुन्दर ढंग से साहित्य रूप में साहित्य सम्पादन कराके जनता के हाथ में.. पहुंचाने का ठहराया है । इस प्रकार मण्डल द्वारा हमारी साधुमार्गी जैन समाज ही नहीं, पूर्ण
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जैन समाज व जैनेतर समाज ने महान् काम हासिल किया है ऐसी संस्था को आर्थिक सहायता देकर सुदृढ़ बनाना व कार्य कर्त्ताओं के उत्साह को बढ़ाना हमारा नैतिक कर्तव्य हो जाता है।
मण्डल को सुदृढ़ कैसे बनाया जा सकता है. ?
(१) श्री माधुमार्गी जैन समाज में पुज्य श्री हुक्मीचन्दजी महाराज की सम्प्रदाय के अनुयायी तथा इस सम्प्रदाय के वर्तमान जैनाचार्य पूज्य श्री गणेशीलालजी मसा व इनकी सम्प्रदाय के प्रति भक्ति पूर्वक प्रेम सहानुभूति रखने वाला अन्य सम्प्रदाय का अनुयायी भी मण्डल का सभ्य बन सकता है। मण्डल के सभ्य बनने की तीन श्रेणियाँ रखी हुई हैं। प्रथम श्रेणी-वंशपरम्परा के सभ्य, द्वितीय श्रेणी-पानीवन सभ्य और तृतीय श्रेणी-वार्षिक सभ्य । जिसका विवरण जो.प्रथम भाग में अंकित है। मण्डल के नियम ४ में देखिये ।
(२) मण्डल की चालू प्रवृत्तियों में सहकार देकर प्रार्थिक सहायता दी जाय तथा अंग सेवा दी जा कर उनको वेग दिया जाय ।
(३) मण्डल से सम्पादित साहित्य का प्रचार किया जाय । उस के प्रकाशन में आर्थिक सहायता देकर जो साहित्य स्टॉक में नहीं है उसका पुनः संस्करण निकला कर प्रचार किया जाय ।
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(४)
. (४) मण्डल के नियमोपनियम से परिचित होकर. उसा के सभ्य बनाना व इसकी प्रवृत्तियों को सहकार दिलाना है
__ यह बात तो निश्चित है कि कामधेनु अमृतमय दूध आदि देकर हमारा पोषण करती है, हमें सुख देती है परन्तु वह भी खुराक मांगती है। यदि हम उसे. उचित खुराक नहीं दें तो वह हमारा पोषण कहां तक करेगी। इसी तरह मण्डल को भी आपके
आर्थिक एवं अंग सेवा रुपी सहकार की आवश्यकता है। यदि श्राप, पूर्ति करते रहेंगे तो उसके मिष्ट फल प्रापको प्राप्त होते रहेंगे। मैंने अपनी पति एवं पुत्रों को भी मण्डल के सम्य बनाये हैं तथा अन्य प्रकार से भी शक्य सहकार देता हूँ | इसी प्रकार आप सब वाचकों से मण्डल के सभ्य बनने तथा बनाने के लिए: मैं आप से अपील करता हूँ।
इत्यलम् । भवदीयः ।
ताराचन्द गेलड़ा, मद्रास
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अावश्यक निवेदन
जिन महापुरुषों ने सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र की पूर्णता प्राप्त करके राग-द्वेष तथा मोह आदि आन्तरिक विकारों को पूर्ण रूप से जीत लिया है, उन महात्माओं के प्रवचन ही . संसार का वास्तविक कल्याण करने में समर्थ होते हैं । परन्तु उन गहन प्रवचनों को समझना सर्वसाधारण के लिए सहज नहीं है। प्रवचनों की सुगम व्याच्या करके, उनमें से विशेष उपयोगी और सारभूत तत्त्वों का पृथक्करण करके उन्ह समझाना विशिष्ट विद्वता के साथ कपायों की मंदता की भी अपेक्षा रखता है । जिन महापुरुषों को यह दोनों गुण प्राप्त हैं, वही वास्तव में प्रवचनों के सच्चे व्याख्याकार हो सकते हैं।
स्थानकवासी (साधुमार्गी ) जैन समाज के सुप्रसिद्ध प्राचार्य, पूज्यवर्य श्री जवाहरलालजी महाराज ऐसे ही एक सफल ज्याख्याकार थे। पूज्यश्री ने सूत्रकृतांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, उपासकदशांग तथाःउत्तराध्ययन आदि.कई सूत्रों पर विस्तृत व्याख्या की है, जिसमें से कुछेक न्याख्यान ही:पिछले तेरह वर्ष में मण्डल की ओर से लिपिवद्ध हो सके हैं।
मण्डल द्वारा लिपिवद्ध कराए हुए व्याख्यानों में से . श्री उपासकदशांग सूत्र की व्याख्या का सम्पादन परिडत
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शान्तिलालजी वनमाली शेट कर रहे थे श्रीमद्भगवती सूत्र की व्याख्या सं० १९८८ के देहली चातुर्मास से प्रारम्भ हुई और सं० १९९२ के रतलाम चातुर्मास तक की गई थी। इन अनेक चातुर्मासों में प्रथम शतक की तथा द्वितीय शतक के कुछ ही उद्देशकों की ही व्याख्या हो पाई है। पूज्य श्री को अगर सम्पूर्ण व्याख्या भगवती सूत्र पर करने का अवकाश मिला होता तो हमारे लिए कितने सद्भाग्य की बात होती । पर ऐसा न हो सका।
श्रीभगवती सूत्र की इस व्याच्या को जनता के लिए उपयोगी एवं मार्गदर्शक समझ कर मैं ने इसे मासिक रूप में प्रकाशित करने की प्राज्ञा मण्डल के मोरवी-अधिवेशन में प्राप्त की थी। किन्तु ग्राहकों की संख्या पर्याप्त न होने तथा अन्य अनेक कठिनाइयों के कारण वह विचार उस समय कार्यान्वित ल हो सका। दो वर्ष पहले श्रीमान् सेठ इन्द्रचन्द्रजी गेलड़ा की तरफ से श्रीमान् सेठ ताराचन्दजी सा० गेलड़ा ने मण्डल से प्रस्तुत व्याख्या को उत्तम शैली से सम्पादित करवा कर प्रकाशित करने की प्रेरणा की और साथ ही आर्थिक सहायता भी दने की तत्परता दिखलाई। श्री गेलड़ाजी की इस पवित्र प्रेरणा से प्रेरित होकर मण्डल ने पं० श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल, न्यायतीर्थ द्वारा, जो उच्च कोटि के लेखक और विद्वान् हैं, यह व्याख्या उत्तम शैली से सुन्दर और, रोचक भाषा में सम्पादन करवाई है। उसे पाठकों के करकमलों में पहुंचाते हुए हमें अत्यन्त प्रसन्नता है । हमारा यह प्रकाशन फिलहाल प्रथम शतक तक ही परिमित रहेगा।
प्रस्तुत सूत्र के प्रथम शतक की व्याख्या ही इतनी
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विस्तृत हो गई है कि काउन १६ पेजी साइज के करीब डेड़ हजार से भी अधिक पृष्ठों में इसकी समाप्ति होगी। यह व्याख्या चार भागों में प्रकाशित करने का विचार किया गया है, किन्तु चार भागों में समाप्त न होगी तो पांच करने पड़ेंगे। इन में से प्रथम भाग तो आप की सेवा में करीब छः माह पूर्व प्रेपित कर चूके हैं । यह द्वितीय भाग भी उपस्थित करते हैं। यह व्याख्यान सार संग्रह-पुस्तक माला का २०वां पुष्प है इस मैचलमाणे चलिए के प्रथम सूत्र (प्रश्न )से प्रारम्भ करके प्रथम शतक के द्वितीय उद्देशक तक समाप्त किया गया है। इस से यह पुस्तक करीब सवा चार सौ पृष्ठ की हुई है जो प्रथम भाग से कद में डेंडी है तथा टाइटल का कागज भी वैसा ही जाड़ा है इससे इसकी कीमत रु०१) के बदले रु०१॥) रखनी पड़ी है। जो पुस्तक को देखते हुए यह कीमत ज्यादा नहीं है।
श्रीभगवतीसूत्र में प्रथम शतक का वर्णन विशेषतः सूक्ष्म एवं गहन है । उसे समझने और समझाने में विद्वानों को भी कठिनाई होती है। ऐसे गहन भावों को सरलतर कर के पूज्य श्री ने जनसमाज का अकथनीय उपकार किया है। आचार्य श्री की तत्त्व को स्फुट करती हुई किन्तु गम्भीर, सरस और रोचक व्याख्या से साधारण बुद्धि वाला भी लाभ उठा सकता है । इससे तथा श्रीमान् सेठ इन्द्रचन्द्रजी गेलड़ा की उदारता.एवं सेठ ताराचन्दजी सा. की प्रेरणा से प्रेरित होकर यह विशाल आयोजन करने का साहस किया है।
जिस समय इस कार्य को प्रारम्भ करने का विचार किया गया, उस समय महायुद्ध की ज्वाला प्रचण्ड हो रही थी। कागज आदि प्रकाशन के सभी साधनों में वेहद मॅहगाई थी। यहां तक कि कागज का मिलना भी कठिन
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१)
था । इन कारणों से प्रस्तुत ग्रन्थ पर खर्च अधिक हुआ है। किन्तु उक्त से लाहवं ने सम्पादन व्यय के अतिरिक्त प्रकाशन में भी आर्थिक सहायता दे कर इसे प्राधे मूल्य में वितरण करवाने की उदारता प्रदर्शित की है। निस्सन्देह श्री गेलड़ाजी की सहायता से ही हम इस आयोजन में इतनी सरलता से सफल हो सके है। अंतएव हम गेलड़ा बंधुओं को अन्तःकरण से धन्यवाद देते हैं।
हमारी यह भी हार्दिक इच्छा थी कि ऐसे उदारचित्त सजन का परिचय देने के लिए उनका फोटो पुस्तक में दिया . जाय । परन्तु प्रयत करने पर भी सेठ साहब ने अपना फोटो या ब्लाक भेजने से इन्कार कर दिया है। निष्काम सेवा इसी का नाम है स्वल्प देकर अपना विज्ञापन कराने वालों के लिए सेठ लाहब की भावना वोध पाठ देती है।
अन्त में यह प्रकट कर देना भी आवश्यक है कि पूज्य श्री के व्याख्यान तो साधुओं की मर्यादायुक्त भाषा में ही होते थे। प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादन और प्रकाशन में-कहीं किसी प्रकार का विपर्याल हुआ हो,.प्रतिपादन में कोई न्यूनता या अधिकता हुई हो तो उसके लिए सम्पादक और प्रकाशक ही उत्तरदाता.हो लकते हैं। सौजन्यपूर्वक जो सजन किसी त्रुटि की ओर ध्यान आकर्पित करेंगे, हम उनके आभारी होंगे और अगलें संस्करण में यथोचित्त संशोधन करने का ध्यान रखेंगे । इतिशम । बालचन्द श्रीश्रीमाल सेक्रेटरी. हीरालाल नांदेचा प्रकाशक
प्रेसिडेन्टेः
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. . भी आपही के समान उदार दानी पद हनु · निकले। आपने भी अल्प काल ही में सपा का
दः दिया . आपने पूज्य पिताश्री के ५५००० रू. श्री श्वे०. स्था० जज एज्युझसनल सोसाइटा को देकर मद्रास में एक हाई स्कूल जाना का तथा इस अतिम्सि सकल प्रचं वो , हाई स्कूल एवं बोर्डिङ्ग हाउस के भवन-निर्माण में भी
सायों का दान दिया। आपही सी हर का फल है कि कुचरा ( मारवाड़ ) में एक्षिर अपधालय चल रहा है, जहाँ रोगियों की निःशुल्क चिकित्सा की जाती है : आपने अपने पिता श्री की स्मृति में एक बहुत बड़ा फण्ड निकला है जिसमें से हमें भी इस ग्रन्थ के
मादन तथा प्रकाशनार्थ रूपे दो हजार की सहायता प्राप्त हुई तथा आवश्यकता पड़ने पर अधिक . महायता प्राप्त होने की आशा है हम इसके लिये मेठ साहब को कोटिशः धन्यवाद देते हैं आर आशा करत हे कि भविष्य में भी आपके द्वारा समाज के कई अवश्यक अङ्गों की कमी की पूर्ति होगी। ईश्वः आपको उत्तरोत्तर समुन्नत यशस्वी एवं ऐश्वय सम्पन्न बनाये हमारी यही शुभ कामना है ।
प्रकाश
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द्वितीय भागः प्रथम शतकः-प्रथम उद्देशक
प्रश्नोत्तर
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मूल-से णूणं भंते ! चलमाणे चलिए ? उदीरिज्जमाणे उदीरिए ? वेइज्जमाणे वेइए? पहिज्जमाणे पहीणे ? छिज्जमाणे छिन्ने ? भिज्जमाणे भिन्ने ? डज्झमाणे डड्ढे ? मिज्जमाणे मडे.? निजरिज्जमाणे निजिगणे ? (३) '. संस्कृत छाया-तद्नूनं भगवन् ! चलत् चलितम् ! उदीर्यमाणं उदीरितम् ? वेद्यमानं 'वेदितम् ?. प्रहीयमाणं प्रहीणम् ? छिद्यमानं छिन्नम् १ भिद्यमानं भिन्नम् ? दह्यमानं दग्धम् । नियमाणं मृतम् ? निर्भीर्यमाणं निर्जीर्णम् ? (३)
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श्रीभगवती सूत्र
[२६४] मूलार्थ हे भगवन् ! जो चल रहा हो वह चला, जो उदीरा जा रहा हो वह उदीरा गया, जो वेदा जा रहा हो वह वेदा गया, जो नष्ट हो रहा हो वह नष्ट हुआ, जो छिद्र रहा है वह छिदा, जो भिद रहा है वह भिदा, जो जल रहा है वह जला, जो मर रहा है वह मंरा, जो खिर रहा है वह खिरा? इस प्रकार कहा जा सकता है ? (३)
व्याख्या-गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से उक्त नौ प्रश्न किये। यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि गौतम स्वामी ने इन प्रश्नों में पहले 'चलमाणे चलिए'? प्रश्न ही क्यों किया ? दूसरा प्रश्न पहले क्यों नहीं किया इस प्रश्न का समाधान यह है।
पुरुपार्थ चार हैं। उनमें मोक्ष पुरुषार्थ मुख्य हैं। जितने भी पुरुषार्थ हैं, वह सव मोक्ष के लिए ही होने चाहिए । और कोई काम ऐसे पुरुषार्थ का नहीं हैं, जैसे पुरुपार्थ का काम मोक्ष प्राप्त करने का है । अतएव सब प्राणियों को उचित है कि वे दूसरे काम छोड़ कर मोक्ष प्राप्ति के काम में लगें। __ इस प्रकार मोक्ष प्राप्त करना सब कामों में श्रेष्ठ है। मोक्ष-प्राप्ति एक कार्य है तो उसका कारण भी अवश्य होना चाहिए, क्योंकि विना कारण के कार्य नहीं हो सकता। विना कारण के कार्य का होना मान लेने से बड़ी गड़बड़ी मच. जायगी । अतएव प्राकृतिक नियम के अनुसार यही मानमा उचित है कि कारण के होने पर ही कार्य होता है। इस नियम से जव मोक्ष साध्य है तो उसका साधन भी अवश्य । होना चाहिए। .
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[२५]
चलमाणे चलिए . मान लीजिए कोई महिला रोटी बनाना चाहती है। रोटी बनाना साध्य है तो उसके लिए साधनों का होना अनि- . वार्य आवश्यक है । चकला, वेलन, आटा, अग्नि आदि रोटी बनने के साधनों को सामग्री कहते हैं । यह साधन सामग्री होगी तभी रोटी वनेगी। इसी प्रकार प्रत्येक कार्य में साधन की आवश्यकता है । जैसा मनुष्य का साध्य होगा, वैसा ही उसे पुरुषार्थ भी करना पड़ता है । उसके अनुकूल ही साधन करने पड़ते हैं।
मोक्ष रूप साध्य के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्-चारित्र रूप साधनों की आवश्यकता है। जैसे श्राटा, अग्नि, आदि सामग्री के विना रोटी नहीं बन सकती, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन आदि सामग्री के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। इससे यह सावित होता है कि मोक्ष रूप साध्य के साधन सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञान और. सम्यक्चारित्र हैं।
साध्य के अनुकूल साधन और साधन के अनुसार साध्य होता है। अन्य जाति का कारण अन्यजातीय कार्य को उत्पन्न नहीं कर सकता। अगर किसी को खीर वनानी है तो उसे दूध, शकर और चावल का उपयोग करना होगा। इसके वदले अगर कोई नमक-मिर्च इकट्ठा करने बैठ जाय तो खीर नहीं बनेगी । तात्पर्य यह है कि साध्य के अनुकूल ही साधन जुटाने चाहिए।
साध्य के अनुसार साधन जुटाने के लिए ज्ञान की आवश्यकता है। खीर बनाने वाले को जानना चाहिए कि खीर के लिए दूध, शक्कर आदि की आवश्यकता है और.
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श्रीभगवती सूत्र .
[२६६] शाक बनाने वाले को जानना चाहिए कि उसके लिए नमकमिर्च का उपयोग किया जाता है। ऐसा शान न होने से न खीर ही ठीक बन सकती है और न तरकारी ही। तात्पर्य यह है कि कार्य करने के लिए कर्ता को कारणों का यथावत् शान होना चाहिए । यथावत् शान के अभाव में कार्य यथावत् नहीं हो सकता।
___ यहाँ मोक्ष साध्य है और सम्यग्ज्ञान आदि उसके साधन हैं । साध्य और साधन के व्यभिचार को हटाकर, जो उनका जोड़ मिलाने की शिक्षा दे, वह शास्त्र कहलाता है । अच्छे पुरुष इस बात की शिक्षा चाहते हैं कि साध्य (मोक्ष)
और साधन (सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्-चारित्र) समान मिल जावें। इनमें व्यभिचार न.हो। इसलिए अच्छे पुरुष शास्त्रश्रवण की इच्छा रखते हैं ।
भगवती-सूत्र शास्त्र है। इस शास्त्र में कार्य-कारण का व्यभिचार न होने देने की शिक्षा दी गई है। साध्य और साधन में व्यभिचार न आने देने के लिए साध्य और साधन दोनों पर विचार करने की आवश्यकता है। अगर साध्य को भूलकर दूसरे ही कार्य के लिए साधन जुटाते रहे अथवा साधन को भूलकर साध्य दूसरे को ही मानते रहे तो कैसे कार्य होगा ? साध्य है खीर और वना डाली तरकारी । यहाँ साध्य का ज्ञान न होने से दूसरे ही कार्य के साधन जुटाये और उन साधनों से खीर की जगह तरकारी वन गई। भले ही तरकारी अच्छी वनी, मगर साध्य वह नहीं थी। साध्य तो खीर थी, जो बनी नहीं। इसी प्रकार साध्य बनाया जाय मोक्ष और साधन जुटाए जाएँ संसार के, तो मोक्ष कैसे
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[२७]
चलमाणे चलिए मिलेगा? कारण कार्य में व्याभिचार नहीं होना चाहिए । दोनों एक हो जावें। इस बात की शिक्षा देने वाला शास्त्र कहलाता है।
यहाँ कहा गया है कि ज्ञान, दर्शन और चारित्र साधन हैं और मोक्ष साध्य है। इन साधनों के द्वारा मोक्ष को साधा जाय तो कोई गड़बड़ न होगी।
हमारे आत्मा की शक्तियाँ बन्धन में हैं। उन शकियों पर आवरण पड़ा है। उस आवरण को हटाकर आत्मा की शक्तियों को प्रकट कर लेना ही मोक्ष है। आत्मा में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र की शक्ति स्वभावतः विद्यमान है, लेकिन वह दव रही है । रत्नत्रय की इस शक्ति में आत्मा की अन्य सव शक्तियों का समावेश हो जाता है ज्यों-ज्यों इस शक्ति का विकास होता है, मोक्ष समीप से समीपतर होता चला जाता है।
तात्पर्य यह है कि जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना करेगा वह मोक्ष की आराधना करेगा और जो मोक्ष की धाराधना करेगा वह इन साधनों को अपनावेगा। जैसे खीर को दूध, चावल और शक्कर कहो या दूध, चावल, शक्कर को खीर कहो; एक ही बात है। इसी प्रकार सम्यक्शानदर्शन-चारित्र की आराधना कहो या मोक्ष की आराधना कहो, दोनों एक ही बात है। .
. सम्यक् शान-दर्शन-चोरित्र मोक्ष के ही साधन हैं । यह साधन मोक्ष को ही सिद्ध करेंगे, और किसी कार्य को सिद्ध नहीं करेंगे । मोक्ष को साधने वाला इन तीनों कारणों को साधेगा और इन्हीं कारणों से मोक्ष सधेगा।
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[ २८ ]
श्रीभगवती सूत्र
मोक्ष को वही जान सकता है जो इन शक्तियों के बन्धन को जानेगा । जो वन्धन को न जानेगा वह मोक्ष को क्या समझेगा ! जो कैद या परतंत्रता को जानेगा वही स्वतंत्रता चाहेगा | आज जो भारतीय परतंत्रता को जानते हैं वही स्वतंत्रता को चाहते हैं । जिन्हें परतंत्रता का ही ज्ञान नहीं है, वे स्वतंत्रता को नहीं समझ सकते । इसी प्रकार जोबन्धन को समझेगा, वहीं मोक्ष को भी समझेगा ।
वस्तु दो प्रकार से जानी जाती है - स्त्रपक्ष से और विपक्ष से । वस्तु के स्वरूप का ज्ञान होना स्वपक्ष से जानना है और उसके प्रतिपक्षी-विरोधी वस्तु को जानकर और फिर उससे व्यावृत्त करके मूल वस्तु को जानना विपक्ष से जानना है । इसे विधिमुख से और निषेधमुख से जानना भी कहा जा सकता है । प्रकाश को जानने के लिए अन्धकार को जान लेना भी आवश्यक होता है । इसी प्रकार धर्म को जानने के लिए अधर्म को और धर्म को जानने के लिए धर्म को जान लेना श्रावश्यक है | मोक्ष का प्रतिपक्ष बन्धन है । बन्धन है, इसी से मोक्ष भी है । बन्धन न होता तो मोक्ष भी न होता । मोक्ष को जानने के लिए बन्धन को जानना पड़ता है ।
श्रात्मा के साथ कर्मों का एकमेक हो जाना बन्ध है । जैसे दूध और पानी आपस में मिलकर एकमेक हो जाते हैं, उसी प्रकार कर्मप्रदेशों का आत्मप्रदेशों के साथ एकमेक हो जाना बन्धन है । और इस कर्मबन्ध का नाश हो जाना मोक्ष है । मोक्ष के लिए कर्मबन्धन काटना अनिवार्य है
मूल बात यह है कि गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर से जो ना प्रश्न किये हैं, उनमें पहले 'चलमा चलिए ?' प्रश्न
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[२६६]
चलमाणे चलिए ही क्यों किया? इस प्रश्न को हल करने से पूर्व हमें यह देखना चाहिए कि कर्म बंध का नाश क्रमशः होता है या एक साथं?
प्रत्येक कार्य में क्रम देखा जाता है। एक सड़े-गले कपड़े को फाड़ने में भी पहले और पीछे के तार टूटने का क्रम है। कपड़े के तमाम तार एक साथ नहीं टूटते। इस प्रकार संसार में किसी भी कार्य को लीजिए, उसके सम्पन्न होने में क्रम अवश्य दिखलाई पड़ेगा। जो सूक्ष्म दृष्टि से कार्य के क्रम को समझ लेगा वह गड़बड़ में नहीं पड़ेगा । जो मनुष्य बारीक नज़र से किसी कार्य के क्रम को नहीं समझेगा उसका गड़बड़ में पड़ जाना स्वाभाविक है।
, जैसे अन्यान्य कार्यक्रम से होते हैं उसी प्रकार कर्मबंध का नाश भी क्रम से होता है। इसमें संदेह के लिए अवकाश नहीं होना चाहिए । अव देखना सिर्फ यही है कि कर्मबंध का नाश किस क्रम से होता है ?
गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से 'चलमाणे चलिए' से लगाकर 'निलरिजमाणे निजरिए' तक जो नौ प्रश्न किये हैं, उनमें कर्मबंध के नाश का क्रम सन्निविष्ट है। यह क्रम 'चलमाणे चलिए' से प्रारंभ होता है और 'निजरिज्जमाणे निज्जरिए' तक रहता है । इस अंतिम क्रम के पश्चात् कर्मवंध नहीं रहता। कर्मबंध के नष्ट होने में पहला क्रम 'चलमाणे चलिए ही है, इसी कारण यह प्रश्न सब से पहले उपस्थित किया गया है।
अव यह देखना चाहिए कि कर्मबंध के नाश का यह क्रम दिखाकर कौन-सी बात समझाई गई है, और इन पदों
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श्रीभगवती सूत्र
[३०]
उत्पन्न करने में जो काल लगता है, उसके तीन स्थूल विभाग किये जा सकते हैं-प्रथम प्रारंभकाल, दूसरा मध्यकाल और तीसरा अंतिमकाल ! अगर कपड़े के प्रारंभकाल, में उस उत्पन्न हुश्रा न माना जायगा तो मध्यकाल और अंतिमकाल में उत्पन्न हुया क्यों माना जायगा? तीनों काल समान है
और तीनों कालों में वस्त्र उत्पन्न होता है-किसी एक काल में नहीं । जैसे प्रारंभकाल में कपड़ा वना, उसी प्रकार मध्य. काल में भी और उसी प्रकार अतिमकाल में भी। फिर फ्या कारण है जिससे प्रारंभ और मध्य के काल में कपड़े को उत्पन्न हुश्रा न मानकर अतिम काल में ही उत्पन्न हुआ माना जाय?
प्रारम्भकाल में, एक तार डालने पर कपड़े का एक अंश उत्पन्न हुआ है या नहीं ? अगर यह कहा जाय कि एक अंश भी उत्पन्न नहीं हुआ, तो इस का अर्थ यह हुआ कि इस प्रकार सारा समय समाप्त हो गया और वस्त्र उत्पन्न नहीं हुआ। क्योंकि जैसे प्रारम्भ काल में उत्पन्न कपड़े के अंश को अनुत्पन्न माना जाता है, उसी प्रकार मध्यकाल में भी अनुत्पन्न मानना होगा और अन्तिम काल में भी एक अंश ही उत्पन्न होता है, इसलिए उस समय में भी वन का उत्पन्न होना नहीं माना जा सकेगा । ऐसी स्थिति में वस्त्रोत्पादन की सम्पूर्ण क्रिया और सम्पूर्ण समय व्यर्थ हो जायगा। इस दोष से बचने के लिए यह मानना ही उचित है कि
आरम्भ-काल में भी अंशतः वस्त्र की उत्पत्ति हुई है। .. तात्पर्य यह है कि जैसे एक तार पड़ जाने से ही वस्त्र का उत्पन्न होना मानना युक्ति संगत है, उसी प्रकार कर्मों
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[३०५]
चलमाणे चलिए की उदय-श्रावलिका असंख्यात समय वाली होने से, पहले समय में जो कर्म उदय-श्रावलिका में आने के लिए चले हैं, उन कर्मा की अपेक्षा उन्हें 'चला' कहा जाता है। अगर ऐसा न माना जायगा तो जो कर्म उदय-श्रावलिका में श्राने के लिये चले हैं, उन कर्मों की चलन-क्रिया वृथा हो जायगी। और यदि प्रथम समय में कर्मों का चलना नहीं माना जायगा तो फिर दूसरे, तीसरे आदि समयों में भी उनका चलना नहीं माना जा सकेगा। क्योंकि पहले समय में और पिछले समय में कोई अन्तर नहीं हैं। जैसे पहले समय में कुछ ही कर्म चलते हैं, सव नहीं, उसी प्रकार अन्तिम समय में भी कुछ ही कर्म चलते हैं-सब नहीं। (क्योंकि बहुत से कर्म पहले ही चल चुके हैं और जो थोड़े-से शेष रहे थे, वही अंतिम समय में चलते हैं) इस प्रकार सब समय समान है। किसी में कोई विशेषतानहीं है। अतःप्रथम समय में अगर कर्म चले ऐसा न माना जाय तो फिर किसी भी समय में उनका चलना न माना जा सकेगा। इसलिए जिस प्रकार अंतिम क्रिया से 'कर्म चले' मानते हो, उसी प्रकार प्रथम क्रिया से भी 'कर्म चलें ऐसा मानना चाहिए ।
यहाँ यह तर्क किया जा सकता है कि अगर एक तार डालने से वस्त्र उत्पन्न हो जाता है तो फिर दूसरे तार डालने की क्या आवश्यकता है ? इसका उत्तर यह है कि अगर अन्तिम तार डालने से ही वस्त्र उत्पन्न हुश्रा, ऐसा माना जाय तो (अंतिम तार को छोड़कर) पहले के तमाम तार सालने की क्या आवश्यकता है ? उन तारों का डालना निष्फल क्यों न जाय' असल बात यह है कि एक तार डालना एक समय की क्रिया हुई और दूसरा तार डालना दूसरे समय की
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श्रीभगवती सूत्र
[ ३०६ ]
क्रिया हुई । पहले समय में पहला तार डाला है और उससे अंशतः वस्त्र उत्पन्न हुआ है, मगर दूसरे समय में दूसरा तार डालना शेष है । लेकिन जो तार डाला है, उसकी क्रिया और समय निरर्थक तो नहीं गया ? उस समय में उस क्रिया से वस्त्र उत्पन्न तो हुआ ही है ।
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कर्म की स्थिति परिमित है | चाहे वह अन्तर्मुहूर्त्त की हो या सत्तर कोढ़ाकोढ़ी सागरोपम की हो, लेकिन है परिमित ही । परिमित स्थिति वाले कर्म अगर उदय में नहीं श्रावेंगे तो उनका परिमितपन मिट जायगा और सारी व्यवस्था भंग हो जायेगी । कर्मस्थिति की मर्यादा है और उस मर्यादा के अनुसार कर्म उदय श्रावलिका में आते ही हैं। उदय-आलिका में आने के लिए सभी कर्म एक साथ नहीं चलते हैं । प्रत्येक समय में उनका कुछ अंश ही चलता हैं। प्रथम समय में जो कर्मांश चला है, उसकी अपेक्षा कर्म को 'चला' न माना जायगा तो प्रथम समय की क्रिया और वह समय व्यर्थ होगा । श्रतएव चलमान कर्म को चलित मानना ही उचित है । इसके सिवाय जो कर्मदल प्रारम्भ में उदय श्रावलिका के लिए चला है, वह अन्त में फिर चलता नही है । श्रतएव इस समय यह कर्मांश चला है और इस समय यह कर्माश चला है ऐसा मानने से ही कर्मों के चलने का क्रम रह सकता है | एक कर्मदल, दूसरे कर्मदल से स्वतंत्र होकर चलता है | अतएव प्रथम समय में जो कर्मदल चला है, उसके आधार पर ' चला' मानना युक्तिसंगत है ।
यह पहला प्रश्न और उसके सम्बन्ध का समाधान हुआ। दूसरा प्रश्न यह है कि
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[ ३०७ ]
चलमाणे चलिए
'उदीरिज्जमाणे उदीरिए !
अर्थात्-जो उदीरा जा रहा है वह उदीर्ण हुआ ?
कर्म दो प्रकार से उदय में आते हैं। कोई कर्म अपनी स्थिति परिपक्व होने पर उदय में आता है और कोई कर्म उदीरणा से । किसी विशेष काल में उदय होने योग्य कर्म को, जीव अपने अध्यवसाय - विशेष से, स्थिति का परिपाक होने से पूर्व ही, उदयावलिका में खींच लाता है । इस प्रकार नियत समय से पहले ही प्रयत्न विशेष से किसी कर्म का उदय श्रावलिका में आ जाना 'उदीरणा' है। कर्म की उदीरणा में भी असंख्यात समय लगते हैं । परन्तु पहले समय में उदीरणा होने लगी तो 'उदीर्ण हुआ' कहना चाहिए। ऐसा न कहा जाय तो वही सब गड़बड़ी होगी, जिसका उल्लेख 'चलमा चलिए' के सम्वन्ध में किया जा चुका है।
कई लोग कहते हैं कि कर्म जिस रूप में बँधे है, उसी रूप में भोगने पड़ते हैं । दूसरी तरह से उनका नाश नहीं हो सकता। लेकिन, ऐसा मान लेने पर तप आदि क्रियाएँ व्यर्थ हो जाएँगी । जब तप करने पर भी कर्म उदय में श्रावेगा और तप न करने पर भी उदय में आवेगा, तो फिर तप करने से क्या लाभ है ? श्रतएव यह कथन समीचीन नहीं है कि कर्म का नाश दूसरे प्रकार से नहीं हो सकता । स्थिति परिपक्व होने पर कर्म का उदय होना और हाय-हाय करके उन्हें भोगना यह तो अनादिकाल से चला आ रहा है । लेकिन कर्मों की उदीरणा करके उन्हें उदय - श्रावलिका में ले आने से फिर कर्म नहीं बँधते ।
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श्रीभगवती सूत्र
[ ३०८]
कुछ लोगों को यह भ्रम है कि आत्मा और कर्म का संबंध अनादि काल का है । अनादिकालीन होने से वह अनंत काल तक रहना चाहिए । इस प्रकार कमों का नाश हो ही नहीं सकता । यह छिछोरों की बात है। झानी जनों ने इस विषय में सत्य वस्तु-तत्त्व प्रकट किया है । ज्ञानियों का कथन है कि कर्म और आत्मा का संबंध प्रवाह की अपेक्षा श्रनादि होने पर भी व्यक्ति की अपेक्षा सादि है । अर्थात् प्रत्येक कर्म किसी न किसी समय श्रात्मा में बँधता है, श्रतएव सभी कर्म सादि हैं, फिर भी कर्म - सामान्य की परम्परा सदैव चालू है, इस दृष्टि से वह अनादि हैं ।
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प्रवाह या परम्परां किसे कहते हैं । मान लीजिए, श्राप यमुना के किनारे खड़े होकर उसकी धारा देख रहे हैं । धारा देखकर आप साधारणतया यह समझते हैं कि वह एक सी है - इसमें वही पहलेवाला पानी है. लेकिन वाल ऐसी नहीं है । धारा का जल प्रतिक्षण आगे-आगे बढ़ता जाता है । एक मिनिट पहले जो जल आपने देखा था, वह चला गया है और उसकी जगह दूसरा नया जल आ पहुँचा है । इस प्रकार पहले वाले जल का स्थान दूसरा जल ग्रहण करता चलता है । इसी कारण धारा टूटती नजर नहीं आती और ऐसा जान पड़ता है मानों वही जल मौजूद है । लेकिन जैसे पानी ऊपर से और न आता हो तो धारा खंडित हो जायगी उसी प्रकार नये कर्म न झावे तो कर्मों की परम्परा भी विच्छिन्न हो जायगी, तात्पर्य यह है कि प्रतिक्षण अपूर्व - अपूर्व कर्म श्राते रहते हैं, और इस प्रकार का कर्म प्रवाह अनादिकाल से चल रहा है ।
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[३०६] -
चलमाणे चलिए हाँ, तो कर्म, स्थिति पूर्ण होने पर भी उदय-श्रावलिका में आते हैं और उदीरणा से भी आते हैं। मान लीजिए आपको किसी का ऋण चुकाना है। आप दो तरह से ऋण चुका सकते हैं । एक तो आप नियत समय आने पर ही कर्ज़ अदा करें, दूसरे नियत समय से पहले ही अदा कर दें। नियत समय पर कर्ज चुकाने में कोई विशेषता नहीं हुई मगर समय से पहले ही चुकाने में गौरव है और आनन्द है । इसी प्रकार कर्म, एक तो उदय की स्थिति पर भोगे जाते हैं और दूसरे स्थिति के पूर्व ही उदीरणा करके क्षय किये जाते हैं।
शास्त्रकारों का कथन है कि-समय पर कर्म भोगोगे; इसमें क्या विशेषता होगी? समय से पहल ही, उदय-श्रावलिका में लाकर उनका क्षय क्यों नहीं कर देते ? कर्मों के नाश होने के इन दोनों तरीकों में पर्याप्त अन्तर है। जो कर्म करोड़ों भव करने पर भी नहीं छूटते,वे कर्म धर्माग्नि, ध्यानाग्नि और तप की अग्नि में एक क्षण भर में भस्म किये जा सकते हैं। उदाहरण के लिए प्रदेशी राजा को देखिए । उसने ऐसे घोर कर्म वाँधे थे कि एक एक नरक में अनेक अनेक वार जाने पर भी सव कर्म पूरे न भोगे जावे । उसने निर्दयता से प्राणियों की हिंसा की थी। वह. अपने मत की परीक्षा के लिए चोरों को कोठी में बंद कर देता था और कोठी को चारों
और से ऐसी मूंद देताथा कि कहीं हवा का प्रवेश न हो सके। वह मानता था कि जीव और काय एक है, अलग नहीं। इसी चात को देखने के लिए वह ऐसा करता था । अगर जीव और :शरीर अलग-अलग होंगे तो चोर के मरने पर भी जीव दिखाई देगा। कोठी एकदम बंद है तो जीव निकलकर जायगा कहाँ ? कई दिनों बाद वह चोर को कोठी से बाहर निकालता । चोर
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श्रीभगवती सूत्र
[ ३१० ]
भरा हुआ मिलता । राजा प्रदेशी कहता- देखो, काय के श्रतिरिक्त श्रात्मा अलग नहीं है । यहां अकेला शरीर ही दिखाई दे रहा है ।
कभी-कभी प्रदेशी राजा किसी चोर को चीर डालता और उसके टुकड़े टुकड़े करके श्रात्मा को देखता था । जब आत्मा दिखाई न देता तो अपने मत का समर्थन हुआ समझता और कहता कि शरीर से अलग श्रात्मा नहीं है । तात्पर्य यह कि प्रदेशी राजा घोर हिंसक था और महान् पाप
करता था ।
जो आत्मा अज्ञान अवस्था में घोर पाप करता है, ज्ञान होने पर वही किस प्रकार ऊँचा उठ जाता है, इसके लिए प्रदेशी का उदाहरण मौजूद है ।
घन धन केशी सामजी, सारया प्रदेशी ना काम जी ।
केशी श्रमण ने प्रदेशी राजा को समझाया, तब वह जीव और शरीर को अलग-अलग मानने लगा । पहले वही प्रदेशी लोगों की आजीविका छीन लेता था और साधु सन्तों के प्राण लेने में संकोच नहीं करता था । चित नामक प्रधान ने केशी स्वामी से प्रार्थना की कि - 'महात्मन् ! श्राप सिताम्विका नगरी में पदार्पण कीजिये । वहां अतीव उपकार होने की संभावना है। वहां के लोग बड़े धर्मात्मा हैं । वे बहुत प्रेम से आपका उपदेश सुनेंगे। तब केशी श्रमण ने उत्तर दिया- हे चित्त ! एक सुन्दर बगीचा है । उसमें तरह-तरह के फल लगे हैं । अत्यन्त आनन्द दायक वह वगीचा है । बताओ, ऐसे उद्यान में पक्षी आना चाहेगा कि नहीं ?
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[३११]
चलमाणे चलिए
चित --'क्यों नहीं महाराज! अवश्य पाना चाहेगा।
केशी श्र०-'लेकिन उस उद्यान में एक पारधी, धनुष चढ़ाकर पक्षियों को मार डालने के लिए उद्यत खड़ा है। ऐसी दशा में वहां कोई पक्षी जायगा' ?
चित-अपने प्राण गंवाने कौन जायगा ?
के.श्र.-इसी प्रकार सिताम्बिका नगरी उद्यान की भाँति सुन्दर है, किन्तु वहाँ का राजा प्रदेशी हम साधुओं के लिए पारधी के समान है । वह साधुओं के प्राण लिए विना नहीं मानता। वह अपने अज्ञान से साधुओं को अनर्थ-की जड़ समझता है । ऐसी दशा में, तुम्ही बताशो, हमारा वहाँ जाना उचित होगा?
चित-भगवन् , अापको राजा से क्या प्रयोजन ? उपदेश तो वहाँ की जनता सुनेगी।
चित की बात सुनकर फेशी श्रमण ने सोचा-अाखिर चित यहाँ का प्रधान है । इसका आग्रह है तो जाने में क्या हानि है ? सम्भव है राजा भी सुधर जाय । परीपह और उपसर्ग मारेंगे तो हमारा लाभ ही होगा-कर्मों की विशेष निर्जरा होगी।
इस प्रकार विचार कर केशी श्रमण ने सितम्बिका जाने की स्वीकृति दे दी और वहाँ पधारं भी गये । चित प्रधान घोड़े फिराने के बहाने प्रदेशी राजा को उनके पास ले श्राया। फेशी श्रमण ने राजा को उपदेश दिया। उपदेश से प्रभावित हो राजा ने थावक के घारह व्रत धारण किये।
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श्रीभगवती सूत्र
[३१२] जव राजा जाने लगा तो केशी स्वामी ने उसने कहा'राजन' अव तुम रमणिक हुए हो; मगर हमारे चले जाने पर फिर परमणिक न बन जाना।
राजा ने उत्तर दिया-नहीं महाराज! मेरे नेत्र आपने खोल दिये हैं। अब देखते हुए गड्ढे में नहीं निरूँगा। बल्कि अपने राज्य के सात हजार ग्रामों के चार भाग आपके सामने ही किये देता हूँ। एक हिस्सा राज्य-भण्डार के लिए, दूसरा अन्तःपुर के लिए, तीसरा राज्य की रक्षा के लिए और चौथे हिस्से से श्रमणों-माहणों के लिए एवं भिखारियों के लिए देता हुआ तथा अपने व्रतों का पालन करता हुश्रा विचसँगा।
मित्रो! राजा प्रदेशी एक दित दूसरों के हाथ का ग्रास छीन लेता था, अव छीनता नहीं वरन् देता है। क्या उसके यह दोनों कार्य बराबर हैं ? अगर कोई जैनदर्शन के नाम पर इन दोनों कार्यों को समान वतलाकर एकान्त पाप कहता है तो उस क्या कहना चाहिए?
तात्पर्य यह है कि राजा प्रदेशी ने घोर पाप करके कर्मों का बंध किया था। कथा में उल्लेख है कि उसने वेलेबेले पारणा किया और शास्त्र में कहा है कि उसने समभाव धारण किया । इस प्रकार प्रदेशी ने अपने इन कर्मों का नाश कर दिया।
राजा प्रदेशी ने ही सूरीकन्ता नार । इष्टकान्त वल्लभ धणी सरे, शास्तर में अधिकार । निज स्वारथ वश पापिणी सरे, मार्यो निज भार ।
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[ ३१३]
चलमाणे चलिए
राजा प्रदेशी की सूरीकान्ता नाम की रानी थी । राजा को वह बहुत प्यारी थी । राजा ने जब केशी भ्रमण के बारह व्रत धारण कर लिए और वह धर्मात्मा वन गया, तब सूरीकान्ता ने सोचा- 'राजा, धर्म के ढोंग में पड़ा रहता है । विषय-भोग का आनन्द विगड़ गया है । इसे मरवा कर और कुँवर को राजसिंहासन पर बिठलाकर राजमाता होने का नवीन सुख क्यों न भोगा जाय ?
इस प्रकार दुष्ट संकल्प करके रानी ने अपने पुत्र सूरी • कान्त को बुलवाया। रानी ने उससे कहा--बेटा, तुम्हारा पिता ढोंगियों के चक्कर में पढ़कर राज्य को मटियामेट किये देता है। थोड़े दिनों में ही सफाया हो जायगा, तब तुम क्या करोगे ? श्रतएव अपने भविष्य को देखो और अपना भला चाहते हो तो राजा को इस संसार से उठादा । मैं तुम्हें राजा बनाऊँगी |
राजकुमार को अपनी माता के वचन ज़हर से लगे । उसने पिता को मारने से इन्कार कर दिया । मन ही मन सोचा तुम मेरे देव- गुरु के समान पिता को मार डालने को कहती हो ! तुम माता हो, तुमसे क्या कहूँ ? कोई दूसरा होता तो इस बात का ऐसा मज़ा चखाता कि वह भी याद रखता ।
राजकुमार के चले जाने पर रानी ने सोचा- यह बहुत बुरा हुआ। मुँह से बात भी निकल गई और काम भी सिद्ध न हुआ। कहीं राजकुमार ने यह बात प्रकट करदी तो घोर अनर्थ होगा। मैं कहीं की नहीं रहूँगी । श्रतएव बात फूटने से पहले ही राजा को मार डालना श्रेयस्कार है । '
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श्रीभगवती सूत्र
[३१४]
ऐसा भीपण संकल्प करके रानी पौषधशाला में, जहाँ राजा मौजूद था, आई, उसने राजा के प्रति प्रेम प्रदर्शित करते हुए कहा-आप तो बस, यहीं के हो गये हैं ? किस अपराध के कारण मुझे भुला दिया है ? आपके लिए तो और रानियाँ भी हो सकती हैं, मगर मेरे लिए आपके सिवाय और कौन है ? अतएव आज कृपा करके मेरे ही महल में पधारिये और वहीं भोजन कीजिए।
राजा ने सोचा-स्त्री-सुलभ पति भक्ति से प्रेरित हो. कर रानी उलाहना और निमंत्रण दे रही है। उसने रानी के महल में भोजन करना स्वीकार किया। रानी अपने महल में लौट आई । इसने राजा के लिए विपमिश्रित भोजन बनाया। जल में भी विप मिलाया और पालन आदि पर भी विप का छिटकाव किया । इस प्रकार विष ही विप फैलाकर रानी ने राजा को भोजन करने के लिए बैठाया और राजा के सन्मुख विषमिश्रित भोजन पानी रख दिया। रानी पतिभाक्ति का दिखावा करने के लिए खड़ी होकर पंखा झलने लगी । ज्यों ही राजा ने भोजन प्रारंभ किया, उसे मालूम हो गया कि भोजन में विर का मिश्रण किया गया है। वह चुपचाप उटकर पौषधशाला में आ गया।
राजा किस प्रकार अपने कर्मों की उदीरणा करता है, यह ध्यान देने की बात है। इसे ध्यान से सुनिये और विचार कीजिए।
पौषधशाला में आकर राजा विचारने लगा-रानी ने मुझे जहर नहीं दिया है। मैंने रानी के साथ जो विषयभोग किया है, यह जहर उसी के प्रताप से आया है।
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[३१५]
चलमाणे चलिए यद्यपि प्रदेशी राजा चढ़े हुए जहर को उतार सकता था और रानी को दंड भी दे सकता था, लेकिन जिन्हें कर्म की उदीरणा करनी होती है, वे दूसरे की बुराइयों का हिसाव नहीं लगाते ।
राजा प्रदेशी लोचने लगा-हे पात्मन् ! यह विष तुझे नहीं मिला है। किन्तु तेरे कर्म को मिला है।तू ने जो प्रगाढ़ कर्म वधि हैं, उन्हें नष्ट करने के लिए इस ज़हर की जरूरत थी। मैंने जीव और शरीर को अलग-अलग समझ लिया है । यह स्पष्ट हो रहा है कि यह जहर आत्मा पर नहीं, शरीर पर अपना असर कर रहा है। आत्मा तो वह है कि
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः । नैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोपयति मारुतः।। अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥ . अर्थात् आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती । आत्मा छिदने योग्य नहीं है, सड़ने गलने योग्य नहीं है, सूखने योग्य नहीं है। वह नित्य है, प्रत्येक शरीर में रहता है, स्थायी है, अचल है और सनातन है।
. राजा प्रदेशी सोचता है-हे श्रात्मा ! यह विष तुझे मार नहीं सकता, यह तेरे कर्मों को ही काट रहा है । इस , लिए चिन्ता न कर । तू बैठा वैठा तमाशा देख ।
मित्रों ! इसका नाम प्रशस्त परिणाम है । इसी से कौं की उदीरणा होती है। ऐसा परिणाम उदित होने पर
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श्रीभगवती सूत्र
३२६ कर्मों की ऐसी दशा होती है, जैसे उन्हें ज़हर ही दे दिया गया हो।
राजा ने फिर सोचा-प्रिये ! तू ने खूब किया। मेरे कमों को अच्छा जहर दिया । तू ने मेरी बड़ी सहायता की। ऐसा न करती तो मुझ में उत्तम भावना न ाती। पतिव्रता के नियमों का पालन तू ने ही किया है।
राजा ने प्रमार्जन, प्रतिलेखन तथा अालोचना-श्रादि करके अरिहंत-सिद्ध भगवान् की साक्षी से संथारा धारणा कर लिया।
____उधर रानी के हृदय में अनेक संकल्प-विकल्प उठने लगे । उसने सोचा 'ऐसा न हो कि राजा जीवित रह जाए अगर ऐसा हुआ तो भारी विपदा में पड़ना पड़ेगा। अतएव इस नाटक की पूर्णाहुति करना ही उचित है।' इस प्रकार सोचकर वह राजा के पास दौड़ी आई और प्रेम दिखलाती हुई कहने लगी मैं ने सुना, आपको कुछ तकलीफ हो गई है ?
राजा.ने, रानी से कुछ भी नहीं कहा। वह चुपचाप अपने आत्मचिन्तन में निमग्न रहा । संसार का असली स्वरूप उसके सामने नाचने लगा। तब रानी ने राजा का सिर अपनी गोद में ले लिया। और अपने सिर के लम्बे-लम्बे वालों से उसका सिर ढंक लिया। इस प्रकार तसल्ली करके और चारों और निगाह फेरकर उसने राजा का गला दवोच दिया। . रानी ने जव अपने पति का राजा का गला दवाया तो वह सोचने लगा-रानी मेरा गला नहीं दवा रही है, मेरे शेष कर्मों का नाश कर रही है।
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[३१७]
चलमाणे चलिए
राजा प्रदेशी ने इस प्रकार फर्मों की उदीरणा की। इस उदीरणा के प्रताप से, वह सूर्याभ विमान में देव हुश्रा। उंदीरणा ने उसे नरक का अतिथि होने से पचा लिया और स्वर्ग:सुख का अधिकारी बनाया । राजा प्रदेशीने अल्पकालीन समाधिभाव से ही अपना बेड़ा पार कर लिया । अगर वह दूसरे का हिसाव करने पैठता तो ऐसा न होता।
तात्पर्य यह है कि राजा प्रदेशी ने उदीरणा के प्रताप से न जाने कित्तने भवा का पाप क्षय करके श्रात्मा को हल्का चना लिया। इस प्रकार उदारणा के द्वारा करोड़ों भवों में भोगने योग्य कर्म क्षण भर में ही नष्ट किये जा सकते हैं। दूसरा प्रश्न इसी उदीरणा के संबंध में है। . गौतम स्वामी ने तीसरा प्रश्न किया
वेइज्जमाणे वेइए? अर्थात् जो वेदा जा रहा है वह वेदा गया?
आत्मा को सुख-दुःख होना, यही कर्म वेदना है। जव कर्म की स्थिति पूर्ण हो जाती है तब वे उदय-श्रावलिका में आते हैं। मान लीजिए किसी ने तीस कोड़ा कोड़ी सागरोपम की स्थिति वाले कर्म यांचे । जब तक यह स्थिति-काल पूर्ण न हो जायगा, तब तक वह कर्म फल नहीं देंगेंसत्ता में विद्यमान रहेंगे । जब यह काल पूर्ण हो जायगा तब कर्म उदय श्रावलिका में प्राचेंगे । उदय-श्रापलिका में आये हुए कर्मों के फल को भोगना निर्जरा कहलाता है, क्योंकि फल भोग के पश्चात् कर्म खिर जाते हैं । जब तक कर्मों की निर्जरा नहीं होती तभी तक कर्म भोगने पड़ते हैं और जब
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श्रीभगवती सूत्र
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तक कर्म भोगने पड़ते हैं तभी तक वेदना है। जब तक कर्म उदय-श्रावलिका में नहीं आये थे तब तक वेदना' नहीं थी और जब कर्म की निर्जरा हो जाती है तब भी उस कर्म की वेदना नहीं होगी । जय कर्म अपनी प्रकृति के अनुसार सुख या दुःख देंगे वह वेदना-काल कहलाएगा । अर्थात् कर्म के फल स्वरूप दुःख या सुख का अनुभव होना बेदना है।
- कर्म-वेदना दो प्रकार से होती है-(१) स्थिति के क्षय से और (२) उदीरणा से । यद्यपि वेदना दोनों तरह से होती है तथापि जैसे समय पर कर्ज चुकाने में और समय से पहले ही महाजन को बुलाकर कर्ज चुकान में अन्तर होता है, ऐसा ही अन्तर स्थिति के क्षय होने पर कर्म भोगने में और उदीरणा करके कर्म भोगने में है। यद्यपि दोनों अवस्थाओं में कर्ज चुकाना पड़ता है, लेकिन बुलाकर चुकाने में जिस प्रसन्नता से कर्ज चुकाया जाता है उस प्रसन्नता से समय पूरा होने पर तकाज़ा होने पर नहीं चुकाया जाता । यही वात दोनों प्रकार के कर्मभोग में भी है।
· वेदना किस प्रकार भोगी जाती है, इत्यादि विचार वहुत लम्बा है और विस्तृत विवेचन की अपेक्षा रखता है। अतएव यहाँ उसका विचार नहीं किया जाता।
. . यद्यपि वेदना के समय असंख्यात हैं, लेकिन एक ही समय में जो. वेदना होने लगी उसे 'वेदना हुई 'ऐसा मानना चाहिए। . . .
गौतम स्वामी का चौथा प्रश्न है:
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चलमाणे चलिए · पाहिज्जमाणे पहीणे ? अर्थात्-जो गिरता है-एतित होता है, वह गिरा, पतित हुश्रा, ऐसा मानना चाहिए?
आत्मप्रदेशों के साथ जो कर्म एफमेक होगये हैं, उन्हें गिराना-हटाना 'प्रहाण कहलाता है। आत्म-प्रदेशों से कर्म को गिराने में भी असंख्य समय लगते हैं। परन्तु पहले समय में जो कर्म गिर रहे हैं, उनके लिए 'गिरें' यह कहा जा सकता है? पहले प्रश्न में जिन युक्तियों का उल्लेख किया गया है, वही युक्तियाँ प्रत्येक प्रश्न के संबंध में लागू होती हैं। उनका संबंध सब के साथ जोड़ लेना चाहिए। - गौतम स्वामी का पाँचवाँ प्रश्न है:
छिज्जमाणे छिन्ने ? अर्थात्-जो छेदा जा रहा है वह छिदा, ऐसा कहा जासकता है? 'छिज्जमाणे का अर्थ है वर्तमान काल में जिसका छेदन किया जा रहा है । कर्म की दीर्घ काल की स्थिति को अल्पकाल की स्थिति में कर लेना, छेदन करना कहलाता है। यद्यपि कर्म रही है, लेकिन इसकी स्थिति को कम कर लेना 'छेदन' है। उदाहरणार्थ-एक मनुष्य वारह वर्ष के लिए जेल गया । लेकिन राजा के यहाँ पुत्र-जन्म होने से था कोई अच्छा काम करने से कैद की मियाद घटा' भी दी जाती है। इसी प्रकार कर्म की स्थिति बहुत है, लेकिन अपवर्तना नामक करण द्वारा कर्म की स्थिति को कम कर लेंना उसका छेदक फरता कहलाता है।
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श्रीभगवती सूत्र
[३२०
उपकरण, उपायं या सांधन को करण कहते हैं। अनुयोगद्वार सूत्र में करण के दो भेद बतलाए गये हैं। पहला भेद है उपकर्म अर्थात् वस्तु को ज्यादा बना लेना। दूसराभेद वस्तु विनाश है यानी वहुत दिन टिकने वाली चीज़ को बिगाड़ देना या कम कर देना । तात्पर्य यह है कि जिस करण के द्वारा बहुत दिन टिकने वाली वस्तु विगाड़ दी जाती है-कम कर दी जाती है, वह वस्तुविनाशकरण है और जिसके द्वारा वस्तु ज्यादा बनाई जाती है वह उपकर्म-करण कहलाता है। . ____ करण के प्रकारान्तर से दो भेद हैं-(१) उद्वर्त्तनाकरण और (२) अपवर्त्तनाकरण । इनमें से अपवर्तनाकरण के द्वारा कर्म की स्थिति कम की जाती है। इस करण द्वारा स्थिति का कम हो जाना ही कर्म का छेदन करना कहलाता है।
अपवर्त्तना करण द्वारा होने वाली कर्म-छेदन की इस क्रिया में भी असंख्यात समय लगते हैं, मगर जो छीज रहे हैं उन्हें 'छीजे' कहना चाहिए । अर्थात् छिद्यमान को छिन्न कहना चाहिए। गौतम स्वामी का छठा प्रश्न है:
भिज्जमाणे भिरणे ? अर्थात-जो भेदा जा रहा है वह भेदा गया, ऐसा कहना चाहिए?
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(३२१]
चलमाणे चलिए - शुभ कर्म को अशुभ कप में और अशुभ को शुभ रूप में परिणत करना कर्म का भेदन करना कहलाता है। जैसे कच्चा श्राम खाद में खट्टा होता है, मगर उसे ठीक तरह रखकर पका लिया जाय तो मीठा हो जाता है। ग्राम में यह मिठास कहीं बाहर से नहीं आती-यह आम का 'भिद्यमान' होना है । इसी आम को ज्यादा देर तक दवा रक्खा जाय तो वह सड़ जाता है । जैसे श्राम में नाना अवस्थाएँ उत्पन्न होती हैं, उसी प्रकार कर्म में भी अनेक अवस्थाएँ उत्पन्न और विनष्ट होती रहती हैं। मान लीजिए किसी जीव ने शुभ कर्मों का वंध किया, लेकिन बाद में ऐसा कुछ हो गया कि वे शुभ कर्म अशुभ हो गये । इसी प्रकार अशुभ कर्म, उपकरण द्वारा शुभ हो गये । ऐसा होना कर्म का भिद्यमान होना कहलाता है । तात्पर्य यह है कि बुरे का अच्छा हो जाना और अच्छे का बुरा हो जानाभेदन करना कहलाता है।
___ बचे हुए कमों में तीन प्रकार से भेदन होता है रसघात स्थितिघात और प्रदेशघात । तीन रस को मंद रस, मंद रस को तीन रस रूप परिणत करना, अल्पकालीन स्थिति को दीर्घकालीन करना और दीर्घकालीन स्थिति को अल्पकालीन करना, बहुत प्रदेशों को अल्प प्रदेश रूप और अल्प प्रदेशों को बहुत प्रदेश रूप में परितात करना, यह सव कर्मों का भिद्यमान होना है। यह भेदन रस, प्रदेश और स्थिति तीनों में होता है।
कर्म में यह परिवर्चन कैसे हो सकता है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है. कि जैसे राजा प्रदेशी का हुआ था और जसे कुण्डरीक तथा पुण्डरीक का हुआ था। प्रदेशी का वृत्ता. न्त बतलाया जा चुका है। कुण्डरीक ने हजार वर्ष तक
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श्रीभगवती सूत्र
[३२२] तपस्या करके शुभ कर्म उत्पन्न किये थे। लेकिन तीन दिन के पाप से वे शुभ कर्म भिद्यमान हो कर अशुभ हो गये। मगर उसी के भाई पुण्डरीक ने हजार वर्ष तक राज्य करके जो अशुभ कर्म वाँधे थे, वे तीन दिन की तपस्या से शुभ कर्म के रूप में परिणत होगये। करण की विशेपत्ता, कर्म में इल प्रकार की विशेषता उत्पन्न कर देती है। यह शुभ या अशुभ विशेषता उत्पन्न होना कर्म का भिद्यमान होना कहा जाता है। कर्मभेदन की इस क्रिया में असंख्यात लमय लगते हैं, मगर प्रथम समय में जो मिद्यमान हो रहा है, उसे 'भेदा गरा' कहना चाहिए। गौतम स्वामी का सातवाँ प्रश्न है:
डज्झमाणे डड्ढे ?
अर्थात् जो जलता है वह जला, ऐसा कहना चाहिए?
कर्म रूपी काष्ठ को ध्यान रूपा अग्नि से जलाकर उसका रूपान्तर कर देना-अकर्म रूप परिणत कर देना, दग्ध कर देना कहलाता है। जैसे लकड़ी अग्नि से जलकर राख रूप में परिणत हो जाती है, उसी प्रकार श्रात्मा के साथ जो कर्म परमाणु लगे हुए हैं और सुख-दुख देने वाल कर्म कहलाते हैं, उन्हें ध्यान रूपी प्रज्वलित अग्नि से फिर पुद्गल रूप बना देना, अर्थात उन्हें श्रकर्म के रूप में पहुँचा देना दग्ध करना कहा जाता है।
ध्यान की अग्नि से भस्म किये हुए कर्म फिर भोगने नहीं पड़ते । ध्यान-अग्नि से भस्म हुए कर्म, कर्म ही नहीं रहते, अकर्म रूप पुद्गल बन जाते हैं। ..
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[ ३२३]
चलमाणे चलिए . . ध्यान रूपी अग्नि से कर्म को अकर्म रूप परिणत करने में-दग्ध करने में अन्तर्मुहूर्त काल लगता है। इतने ही समय में ध्यान के परम प्रभाव से कर्म भस्म हो जाते है । मगर इस अन्तर्मुहर्त्त काल में भी असंख्यात. समय होते हैं । इन असंख्यात समयों में से पहले समय में जब कर्म दग्ध होने लगते हैं, तो उन्हें दग्ध हुए कहना चाहिए।
गौतम स्वामी का पाठवा प्रश्न है:
मिजमाणे मडै ?
अर्थात्-जो मर रहा है वह मरा, ऐसा कहना चाहिए?
पूर्व वद्ध आयु.कर्म से रहित होना मरना कहलाता है। मरने का अर्थ श्रात्मा का नाश हो जाना नहीं है । श्रात्मा आयु कर्म के साथ शरीर में रहकर चेष्टा करता है । जव श्रात्मा श्रायु कर्म से रहित हो जाता है, श्रायु कर्म के साथ नहीं रहता है तव चेपा बन्द हो जाती है और श्रात्मा मोक्ष प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार आयु के पुद्गलों का नाश हो जाना मरण है । यद्यपि आयु के पुद्गलों का नाश असंख्यात समय में होता है, फिरभी उनमें असंख्यात समयों में से प्रथम समय में भी 'मरा' कहा जा सकता है। शास्त्र का कथन है. कि एक समय के जन्मे हुए वालक का भी प्राचीचि मरण हो रहा है। भावाचि मरण के द्वारा प्रत्येक प्राणी प्रति-समय
मृत्यु को प्राप्त होता है । इस प्रकार यद्यपि मरने में असंख्यात .. समय लगते हैं, तथापि जो मरने लगा है, उसे मरा कहना
चाहिए।
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श्रीभगवती सूत्र :
[३२४] कल्पना कीजिए, गर्म पानी का एक हंडा चूल्हे पर से उतारकर नीचे रक्खा है । वह गर्म पानी प्रतिक्षण ठंडा होता है, लेकिन छूने वाले को प्रथम क्षण में नहीं मालूम होता कि
यह ठंडा हो रहा है। मगर प्रथम क्षण में उसका कुछ ठंडा • होना निश्चित है । अगर प्रथम क्षण में वह जरा भी ठंडा न
हो तो फिर कभी ठंडा न होगा-ज्यों का त्यों गर्म बना रहेगा। अतएव यह मानना चाहिए कि पानी एक-एक क्षण में ठंडा हो रहा है । भले ही प्रतिक्षण का ठंडा होना.किसी को प्रत्यक्ष ज्ञातं न हो मगर उसके ठंडे होने में शंका को अवकाश नहीं है।
ठीक यही वात मृत्यु के संबंध में है। जीव ने जितने श्रायुकर्म के दलिक वांधे हैं, उनमें से थोड़े-थोड़े प्रतिक्षण, उदय में श्राकर क्षीण हो जाते हैं और आयुकर्म के दलिका का क्षीण होना ही मृत्यु कहलता है । अगर यह कहा गया जिस समय समस्त श्रायुकर्म के दलिक क्षीण हो जाते हैं, उसी समय मृत्यु होती है , तो यह कथन ठीक नहीं; क्योंकि समस्त आयुकर्म के दालिक किसी भी समय क्षीण नहीं होते। अंतिम समय में वही आयु के दलिक क्षीण होते हैं जो पहले क्षीण होने से बच रहते हैं- समस्त नहीं । मत: लव यह है कि अतिम समय में भी जब समस्त दलिक क्षीण नहीं होते शेप रहे हुए कुछ दलिक ही क्षीण होते हैं और : पहले भी कुछ दलिक क्षीण हैं तो क्या कारण है कि श्रीतम समय में मृत्यु होना माना जाय और पहले (जीवित अवस्था में ) न माना जाय ? आयु कर्म का क्षीण होना ही मृत्यु है। श्रतएव प्रतिक्षण मृत्यु मानना ही युक्तिसंगत है । अगर प्रतिक्षण मरना न माना जायगा तो जीव कभी नहीं मरेगा।
गौतम स्वामी का नवमाँ प्रश्न है :
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[३२५]
चलमाणे चलिए निजरिज्जमाणे निज्जिरणे ? . अर्थात्-जो निर्जरता है वह निर्जीर्ण हुआ, ऐसामाना जाय?
साधारण तया फल देने के पश्चात् कर्मों का आत्मा से अलग होना निर्जरा है किन्तु यहाँ निर्जरा का अर्थ मोक्ष-प्राप्ति रूप है। कर्म, फिर कभी कर्म रूप से उत्पन्न न हो, उसे निर्जरमान कहते हैं.। मोक्ष प्राप्त करने वाले जो महापुरुष कर्म की निर्जरा करते हैं, उनके निर्जीर्ण कर्म, फिर कभी कर्म कंप से उन्हें उत्पन्न नहीं होते। उन्हें फिर कभी कर्मों को भोगना नहीं पड़ता। इस प्रकार कर्मों का श्रात्यन्तिक क्षीण होना यहाँ निर्जरा कही गयी है।
. निर्जरा भी अंसंख्यात. समयों में होती है । मगर जव कर्म निर्जीर्ण होने लगा, तभी-पहले समय में ही निर्जीर्ण हुआ, ऐसा कहना चाहिए।
यहाँ पर भी पहले के समान ही शंका की जा सकती है, और उसका उत्तर भी पहले के हीसमान दिया जा सकता है। पहले वस्त्र का दृशान्त देकर यह स्पष्ट कर दिया गया है कि असंख्यात समय में होने वाली क्रिया को प्रथम समय में. भी 'हुई' ऐसा कहा जा सकता है ।
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भगवान् का उत्तर
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श्री गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर स्वामी के समक्ष यह नौ प्रश्न किये । इन प्रश्नों के उत्तर में भगवान 'ने फरमाया
मूल-हंता गोयमा ! चलमाणे चलिए, जाव निजरिज्जमाणे निज्जिएणे । ___संस्कृत-छाया-हन्त गोतम! चलन चलितः यावन्निोर्यमाणो निणः ।
मूलार्थ-हाँ गौतम ! जो चलता है 'वह चला' से लेकर जो निर्जर रहा है वह निर्जरा; (ऐसा कहना चाहिए।)
व्याख्या-भगवान महावीर के सामने गौतम स्वामी ने..' यह प्रश्न किये हैं। इनके संबंध में एक तर्क किया जा सकता है । वह यह है-गौतम स्वामी के विषय में यह प्रसिद्ध है.कि वे द्वादशांगी के प्रणेता हैं । भगवती सूत्र भी इसी द्वादशांगी . के.अन्तर्गत है और इसकी श्रादि में गौतम स्वामी प्रश्न करते. हैं । यह कैसे संभव है ? इसके अतिरिक्त प्रत्येक समझने . और समझाने योग्य विषय को गौतम स्वामी सम्यक् प्रकार.
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श्रीभगवती सूत्र
[३८] सकता है । कदाचित् गौतम स्वामी इन प्रश्नों का उत्तर जानते भी हो, तब भी प्रश्न करना संभव है। आप पूछ सकते हैं कि जानी हुई बात पूछने की क्या आवश्यकता है ? इसका उत्तर होगा-उस बात पर अधिक प्रकाश डलवाने के लिए-अपना बोध बढ़ाने के लिए अथवा जिन लोगों को प्रश्न पूछते नहीं पाता, या जिन्हें इस विषय में विपरीत धारणा हो रही है, उनके लाभ के लिए, उन्हें बोध कराने के लिए. गौतम स्वामी ने यह प्रश्न पूछे हैं। भले ही गौतम स्वामी उन्हें स्वयं समझाने में समर्थ होंगे, तथापि भगवान् के मुखारविन्द से निकलने वाला. प्रत्येक शब्द विशेष प्रभावशाली और प्रामाणिक होता है, इस विचार से उन्होंने भगवान के द्वारा ही इन प्रश्नों का उत्तर प्रकट करवाया है।
केशी स्वामी को स्वयं कोई संदेह नहीं था, लेकिन शिप्यों का सन्देह हरण करने के लिए गौतम स्वामी से उन्होंने प्रश्न किये थे । उन प्रश्नों का रूप भी ऐसा है, मानो उन्हें स्वयं ही संदेह हो और स्वयं ही प्रश्न करते हों।
साहु गोयम पन्ना ते, छिन्नो मे संसओ इमो ॥ अन्नोवि संसो, मझ, तं मे कहसु गोयमा ॥
श्री उ० सूत्र २३ अ० अर्थात्- हे गौतम ! आपने मेरा यह संशय तो दूर कर दिया, लेकिन एक और संशय कहता हूँ।
न्यायालय में, न्यायाधीश के समक्ष वकील यह नहीं कहता कि ''उसका यह दावा है ', मगर वह कहता है-'मेरा
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(३२६
भंगवान् का उत्तर यह दावा है।' गौतम स्वामी संसार के अज्ञ जीवों के वकील बने हैं। वे हम लोगों की ओर से भगवान के समक्ष वकालत करते हैं। हम लोगों पर गौतम स्वामी का कैसा महान् उपकार है ! अगर उन्होंने यह वकालत न की होती तो आज हम लोगों को इन बातों का ज्ञान किस प्रकार होता ? श्राज गुणग्राहक कम होने से चाहे इन वचनों का उतना महत्व न समझा जाय, लेकिन सच्चा तत्त्व-जिज्ञासु इन वचनों को अमृत समझता है और इनका पान करके अपने को कृतार्थ समझता है । एक जगह किसी कवि ने कहा है- .
तेन यहां नागर बड़े, जिन्हें चाह तव आव । · , फूल्यो अनफूल्यो रह्यो, गवई गाँव- गुलाब ॥..
आज श्रेणिक, कामदेव और आनन्द जैसे जिज्ञासु श्रोता नहीं रहे, इसी कारण इन वचनों का सम्मान कम है। यह लोग साधु तो क्या, श्रावक से भी इन वचनों को सुनकर
आनन्द की हिलोरों में उतराने लगते थे। यह लोग गुलाव के पानी की चाह करने वाले नागरिकों के समान थे। जो गँवार हैं उन्हें गुलाब की कद्र का क्या पता? वे उसे कटीला वृक्ष समझकर काट फेकेंगे।
., तात्पर्य यह है कि गौतम स्वामी जानते हुए भी अनजानों की वकालत करने के लिए, अपने ज्ञान में विशदता लाने के लिए, शिष्यों को ज्ञान देने के लिए और अपने वचन में प्रतीति उत्पन्न करने के लिए यह सव प्रश्न कर सकते हैं।
अपने वचन में प्रतीति उत्पन्न करने का अर्थ यह है कि, मान लीजिए किसी महात्मा ने किसी जिज्ञासु को किसी प्रश्न
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श्रीभगक्ती सूत्र
[३३०] का उत्तर दिया। लेकिन उस जिज्ञासु को यह संदेह उत्पन्न हुआ कि इस विषय में भगवान् न मालूम क्या कहते ? उसने जाकर भगवान् से वही प्रश्न पूछा । भगवान् ने वही उत्तर दिया । श्रोता को उन महात्मा के वचनों पर प्रतीति हुई । इस प्रकार अपने वचनों की, दूसरों को प्रतीति कराने के लिए भी स्वयं प्रश्न किया जा सकता है। .. - इसके सिवाय सूत्र-रचना का क्रमगुरू-शिष्य के संवाद में होता है। अगर शिष्य नहीं होता तो गुरू स्वयं शिष्य बनता है इस तरह सुधर्मा स्वामी इस प्रणाली के अनुसारभी गौतम ' स्वामी और भगवान महावीर से प्रश्नोत्तर करा सकते हैं। यद्यपि निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि गौतम स्वामी ने उक्त कारणों में से किस कारण से प्रेरित होकर प्रश्न किये थे, तथापि यह निश्चित है इन प्रश्नों के संबंध में उक्त तर्क को स्थान नहीं है। तर्क निर्मूल है।
भगवान् ने उत्तर में जो 'हन्ता' शब्द कहा है, उसका अर्थ आमंत्रण या संवोधन करना है और 'हां' भी है।
प्रश्न-हंता गोयमा! इतनाकहने से हीगौतम स्वामी के प्रश्नों का उत्तर हो जाता है। फिर भगवान ने 'चलमाणे चलिए, जाव निजरिज्जमाणे णिज्जिरणे' इतने शब्द क्यों कह हैं ? : . उत्तर-यद्यपि 'हंता गोयमा अर्थात् हाँ गौतम ऐसा ही है, इतना कहने से काम चल जाता तथापि अपनी प्राज्ञा दोहराने के लिए भगवान् ने ऐसा फरमाया है। प्रश्न के शब्दों को दोहरा देने से वक्तव्य स्पष्ट हो जाता है । शिष्यों के अनु.ग्रह के लिए इतनी स्पष्टता आवश्यक है।
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[३३१]
भगवान् का उत्तर प्रश्न-'जाव' शब्द कहने की क्या आवश्यकता है ?
उत्तर- पाठ का संकोच करने के लिए 'जाव' शब्द कहा गया है । 'चलमाणे चलिए' कहकर यह प्रश्न का प्रथम पद "णिजरिजमाणे णिजिएणे' यह अंतिम पद कहा गया है और 'जाव' शब्द से बीच के सव पदों का ग्रहण हो जाता है।
इन पदों की व्याख्या समाप्त करते हुए श्राचार्य कहते है कि यह नौ पद कर्म के विषय में कहे गये हैं । कर्मों के ही संबंध में यहां विचार किया गया है । यहां मुख्य प्रश्न यह था कि वर्तमान के लिए भूतकाल का निर्देश करना क्या उचित है ? गौतम स्वामी ने इसी जिज्ञासा से यह प्रश्न किये थे। भगवान् ने उत्तर में कहा-हाँ गौतम ! यह ठीक है। - इस विषय में कुछ व्यावहारिक विवेचन की आवश्यकता है । संक्षेप में कुछ प्रकाश डाला जाता है
'यहाँ मोक्ष प्राप्ति के नौ पद कहे हैं। मगर देखना चाहिए कि मोक्ष क्या चीज़ है ? मोक्ष को जानने के लिए बंधन को जानना श्रावश्यक है। मोक्ष का अर्थ है-बंधन से छूटना। जब तक धंधन को भली-भाँति न जान लिया जाय, तब तक मोक्ष को भली-भाँति नहीं जाना जा सकता।
लोग काम करने से पहले फल का विचार करते हैं। कार्य चाहे पूरा न हो मगर फल पहले ही मिल जाना चाहिए। अगर तत्काल फल न मिला तो उनकी निराशा का पार नहीं रहता। किन्तु ज्ञानीजनों का कथन यह है कि फल न दिखने से घबरामो मत । कार्य करना ही अपना कर्त्तव्य समझो, फल
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श्रीभगवती सूत्र
[३३२] की कामना न करो। जो कर्तव्य प्रारंभ किया है, उसी में जुटे रहो; फल आप ही दिखाई देने लगेगा। 'चलमाणे चलिए का सिद्धान्त यही सिखलाता है कि मोक्ष गया नहीं है लेकिन जाने लगा कि गया ही समझो। इसलिए असंख्यात भंवों में जिस मोक्ष को जाना है वह मोक्ष आज ही हुआ क्यों न कहा जाय?
यह नौ प्रश्न विश्वासमय बनाते हैं। जिस मनुष्य के मन में निराशा छाई रहती है वह कोई भी काम दृढ़तापूर्वक नहीं कर सकता। उसका तन काम करता है, और मन विद्रोह. करता है । तन और मन के संघर्ष में उसकी शक्तियाँ क्षीण हो जाती हैं और उसे सफलता भाग्य से ही मिल सकती है। इस निराशा को रोकने का सर्वश्रेष्ठ साधन यही है कि फल की आशा ही न की जाय । 'न रहेगा वांस, न वजेगी बांसुरी
आशा ही न होगी तो निराशा कहाँ से आएगी? आशा ही निराशा की जननी है। सफलता के लिए श्राशा-त्याग की अनिवार्य आवश्यकता है। इसी उद्देश्य से जैनशास्त्रों में निदान शल्यं को त्याज्य कहा है और इसीलिए गीता में भी निष्काम कर्स का उपदेश दिया गया है। ... स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ।
अर्थात्--स्वल्प-सा धर्म होने पर भी अपना कल्याण हुआ समझ, घबरा मत उसी से तुझे निर्भयंता प्राप्त होगी।
काल के हिस्से के हिस्से करने पर अन्त में 'समय'. हाथ आता है। लकड़ी के दो, चार, आठ आदि टुकड़े करते: करते आखिर कभी न कभी यह होगा कि अंव और टुकड़े
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[३३३]
भगवान् का उत्तर
नहीं हो सकते । जिस टुकड़े के फिर टुकड़े नहीं हो सकते वह अंतिम टुकड़ा परमाणु कहलाता है। इसी प्रकार काल के जिस अंश के विभाग नहीं हो सकते, वह अंतिम विभाग 'समय' कहलाता है।
- प्रश्न हो सकता है कि स्वल्प धर्म होने पर ही कल्याण समझ लेने से 'वस हो गया' इस तरह की निराशा क्यों नहीं उत्पन्न होगी? इसका उत्तर यह है कि जो व्यक्ति स्वल्प धर्म का भी महान् फल देखता है वह आगे के धर्म को कैसे भूलेगा? कलकत्ता की ओर एक डग भरने वाले के संबंध में भी कहा जाता है कि 'वह कलकत्ता गया। मगर ऐसा कहने से वह जाने वाला अगर कलकत्ता जाने से रूक जाय तो मूर्ख गिना जायगा । जब कलकत्ता की ओर एक पैर भरने से ही 'कलकत्ता गया' कहते हैं तो अधिक पैर भरने से क्या वह कलकत्तासे दूर होगा? थोड़ा-सा उद्योग सफल होता देखकर हिम्मत नहीं हारनी चाहिए । सोचना चाहिए कि यह थोड़ी-सी क्रिया भी निप्फल नहीं है तो अधिक क्रिया निष्फल कैसे हो सकती है ? तव श्रारंभ किये हुए कार्य को आगे बढ़ाने से क्यों रोका जाय ? चाहे धर्म हो या राजनीति, सर्वत्र यह बात लागू होती है । ऐसा विचार करने वाला कभी • निराश नहीं होगा, बल्कि उसमें नई स्फूर्ति और नया उत्साह उत्पन्न होगा और वह आगे बढ़ता हुआ अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त करेगा।
कई लोग कहते हैं-'खादी पहनने से स्वराज्य नहीं मिलेगा, किन्तु तलवार से मिलेगा। कुछ का कहना है-एक श्रादमी के विलायती वस्त्र और शराव छोड़ देने से क्या कल्याण होगा?
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श्रीभगवती सूत्र
[३३]
इस प्रकार की निराशा बबुत-से लोगों में व्यापी हुई है। तव शास्त्र कहते हैं-'चलमाणे चलिए ।' शास्त्र का यह विधान मनुष्य के हृदय को आश्वासन देता है और बतलाता है कि एक समय मात्र की क्रिया भी व्यर्थ नहीं जाती।जब असंख्य समयों में होने वाला कार्य एक समय में भी 'हुआ' माना जाता है तो कोई कारण नहीं है कि असंख्य मनुष्यों से होने वाला कार्य एक मनुष्य से 'हुश्रा' न माना जाय । शास्त्र कहता है-तू अपनी तरफ से जो करता है, वह किये जा। दूसरों का विचार मत कर । अगर तुझे इतना भी विश्वास न होगा तो आगे सामायिक से मोक्ष पर विश्वास कैसे होगा? कदाचित् यह कहा जाय कि सामायिक और मोक्ष में कार्य कारण संबंध है, तो क्या खादी और स्वराज्य में कोई संबंधनहीं है। मनचाहा खाना-पीना स्वतन्त्रता नहीं है। स्वतन्त्रता कुछ और ही चीज़ है। ।
एक तो आपके घर में, घर की खादी है, जिसे आपकी माता ने कात-बुनकर तैयार की है । एक दूसरावादमी आपसे कहता है-अगर मेरे द्वार पर श्राकर, हाथ जोड़ कर माँगो तोमैं तुम्हें कीमती जरी का जामा दूंगा। इस प्रकार एक ओर माँ खादी देता है और दूसरी ओर दूसरा श्रादमीगुलाम बना कर ज़री का वस्त्र देता है। इन दोनों मेंसे स्वतंत्रता किसमें है ?
'खादी में।'
यद्यपि यह यात समझना कठिन नहीं है, फिर भी इस ओर ध्यान नहीं दिया जाता। लोग समझते हैं कि गुलाम चाहे हो, मगर ज़री का जामा पहनने से लोगों में आदर होगा और अच्छा लगेगा । खादी मोटी है, इसलिए बुरी है। इस प्रकार की मिथ्या धारणाएँ लोगों को अपना शिकार बनाए हुए हैं।
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[३३]
भगवान् का उत्तर
तुम्हारी माँ ने जो कपड़ा कष्ट उठाकर वुना है, उसे मोटा कहकर न पहनना और गुलाम बनकर ज़री का जामा पहनना, कोई अच्छी बात नहीं है। इससे तुम्हारी कद्र न होगी। गुलाम बनाकर वस्त्र देने वाले जब अपना हाथ खींच लेंगे तव तुम पर कैसे बीतेगी? इसके अतिरिक्त विदेशी कपड़ा मुफ्त में तो मिलता नहीं, फिर गुलाम बनने से क्या लाभ है ?
__ याद रक्खो, हिन्दुस्तान तुम्हारी मातृ-भूमि है। इसका तुम्हारे ऊपर असीम उपकार है । किसी ने ठीक कहा है
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ।
जो अपनी मातृभूमि को स्वर्ग से भी बढ़कर नहीं मानता, उसे उस भूमि पर पैर रखने का क्या अधिकार है ?
. शास्त्र कहता है-धर्म की आराधना करने वालों पर भी पाँच का उपकार है। उन पाँच में प्रथम पदकाय का उपकार है और पद्काय में भी सर्वप्रथम पृथ्वी का उपकार है। जो पृथ्वी का उपकार नहीं मानता वह कृतघ्न है।
सुना जाता है कि अमेरिका के थौर नामक डाक्टर के शरीर पर साँप रेंगते रहते हैं, लेकिन उसे नहीं काटते । मधु-मक्खियाँ उसके शरीर पर बैठती रहती हैं, लेकिन उसे नहीं काटतीं । उसने भारतीय साहित्य का अध्ययन करके .योग द्वारा साधना की है । एकवार वह अपने शिष्य के साथ अंगल में गया । शिप्य ने डाक्टर से पूछा--'सव भूमियों में कौन सी भूमि उत्तम है ?' डाक्टर थौर ने हँसकर उत्तर
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श्रीभगवती सूत्र
[३३६] दिया-'जिस भूमि पर तृदो पैर रखकर खड़ा है, उसे स्वर्ग की भूमि से भी अच्छी न माने तो तुझे उस पर पैर रखने का श्या अधिकार है ? शिष्य ने कहा-'क्या यह भूमि स्वर्ग की भूमि से भी अधिक महिमा वाली है ?' सुनते हैं, स्वर्ग की भूमि रत्नमयी है, फिर इस भूमि को स्वर्ग-भूमि से बड़ी क्यों मानना चाहिए ? डाक्टर ने उत्तर दिया-स्वर्ग की भूमि चाहे जैसी हो, तेरे किस काम की ? वहाँ के कल्पवृक्ष तेर किस काम के? स्वर्ग की भूमि को बड़ा मानना, तेरा जिस भूमि ने भार वहन किया और कर रही है, उसका अपमान करना है। इस भूमि का अपमान करना घोर कृतनता है। अपनी मातृभूमि का अपमान करने वाले के समान कोई नीच नहीं है।
सच्चे हृदय से सेवा करने वाली घर की स्त्री का अनादर करके वेश्या की प्रशंसा करने वाला जैसे नीच गिना जाता है, वैसे ही वह व्यक्ति भी नीच है जो भारत में रहकर अमेरिका, फ्रांस आदि की प्रशंसा करता है और भारतवर्ष की निन्दा करता है। अमेरिका और फ्रांस की प्रशंसां के गीत गाने वाले विना पास-पोर्ट लिए वहाँ जाकर देखें और वहाँ की नागरिकता के अधिकार प्राप्त करें तो सही ! जिस देश में पैदा हुए हैं, उसकी निन्दा करके, दूसरे देश की प्रशंसा करने वाले गिरे हुए है, भोग के कीड़ा है, उनसे किसी प्रकार का उद्देश्य सिद्ध नहीं हो सकता।
तात्पर्य यह है कि भोगों की लालसा से प्रेरित होकर धात्मिक कार्यों को छोड़ देना, यही गुलामी है, यही बंधन है और इसी से विविध प्रकार के दुःखों का उद्गम होता है।
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[३३७]
भगवान् का उत्तर
भोगमय कपड़े छोड़कर त्याग को अपनाने वाले के लिए मुक्ति भी समीप हैं । भोगमय वस्त्रों का त्याग आनन्द श्रावक ने भी तो किया था। उसने कपास के वने एक युगलपट (क्षौम वस्त्र) का आगार रखकर शेष संमस्त वस्त्रों का त्याग कर दिया था। क्या इस त्याग को मोक्ष का मार्ग न मानोगे? इस प्रकार पापमय वस्त्रों का त्याग कर हम अपने प्रात्मा का भी कल्याण क्यों न करे? इंनपापमय-भोगीकपड़ों का त्याग करना सामायिक का अंगक्यों न कहा जाय ? बारहों व्रत सामायिक के अंग है, अतएव इन वस्त्रों कात्याग भी सामायिक है । त्याग द्वारा अपने भाइयों पर अनुकम्पा करना धर्म है । त्याग को जीवन में जितना स्थान मिलेगा, जविन उतना ही कल्याणमय बनेगा।
Hiddititinuumtainm
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एकाई-अनेकार्थ-प्रश्नोत्तर
श्री गौतम स्वामी के प्रथम प्रश्न के अन्तर्गत नौ प्रश्नों का उत्तर भगवान् महावीर ने दिया। तत्पश्चात् गौतम स्वामी भगवान् के प्रति पुनः प्रश्न करते हैं
मूल-एएणं भंते ! नव पया किं एगट्ठा ? गाणा घोसा ? पाणा वंजणा ? उदाहु णा. पट्टा ? पाणा घोसा ? पाणा वंजणा?
गोयमा ! चलमाणे चलिए, उदीरिज्जमाणे उदीरिए, वेइज्जमाणे वेइए, पहिज्जमाणे पहीणे, एए णं चत्तारि पया एगट्ठा, पापा घोसा, पाणा वंजणा उप्पण्णपक्खस्स । छिज्जमाणे छिण्णे, भिजमाणे भिगणे, दड्ढमाणे दड्ढे, मिजमाणे मडे, निज्जरिज्जमाणे, निज्जिएणे एए पंच पया णाणट्ठा, णाणा घोसा, णाणा वंजणा विगयपक्खस्स ।
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श्रीभगवती सूत्र
[३४०]
. व्याख्यान-गौतम स्वामी का प्रश्न यह है की इन नौ पदों के घोष और व्यंजन तो निराले निराले हैं ही, परन्तु अर्थ भी इनका निराला-निराला है या एक ही ? अर्थात् यह पद एकार्थक हैं या नानार्थक हैं ?
एकार्थक पद दो प्रकार के होते हैं-प्रथम तो एक ही विषय की वात को एकार्थक कहते हैं, दूसरे जिन पदों का मतलव एक हो उन्हें भी एकार्थक कहते हैं। . घोप तीन प्रकार के होते हैं-(१) उदात्त-जो उच्च स्वर से बोला जाय (२) अनुदात्त-जो नांचे स्वर से बोला जाय और (३) स्वरित्त--जो न विशेष उच्च स्वर से, न विशेष नीचे स्वर से वलिक मध्यम स्वर से बोला जाय । इस विषय का विशेष ज्ञान स्वर--विज्ञान को समझने से हो सकता है। .
- - .... शास्त्रकार ने एकार्थक और नानार्थक की एक चौभगी बनाई है
(१) समानार्थक समान व्यंजन
(२) समानार्थक विविध व्यंजन ____-(३) भिन्नार्थक समान व्यंजन ।
(४) भिन्नार्थक भिन्न व्यंजन कई पद समान अर्थ वाले और समान व्यंजन एवं समान घोष वाले होते हैं । जैसे-क्षीर--तोर । इन दोनों पदों .. का अर्थ एक है, घोष भी. एक है और व्यंजन भी एक ही हैं। अतएव यह पद समानार्थकं समान व्यंजन वाले पहले भंग के अन्तर्गत हैं।
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[३४१]
एकार्थ-अनेकार्थ ___ कई एकपद समान अर्थ वाले और भिन्न व्यंजन वाले होते हैं । जैसे क्षीर, पय । यहां इन दोनों पदों का अर्थतो समान हैदूध, लेकिन इनके व्यंजन अलग-अलग हैं, और घोष भी अलग हैं।
कई पद ऐसे होते हैं कि उनका अर्थ तो भिन्न-भिन्न होता है, मगर व्यंजन समान होते हैं । जैसे-अर्कक्षीर (श्राक का दूध ), गो क्षीर (गाय का दूध), महिषीक्षीर (भैंस का दूध) प्रादि । इन पदों में क्षीर शब्द समान व्यंजन वाला है, लेकिन उसका अर्थ भिन्न-भिन्न है । अर्थात् अक्षरों की समानता होने पर भी अर्थ में विलक्षणता है।
___ अनेक पद ऐसे होते हैं जिनके व्यंजन भी भिन्न-भिन्न होते हैं। और अर्थ भी भिन्न-भिन्न होता है। जैसे-घट, पट, लकुट, आदि ! यहाँ न व्यंजनों की समानता है, न अर्थ की समानता है । यह पद चौथे भंग के अन्तर्गत हैं।
___ गौतम स्वामी ने प्रश्न करते हुए यहाँ चौभंगी के दूसरे और चौथे भंग को ग्रहण किया है। अर्थात् उन्होंने, इन दो भंगों को लेकर ही प्रश्न किया है। प्रश्न किया जा सकता है कि गौतम स्वामी ने उक चौभंगी के प्रथम और तृतीय भंग को क्यों छोड़ दिया ? उनके विषय में प्रश्न क्यों नहीं किया? इसका उत्तर यह है कि पहले और तीसरे भंग का इन नौ पदों में समावेश नहीं होता, क्योंकि नव पदों के व्यंजन भिन्न-भिन्न हैं, यह स्पष्ट रूप से प्रकट है। इसमें प्रश्न को अय. काश ही नहीं है । इसी कारण गौतम स्वामी ने प्रथम और . तृतीयं भंग को छोड़ कर दूसरे और चौथे भंग को ग्रहण करके ही प्रश्न किया है।
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श्रीभगवती सूत्र
[३४२] इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान ने फरमाया है कि-चलमाणे चलिए, उदीरिजमाणे उदीरिए, वेइजमाणे वेइए और पहिज्जमाणे पहाणे, इन चार पदों के व्यंजन और घोष निराले निराले हैं, लेकिन अर्थ एक ही है । और आगे के पाँच पद भिन्न घोषों वाले, भिन्न व्यंनों वाले और भिन्न अर्थ वाले हैं।
____ यहां यह आशंका होती है कि चलमाणे चलिए इत्यादि जिन चार पदों को एक अर्थ वाला बतलायागया है,उनका अर्थ भिन्न-भिन्न प्रतीत होता है और पहले भिन्न-भिन्न अर्थ ही किया भी गया है। ऐसी स्थिति में भगवान् ने किस अपेक्षा में चारों पदों का अर्थ एक फरमाया है ?
इस संबंध में शास्त्रकार का कथन है कि जो भी वात कही जाती है, वह किसी न किसी अपेक्षा से ही कही जाती . है। यहां चारों पदों को उत्पन्न पक्ष की अपेक्षा से एकार्थक वतलाया गया है। . .
' वादी और प्रतिवादी के द्वारा बोला जाने वाला प्रादि वचन पक्ष कहलाता है । यहां इन चारों पदों को उत्पाद नामक पक्ष-पर्याय को ग्रहण करके एक अर्थ वाला कहा है। तात्पर्य यह है कि प्राथमिक चार पदों का अर्थ उत्पाद पर्याय की अपेक्षा एक ही अर्थ है और यह चारों एक ही काल में होने वाले हैं। एक ही अन्तर्मुहूर्त में चलन क्रिया, उदीरणा क्रिया, वेदना क्रिया, और,प्रहीणं क्रिया भी होजाती है। इन चारों की स्थिति एकही अन्तर्मुहूर्त है । इस प्रकार तुल्य काल की अपेक्षा से भी यह चार पद एक अर्थ वाले कहलाते हैं। .
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[ ३४३ ]
एकार्थ अनेकार्थ
अथवा - यह चारों पद एक ही कार्य को उत्पन्न करने के कारण एकार्थक कहलाते हैं। उदाहरणार्थ- पत्र लिखने मैं कागज़, कलम, दावात और लिखने वाला, यह चार हुए; मगर यह सब मिलकर एक ही कार्य के साधक होते हैं, श्रतएव एकार्थक हैं ।
यह चारों मिल कर एक कार्य कौन-सा करते हैं, जिस की अपेक्षा से इन्हें एकार्थक कहा गया है ? इस प्रश्न का उत्तर है - केवलज्ञान का प्रकट करना । यह चारों मिलकर केवलज्ञान को प्रकट करने रूप एक ही कार्य के कर्त्ती होने से एक ही अर्थ वाले कहलाते हैं ।
इन नौ पदों में कर्म का विचार किया गया है और कर्म का नाश होने पर दो फल उत्पन्न होते हैं- पहला केवलनान और दूसरा मोक्षप्राप्ति । पहले के चार पदों ने मिलकर केवलज्ञान उत्पन्न किया। इस पक्ष की अपेक्षा चारों पदों का अर्थ एक बतलाया गया है ।
V
श्रात्मा के लिए केवलज्ञान की प्राप्ति अपूर्व है । श्रात्मा को पहले कभी केवलज्ञान प्राप्त नहीं हुआ, क्योंकि केवलज्ञान एक वार उत्पन्न होने के पश्चात् कभी मिटता नहीं है । जो वस्तु श्राकर फिर चली जाती है वह प्रधान नहीं है । प्रधान तो वही है जो श्राकर फिर कभी न जावे | केवलज्ञान ऐसी ही वस्तु है, श्रतएव प्रधान है । प्रधान पुरुष इसे ही प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं ।
शंका- इन चार पदों से केवलज्ञान की ही उत्पत्ति क्यों मानी गई है ? दूसरे ज्ञानों की उत्पत्ति क्यों नहीं मानी गई ?
·
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श्रीभगवती सूत्र
[३४४]
समाधान-सव ज्ञानों में केवलज्ञान ही उत्कृष्ट हैं। वही क्षायिक शान है । कर्मों का क्षय होने से वही उत्पन्न होता है। इन चार पदों से अन्य शानों की उत्पत्ति मानी जाय तो अनेक बाधाएँ उत्पन्न होती हैं। अतः इन पदों से केवलज्ञान की उत्पत्ति मानना ही समुचित है। और इसी अपेक्षा से इन चार पदों को समान अर्थ वाला बतलाया गया है। ।
. शंका-केवलज्ञान की उत्पत्ति में यह चार पद क्या काम करते हैं ? दो या तीन पदों से ही केवलज्ञान क्यों नहीं उत्पन्न होता ? केवलज्ञान के लिए इन चारों की आवश्यकता क्यों है?
समाधान-पहला पद 'चलमाणे चलिए है। वह केवलज्ञान की प्राप्ति में यह काम करता है कि इससे कर्म उदय में आने के लिए चलित होते हैं । कर्म का उदय दो प्रकार से होता है-उदय भाव से और उदीरणा से । स्थिति का क्षय होने पर कर्म.अपना जो फल देता है वह उदय कहलाता है और अध्यवसाय विशेष या तपस्या श्रादि क्रियाओं के द्वारा जो कर्म स्थिति पूर्ण होने से पहले ही उद्य में लाये जाते हैं, उसे उदीरणा कहते हैं। दोनों ही जगह उदय तो समान ही है, मगर एक जगह स्थिति का परिपाक होता है और दूसरी जगह नहीं । उदय या उदीरणा होने पर कर्म की वेदना होती है अर्थात् कर्म के फल का अनुभव होता है।
जिस कर्म के फल का अनुभव हो गया, वह फर्म नष्ट हो जाता है-आत्मा के प्रदेशों से पृथक् हो जाता है। उसे कर्म · का पहीण' होना कहते हैं।
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[३४५]
एकार्थ-अनेकार्थ इस प्रकार यह चारों पद आत्मप्रदेश से कर्मों को हटा देते हैं, तब केवलज्ञान प्रकट होता है। केवलज्ञान के इस उत्पन्न पक्ष को ग्रहण करके ही इन चारों पदों को एकार्थक कहा है।
टीकाकार आचार्य का कथन है कि यह व्याख्या 'भगवती-सूत्र की प्राचीन टीका के आधार पर की गई है। अन्य श्राचार्यों का अभिप्राय इस संबंध में भिन्न प्रकार का है। उनका कथन है कि यह चार पद स्थितिबंध-विशेष रहित अर्थात् सामान्य कर्म के आश्रित होने से एकार्थक हैं और केवलज्ञान की उत्पत्ति के साधक हैं । एक ही अन्तर्मुहूर्त में, यह केवलज्ञान की उत्पत्ति के लिए व्यापार करते हैं। अतएव ' इन्हें एकार्थक कहा गया है।
· प्रश्न-पहले के चार पदों को एकार्थक बतलाने से ही यह सिद्ध हो जाता है कि शेष अंत के पाँच पद अनेकार्थक हैं। फिर उन्हें अलग अनेकार्थक क्यों कहा है ? • उत्तर-सूत्र की रचना दो प्रकार से होती है-एक विद्वत्तापूर्वक, दूसरी दयापूर्वक । विद्वत्तापूर्वक जो रचना होती है उसमें संक्षेप का वहुत ध्यान रखना पड़ता है। वही अर्थ कायम रहे और रचना में एक मात्रा की कमी हो जाय तो ऐसे लेखकों को इतनी खुशी होती है, मानों पुत्र की उत्पत्ति हुई हो । 'एकमात्रा लाघवेन पुत्रोत्सवं मन्यन्ते वैयाकरणाः' यह कथन प्रसिद्ध है । मगर ऋषियों की रचना इस दृष्टि से नहीं रची जाती। वे अपनी विद्वत्ता प्रदर्शित करने के लिए रचना में संक्षेप करने की आवश्यकता नहीं समझते । अल्प से अल्प बुद्धि वाला भी जिस प्रकार वस्तु-तत्त्व को समझ सके, उसी प्रकार का यत्न वे करते हैं । चाहे अक्षर बढ़ जाएँ
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श्रीभगवती सूत्र
[३४६] तो बढ़ जाएँ । यही कारण है कि शास्त्रकार ने पहले के चार पदों को एकार्थक बतलाकर भी, अंत के पांच पदों को अलग अनेकार्थक बतलाया है।
तात्पर्य यह कि 'छिज्जमाणे हिरणे' से लगाकर 'निजरिज्जमाणे निज्जिरणे' तक के पांच पद भिन्न-भिन्न व्यंजन वाले, विभिन्न घोप वाले और भिन्न-भिन्न अर्थ चाले हैं। यह वात विगत पक्ष की अपेक्षा से कही गई है। यहां इन पांच पदों का जरा विस्तार से विचार किया जाता है।
अंतिम पाँच पदों में 'छिज्जमाणे छिरणे' यह प्रथम पद है । यह पद कर्मों की स्थिति की अपेक्षा से है। केवल ज्ञान की प्राप्ति हो जाने के अनन्तर, तेरहवें गुणस्थान वाले सयोग केवली, जब अयोग केवली होने वाले होते हैं, मन, वचन, काय के योग को रोक कर अयोगी अवस्था में पहुंचने के उन्मुख होते हैं, तब वेदनीय, नाम, गोत्र कर्म की जो प्रकृति शेष रहती है, उसकी लम्बे काल की स्थिति को सर्वापवर्तन नामक करण द्वारा अन्तर्मुहूर्त की स्थिति बना डालते हैं। अर्थात् लम्बी स्थिति को छोटी कर लेते हैं। यही कर्मों का छेदन करना कहलाता है।
। यद्यपि कर्मों का यह छेदन असंख्यात समयों में होता । है लेकिन प्रथम समय में ही, जब छेदन-क्रिया होने लगी तभी छौजे-छिन्न हुए, ऐसा कहना चाहिए।
कर्मों के छेदन होने में और भेदन होने में अंन्तर है। छेदन स्थिति बंध के आश्रित हैं और भेदन अनुभागवंध के .. के आश्रित हैं। स्थिति का छेदन होना 'छिजमाण'. होना
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[३४७]
__ एकार्थ-अनेकार्थ कहलाता है और कर्मों के रस का भेदन करना 'भिज्जमाण' होना कहलाता है। तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोग केवली स्थितिघात के साथ रसघात भी करते हैं।
स्थितिघात और रसघात का काल एक ही होता है, लेकिन स्थितिघात के खंड में रसघात के खडवें अनन्त होते हैं। अर्थात् स्थिति से कर्म के परमाणु अनंत गुणे हैं । स्थिति खंड की क्रम-रचना होती है-कि इस समय इतने स्थिति खंड का नाश होगा । श्रतएव यद्यपि कर्म स्थिति और 'कर्मरस का नाश एक ही समय होता है, लेकिन स्थितिघात के पुद्गल अलग हैं और रसघात के अलग हैं। इस कारण छिज्जमान और भिज्जमाण पदों का अर्थ अलग-अलग है।
जैसे स्थिति कम की जाती है उसी प्रकार रस भी सोखा जाता है । इस रस के सोखने में भी असंख्य समय लगते हैं, परन्तु पहले समय से जो रसघात होता है, उसकी अपेक्षा रसघात हुमा, ऐसा कहा जा सकता है ।
तीसरा पद 'दह्यमान है। कर्म के प्रदेशों का घात होना कर्म का दाह कहा गया है। अनन्तानन्त कर्म-प्रदेशों को अकर्म रूप में परिणत कर देना कर्म का दाह करना कहलाता है।
मोक्ष प्राप्त करने वाले महात्मा किस स्थिति से, किस प्रकार अात्मिक विशुद्धि करके मुक्त होते हैं, इस बात को ज्ञानियों ने अपने ज्ञान में देखा है और भाज शास्त्र द्वारा उसे मुनकर हम पवित्र हुए हैं।
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श्रीभगवती सूत्र
[३४८]
प्रदेश का अर्थ है-कर्म का दल । पाँच हस्व अक्षर उच्चारण-काल जितने परिमाणवाली और असंख्यात समय युक्त गुणश्रेणी की रचना द्वारा कर्म प्रदेश का क्षय किया जाता है। यद्यपि वह गुणश्रेणी है सिर्फ पाँच हख अक्षर उचारणकाल के वरावर काल वाली है, लेकिन इतने से काल में ही असंख्यात समय हो जाते हैं। वह गुणश्रेणी पूर्वरचित होती है। तेरहवें गुणस्थान से ही उस गुणश्रेणी की रचना होती है। इस गुणश्रेणी से समुच्छिन्न क्रिया नामक शुक्लध्यान का चौथा पाया उत्पन्न होता है। उसमें पहले समय से असंख्य समय तक प्रतिसमय असंख्य गुणा वृद्धि से कर्म-पुद्गल को दग्ध किया जाता है। अर्थात् पहले समय में जितने कर्म-पुद्गल दग्ध होते हैं, उससे असंख्यात गुणे दूसरे समय में दग्ध होते हैं । इसी प्रकार तीसरे समय में, दूसरे समय की अपेक्षा भी असंख्यात गुणे कर्मों को दग्ध किया जाता है, इस प्रकार दग्ध करने का क्रम बढ़ता जाता है। इसका कारण यह है कि ज्योर कर्मपुद्गल दग्ध होते जाते हैं, त्यों त्यों ध्यानानि अधिक प्रज्वलित होती जाती है और वह अधिकाधिक कर्मपुद्गलों को दग्ध करती है। - इस प्रकार भिद्यमान और दह्यमान पदों का अर्थ भी अंलग-अलग है।पाँच ह्रस्व अक्षर उच्चारण करने में असंख्यात समय लगते हैं । इन असंख्यात समयों में से पहले ही समय में जो कर्मपुद्गल दग्ध होते हैं, उनकी अपेक्षा उन्हें 'दग्ध हुए ऐसा कहा जा सकता है।
__ . यद्यपि जला देनां दूसरी वस्तुओं के संबंध में भी लोक में प्रसिद्ध है, किन्तु यहाँ उसे प्रहणं नहीं करना चाहिए।
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[३४६.]
एकार्थ-अनेकार्थ यहाँ मोक्ष-विचार का प्रकरण है अतः कर्मों को जलाना अर्थ ही मानना उचित है।
'चौथा पद है-'मिजमाणे मडे । अर्थात् जो मर रहा है वह मरा । इस पद से आयु कर्म के नाश का निरूपण किया गया है। अन्य पदों से इस पद का अर्थ भिन्न है। आयु कर्म के पुद्गलों का क्षय करना ही मरण है।
प्रत्येक योनि वाला संसारी जीव मरण करता है। संसार में कोई भी ऐसा प्राणी नहीं है, जिसे लगातार जन्ममरण न करना पड़ता हो । लेकिन यहाँ सामान्य मरण से अभिप्राय नहीं है। यहाँ उस मरण से तात्पर्य है कि जिसके पश्चात् फिर कभी जन्म-मरण न करना पड़े-अर्थात् वह मरण जो मोक्ष प्राप्त करने से पहले, एक बार करना पड़ता है। पहले बँधे हुए आयु कर्म का क्षय होजाय और नया श्रायु कर्म न बधे, यही मोक्ष का कारण है।
यद्यपि मरण असंख्यात समय में होता है, लेकिन पहले समय में ही जो मरने लगा, उसे 'मरा' कहा जा सकता है।
पाँचवा पद है-'निजरिजमाणे निजिरणे ।' समस्त कमों को अकर्म रूप में परिणत कर देना यहाँ निर्जरा करना कहा गया है । यह स्थिति संसारी जीव ने कभी नहीं प्राप्त की है। उसने कभी शुभ कर्म किये, कभी अशुभ कर्म किये, परन्तु समस्त कर्मों का नाश कभी नहीं किया । श्रात्मा के लिए यह स्थिति अपूर्व है। अतएव इस पद का अर्थ अन्य पदों से भिन्न है । इस प्रकार अन्त के पाँचों पद भिन्न-भिन्न अर्थ वाले हैं।
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[३५२ भना चाहिए । इस तरह 'चतमाणे चलिए' श्रादि पदों से भगवान् ने यह सूचित किया है कि वस्तु तीनों कालों में विद्यमान रहती है।
श्रीसिद्धसेन दिवाकर कहते हैं कि 'चलमाणे' इस कथन से वर्तमान काल और भविष्यकाल बोध होता है: अतएव गौतम स्वामी भगवान से प्रश्न करते हैं कि द्रव्य भूतकाल में भी होगा या नहीं?
श्रारम्भिक क्रिया से लेकर अन्तिम समय की क्रिया तक वर्तमान और भविष्य का बोध होता है और 'उत्पन्त' कहकर भगवान् ने भूतकाल का बोध कराया है। इस प्रकार पूर्वोळ नौ पदों से यह लिद्ध होता है कि द्रव्य भूत, वर्तमान और भविष्य-तीनॉ कालों में विद्यमान रहता है। इस प्रकार इन पदों में कर्म की चर्चा होने पर भी द्रव्य की चर्चा का भी समावेश हो जाता है।
किसी-किली प्राचार्य का अभिप्राय यह है कि इन नौ पर्दो के विषय में शास्त्र में कहीं ऐसा उल्लेख नहीं है कि यह पद कर्म के विषय में ही कहे गये हैं। ऐसी स्थिति में इन्हें कर्म के सन्बन्ध में ही मानने का कोई कारण नहीं है। श्रतएव इन्हें कर्म के विश्य में सीमित न रखकर वस्तु-मात्र के विषय में लागू करना चाहिए ।
पहले के चार पद उत्पत्ति के सूचक हैं और अन्त के पाँच पद विनाश के सूचक हैं। इन्हें प्रत्येक वस्तु पर घटाया जा सकता है, क्योंकि प्रत्येक वस्तु उत्पाद और विनाश से यूक्त है । मगर प्रश्न यह है कि इन्हें सामान्य रूप से पदार्थ
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[३५३]
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मात्र पर कैसे घटाया जा सकता है. इस व्याख्या में पहले के चार पद नाना व्यंजन, नाना घोष वाले और एकार्थक का हिसाव कैसे वैठेगा?
. . इस प्रश्न का उत्तर देते हुए वह प्राचार्य कहते हैं कि हमारे अर्थ में नाना-व्यंजन, नाना घोप और एक अर्थ घटाने में कोई बाधा नहीं है। क्योंकि शास्त्र में उत्पत्ति पक्ष और विगत पक्ष को स्पष्ट कर दिया है । नौ पदों को सामान्य रूप कहने का कारण यह है।
. पहला पद है-'चलमाणे चलिए । 'यह चलन अकेले कम में नहीं, वरन् पदार्थ मात्र में पाया जाता है। चलन का अर्थ हैं-अस्थिरता । अस्थिरता रूप पर्याय को मुख्य फरके यहाँ पदार्थ की उत्पत्ति बतलाई गई है।
दूसरा पद है-'उदीरिज्जमाणे उदीरिए । 'जो वस्तु स्थिर है उसे प्रेरणा करके चला देने को 'उदीरण' कहते है। अतएव उदीरणा भी एक प्रकार की चलन-क्रिया ही है।
तीसरा पद है-'वेइज्जमाणे वेइए। 'वि' उपसर्गपूर्वक 'ए' धातु से 'व्येजन' शब्द वना है । व्येजम का अर्थ है-काँपना । काँपना स्वरूप की अपेक्षा उत्पन्न होना ही है। . चौथा पद है पहिज्जमाणे पहाणे।' अर्थात् जो प्रभ्रष्टभ्रष्ट हो रहा है वह भ्रष्ट दुआ। अपने स्थान से पतित होनागिर जाना-भ्रष्ट होना कहलाता है। यह भी एक प्रकार की चलन-क्रिया ही है। विना चले कोई वस्तु अपने स्थान से
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श्रीभगवती सूत्र
[३५४ ] गिर नहीं सकती, इसलिए चलन है। इस प्रकार यह चारों पद एकार्थक ही है।
उत्पत्ति-चलन क्रिया इन चारों पदों में विद्यमान है, श्रतएव शास्त्रकार ने इन्हें एकार्थक कहा है और व्यंजनों एवं घोपों की विभिन्नता तो स्पष्ट ही है।
. इन प्राचार्य का अभिप्राय यह है कि पूर्वोक्त कर्म संबंधी विशेष पक्ष ग्रहण करने से उसमें इस सामान्य पक्ष का समावेश नहीं हो सकता, क्योंकि वह कर्म तक ही सीमित रहता है, मगर इस सामान्य पक्ष में विशेष पक्ष का अन्तर्भाव हो जाता है। जैसे 'मनुष्य में राजा-रंक सभी का समावेश होता है, मगर 'राजा' कहने में रंक का समावेश नहीं होता। इसी प्रकार हमारी व्याख्या में कर्म का भी समावेश हो जाता है, तथा अन्य पदार्थों का भी समावेश हो जाता हैमगर कर्म रूप विशेष पक्ष में अन्य पदार्थों का समावेश नहीं होता। इसलिए.सामान्य पक्ष प्रहण करके इन पदों की व्याख्या करनी चाहिए।
अव प्रश्न यह है कि शेष पाँच पदों की संगति किस प्रकार विठलाई जायगी? इस प्रश्न का समाधान यह है:
इन पाँच पदों का कर्म रूप विशेप पक्ष,स्वीकार करके व्याख्यान किया गया है, मगर यह भी वास्तव में सामान्य रूप ही हैं। कर्म को विशेष करने से यह पद विशेष हो गये हैं, लेकिन वास्तव में यह पद सामान्य है। 'छिप्जमाणे आदि. पद सामान्य रूप से क्रिया वाचक हैं। छेदन चाहे कर्म का हो, चाहे किसी अन्य वस्तु का, सभी के लिए समान रूप से वह
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[ ३५५ ]
एकार्थ- श्रनेकार्थ
लागू हो सकते हैं । इसी प्रकार भेदन कर्म का भी होता है और अन्य वस्तुओं का भी । जलना, भरना, जर्जरित होना, श्रादि क्रियाएँ भी अकेले कर्म से ही संबंध नहीं रखती, श्रपितु सभी से उनका संबंध है । इससे यह स्पष्ट है कि यह पद भी सामान्य रूप ही है, विशेष रूप नहीं 1.
. इन पदों को भिन्न अर्थ वाला क्यों कहा है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि छेदन-भेदन आदि भिन्न-भिन्न क्रियाएँ हैं । जैसे कुल्हाड़ी से वृक्ष की शाखा को छेद डालना पृथक् है और तीर से शरीर को भेद डालना पृथक् है । छेदन तो अलगअलग कर देता है और भेदन भीतर घुसने को कहते हैं । इस प्रकार छेदन और भेदन में अन्तर है । इसी प्रकार अग्नि से घास-फूस को जलाना छेदन-भेदन से पृथक् है । मरण, प्राण त्याग करने को अथवा वस्तु के यदल जाने को कहते हैं । श्रतएव यह भी छेदन-भेदन और ज्वलन से भिन्न ही हुआ, क्योंकि जीव बिना छेदन, भेदन किये और विना 'जलाये भी मर जाता है । अगर भरण इन क्रियाओं से भिन्न न होता तो ऐसा क्यों होता। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मरने की क्रिया पूर्वोक्त क्रियार्थो से न्यारी है ।
3
बहुत पुराने को जीर्ण कहते हैं । निर्जरना का अर्थ हैजर्जरित होना | पदार्थ विना छेदे भेदे, जलाये भी ऐसा जर्ज: रित हो जाता है कि दीखता तो है मगर हाथ लगाते ही विखरने लगता है । अतएव निर्जीर्ण होना भी छेदन - भेदनं श्रादि से भिन्न समझना चाहिए । इस तरह उक्त पाँचों पद
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भिन्नार्थक हैं, यह बात स्पष्ट हो जाती है ।
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श्रीभगवती सूत्र
[-३५६
छाब यह पूछा जा सकता है कि विगत पक्ष का अर्थ है ?' विगत का अर्थ है - विनाश होना । यह पाँचौ पद भिन्नार्थक हैं, लेकिन विगत पक्ष का समावेश इन पाँचों में होता है । छेदन, भेदन आदि से वस्तु का विनाश हो जाता है, अतः यह पाँचों पद विगत पक्ष की अपेक्षा हैं, यह कहना ही है।
इस प्रकार सामान्य पक्षके समथक आचार्यों का कथन 'है कि आपका पक्ष एक देशीय और हमारा पक्ष सर्वदेशीय है ।
शंका- शांत्र तत्त्व का निरूपण करता है। वह संसार की साधारण बातों पर प्रकाश नहीं डालता। श्रतएव हमने विशेष पक्ष लेकर इन पदों के द्वारा तत्त्व का व्याख्यान किया है, वही ठीक है । सामान्य पक्ष स्वीकार कर आपने संसार की सभी बातों का समावेश कर दिया है । संसार के छेदनभेदन की क्रिया तो चलती ही रहती है । उस पर विचार की क्या आवश्यकता है । वह तो तत्त्व-रूप है । शास्त्र को उससे क्या प्रयोजन ? शास्त्र तो केवल तत्व की बात बतः लाती है।
1
समाधान... इस कथन से यह प्रकट होता है कि आप को तत्व का समीचीन बोध नहीं है । क्या अकेला 'मोक्ष ही तत्त्व हैं ? दूसरे तत्त्व नहीं हैं ? अगर ऐसा होता तो शास्त्रकारों ने नरक, स्वर्ग श्रादि का वर्णन क्यों किया है ? अगर मोक्ष ही केला तत्त्व-रूप माना जाय तो उसके सिवा सभी अंतत्त्व ठहरते हैं। मगर ऐसा नहीं है। हमने जो व्याख्या की हैं वह तात्त्विक ही है, श्रतात्त्विक तनिक भी नहीं है।
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[३५७]
एकार्थ-अनेकार्थ __ तो क्या शाक-भाजी का छिदना, भाले से किसी चीज़ का भिदना, घास-फूस का जलना, मर जाना और जजेरित होना भी तस्वरूप है ? इसका उत्तर है-हाँ, अवश्य । विना तत्त्व की कोई बात ही नहीं है । संसार के समस्त पदार्थों का जिन-प्रणीत तत्त्वों में समावेश हो जाता है। ऐसा कोई पदार्थ विद्यमान नहीं, जो तत्व से पहिर्भूत हो।
शंका-विना तत्व की कोई बात नहीं है, इसे स्पष्ट कीजिए?
समाधान पहला पद 'चलमाणे चलिए' है। इसके विरुद्ध जो 'चलमाणे प्रचलिए' कहता है उसे निश्चयनय का शान नहीं है । यदि 'चलमाणे' को 'चलिए' न कहा जाय तो निश्चयनय उठ जाता है। अतः निश्चयनय का शान कराने के लिए ही उक्त नौ पद कहे गये हैं। यह वात तनिक और स्पष्टता से समझाई जाती है।
कल्पना कीजिए-एक मनुष्य कह रहा है कि अमुक पुरुष कलकत्ता की ओर चल रहा है। अव उसे 'गया. हुश्रा' कहें या नहीं गया हुश्रा' कहें ? अभी उस पुरुष ने कलकत्ता की और एक ही पैर उठाया है, वह कलकत्ता पहुँचा नहीं है। कलकत्ता सौ योजन दूर है। चला कम है और चलना अधिक है। ऐसी दशा में उसे गया कैसे कहा जाय ?
जो ऐसा प्रश्न करता है उसे व्यवहार का शान तो है, पर निश्चय का ज्ञान नहीं है । ज्ञानी जन निश्चय की अपेक्षा जो कथन करते है, उसका प्रश्नकर्ता को भान नहीं है । इस
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श्रीभगवती सूत्र
[३५] न जानी हुई बात को समझा देने का नाम ही सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त और निश्चय नय की अपेक्षा चल रहे को चला कहना चाहिए।
'व्यवहार नय की अपेक्षा, जो कलकत्ता जा रहा है, उसे 'चलता' माना जाता है, 'गया' नहीं माना जाता। निश्चय नय कहता है कि जो चलने लगा वह चला अर्थात् जिसने गमन क्रिया प्रारंभ करदी चह गया, ऐसा मानना चाहिए।
विशेषावश्यक भाष्य में इस प्रश्न की विस्तार पूर्वक विवेचना की गई है ।वहां जमाली के 'चलमाणे प्रचलिए' इस मत पर विचार कर इसका सहेतुक खंडन किया. गया है और 'चलमाणे चलिए' इस सिद्धान्त की स्थापना की गई है।
जो लोग यह कहते हैं किं मोक्ष की चर्चा ही तत्व है, उन्हें यह भी समझना चाहिए कि क्या शास्त्र में परमाणु की चर्चा, काल की चर्चा, क्षेत्र की चर्चा नहीं की गई है ? अगर की गई है तो किस दृष्टि से ? शास्त्र में अगर पुण्य की बात कही है तो क्या पाप की बात नहीं कही है ? बंध का विवेचन है तो क्या निर्जरा का विवेचन नहीं है ? शास्त्र में सभी विषयों की यथोचित चर्चा है और यह सभी मोक्ष में निमित्त होते हैं।
'चलमाणे चलिए' इस सिद्धान्त को स्वीकार न करने से अनेक दोष आते हैं । भगवती सूत्र में आगे वर्णन आएगा कि गौतम स्वामी ने भगवान से प्रश्न किया-प्रभो! एक मुनि भिक्षा-चर्या के लिए गया। मोहनीय कर्म के उदय से वहाँ .' उसे कोई दोष लग गया।' दोष तो लग गया मगर बाद में
मुनि को पश्चात्ताप हुश्रा । उसने विचार किया कि मैं गुरु
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[३५६]
. एकार्थ-अनेकार्थ
महाराज की सेवा में उपस्थित होकर इस दोष की आलोचना काँगा । आलोचना करने का संकल्प करके उसने गुरु महा-- राज की सेवा में प्रस्थान किया। किन्तु वहाँ पहुँचने से पहले ही-मार्ग में ही मृत्यु को प्राप्त हो गया। ऐसी स्थिति में दोष लगाने वाला वह मुनि अराधक कहलाएगा या नहीं?
भगवान् ने उत्तर दिया-आराधक होगा।
गौतम स्वामी ने फिर पूछा-अभी उसने आलोचना तो की ही नहीं है, फिर श्राराधक कैसे हो गया ?
भगवान् ने फरमाया-'चलमाणे चलिए' अर्थात् जो चलने लगा वह चला, इस सिद्धान्त के अनुसार वह मुनि
आराधक है । वह आलोचना करने चला, मगर कार्य पूर्ण न हुआ तो यह उसके अधिकार की बात नहीं है।
अगर 'चलमाणे चलिए' सिद्धान्त न माना जाय तो आराधक पद में भी कमी आ जायगी और इस प्रकार मोक्ष का भी प्रभाव हो जायगा।
इस प्रकार निश्चय नय की अपेक्षा जो चलने लगा वह चला, ऐसा मानना उचित है। लेकिन केवल निश्चय नय को ही मानकर बैठ रहने से और व्यवहार का त्याग कर देने से भी काम नहीं चल सकता। निश्चय और व्यवहार-दोनों का ही यथायोग्य आश्रय लेना चाहिए । एक दूसरे की अपेक्षा रखने वाला नय ही सम्यक् होता है अन्य-निरपेक्ष नय एकांत रूप होने से मिथ्या है। एकान्त व्यवहारवादी परमार्थ से दूर रहता है और एकान्त निश्चयवादी भी परमार्थ तक नहीं पहुँच सकता। इसीलिए कहा है
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श्रीभगवती सूत्र
- [३६०. निरपेक्षा नया मिथ्यः, सापेक्षा वस्तुतोऽर्थकृत् ।
यहाँ एक शंका और होती है । वह यह कि 'चलमाणे चलिए' यह प्रश्न पहले क्यों पूछा गया है ? पहले इस शंका के विषय में कहा गया था कि यह पद मोक्ष के लिए है। मगर अव तो वह मोक्ष के लिए नहीं रहा, सामान्य रूप से सभी के लिए हो गया। अतएव जहाँ पहले पद को मांगलिक कहा था, . वहाँ अव यह मांगलिक न रहा तब फिर इस मांगलिक पद को सर्वप्रथम स्थान देने का क्या प्रयोजन है ?
इसका उत्तर दूसरे प्राचार्यों ने यह दिया है कि सर्वप्रथम 'नमोसुश्रायकहकर मंगल किया ही है। फिर तस्वचिन्ता की सभी बातें मांगलिक ही होती हैं। इस 'चलमाणेचलिए रूप तत्व चिन्ता का अन्त मोक्ष है। अंतएव यह पद भी मांगलिक ही है। इसमें मोक्ष प्राप्ति का विवेचन भी अन्तभूत हो जाता है।
___ मोक्ष की प्राप्ति जीव को ही होती है। अतएवजीव तत्व का मूल स्वरूप समझ लेने पर ही मोक्ष का स्वरूप ठीक ठीक समझ में आ सकता है। जीव का स्वरूप समझने के लिए यह समझना भी आवश्यक है कि वह कितने प्रकार के हैं और वर्तमान में किस किस स्थिति में विद्यमान हैं।
जीव के भेद बतलाने के लिए संक्षेप में कहा गया हैनेरड्या असुराई पुढधाई बेइंदियादओ चेव । पंचिंदिय-तिरिय-नरा, चिंतरजोइसियवेमाणी ॥.
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[३६१]
एकार्थ--अनेकार्थ नय के मत के अनुसार जीव के चौवीस भेद हैं। इन .चौवसि भेदों में पहला दण्डक नारकी का है, दस दण्डक असुरकुमार श्रादि के हैं, पाँच दण्डक पृथ्वीकाय आदि के हैं, तीन दण्डक दो-इन्द्रिय श्रादि के अर्थात् द्वीन्द्रिय, चीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय के हैं, एक दण्डक पञ्चेन्द्रिय तिर्यच. का है, एक दण्डक मनुष्य का,एक दण्डक व्यन्तर देवों फा, एक दण्डक ज्योतिषी का और एक दण्डक वैमानिक का। इन चौवीस भेदों में ही संसार के समस्त (अनन्तानन्त) प्राणियों का समावेश हो जाता है।
प्रश्न किया जा सकता है कि अनन्तानन्त प्राणियों का चौवीस भेदों में अन्तर्भाव करने का प्रयोजन क्या है ? इस 'इंस प्रश्न का उत्तर यह है कि जब किसी वस्तु की गणना 'करना शक्य न हो तो वर्गीकरण का सिद्धान्त काम में लाया जाता है। कल्पना कीजिए, एक वन है। उसमें अनेक प्रकार के वृक्ष लगे हैं। उन वृक्षों की गणना की जाय तो बड़ी ही कठिनाई उपस्थित होगी, लेकिन उन्हीं वृक्षों की कोटियां चना ली जाएँ तो सुगमता होगी । जब संख्यात की गणना करने में ही कठिनाई आती है तो असभ्य की गणना किस प्रकार हो सकती है, यह सहज ही समझ में आ सकता है। अतएव अनन्तानन्त जीवों का चौवीस श्रेणियों में वर्गीकरण करने से उनका पता लग जाता है।
यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि किसी भी वस्तु को श्रेणीबद्ध करने के लिए कोई एक निश्चित नियम नहीं है । यह विभाजक की इच्छा पर बहुत कुछ निर्भर रहता है। विभाजक
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श्रीभगवती सूत्र
[३६२] अपनी सुविधा के अनुसार किसी भी सदृश धर्म को आधार मानकर अभेद और विसदृश धर्म को प्राधार बनाकर भेद की कल्पना करता है, क्योंकि वस्तुओं में अनेक सदृश और विसदृश धर्म विद्यमान हैं। यहाँ व्याघ्न्या की सुगमता के लिए चौवीस भेदों की कल्पना की गई है, यद्यपि इससे भी कम या अधिक की कल्पना की जा सकती है और अन्यत्र की भी गई है।
यहाँ इन चौवीस भेदों को दण्डक इसलिए कहा है कि इन स्थानों में रहकर आत्मा ने घोर कष्ट सहन किये हैं। यह चौवीस दण्ड के स्थान हैं। अनादि काल से अब तक आत्मा इनमें निवास करके दण्ड भोग रहा है। यद्यपि इस जन्म में कुछ सुख मिला है, लेकिन वह सुख, स्थायी शान्ति देने वाला नहीं है, अतएव इसे भी दण्डक कहा है । आत्मा ने नरक आदि पर्यायों में रहकर किस प्रकार दु:खमय स्थिति भोगी है, इस बात को दिखाने के लिए ही शास्त्रकारों ने नरक
आदि के भेद दिखलाये हैं । उनका विवरण क्रम से आगे किया जायगा।
Sin
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श्रीभगवती सूत्र
[३६४]
गाथा:ठिई उस्सासाहारे किंवाऽऽहारेंति सव्वोवावि । कतिभागंसवाणिव, कोस व भुजो परिणमंति॥
संस्कृत-छाया-प्रश्न-नैरयिकाणां भगवन् ! क्रियत्कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ?
उत्तर-गौतम ! जघन्येन दशवर्षसहस्राणि, उत्कृष्टेन त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता ।
प्रश्न- नैरयिका भगवन् ! कियत् कालान् श्रानन्ति वा प्राण- .. न्ति वा ? उच्छ्वसन्ति वा निःश्वसन्ति वा ? .
उत्तर-यथा उच्छ्वासपदे।
प्रश्न--नरयिका भगवन् ! अाहारार्थिनः ? - उत्तर- यथा प्रज्ञापनायां प्रथम श्राहारोद्देशकः, तथा भणितव्यम् । गाथा-स्थितिरुच्छ्वासाऽऽहारः,किंवाऽऽहरन्ति सर्वतोवाऽपि । ____ कतिभागं सर्वाणि वा, किं खतया वाभूयः परिणमन्ति ।।'
मूलार्थ:- . ..
प्रश्न-हे भगवन् ! नारकों की स्थिति कितने समय की कही है? .
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[३६५]
नारक-वर्णन उत्तर-हे गौतम! जघन्य से दस हजार वर्ष की स्थिति कही है और उत्कृष्ट रूप से तेतीस सागरोपम की स्थिति कही है।
प्रश्न-हे भगवन् ! नारकी कितने समय में श्वास लेते हैं ? और कितने समय में श्वास छोड़ते हैं ?
उत्तर-उच्छ्वास पद के अनुसार समझना चाहिए । प्रश्न--भगवन् ! नारकी आहारार्थी हैं ?
उत्तर- गौतम! पएणवणास्त्र के आहारपद के पहले उद्देशक के अनुसार समझना ।
गाथा का अर्थ-नारकी जीवों की स्थिति, उच्छ्वास, तथा आहार सम्बन्धी कथना करना चाहिए । नारकी क्या ग्राहार करते हैं? समस्त यात्मप्रदेशों से आहार करते हैं ? समस्त थाहारक द्रव्यों का आहार करते हैं ? और पाहार के द्रव्यों को किस रूप में परिणमाते हैं ?
व्याख्या-श्री गौतम स्वामी, भगवान महावीर से पूछते हैं कि हे भगवन् ! श्रापने जीव के चौवीस दंडक कहे हैं, उन में ले नरक-योनि के जीव की स्थिति कितनी है ? अर्थात् जीव नरक में कितने समय तक बना रहता है ?
इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् ने फरमाया-हे गौतम ! स्थिति दो प्रकार की होती है-एक जघन्य, दूसरी
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श्रीभगवती सूत्र
.. [३६६] उत्कृष्ट अर्थात् एक कम से कम और दूसरी ज्यादा से ज्यादा। जहाँ ऊँच और नीच होता है वहाँ मध्यम होता ही है। नरक के जीवों की कम से कम स्थिति दस हजार वर्ष की है अर्थात् नरक में गया हुश्रा जीव कम से कम दस हजार वर्षे तक नरक में रहता है। और अधिक से अधिक तेतीस सागर की स्थिति है।
प्रश्न हो सकता है कि नरक किसे कहते हैं ? इसका उत्तर व्युत्पत्ति के अनुसार यह है कि-जिनके पास से अच्छे फल देने वाले शुभ कर्म चले गये हैं, जो शुभ कर्मों से रहित हैं, उन्हें 'निरय' कहते हैं और 'निरय' में जो हो वह नैरयिक' कहलाते हैं।
जैसे, जिसके पास से सम्पत्ति चली जाती है उसे दरिद्र कहते हैं । जहाँ सम्पत्ति नहीं है वहाँ दरिद्रता होती ही है और दरिद्रता वाले को दरिद्र कहते हैं । यह गुण गुणी का ' भेद है। दरिद्रता गुण है और गुणी वह प्राणी है जो दरिद्र हो। इसी प्रकार जो सुख से अतीत है और पुण्य-फल से भ्रष्ट है उसे नैरयिक कहते हैं।
. 'आयु कर्म के पुद्गलों के रहने की मर्यादा स्थिति कहलाती है। श्रात्मा रूपी दीपक में, श्रायु कर्म रूपी. तेल के विद्यमान रहने की सामयिक मर्यादा का नाम स्थिति है।
..जो जीव अशुभ कर्म वाँध कर नरक योनि में जाते हैं, वे वहाँ कम से कम दस हजार वर्ष अवश्य रहते हैं। कोई भी जाव दस हजार वर्ष से पहले नरक से लौट कर नहीं आ सकता। इसी प्रकार नरक में अधिक से अधिक तेतीस
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(३६७]]
नारक-वर्णन
सागरोपम तक जीव रहता है। कोई भी जीव तेतीस सागरोपम से अधिक समय तक नरक में नहीं रह सकता । यही नरक की जघन्य और उत्कृष्ट श्रायु कहलाती है।
सागरोपम किसे कहते हैं, यह जान लेना आवश्यक है । यह संख्या लोकोत्तर है। अंकों द्वारा उसे प्रकट नहीं किया जा सकता। अतः उसे समझाने का उपाय उपमा है । उपमा द्वारा ही उसकी कल्पना की जा सकती है । इसी कारण उसे उपमा-संख्या कहते हैं, और इसी कारण 'सागर' शब्द के बदले 'सागरोपम' शब्द का व्यवहार भी किया जाता है, सागरोपम का स्वरूप इस प्रकार है।
चार कोस लम्बा और चार कोस चौदातथाचार कोस गहरा पक कुंप्रा हो । फुरू युगलिया के सात दिन के जन्मे चालक के बाल लिये जावें। युगलिया के बाल अपने वालों से ४०६६ गुने सूक्ष्म होते हैं। इन वालों के वारीक से घारीक टुकड़े-काजल की तरह किये जायें। चर्म चनु से दिखाई देने वाले टुकड़ों से असंख्य गुने छोटे टुकड़े हो। अथवा सूर्य की किरणों में जो रज दिखाई देती है उससे असंख्य गुने छोटे हो।ऐसे टुकड़े करके उस कुंए में ठसाठस भर दिये जायें। सौ-सौ वर्ष व्यतीत होने पर एकर दुकढ़ा निकाला जाय। इस प्रकार निकालते-निकालते जब वह कूप खाली हो जाय, तय एक पल्योपम होता है। ऐसे दस कोदापोली कृप जय खाली हो जाएँ तब एक सागरोपम होता है। एक करोड़ को एक करोड़ की संख्या से गुणा करने पर जो गुणन-फल पाता है वह कोडाकोड़ी कहलाता है। ऐसे तेतीस सागरोपम की या ३३० कोडाकोट्टी पल्यापम की नरक की उत्कृष्ट स्थिति है। यह आत्मा ऐसी स्थिति में रह पाया है।
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श्रीभगवती सूत्र
[३६८]
नरक की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है । जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति के बीच की समस्त स्थिति मध्यम स्थिति कहलाती है । दस हजार वर्ष से एक समय अधिक से लेकर तेतीस सागरोपम से एक समय कम तक की स्थिति मध्यम समझनी चाहिए।
___ इसके पश्चात् गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं कि-भगवन् ! नरक के जीव क्या श्वासोच्छ्वासभी लेते हैं भगवान् ने इस प्रशं का उत्तर हाँ में दिया है । तव गौतम स्वामी पूछते है कि उनको श्वासोच्छ्वास कितने समय में होता है ? इस प्रश्न का उत्तर यह दिया गया है कि पराणवणा सूत्र में इसका वर्णन किया है, वहाँ से जान लो।
____ इस प्रश्नोत्तर में 'प्राणमंति' और 'पाणमंति'शब्द आये हैं । इनका क्रमशः अर्थ है-श्वास लेना और छोड़ना । शरीर के भीतर हवा खींचने को प्राणमन या श्वास लेना कहते हैं और शरीर के बाहर हवा निकालने को प्रागमन या श्वास छोड़ना कहते हैं।
किसी-किसी प्राचार्य के मत से श्वासोच्छवास दो प्रकार के होते हैं-एक आध्यात्मिक श्वासोच्छ्वास और दूसरा बाह्य श्वासोच्छवास । आध्यात्मिक श्वासोच्छ्वास को आगमन और प्राणमन कहते हैं और वाह्य को उच्छवास-नि:श्वास. कहते हैं।
श्वास की क्रिया में समस्त योग का समावेश हो जाता है । जो महाप्राण पुरूप श्वासोच्छ्वासः को समझ लेता है
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न हो जाया न रहे तो थोड़ा-
सार
[३६६]
'नारक-वर्णन और वाह्य श्वासोच्छ्वास को अभ्यन्तर कर लेता है अर्थात् श्वासोच्छ्वास पर अधिकार कर लेता है, उसके लिए कोई कार्य कठिन नहीं रह जाता । जो लोग अधिक उम्र तक जीते हैं, वे इसी क्रिया के प्रताप से । खाना-पीना आदि सव श्वास पर ही निर्भर है। अभी श्वास पर थोड़ा-सा काबू है। अगर इतना भी कावू न रहे तो शरीर में मल-मूत्र भी टिकना काठन हो जाय । शरीर में मल मूत्र का न टिकना . ध्वास पर अधिकार न होने का फल है। कई लोगों को दम उठने लगता है, यह भी श्वास पर नियंत्रण न होने के कारण ही। श्राप लोग अपने को सुखी मानते हैं, लेकिन सारे सुख का प्राधार श्वास ही है । जिस समय श्वास पर से अधिकार उठ जाता है, उसी समय सारे सुख हवा में उड़ जाते हैं। श्वास की क्रिया बिगड़ने से आत्मा को कितनी असाता होती है, यह तो भुक्त-भोगी ही नान सकते हैं। वास्तव में साता-असाता श्वास पर ही निर्भर है। योगीजन वाहा श्वासोच्छवास को अभ्यन्तर कर लेते हैं, अतः उन्हें न रोग होता है, न शोक होता है।
एक बार किसी समाचार पत्र में पढ़ा था कि अमेरिका में एक स्त्री अस्ली वर्ष की है, मगर दिखती वह तीस वर्ष की है । उसने श्वासोच्छवास की क्रिया की सुन्दर साधना, की है । लोग बाहरी क्रियाओं की ओर दौड़ते हैं, परन्तु इस विषय में उदासीन रहते हैं । जो पुरूंप अपने वाह्य श्वासो. च्छ्वास को आध्यात्मिक श्वासोच्छ्वास में ले जाता है, उसे अपूर्व शक्ति और अद्भुत सुख की प्राप्ति होती है।
प्राणी किसी भी योनि में क्यों न हो, उसे श्वासोच्छ्वास अवश्य लेना पड़ता है। यह शरीर श्वासोच्छ्वास की क्रिया
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श्रीभगवती सूत्र
[३७०] पर ही टिका हुआ है। श्वासोच्छ्वास की क्रिया बंद हो जाने पर शरीर भी नहीं रहता। ___ गौतम स्वामी ने भगवान् से नारकी जीवों के श्वासोच्छवास के संबंध में प्रश्न किया है। प्रश्न के उत्तर में पएणवणा सूत्र का हवाला दे दिया गया है। मगर टीकाकार ने संक्षेप कप से यह बतला दिया है कि परणावणासूत्र में प्रस्तुत विषय में क्या वर्णन किया गया है। उस सूत्र में भगवान् ने कहा है कि नारकी जीव सतत श्वासोच्छ्वास लेते रहते हैं।
जो अधिक दुखी होता है उसे अधिक श्वास प्राता है। श्वास ज्यादा आने लगा कि दुःख की मात्रा बढ़ी। श्वास अधिक पाने पर कैसी घबराहट होती है, यह हम लोग । संसार में देख सकते हैं। श्वास की बीमारी में जिसे श्वास चलता हो उससे पूछो । वह अपने दुःख का वर्णन नहीं कर सकेगा।
निरंतर श्वासोच्छवास क्यों श्राता है ? इसलिए कि जीव अति दुखी है।
प्रश्न हो सकता है कि सतत कहने से ही निरन्तर की प्रतीति हो गई थी, फिर भी 'सतत' पद क्यों कहा है * ? इसका उत्तर यह है कि अकेला सतत कहने से कुछ कमी रह
. * पण्णवणा सूत्र का पाठ इस प्रकार है:
गोयमा ! सययं संतयामेव प्रामभंति वा, पाणमति व', ऊससांत वा, नीससंति वा ।'
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[३७१]
नारक-वर्णन जाती है, अतएव संतत पद और कहा है। उदाहरण के लिए-'लोक में मनुष्य कहते हैं कि हम निरंतर भोजन करते हैं।' यहां निरंतर पद का प्रयोग करने पर भी कोई मनुष्य प्रतिक्षण सदा नहीं खाता रहता। बीच में काफी समय रहता ही है । फिर भी रोज-रोज भोजन करने को निरन्तर, भोजन करना कह दिया जाता है। यहां श्वासोच्छ्वास के विषय में ऐसा न समझा जाय, इस अभिप्राय से सतत और संतत-दो निरंतरतावाचक शब्दों का प्रयोग कियागया है। इन दो शब्दों के प्रयोग से यह सूचित हो गया कि वीच में समय खाली नहीं रहतां-नारकी जीवों की श्वासोच्छ्वास-क्रिया सदा-सर्वदा-प्रतिक्षण चालू रहती है।
यांख बन्द करके खोलने में भी असंख्य समय लगते हैं इस समय में भी नरक के जीवों का श्वासोच्छ्वास वरायर जारी रहता है । वह किसी भी समय बंद नहीं होता।
नरक के जीवों के श्वासोच्छ्वास का वर्णन करके यह दिखलाया गया है कि-'हे प्राणी! समझले, पहले ही सावधान हो ले । देख, नरक के जीवों को कितना कष्ट होता है।
नरक के दुःखों का वर्णन देखकर श्रात्मासचेत हो जाय, इसीलिए श्री गौतम स्वामी ने नरक का वर्णन पूछा है और भगवान ने नरक का वर्णन किया है । भगवान् महावीर ने नरक का वर्णन ही नहीं किया है, अपितु नरक को अपना पुराना घर बतलाया है। उन्होंने गौतम से कहा है किगौतम! मैं और तू-दोनों नरक में भी गये है और स्वर्ग में भी गये हैं। संसार की कोई योनि शेप नहीं, जिसमें संसारी जीव अनेक वार न भटक पाया हो। असंख्य काल ऐसी
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'श्रीभगवती सूत्र
[३७६] मित्रो! गरीवों पर घुसा पाना ही नरक है । संसार की ऐसी स्थिति हो रही है कि जो धन पैतृक है, उसकी अस्थिरता बैंकों के बंद होने से दिखाई दे रही है, फिर भी सुकृत नहीं सूझता । लक्ष्मी और जीवन की चपलता को जानते हुए भी लोगों के जीवन का एक मात्र साध्य धन वन रहा है।
गौतम स्वामी ने श्वासोच्छ्वास के पश्चात् नारको जीवों के आहार के विषय में प्रश्न किया है। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् ने बतलाया है कि नरक के जीवों को भी आहार की इच्छा होती है । तत्पश्चात् गौतम स्वामी पूछते हैं-'नरक के जीव अाहार किस प्रकार लेते हैं ? भगवान् ने कहा-प्रशापना सूत्र में आहार नामक अट्ठाइसवाँ पद है। उसके पहले उद्देशक में इस विषय का वर्णन किया गया है। ..उसमें नरक के जीवों के अतिरिक्त अन्यान्य जीवों के भी
आहार का वर्णन किया गया है। __. साधारणतया विचार करने से रह समझ में नहीं आता कि ऐसे-ऐसे प्रश्नोत्तर करने से गौतम स्वामी और • भगवान् महावीर ने क्या लाभ सोचा होगा ! उन्हें नरक के जीवों के आहार को जानने एवं वताने की क्या आवश्यकता थी? लेकिन भगवान ने नरक के जीवों के आहार के ४० द्वार बतलाये हैं । यह उन महान् पुरुष की असीम करूणा है । जिन ‘जीवों के आहार का वर्णन किया है, उन्हें चाहे अपने आहार
की बात इतनी स्पष्ट रूप से ज्ञात न हो, लेकिन शानियों की 'दृष्टि से वह छिपी नहीं है । उन्होंने अज्ञ जनों को समझाने के लिए यह सब वर्णन किया है।
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[ ३७७ ]
नारक- वर्णन
प्रश्न - नारकी जीवों के श्राहार के संबंध में पराणवणा सूत्र का जहां उल्लेख किया गया है वहां पद का उल्लेख न करके सीधा श्राहारोद्देशक क्यों कहा गया है ? पहले पद बतलाना उचित था, फिर उसके साथ उद्देशक का कथन करना ठीक रहता ।
उत्तर -- यहां पद- लोपी समास हुना है । इस समास के कारण 'पद' शब्द का लोप हो गया है, तथापि 'पद' शब्द का अर्थ विद्यमान समझना चाहिए ।
पणवरण सूत्र में आहार विषयक जो वर्णन आया है, उसका सामान्य दिग्दर्शन शास्त्रकार ने निम्नलिखित गाथा मैं किया है:
eve
ठिई उस्सासाहारे, किं वाऽऽहारेंति सव्वच वा वि । कतिभागं सव्वाणि व, कीस व भुज्जो परिणमति १ ॥
इस संग्रह - गाथा में उन चालीस द्वारों का संक्षिप्त उल्लेख किया गया है ।
भगवान् ने गौतम स्वामी से कहा है कि नारकी जीव भी हार के अर्थी हैं। 'यहाँ आहार के अर्थी' पद के दो अर्थशास्त्रकारों ने किये हैं। जिसे आहार की इच्छा हो वह श्रहारार्थी कहलाता है, और आहार ही जिनका प्रयोजन हो - वह भी श्रहारार्थी कहलाते हैं।
'गौतम स्वामी के प्रश्न और भगवान् महावीर के उत्तर से तत्व यह निकला कि निकष्ट से निकृष्ट योनि में पड़े हुए
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श्रीभगवती सूत्र
[३८] जीव को भी प्राहार की आवश्यकता पड़ती है। जहां शरीर है वहां आहार भी अनिवार्य है।
नरक दुर्गन्धमय है। वहां रक्त पीव श्रादि घोर अशुचि . पदार्थ भरे हुए हैं। वहां की भूमि इतनी बासजनक है कि उसका स्पर्श करते ही ऐसी वेदना होती है मानों एक साथ हजार विच्छुओं ने काट खाया हो। ऐसी भूमि में रहने वाले नारकी जीव क्या श्राहार करते होंगे ? भगवान् से गौतम स्वामी ने इस अभिप्राय से यह प्रश्न पूछा है कि-नरक में और कोई वस्तु तो है नहीं, फिर क्या जो अशुचिमय वस्तु नरक में है, उसीको नारकी जीव खाने की इच्छा करता है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् कहते है-हाँ गौतम ! नरक के जीव खाने की इच्छा करते हैं। नारकी उस कनिष्ठ अवस्था - में पड़े हुए हैं, और नरक में रक्त, पीव श्रादि वस्तुएँ ही है, तथापि वे इस आहार के लिए प्रार्थना करते हैं।
सुसंस्कारी पुरूष जिस वस्तु से घृणा करते हैं, उसी को संस्कार विहीन या नीच प्रकृति के लोग बड़े उत्साह से 'खाते-पीते हैं । यह बात प्रत्यक्ष देखी जाती है । जव मनुष्यलोक में ही इतना महान् रूचि वैचित्र्य देखा जाता है, तो नरक का क्या पूछना है ? वहाँ के जीव निकृष्ट वस्तुओं के श्राहार की याचना करें, यह अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता।
मैं एक वार पनवेल गया था। वहाँ जव जंगल जाता तो जिन मच्छियों को मार कर सुखाया गया था, उनकी बड़ी दुर्गन्ध पाती थी । दुर्गन्ध इतनी उग्र थी कि खड़ा रहना कठिन होता था । उन मच्छियों में से-वाम नाम की मच्छी तो और भीअधिक बदबू देती थी। मैंने सोचा-जिन मच्छियों
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[३७६]
नारक-वर्णन से ऐसी असा दुर्गन्ध निकलती है, उन्हें भी लोग बड़े चाव से खा जाते हैं । वह वाम मछली जो अतिशय बदबूदार होती है, उसके विषय में लोगों का कहना है कि खाने वाले लोग बाम मछली को ऐसी सची से खाते हैं, जैसे दूसरे लोग मिठाई खाते हैं। इस प्रकार मनुष्य प्राणी भी उस चीज को
रूचिपूर्वक पेट में डाल लेते हैं, जिसके पास खड़ा भी नहीं । रहा जाता । गांधीजी ने एक पुस्तक में तो यहां तक लिखा है कि किसी देश के निवासी विष्टा भी खा जाते हैं।।
जव मनुष्य अनेक प्रकार के उत्तम एवं स्वादिष्ट भोज्य पदार्थों के रहते भी ऐसी-ऐसी घृणास्पद नीच वस्तुएँ "खा जाते हैं और उसमें सुख का अनुभव करते हैं तो नरक के जीवों का, भूख के असह्य दुःख से व्याकुल हो जाने पर अशुचिमय पदार्थों को खाने में सुख मानना आश्चर्यजनक नहीं कहा जा सकता । लेकिन ज्ञानी जन कहते हैं कि मान लेने से ही सुख नहीं हो जाता । इस प्रकार माना हुआ सुख वस्तुतः दुःख रूप है। जीव सुख की भ्रान्ति से ही 'बाह्य भोजन की इच्छा करता है, लेकिन वास्तविक सुख वह है जिसमें बाह्य भोजन की आकांक्षा ही न हो; यही नहीं वरन् किसी भी पर-पदार्थ के संयोग की इच्छा न रह जाय । तभी
सच्चा सुख प्राप्त होता है। , भगवान् ने गौतम स्वामी से कहा कि नरक के जीवों - के आहार के संबंध में पराणवणा सूत्र के २८ पद में जो वर्णन किया है, वही वर्णन यहाँ भी समझ लेना चाहिए ।
- प्राणवणा सूत्र में नरकं आदि के जीवों का श्राहारवर्णन छोटे-छोटे हिस्सों में किया गया है। उन हिस्सों को
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श्रीभगवती सूत्र
[३८० } द्वार कहते हैं। उन द्वारों में नरक के जीवों के आहार के साथ दूसरे जीवों का आहार भी वसलाया गया है। तथा माहारविपयक और और यात. भी उसमें वतलाई गई हैं। यहां नारकी जीवों के आहार के विषय में ही परणवणा के अनुसार दिग्दर्शन कराया जाता है।
• पराणवरसासूत्र में गौतम स्वामी, भगवान महावीर से प्रश्नं करते हैं कि-हे भगवन् ! अगर नारकी जीव आहारार्थी हैं तो कितने समय में उन्हें आहार की इच्छा होती है ? अर्थात् एक बार श्राहार कर लेने के पश्चात् कितने समय बाद उन्हें आहार की अभिलाषा होती है ? .. . इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् फरमाते है-हे गौतम! नरक के जीवों का आहार दो प्रकार का है-(१) आयोगनिवर्तित और (२) श्रनाभोगनिर्वर्तित। खाने की बुद्धि से जो आहार किया जाता है वह श्रामोगनिर्वचित आहार कहलाता है और आहार की इच्छा न होने पर भी जो श्राहार होता है वह अनाभोगनिवर्तित आहार कहलाता है।
यहां श्राहार का प्रकरण होने से आहार के विषय में ही यह कहा गया है कि इच्छा न होने पर भी आहार होता है। मगर यह कथन अन्य क्रियाओं के संबंध में भी लागू होता है । इच्छा के विना अन्यान्य कार्य भी प्रकृति के नियमा नुसार होते रहते हैं । छमस्थ अवस्था जब तक बनी हुई है, या जब तक यह स्थूल शरीर विद्यमान है, तब तक अनाभोग पूर्वक कार्य होते रहते हैं। इन कार्यों में कुछ अनजान में होते हैं और कुछ जानकारी में होते हैं। हाँ, अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करते रहने से और अच्छे कार्यों में निरंतर संलग्न रहने से श्रनाभोग आहार कम अवश्य हो सकता है।
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[३८१]
नारफ-वर्णन
प्रश्न-शूनाभोग आहार अर्थात् अनजान में, इच्छा न होते हुए भी होने वाला पाहार कैसे संभव है ? .
उत्तर-मनुष्य यह नहीं चाहता कि मेरे शरीर पर रज लगे या मेरे भोजन में गंदगी श्रावे; लेकिन जब आँधी चलती है तो शरीर पर रज लग ही जाती है और भोजन में भी आ जाती है । जब कोई बीमारी फैलती है, तब डाफ्टर कहते हैं'खान-पान में सावधान रहो, गंदगी मत होने दो और. दूसरे खराब परमाणुओं को अपने शरीर में प्रवेश मत होने दो। यद्यपि डाक्टर को रोग मिटाना अभीष्ट है लेकिन वह गंदगी से बचने की वात कहता है। इससे यह स्पष्ट है कि शरीर . में गंदगी जाती है। ऐसा न होता तो डाक्टरको मनाई करने की क्या आवश्यकता होती?
यद्यपि गंदगी खाने की इच्छा कोई करता नहीं है, तथापि किसी न किसी कारण से गंदगी खाने में आ ही जाती है। इसी प्रकार इच्छा न होने पर भी, शरीर के आसपास घूमने वाले परमाणु आहार में शा जाते हैं।
इसी आधार पर अन्यान्य क्रियाओं पर विचार करने । से प्रतीत होगा कि किस प्रकार इच्छा के अभाव में भी अनेक कार्य-होते रहते हैं।
गौतम स्वामी का मूल प्रश्न है-श्राहार के समय की मर्यादा का; पर भगवान ने फरमाया-आहार दो प्रकार का होता है। इन दोनों प्रकार के आहारों में से अनाभोग-शाहार तो निरंतर-प्रतिक्षण होता रहता है । एक समय भी ऐसा व्यतीत नहीं होता, जब यह थाहार न होता हो । यह आहार
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श्रीभगवती सूत्र
[३२] बुद्धि पूर्वक-संकल्प द्वारा नहीं रोका जा सकता। दूसरा इच्छापूर्वक जो श्राहार होता है, उसकी इच्छा कम से कम असंख्यात समय में होती है।
प्रश्न-असंख्यात समय कहने से काल की कोई निश्चित मर्यादा नहीं प्रतीत होती। एक उत्सर्पिणी या अवसर्पिणी काल • में भी असंख्यात समय होते हैं और आँख बंद कर
खोलने में भी असंख्यात समय होते हैं। ऐसी अनिश्चित संख्या बतलाने से क्या समझना चाहिए ?
उत्तर-यहां असंख्यात समय एक अन्तर्मुहूर्त प्रमाण लेना चाहिए । अर्थात् नारकी जीवों को अन्तर्मुहूर्त में प्राभोग निर्वार्त्तत श्राहार की इच्छा होती है। - एक दिन-रात में ३० मुहूर्त होते हैं। मुहूर्त प्रमाण समय में कुछ कम समय को अन्तर्मुहूर्त कहते हैं । अन्तर्मुहर्त्त में असंख्यात समय होते हैं । इस असंख्यात समय वाले अन्तर्मुहूर्त के भी असंख्य भेद हैं। किसी अन्तर्मुहूर्त में थोड़ा समय होता है, किसी में ज्यादा होता है। लेकिन असंख्यात समय, अन्तर्मुहूर्त के सिवाय दूसरे को नहीं कहा जा सकता।
प्रश्न-नारकी जीवों को अन्तर्मुहूर्त में आहार की इच्छा . होती है तो क्या इतनी देर तक उनकी भूख मिटी रहती - है ? इतनी देर तक वह तृप्त रहते है ? . .
. उत्तर-ऐसा नहीं है। छझस्थ को एक इच्छा के बाद जब दूसरी इच्छा होती है तो उसमें असंख्यात समय लग हीजाते हैं।'क' अक्षर का उच्चारण करने के बाद 'ख' का उच्चारण
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{३८३]
नारक-वर्णन, करने की इच्छा होने में ही संख्यात समय बीत जाते हैं। इस नियम के अनुसार यद्यपि नारकी जीवों को कभी तृप्ति नहीं होती, फिर भी पकवार इच्छा करने बाद दूसरी बार इच्छा करने में ही असंख्य समय लग जाते हैं।
नरक के जीव मवाद-मांस आदि पुद्गलों का आहार करते हैं । जब वे श्राहारं करते हैं तब भी उनकी भूख नहीं मिटती-उन्हें तृप्ति नहीं होती; किन्तु फिर खाने की इच्छा होने में असंख्यात समय लग जाते हैं। शास्त्रकारों ने नारकी जीवों की भूख मिट जाने की बात नहीं कही है। फिन्तु यह कहा है कि उन्हें असंख्यात समय में भोजन की इच्छा होती है। यह सिर्फ इस अभिप्राय से कहा है कि एक इच्छा के पश्चात् तत्काल ही दूसरी इच्छा होने में असंख्यात समय लग जाते हैं। - अब प्रश्न यह है कि अगर नारकी जीव आहार करते हैं तो किस वस्तु का याहार करते हैं।
___ यह पंचम द्वार फा प्रश्न है। इस प्रश्न का उत्तर भगचान् ने फरमाया है-हे गौतम ! नरक के जीच द्रव्य की अपेक्षा अनन्त प्रदेश चाले पुद्गलों का आहार करते हैं। पुद्गल का सबसे छोटा अविभाज्य अंश-जो खुला रहता है अर्थात् चिलकुल अलग होता है, परमाणु कहलाता है। और चही अंश जब जुड़ा रहता है तो प्रदेश कहलाता है । जो पुद्गल अनन्तप्रदेशी होकर भी सूक्ष्मंस्कंध रूप होता है वह आकाश के एक प्रदेश में समा सकता है। यहां ऐसे सूक्ष्मस्कंध से अभिप्राय नहीं है। किन्तु चादर अनन्त प्रदेशी स्कंध से तात्पर्य समझना चाहिए।
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इसमावर्ण बाल पुदगार विशेष की और विशेष का
श्रीभगवती सूत्र
[३८५] नारकी जीव काल की अपेक्षा जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट स्थिति वाल पुद्गलों में से किन्हीं भी पुद्गलों का आहार करते हैं।
नारकी जीव भाव की अपेक्षा वर्ण वाले, गंध वाले, रस वाले और स्पर्श वाले पुद्गलों का आहार करते हैं।
गौतम स्वामी फिर प्रश्न करते हैं-भगवन् ! नारकी वर्ण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं तो एक ही वर्ण के पुद्गलों का आहार करते हैं या पंच वर्ण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं ?
इस प्रश्न का उत्तर भगवान् ने फरमायाहे-हे गौतम! नारकी पाँचों वर्ण वाले पुद्गलों का श्राहार करते हैं। इस प्रश्न के उत्तर में सामान्य और विशेष को विवक्षा की गई है। सामान्य को स्थानगमन भी कहते हैं और विशेष का विधानगमन नाम भी है। स्थानगमन अर्थात् सामान्य की अपेक्षा एक वर्ण वाल पुद्गल का भी आहार करते हैं और दो वर्ण वाले पुद्गल का भी आहार करते हैं। विधानगमन अर्थात् विशेष की अपेक्षा से अशेष-पाँचों प्रकार के पुद्गलों का श्राहार करते हैं।
गौतम स्वामी फिर प्रश्न करते हैं-'भगवन् ! आपने 'काले पुद्गल का आहार करना कहा है तो नारकी: जीव एक गुण कालें पुद्गल का आहार करते हैं, या दस गुण काले पुद्गल का आहार करते हैं, 'या संख्यात, असंख्यात अनन्त गुंण काले पुद्गल का आहार करते हैं ?
भगवान् ने उत्तर दिया-गौतम ! निश्चय में कोई एक गुण काला होता है, कोई दोगुण काला होताहै, कोई दस गुण
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[३८५]
नारक-वर्णन काला, कोई असंख्यात गुण काला, कोई अनन्त गुण काला होता है । नारकी जीवों के श्राहार में एक गुण काले पुद्गल भी होते हैं, दसगुणं काले भी और असंख्यात तथा अनन्त गुण काले भी होते हैं।
यहां काले पुद्गलों के संबंध में जो कथन किया गया है, वही अन्य वर्ण वाले पुद्गलों के विषय में तथा रस एवं गंध आदि के विषय में भी समझ लेना चाहिए । यहां तक अठारह द्वार पूर्ण हो जाते हैं।
इसके अनन्तर गौतम स्वामी ने स्पर्श की अपेक्षा प्रश्न किया है। उत्तर में भगवान् ने फरमाया है-एक स्पर्श वाले, दो स्पर्श वाले और तीन स्पर्श वाले पुद्गलोकानारकीजीव आहार नहीं करते । कारण यह है कि एक स्पर्श वाले पुद्गलों का आहार करना असंभव है और दो तथा तीन स्पर्श वाले पुद्गल अल्प प्रदेशी और सूक्ष्म परिणमन वाले होने के कारण ग्रहण के योग्य नहीं है । अतएव चार स्पर्श वाले पुद्गलों से लगाकर आठ आर्श वाले पुद्गलों तक का श्राहार करते हैं । यह पुद्गल वहुप्रदेशी और बादरपरिमाण वाले होने से ग्रहण करने योग्य होते हैं।
प्रश्न हो सकता है कि एक गुण काला और अनन्तगुण काला कहने का क्या अभिप्राय है ? इसका उत्तर यह है कि गुण शब्द से यहाँ डिगरी या अंश अर्थ समझना चाहिए। उदाहरणार्थ-किसी वस्त्र को काला रंगने के लिए एकवार काले रंग में डुबोया। एकवार डुबोने से वस्त्र में एकगुण (अंश डिगरी) कालापन आया। इस वन को एक गुण काला कहेंगे । इसी प्रकार असंख्यात बार डुबोया तो वह असंख्यात गुण काला
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श्रीभगवती सूत्र
[३८६] कहलायगा। असंख्यात गुण काला हमें प्रतीत नहीं होता। उसे विशिष्ट शानी ही जान पाते हैं।
इस प्रकार का सूक्ष्म वस्तु-तत्त्व-निरूपण जैन शास्त्रों में ही पाया जाता है, अन्यत्र कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। इसका कारण यह है कि जिसने जाना-देखा, उसने वर्णन किया । जिसने जाना-देखा ही नहीं, वह वर्णन कैसे कर सकता है ?
गौतम स्वामी ने प्रश्न किया~भगवान् ! नारकी एक गुण खुरदरे पुद्गल का आहार करते हैं, या असंख्यातगुण खुरदरे का अथवा अनन्त गुण खुरदरे पुद्गल का!
भगवान् ने फरमाया-गौतम ! सभी प्रकार के खुरदरे पुद्गल का आहार करते हैं।
आहार के विषय में यह सिं प्रश्न हुए। स्पर्श आठ हैं उनमें से एक स्पर्श के विपय में प्रश्न और उत्तर है। शेष सात स्पर्शों के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए । अतः कुल सत्ताईस प्रश्न और सत्ताईस उत्तर हुए।
गौतम स्वामी भगवन् ! नारकी जीव स्पर्श किये जा सकने वाल-छूने में आ सकने योग्य-पुदगलों का आहार करते हैं या स्पर्श न किये जा सकने योग्य पुद्गलों का ?
भगवान् गौतम ! स्पर्श किये जा सकने योग्य पद्गलों का ही आहार करते हैं । जो पुद्गल छुए नहीं जा सकते, उनका आहार नहीं करते। ।
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[३८७]
नारक-वर्णन स्पष्ट पुद्गल दो प्रकार के होते हैं-श्रवगाढ़ अर्थात् जिन प्रदेशों में श्रात्मा हो उन्हीं प्रदेशों में रहे हुए पुद्गल,
और अनवगाढ़ अर्थात् भिन्न प्रदेशों में रह हुए पुद्गल । इन दो प्रकार के पुद्गलों में से नारकी जीव किस प्रकार के पुद्गलों का आहार करते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर यह दिया गया है कि नारकी जीव अवगाढ़ पुद्गलों का आहार करते हैं, अनवगाढ़ का नहीं । तात्पर्य यह है कि जो पुद्गल शरीर के संबंध में तो आये, लेकिन श्रात्मा के साथ एकमेक नहीं हुए, उनका श्राहार नहीं किया जा सकता।
गौतम स्वामी-भगवन् ! नारकी जीव अगर अव. गाढ़ पुद्गलों का आहार करते हैं तो साक्षात् अवगाढ़ पुद्गलों का आहार करते है या परम्परा अवगाढ़ पुद्गलों का?
भगवान्- हे गौतम ! साक्षात् अवगाढ़ पुद्गलों का श्राहार करते हैं, परम्परा-श्रवगाढ़ पुद्गलों का नहीं। ,
गौतम स्वामी भगवन् ! क्षेत्र से साक्षात् अवगाढ़ पुद्गलों का आहार करते हैं या काल से साक्षात् अवगाढ़ पुद्गलों का?
भगवान् महावार-दोनों से।
गौतम-- भगवान् ! नारकी जीव अगर साक्षात् अवगाढ़ पुद्गलों का आहार करते हैं, परम्परा-अवगाढ़ पुद्गलों का नहीं करते तो वे छोटे पुद्गलों का आहार करते हैं या वड़े पुद्गलों का? - भगवान:-छोटे पुद्गलों का भी और बड़े पुद्गलों
का भी।
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श्रीभगवती सूत्र
[३८] यहां अाशंका की जा सकती है कि छोटे और बड़े पुद्गल से क्या तात्पर्य समझना चाहिए? छोटापन और बड़ापन, सापेक्ष हैं। यह बड़ा है और यह छोटा है, यह नियत नहीं है. । जो किसी अपेक्षा छोटा है, वही दूसरी अपेक्षा से बड़ा होता है और जो एक रक्षा से बड़ा है,, वह. दूसरी अपेक्षा से छोटा भी होता है । इस प्रकार छोटापन और बड़ापंन सापेक्ष है अतएव अनियत हैं।
नरक के जीव जिन पुद्गलों का श्राहार करते हैं, उनमें. से कोई एक पुद्गल अगर दूसरे से एक प्रदेश भी बड़ा है तो वह बड़ा कहलायगा जो अधिक प्रदेश बड़ा है वह भी बड़ा कहलायगा और वह उस बड़े से भी बड़ा कहलायगा, मगर इस अधिक बड़े की अपेक्षा वह बड़ा भी छोटा कहा जा सकता है। पहली उँगली, दूसरी की अपेक्षा छोटी है। दूसरी बड़ी है । मगर तीसरी की अपेक्षा यह दूसरी भी छोटी है। यही बात प्रत्यक वस्तु के विषय में समझी जा सकती है।
गौतम स्वामी- भगवन् ! 'नरंक के जीव जिन छोटे-बड़े. पुद्गलों का आहार करते हैं, वे ऊँची दिशा से आये हुए होते है, नीची दिशा से आये हुए होते हैं, या तिरछी दिशा से आये हुए होते हैं ?
. .. .. . : भगवान् गौतम ! नरक के जीव तीनों दिशाओं से आये पुद्गलों का आहार करते हैं।
यहां गौतम स्वामी ने तीन ही दिशाओं को लेकर प्रश्न किया.है । ऊर्ध्व-दिशा और अघों-दिशातो है ही, तिरछी दिशा में चारों ही दिशाओं का समावेश हो जाता है।
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[३६]
L-1
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नारक-वर्सन . सूर्य जिस ओर से निकलता है, उस ओर मुंह करके खड़ा होने से मुँह के सामने की दिशा पूर्व दिशा होगी। - दाहिने हाथ की तरफ दक्षिण दिशा, वायें हाथ की ओर उत्तर दिशा और पीठ की तरफ पश्चिम दिशा होगी। ऊपर की ओर ऊर्ध्व दिशा और नीचे की तरफ अघोदिशा कहलाएगी। यह दिशाएँ मेरू के हिसाव से नहीं है, किन्तु अपने हिसाब
से हैं । गौतम स्वामी ने जिन तीन दिशाओं को लेकर प्रश्न ., किया है, वे नरक की अपेक्षा हैं ।
गौतम-भगवन् ! अगर नरक के जीव तीनों दिशाओं के पुद्गलों का आहार करते हैं तो आदि समय में आहार करते हैं, मध्य समय में आहार करते हैं या अन्त समय में माहार करते हैं।
भगवान्-हे गौतम ! तीनों समयों में प्राहार करते हैं। अर्थात् आभोगनिर्वर्तित आहार को आदि समय में भी ग्रहण करते हैं, मध्यं समय में और अन्तिम समय में भी प्रहण करते हैं। .
यहां यह शंका हो सकती है कि पहले यह कहा जा चुका है कि नारकी अनन्तर अवगाढ़ पुद्गलों का आहार नहीं करते । मगर यहां प्रादि समय में श्राहार करना कहा है-यह
अनन्तर अवगाढ़ हो जाता है। ऐसी स्थिति में पूर्वापर-वि. .. रोध दोष पाता है। इस शंका का समाधान यह है कि दोनों
कथनों में विरोध नहीं है । पूर्व कथन ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से है और यह कथन व्यवहारनय से किया गया है। अनामोगनिवर्तित आहार का तो यहाँ प्रकरणं ही नहीं है, चाभो
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श्रीभगवती सूत्र
[३६]
गनिर्वर्तित आहार का प्रकरण है। आभोगनिर्तित
आहार के अन्तर्मुहर्त में तीन भाग करने चाहिए। यह तीन भाग आदि,मध्य और अन्त के होंगे। आहार के भाग न करके काल के भाग करने चाहिए और काल के साथ
आने वाले आहार को आदि, मध्य और अवसान का समझो। इस प्रकार समझने से तनिक भी विरोध न होगा। ऋजुसूत्रनय यही कहेगा कि श्रादि का ही पाहार करना है, क्योंकि उसके हिसाब से जो काम में श्रा रहा है वह आदि ही है। किन्तु व्यवहार नय के मत से तीनों ही समयों में श्राहार कहा लाएगा। जैन शास्त्र किसी भी एक नय को स्वीकार न करके सभी नयों को स्वीकार करता है। यहाँ तक तेतीस द्वारों का वर्णन हुवा।
गौतम स्वामी-भगवन् ! जो श्रादि, मध्य और अन्त समय में आहार करता है वह स्त्रविषय में प्राहार करता है या अ-स्वविषय में श्राहार करता है? . भगवान् महावीर-हे गौतम! स्वविषयमें श्राहार करता है, अस्वविषय में नहीं करता।
स्वविषय क्या है ? और अस्वविषय किसे कहते हैं ? . इसका उत्तर यह है कि अपना स्पृष्ट, अवगाढ़ और अनन्त. रावगाढ़ रूप विषय, स्वविषय कहलाता है अर्थात् ऐसे पुद्गलों का श्राहार करना स्वविषय कहलाता है और इससे विपरीत अस्वविषय कहलाता है।
गौतम स्वामी-भगवन् ! स्वविषय में जिन पुद्गलों का आहार नारकी करते हैं, वह श्रानुपूर्वी ले या विना ही आनुपूर्वी से ? अर्थात् क्रम से या अक्रम से ? ' .
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[ ३६१]
नारक-वर्णन 'पांच ऊँगलियों में से क्रम पूर्वक एक के पश्चात् दूसरी का ग्रहण करना आनुपूर्वी से ग्रहण करना कहलाता है और चीच में की किसी उँगली को छोड़कर आगे वाली को ग्रहण करना विना आनुपूर्वी के ग्रहण करना कहलाता है।
• भगवान्-हे गौतम । श्रानुपूर्वी-क्रम से पुद्गलों को प्रहण करते हैं, अनानुपूर्वी से नहीं।
गौतम स्वामी-भगवन् ! नारकी जीव ानुपूर्वी से पुद्गलों का आहार करते हैं तो किस दिशा के पुद्गलों का माहार करते हैं ? पूर्व आदि में से किसी एक दिशा में स्थित पुद्गलों का या छहों दिशाओं में स्थित पुद्गलों का?
भगवान्-नियम से छहों दिशाओं में स्थित पुद्गलों का .आहार करते हैं।
- इस प्रश्नोचर को किंचित् स्पष्ट करने की आवश्यकता · है। नरक के जीव चौदह राजू लोक के मध्यवर्ती हैं और मध्यवर्ती होने से छहों दिशाएँ लगती हैं। प्रसनाड़ी के बाहर के जीव के आहार की तीन, चार, पाँच या छह दिशाएँ भी होती हैं । पृथ्वीकाय का जीव, लोक के कोने में जाकर आहार करता है तो तीन दिशाओं का आहार करता है। इसी प्रकार दो तरफ अलोक और चार तरफ लोक हो तो चार दिशाओं के 'पुद्गलों का आहार होता है। पांच पोर लोक हो तो पांच दिशाओं के पुद्गलों का और मध्य में छहों दिशाओं के पुद्गलों का मादार हो जाता है।
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श्रीभगवती सूत्र
[३२] .पहले वर्ण का साधारणं वर्णन किया जा चुका है। यहां उसके श्रवान्तर भेद बतलाये जाते हैं।
भगवान् कहते हैं-हे गौतम! यह आहार का समुश्चय वर्णन किया गया है। श्रव नरक योनि और असुर-योनि के जीवों के प्राहार का अन्तर बतलाते हैं । नरक के जीव जो श्राहार करते हैं वह वर्ण से काला और नीला होता है। गंध से दुर्गन्ध युक्त होता है । रस से तिक और कटुक होता है । स्पर्श की अपेक्षा भारी, खुरदरा, शीत और रूखा होता है।
. निश्चय में यद्यपि पांचों वर्ण विद्यमान हैं, तथापि व्यवहार में काले और नीले वर्ण का आहार करते हैं । इसी प्रकार अन्यत्र समझना चाहिए .। यहां जो वर्ण, रस, गंध और स्पर्श बतलाये गये हैं, वह सय अशुभ समझना चाहिए।
नरक के जीवों के आहार में भेद भी है। पहले नरक के जीव जिस प्रकार का आहार करते हैं, दूसरे नरक वाले दूसरी ही तरह का करते हैं । इसी तरह आगे के नरकों का समझ लेना चाहिए।
साथ ही यह भी स्मरण रखना चाहिए कि नरक के आहार का यहां जो वर्णन किया गया है, वह मिथ्या दृष्टि की अपेक्षा है । भावी तीर्थंकर की अपेक्षा यह वर्णन नहीं है।
नरक का जो वर्णन उपर किया गया है, वह यद्यपि सत्य है; तथापि यह भी सत्य है कि जय उपादान अच्छा
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[३६३]
नारक-वर्णन होता है तो बुराई में से भी अच्छाई निकल पाती है । भावी तीर्थकर पहले से लेकर तीसरे नरक तक रह सकते हैं और चरम शरीरी अर्थात् पहले ही मनुष्य भव में मोक्ष जाने वाले “जीव चौथे नरक में भी रहते हैं । लेकिन भावी तीर्थकर का, तीर्थकर गोत्र का प्रायुप्य नरक में ही बँधता है तो वे उत्कृष्ट से उत्कृष्ट प्राडार-पुद्गल खींचते हैं । यद्यपि उत्कृष्ट थाहारपुद्गल उनके लिए बाहर से वहां नहीं पहुँचते हैं, लेकिन नरक योनि के पुद्गलों में से ही वे ऐसे उत्तम पुद्गल ग्रहण करते हैं, जिनसे उनका दिव्य शरीर बनेगा।
भाषी तीर्थंकरों ने तीर्थकर गोत्र की जो सामग्री मनुष्य जन्म में वाँधी उसके साथ ही दूसरे नरक की भी सामग्री उपार्जित की। नरक की इस सामग्री से ही वे नरक गये हैं। उनका तीर्थकर गोत्र का श्रायुज्य नरक में ही बंधेगा।
• नरक के जीव जिन पुद्गलों का आहार करते हैं, वह अशुभ और घृणित होते हैं। लेकिन सम्यग्दृष्टि और भाषी तीर्थकर अशुभ में से भी शुभ को खींचकर आहार करते हैं। अशुभ पुद्गलों में शुभ पुद्गल उसी प्रकार विद्यमान रहते हैं, जैसे मालवा की काली मिट्टी में हिंगलु के समान लाल जानवर रहते हैं। मिट्टी तो काली और खुरदरी होती है मगर उसमें वह जानवर लाल और मुलायम होता है । तात्पर्य यह है कि उपादान अगर समर्थ हो तो वह अशुभ में से भी शुभ को खींच लेता है।
, दुर्गन्ध वाला विटा खेतों में पड़ता है, मगर उसलें होने वाला गुलाव दुर्गन्ध वाला नहीं, सुगन्ध वाला होता है।
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श्रीभगवती सूत्र
[३६४] प्रकृति से प्रत्येक पदार्थ, दूसरे की ओर खिंचता है, मगर जिसमें वल होता है वह खींच लेता है।
गुलिश्तों में एक कहानी है। एक बार बादशाह के हमामखाने में मिट्टी श्राई । उस मिट्टी में खुशबू आ रही थी। पूछताछ करने पर पता लगा कि इस मिट्टीपरसुगंधित फूल खिले थे और वे सूख कर इस पर गिरे। यह खुशबू उन्हीं से आई है। बादशाह ने उन फूलों को भी मँगवाया। उन फूलों में फूलों की ही खुशबू थी, मिट्टी की नहीं थी। - इससे प्रकट हुआ कि मिट्टी ने फूलों की खुशबू खींच ली, लेकिन फूलों ने मिट्टी की गंध अपने में नहीं आने दी।
तीर्थंकरों को नरक में भी तीन शुभ लेश्याएँ होती हैं। वे शुभ लेश्याएँ ग्रहण कर शुभ बनते है।
यहाँ तक छत्तीस द्वारों का वर्णन हुआ। इनमें नरक के जीवों के आहार का विचार किया गया है।
आत्मा में यह शक्ति है कि वह आहार-पुद्गलों को, आहार के योग्य गुण में परिणत कर लेता है। उदाहरणार्थ-दूध यदि पेट में जाकर दूध ही बना रहा तो वह आहार नहीं हुआ। श्राहार वह तब कहलाएगा, जब उसकारस, रक्त, मजाश्रादि बन जाय । इसी प्रकार आत्मा अपने शरीर में श्राहार के लिए पुद्गलों को ग्रहण करता है, फिर उन्हें आहार के रूप में परिणत करता है । आत्मा समस्त आत्मप्रदेशों से आहार करता है, एकही श्रात्मप्रदेश से आहार नहीं करता। जिस
आत्मा में जितनी और जैसी शक्ति होगी, वह पुद्गलों को वैसे ही आहार के रूप में परिणत कर सकेगा।
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{३६५]
नारक-वर्णन • ऊपर जो संग्रह-गाथा लिखी गई थी, उसके पूर्वार्ध में । विद्यमान 'किं वाऽहारैति' इस पद की व्याख्या यहां तक की गई है। इस पद के आगे 'सव्वश्रो' पद पाया है । अब उसकी व्याल्या की जाती है ।
टीकाकार के कथनानुसार सव्वो' पद की व्याख्या के लिए निम्न लिखित पाठ का उच्चारण करना आवश्यक है:
- नेरइया णं भंते ! सव्वश्रो आहारोंति,
सव्वोपरिणामत, सव्वो ऊससंति, सव्वश्रो - नीससंतिः अभिक्खणं आहारोति, अभिक्खणं परिणामेति, अभिक्खणं ऊसंसंति, अभिक्खणं नीससंति, अाहच्च आहारति ? हंता गोयमा ! नेरइया सव्वो श्राहारेति ।
अर्थ-भगवन् ! नारकी जीव समस्त श्रात्म-प्रदेशों से आहार करते हैं, समस्त प्रात्म-प्रदेशों से परिणमाते हैं, समस्त आत्म-प्रदेशों से उच्छ्वाल लेते हैं, समस्त प्रात्म-प्रदेशों से निःश्वास लेते हैं ? निरन्तर आहार करते हैं, निरन्तर परिणमाते हैं, निरन्तर उच्छ्वास लेते हैं, निरन्तर निःश्वास छोड़ते हैं ? या कदाचित् श्राहार करते हैं ? (कदाचित् परिणमाते हैं, कदाचित् उच्छ्वास लेते हैं और कदाचित् निःश्वास छोड़ते हैं ?)
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श्रीभगवती सूत्र
[३६] हां, गौतम ! नारकी जीव समस्त आत्म-प्रदेशों से श्राहार करते हैं (इत्यादि)। ..
समस्त प्रात्म-प्रदेशों से आहार करते हैं, इसका अर्थ यह है कि जैसे घी की कड़ाई में पूरी छोड़ने पर वह सभी ओर से अपने में घृतं को खींचती है, इसी प्रकार जीव सभी ओर से सभी प्रदेशों से-श्राहार खींचता है।
वाह्य रूप ले पुद्गल को खींचना आहार नहीं कहलाता वरन् शरीर और गृहीत पुद्गलों को एक संप बना देना, सर्वप्रदेशं श्राहार कहलाता है।
आहार, रस परियमन करता है। वह रस-परिणमन सभी प्रदेशों में होता है। आहार और कर्मबन्ध दोनों के विषय में यह कथन लागू पड़ता है । तात्पर्य यह है कि जीव सब ओर से आहार कर सब प्रदेशों में परिणमाता है।
इसी प्रकार सव प्रदेशों से उच्छ्वास लेता है, सब प्रदेशों से निःश्वास निकालता है। • . सर्व साधारण मनुष्य जो श्वासोच्छ्वास लेते हैं तो
उन्हें ऐसा मालूम होता है मानो पेट में श्वास लेते हैं और पेट से ही उच्छ्वास निकालते हैं। लेकिन श्वास वास्तव में सभी प्रदेशों से आता जाता है । इस ओर पूर्ण ध्यान दिया जाय तो नाड़ी की गति से यह वात समझी जा सकती है।'
भगवान् फरमाते हैं-हे गौतम ! जीव निरन्तर भी आहार करता है और कदाचित् भी श्रीहार करता है। इसी प्रकार परिणमत, श्वास और उच्छवास के संबंध में जानना
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[३६७] .
नारक-वर्णन 'चाहिए । पर्याप्त अवस्था होने पर निरन्तर आहार करता है, निरन्तर परिणमाता है, निरन्तर श्वासोच्छ्वास लेता है, परन्तु अपर्याप्त अवस्था में कदाचित् आहार आदि करता है । जव विग्रह गति को प्राप्त होता है तव आहार आदि नहीं ग्रहण करता, परन्तु अविग्रह-गति में ग्रहण करता है।
आगे गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं कि-भगवन् ! जिन पुद्गलों को आहार रूप.में ग्रहण किया है, उनमें से नरक के जीव किंतने भाग का आहार करते हैं और कितने भाग का आस्वाद करते हैं।
भगवान् ने उत्तर दिया-गौतम ! असंख्यात भाग -का आहार करते हैं और अनन्त भाग का आस्वाद करते हैं।
इस प्रश्न के मूल पाठ में 'सेयालसि * ' प्राकृत भाषा का पद आया है। इसका संस्कृत रूप 'एण्यति' (भविष्यति) है। तात्पर्य यह है कि गृहीत आहार-पुद्गलों में से ग्रहण करने के पश्चात् कितने भाग का आहार करते हैं और कितने भाग का आस्वादन करते हैं ?
असख्यात भाग का आहार करते हैं, इस पद की व्याख्या भिन्न-भिन्न प्राचार्यों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से की है। एक आचार्य का यह मत है कि जैसे गाय पहले प्रास में मुंह . . * मूल पाठ इस प्रकार है:
नेरझ्या णं भते ! जे पोंगाले आहारत्ताए गिण्हंति, ते णं तेर्सि पोग्गलाणं सेयालसि कइभागं श्राहारेति, कइभागं श्रासायति ? गोयमा! असंखज्जइभागं आहारोंत, अणतभाग श्रासाइंति ।-पण्णवणा सुत्त ।
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श्रीभगवती सूत्र
[ ३६८ ]
भर लेती है, पर उसमें से बहुत-सा भाग नीचे गिर जाता है और कुछ वह खाती है । इसी प्रकार नरक के जीव पहले-पहल आहार के जो पुद्गल खींचते हैं, उन खींचे हुए पुद्गलों का बहुतसा भाग गिर जाता है और असंख्य भाग मात्र का आहार करते हैं ।
दूसरे श्राचार्य कहते हैं कि ऐसा नहीं है । यहां नयविशेष की अपेक्षा से कथन है । ऋसूत्रमय के अनुसार शरीर रूप में परिणत पुद्गलों के असंख्य भाग का श्रहार करता है । जो पुद्गल शरीर रूप में परिणत नहीं हुए उन्हें ऋजुसूत्रनय शुद्ध होने से श्राहार रूप नहीं मानता ।
ऋजुसूत्रतय भूत और भविष्य को छोड़कर केवल वर्त्त मान को स्वीकार करता है । श्रतः जितने पुद्गल श्राहार रूप में ग्रहण किये हैं, उन्हें व्यवहार नय तो चाहार कहता है, लेकिन ऋजुसूत्रनय के मत से जो पुद्गल उनमें से शरीर रूप परिणत हुए हैं, वही आहार रूप हैं ।
उदाहरणार्थ, किसी व्यक्ति ने दूध पिया। उसमें से कुछ भाग खल-मल रूप में परिणत हो गया और शेष भाग से रस आदि धातुएँ बनीं। ऋऋजुसूत्र नय इस परिणति को ही श्राहार मानता है ।
जैसे गाय बहुत-सा घास एक साथ मुँह में भरती है, पर उसमें से बहुत भाग गिर जाता है, वह श्राहार में परिगणित नहीं होता । ऋजुसूत्र नय के अनुसार वही पुद्गल श्राहार-रूप कहलाते हैं, जो वास्तव में श्राहार रूप में परिणत होते हैं, सब ग्रहण किये हुए पुद्गल नहीं । असल में हार
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[३६] .
नारक-वर्णन वही है जो शरीर रूप में परिणत हो । शरीर रूप में परिणत होकर भी पुद्गलों का असंख्यात भाग ठहरेगा और संख्यात भाग नहीं ठहरेगा । पिये हुए एक सेर दूध में से कुछ भाग रस बनेगा और शेष मल बन कर निकल जायगा । शरीर में जो रस वना, वही ऋजु सूत्र नय के अनुसार आहार कहा जा सकता है। • ग्रहण किये हुए पुद्गलों में से उतना ही रस शरीर में खिंचता है, जितनी शकि होती है। कमजोर मनुष्य आहार में से पूरी तरह रस नहीं खींच पाता और उसका श्राहार कच्चे मल के रूप में निकल जाता है । मल के देखने से पता लग जाता है कि आहार में से कितना रस खींचा गया है ?
श्राहार करने का जो प्रयोजन है उस प्रयोजन के पूर्ण होने पर ही ग्रहण किये पुद्गल आहार कहलाएँगे। जव तक उनसे श्राहार का प्रयोजन सिद्ध नहीं होता तब तक उन्हें आहार नहीं कहा जा सकता।
आहार करने का प्रधान प्रयोजन है-शरीर में,और इन्द्रियों में शक्ति का संचार होना। इस प्रयोजन को जो पुद्गल पूर्ण करते हैं वही आहार हैं।
तीसरे प्राचार्य का कथन यह है कि वास्तव में आहार वह है जो शरीर के साथ तद्रूप परिणत हो जाय । जैसे मनुष्य जो आहार करता है, उसमें से अधिकांश खल-मल रूप में बाहर निकल जाता है, वह आहार नहीं कहलाता, उसी प्रकार जो पुद्गल शरीर रूप में परिणत नहीं होते, उन्हें आहार महीं कहा जा सकता। अतएव गृहीत पुद्गलों में से असं
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श्रीभगवती सूत्र
[४००] ख्यात भाग का आहार करता है, इसका अभिप्राय यह है कि असंख्यातवाँ भाग शरीर रूप में परिणत होता है।
श्राहार के जो पुद्गल ग्रहण किये हैं, उनका अनन्त भाग श्रास्वाद में आता है, अर्थात् गृहीत पुद्गलों के अनन्तवें भाग का रस रूप में रसना इन्द्रिय श्रास्वादन कर सकती है। मान लीजिए, किसी ने मिश्री की डली मुँह में रक्खी । उस डली पर जीभ फिरी, उसका स्वाद आया। मगर डली का भीतरी भाग अछूता ही रह गया-उसका पास्वादन नहीं हुपा। इस प्रकार जीभ ऊपर का आस्वाद ले सकती है, भीतर का उसे पता नहीं चलता। अतएव वह अनन्तवें भाग पुद्गलों के रस का ही श्रास्वादन कर सकती है, सब का नहीं। इसी कारण यह कहा गया है कि अनन्तवें भाग का प्रास्वादन होता है । यहाँ तक अड़तीस द्वारों का विवेचन हुआ।
अब संग्रह-गाथा के 'सव्वाणि' पद की व्याख्या प्रारंभ की जाती है । गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं-हे भगवन् ! नारकी जीव जिन पुद्गलों को शरीर रूप में परिणत करते हैं, क्या वे. सव पुद्गलों का आहार करते हैं या एक देश का आहार करते हैं ? . .
भगवान् उत्तर देते हैं-गौतम ! समस्त पुद्गलों का । आहार करते हैं।
. तात्पर्य यह है कि नारकी जीवों ने आहार के जिन पुद्गलों को शरीर के रूप में परिणत किया है, उन सब का आहार वे करते हैं । यहां सब पुद्गल कहने से विशिष्ट पुद्
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[-४०१]
नारक-वर्सन
गल ही समझने चाहिए । जो पुद्गल ग्रहण करने के पश्चात् गिर गये हों, उन्हें यहां छोड़ देना चाहिए उनका ग्रहण नहीं करना चाहिए । अगर ऐसा न किया गया तो विरोध श्री जाएगा । जो वचन जिस अपेक्षा से कहा गया हो उसे बसी अपेक्षा से समझना चाहिए ।
कहा भी है
जं जह सुत्त भणियं, तब जइ तं वियालणा नत्थि । कि कालियानुयोगो, दिट्ठो दिद्विप्पहाणेहिं ||
अर्थात् --सूत्र में जो घात जिन शब्दों में कही गई है, अगर शाब्दिक रूप में उसे उसी प्रकार माना जाय और वक्ता की विवक्षा का विचार का ख्याल न किया जाय तो ज्ञानी जन कालिक अनुयोग का उपदेश कैसे करें ?
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श्राजकल साधुओं के ज्ञान में न्यूनता आ गई है, अतएव वह व्या यांच देने में ही सूत्र के व्याख्यान की इतिश्री समझ लेते हैं । मगर सूत्र में नवीन और सूक्ष्म बातें उतनी ही खोजी जा सकती हैं, जितनी खोजने वाले में शक्ति हो । हाँ, शक्ति ही न हो तो बात दूसरी है। जिनकी दृष्टि सूक्ष्म और पैनी है, वे शास्त्र - सागर के भीतर अवगाहन करके श्रनेक महत्वपूर्ण और बहुमूल्य अर्थ रूपी सुक्ता निकालते हैं ।
इसके अनन्तर पूर्वोक्त संग्रह गाथा के ' कीस ' पद की व्याख्या की जाती है। 'फीस' यह एक पद है। इसमें अनेक पदों का उपचार किया जाता है । अतएव यह अर्थ समझना
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श्रीभगवती सूत्र
[ ४०२ ]
चाहिए कि नारकी जीवों ने जो श्राहार किया है, वह किस स्वभाव में, किस प्रकार और किस रूप में परिशत होता है ?
कल्पना कीजिए, किसी ने दूध पिया । उस दूध का कहां जायगा ? किस रूप में परियत होगा ? -
किसी अत्यन्त क्षुधा पीडित व्यक्ति से देखने, सुनने या सूधने के लिए कहा जाय तो वह उत्तर देगा शुभम शक्ति नहीं है । मेरी इन्द्रियां वेकाम होरही हैं । इसी प्रकार उसे चलने-फिरने के लिए कहा जाय, तब भी वह यही उत्तर देगा । इसके पश्चात् किसी ने उसे दूध पिला दिया ।
सद्यः शक्तिकरं पयः ।
दूध तत्काल शक्ति देने वाला है । अतस्य दूध पीते ही उसके सारे शरीर में शक्ति आगई। उस दूध की शक्ति के हिस्से हुए। उन हिस्सों में ले नाक, कान, आँख, हाथ, पैर आदि · को कितना-कितना भाग मिला, यह एक विचारणीय बात है ।
जो चाहार किया जाता है, उसके पुद्गल मृदु भी होते हैं, स्निग्ध भी होते हैं और कठोर भी होते हैं । लेकिन सब से सूक्ष्म सार आँख खींच लेती है । उसले कम सार वाले क्रमशः कान, नाक, जिह्वा और शरीर खींचते हैं । भारी पुद्गलों को शरीर से कम जिल्ला खींचती है और जीभ से क्रमशः नाक, कान और आंख खींचती है। इस प्रकार आहार के संबंध में कथन किया गया है ।
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[४०३]
नारक-वर्णन
.. इस कथन की अपेक्षा, आपके हाथ में स्थित दूध को कान या आंख कहा जा सकता है, क्योंकि दूध में और कानआँख में कार्य-कारण भाव संबंध है । यद्यपि दूध में कान या आँख दिखलाई नहीं देती, तथापि कार्यकारण का विचार किया जाय तो उक्त कथन में कोई भ्रम प्रतीत नहीं होगा।
इसीलिए गौतम स्वामी पूछते हैं कि नारकी जीवों का आहार किस रूप में परिणत होता है ? अर्थात् नारकी जीवों ने जिन पुद्गलों को आहार रूप में ग्रहण किया है, वे पुद्गल फिर किस रूप में परिणत होते हैं ?
इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् फरमाते हैं-हे गौतम ! जिन पुद्गलों को नारकी जीवों ने श्राहार रूप में ग्रहण किया हैं, वे आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा, इस प्रकार पाँचों इन्द्रियों के रूप में परिणत होते है।
नारकी जीवों का आहार अशुभ रूप में परिणत होता है, अनिष्ट रूपता प्रकट करता है,कान्त और कमनीय नहीं है। श्रमनोज्ञ है, अमनोगम्य है । इस प्रकार वह श्राहार पश्चात्ताप का कारण है। वह नीची स्थिति में ले जाता है, ऊँची स्थिति में नहीं ले जाता।
आहार में दोनों प्रकार की शक्रियाँ हैं-ऊँची स्थिति में ले जाने की भी और नाची स्थिति में ले पटकने की भी। जो आहार स्वाधीन न हो, परतन्त्र हो, जस आहार को ग्रहण करने वाला नरक में ही समझना चाहिए ।
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श्रीभगवती सूत्र
[४०४] . नरक के आहार की. युराई बतलाने के लिए जो विशेषण दिये गये हैं, उनके सम्बन्ध में टीकाकार कहते हैं कि यह सब शब्द एकार्थक हैं, फिर भी अतिशय अर्थात् अधिकता प्रकट करने के लिए पृथक्-पृथक् अनेक शब्दों का प्रयोग किया गया है।
____ यह चालीसवाँ द्वार हुआ और पूर्वोक्त संग्रह-गाथा का विवेचन समाप्त होता है । संग्रहगाथा के विवरण-सूत्र किसी किसी ही प्रति में पाये जाते हैं, सब में नहीं।
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पाहार के परिणाम का वर्णन
मूलपाठप्रश्ननरइयाणं भंते ! पुष्वहारिया पोग्गला परिणया ? पाहारिया अाहारिज्जमाणा पोग्गला परिणया ? अणाहारिया श्राहारिज्जस्समाणा पोग्गला परिणया? अणाहारिया अणाहारिज्जस्समाणा पोग्गला परिणया ? ___ उत्तर-गोयमा ! नेरइयाणं पुवाहारिया पोग्गला परिणया, पाहारिया आहारिज्जमाणा पोग्गला परिणया, परिणमंति य । अणाहारिया श्राहारिज्जस्समाणा पोग्गला णो परिणया, परिणमिस्संति । अपाहारिया अणाहारिज्ज
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श्रीभगवती सूत्र
[४०६] स्समाणा पोग्गला णो परिणया, णो परिणमिस्सति । . . प्रश्न-नेरइयाणं भंते ! पुब्बाहारिया पो. गगला चिया ? पुच्छा।
.. उत्तर-जहा परिणया, तहा चिया वि, एवं उवचिया वि, उदीरिया, वेइया, निजिण्णा। गाहा
परिणय-चिया य उवचिया, उदीरिया वेइया य निज्जिण्णा । एक्केकम्मि पदम्मि,
चउविहा पोग्गला होति ॥ . सस्कृत-छाया-प्रश्न- नैरयिकाणां भगवन् ! पूर्वाहताः पुद्गलाः परिणताः ? श्राहृताः, श्राहियमाणाः पुद्गलाः परिणताः ? अनाहृताः श्राहरिष्यमाणाः पुद्गलाः परिणताः ? अनाहताः अनाहरिष्यमाणाः . पुद्गलाः परिणताः . . . . .
उत्तर-गौतम! नैरयिकाणां पूर्वाहताः पुद्गलाः परिणताः, अाहृताः श्राद्वियमाणाः पुद्गलाः परिणताः, परिणमन्ति च अनाहताः
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[४०७]
श्राहार-परिणमन
आहरिप्यमाणाः पुद्गलाः नो परिणताः, परिणस्यन्ति । अनाहताः अनाहरिप्यमाणाः पुद्गलाः नो परिणताः, नो परिणस्यन्ति ।
प्रश्न-नैरयिकाणां भगवन् ! पूर्वाहताः पुद्गलाश्चिताः ? पृच्छा।
उत्तर-यथा परिणतास्तथा चिता अपि, एवमुपचिता अपि, उदोरिताः, वेदिताः, निर्जीर्णाः ।
। गाथा-परिणताधिताश्वोपचिताः, उदीरिता वेदिताच निर्णाः ।
एकैकस्मिन् पदे चतुर्विधाः पुद्गला भवन्ति ।। मूलार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! नारकियों द्वारा पहले आहार किये हुए पुद्गल परिणत हुए ? आहार किये हुए तथा (वर्तमान में) आहार किये जाने वाले पुद्गल परिणत हुए ? जो पुद्गल अनाहारित हैं तथा (आगे) आहार रूप में ग्रहण किये जाएँगे वह परिणत हुए ? या जो अनाहारित हैं और आगे भी आहत नहीं होंगे, वह परिणत हुए ?
उत्तर-हे गौतम! नारकियों द्वारा पहले श्राहार किये हुए पुद्गल परिणत हुए, आहार किये हुए' और आहार किये जाते हुए पुद्गल परिणत हुए, और परिणत होते हैं, नहीं आहार किये हुए (अनाहारित) पुद्गल परिणत नहीं हुए हैं। जो पुद्गल (आगे) आहार किये जाएँगे यह परिणत होंगे। अनाहारित पुद्गल परिणत नहीं हुए हैं और जो आगे आहारित नहीं होंगे, वह परिणत नहीं होंगे।
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श्रीभगवती सूत्र
[४०] प्रश्न-हे भगवन्! नारकियों द्वारा पहले आहारित पुद्गल चय को प्राप्त हुए ?
(प्रश्न ) ___ उत्तर-हे गौतम! जिस प्रकार परिणत . हुए, उसी प्रकार चय को प्राप्त हुए। उसी प्रकार, उपचय को प्राप्त हुए, उदीरणा को प्राप्त हुए, वेदन को प्राप्त हुए तथा निर्जरा को प्राप्त हुए । गाथा- परिणत, चित, उपचित, उदीरित, वेदित, और निर्जीर्ण, इस एक-एक पद में चार प्रकार के पुद्गल (प्रश्नोत्तर विषयक) होते हैं। .
व्याख्यान-नरक के आहार के संबंध में यहाँ चार प्रश्न और उठतें हैं। उनका श्राशय यह है..... (१) पूर्व काल में ग्रहण किये हुए या आहार किये हुए पुद्गल क्या शरीर रूप में परिणत हुए हैं ? . (२) भूतकाल में ग्रहण किये हुए तथा वर्तमान में ग्रहण किये जाने वाले पुद्गल शरीर में परिणत हुए हैं ? - .(३) भूतकाल में जिन पुद्गलों का.आहार नहीं किया, लेकिन भविष्यकाल में जिनका आहार किया जायगा, वे पुद्गल शरीर रूप में परिणत हुए? ". (४) जिन पुद्गलों का भूतकाल में आहार नहीं किया
और भविष्य में भी-आहार नहीं किया जायगा. वह पुदगल शरीर रूप में परिणत हुए?
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[४०६]
आहार-परिणमन पूर्वकाल में जिन पुद्गलों का श्राहार किया गया हो या संग्रह किया गया हो उन्हें प्राहृत या श्राहारित कहते हैं।। संग्रह करना और खाना, दोनों ही आहार है।
पुद्गल शब्द से यहाँ पुद्गल-स्कंध समझना चाहिए, परमाणु नहीं। और परिणत होने का अर्थ, शरीर के साथ एकमेक होकर शरीर रूप में होजाना, यहाँ प्रहण करनाचाहिए।
आहार का परिणाम है-शरीर बनना । जो श्राहार शरीर के साथ एकमेक हो जाता है अर्थात् जिस आहार का शरीर बन जाता है, वह पाहार परिणत हुआ या परिणाम को प्राप्त छुपा या परिएमा कहलाता है।
इन प्रश्नों के विषय में प्राचार्य का कथन है कियह काकुपाठ हैं। काकुपाठ वह कहलाता है, जो कण्ठ दबाफर बोला जाय । अर्थात् जिस बात को जोर से तथा आश्चर्य सहित कहा जाता है वह कथन काकु है । यथा-क्या यह ऐसा ही है ?
यह चारों प्रश्न दीखते हैं सीधे-साधे, लोकिन इनमें दार्शनिक श्राशय भरा हुआ है। इन्हीं चार प्रश्नों के ६३ भंग होते हैं । एकसंयोगी के छह भंग है-(१) पूर्वाहत (२ श्राहियमाण (३) आहरिप्यमाण (४) अनाहत (५) अनाहियमाण (६) अनाहरिप्यमाण। इन छह पदों के प्रेसठ भंग होते हैं। प्रत्येक मंग में एक-एक प्रश्न काउद्भव होता है, अतएव प्रेसठ भंग हुए । उनका क्रम इस प्रकार है
(क) (१) पूर्वाहत श्राहियमाण (२) पूर्वाहत आहरिप्यमाण (३) पूर्वाहत अनाहत (2) पूर्वाहत श्रनाहियमाण (५) पूर्षाहत अनाहरिप्यमाण (६) श्राद्वियमाण श्राहरिप्यमाण (७)
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श्रीभगवती सूत्र
[१०] श्राह्रियमाण अनाहत (८) आह्रियमाण अनाहियमाए (६) श्रा. हियमाए अनाहरिप्यमाण (१०) श्राहरिप्यमाए अनाहत (११)
आहरिष्यमाण अनाहियमाण (१२) श्राहरिप्यमाए अनाहरिप्यमाण (१३) अनाहुत अनाहियमारण (१४) अनाहत अनाहरियमाण (१५) अनाह्रियमाण अनाहरिष्यमाए ।
इस प्रकार दो-दो भंगों को मिलाने से पन्द्रह भंग होते है। तीन का संयोग करने पर बील भंग होते हैं और चार संयोगी पन्द्रह भंग होते हैं । इसी तरह पाँच सयोगी छह भंग और छह संयोगी का एक भंग होता है। अतएव एकएक से लेकर छह संयोगी तक के कुल वेसठ भंग होते हैं। मगर संग्रह की अपेक्षा एक ही प्रश्न है।
तात्पर्य यह है कि गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से उक्त चार प्रश्न किये । इनके उत्तर में भगवान् ने फरमाया-हे गौतम! जिन पुद्गलों का भूतकाल में आहार किया है वे भूतकाल में ही शरीर रूप परिणत हो चुके हैं। ग्रहण के पश्चात् परिणमन होता ही है; अतएव पूर्वकाल में श्राहार किये हुए पुद्गल पूर्वकाल में ही परिणत हो गये। - दूसरे प्रश्न में भूतकाल के साथ वर्तमान संबंधी प्रश्न किया गया है । उसके उत्तर में भगवान का कथन यह है किजिनका आहार हो चुका वे पुद्गल परिणत हो चुके और जिनका आहार हो रहा है वे परिणत हो रहे हैं।।
यहां टीकाकार कहते हैं कि जिन पुद्गलों का आहार किया और जिनका वर्तमान में श्राहार किया जा रहा है, उन. के विषय में कहना चाहिए कि वे पुद्गल परिणत होंगे। मगर यहां कहा गया है कि परिणत हो रहे हैं। सूत्रकार स्वयं कहते
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[४११]
आहार-परिणमन
हैं कि जिन पुद्गलों का श्राहार किया जा रहा है और आगे किया जायगा, वे पुद्गल परिणत होंगे। तात्पर्य यह है कि वर्तमान में ग्रहण किये जाने वाले पुद्गल उसी समय शरीर रूप में परिणत नहीं हो सकते । बल्कि चे भविष्य में ही परिणत होंगे। अतएव 'जिन पुद्गलों का आहार किया जा चुका
और जिनका आहार किया जा रहा है, वह पुद्गल परिणत हो रहे है, यह कथन युक्ति संगत नहीं मालूम होता। उनके लिए 'परिणत होंगे' ऐसा कहना चाहिए।
टीकाकार का यह कथन नय-विशेष की विवक्षा से ठीक ही है।
तीसरा प्रश्न भविष्य के संबंध में है । उसका सरल उत्तर यही है कि भविष्य में जिन पुद्गलों का आहार करेंगे, वे पुद्गल भविष्य में परिणत होंगे।
चौथा प्रश्न यह था कि जिन पुद्गलों का भूतकाल में आहार नहीं किया और भावष्य में भी श्राहार नहीं किया जायगा, वे पुद्गल क्या शरीर रूप में परिणत हुए? इसका उत्तर यह है कि ऐसे पुद्गल परिणत नहीं होंगे। जिनका ग्रहण ही नहीं हुआ, उनका शरीर रूप में परिणमन भी न होगा।
पहले जो ग्रेसठ भंग बतलाए गये हैं, उन सब का इसी आधार पर समाधान समझ लेना चाहिए। . श्राहार किये हुए पुद्गल जय शरीर के भीतर गये तो उनका चय, उपचय भी होगा ही । इसलिए गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं कि 'जीव ने जिन पुद्गलों का आहार किया.
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श्रीभगवती सूत्र
[४१२) वे पुद्गल चय को प्राप्त हुए ? परिणमन के संबंध में जितने और जैसे प्रश्न किये गये हैं, वही सब प्रश्न चय के संबंध में भी समझ लेने चाहिए और उनका उत्तर भीपरिणमन संबंधी उत्तरों के समान ही समझ लेना चाहिए ।
इस प्रकरण में, टीकाकार के कथनानुसार वाचना की भिन्नता देखी जाती है। एक जगह एक प्रकार की याचना है तो दूसरी जगह दूसरी ही वाचना है। वाचना के इस भेद को देखकर शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि पाठ में भिन्नता होने पर भी अभिधेय-मूल वक्तव्य-सबका समान है। अत. एव पाठान्तर से शंका नहीं वरन् शंका का समाधान होना चाहिए।
संदेह होता है कि दो पाठ परस्पर विरोधी होने से मान्य नहीं होसकते,तवएफ किस पाठको मान्य किया जाय? मगर इसमें संदेह की कोई बात नहीं है। दोनों श्राचार्य जव शास्त्र लिखने के समय एकत्र हुए, तब दोनों को दो तरह की बातें स्मरण में थी, क्योंकि पहले शास्त्र लिखे हुए नहीं थे, कण्ठस्थ ही थे। श्राचार्यों ने अपने २ स्मरण की यात एक दूसरे के सामने रख दी, और कहा किन हम मर्वरा है, न श्राप सर्वक्ष हैं। ध्येय दोनों का एक है । तव दोनों में से किसका स्मरण सही है और किसका नहीं है, यह फैसे कहा जा सकता है ? अतएव दोनों बातें लिखदें । इनमें कौन-सी बात सही है, यह ज्ञानी जानें।
दानों प्राचार्यों को सर्वज्ञ के वचनों पर और अपने 'अपने स्मरण पर विश्वास था । ऐसी स्थिति में अपने स्मरण को गलत मानने का कोई कारण न था। इस कारण दोनों
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.[४१३]
पाहारस्परिणमन . प्राचार्यों ने दोनों बातें लिख दी। इस प्रकार के मतभेद को देखकर शास्त्र में शका मत लाश्रो। यह मतभेद शास्त्र की और शास्त्र के प्रणेता श्राचार्यों की प्रामाणिकता के प्रमाण हैं।
उक्त दोनों प्राचार्यों ने किसी एक निर्णय पर पहुंचने का प्रयास किया, लेकिन दोनों छद्मस्थ थे, केवलशानी नहीं। अतएव उन्होंने समभाव से अपनी-अपनी धारणा को सत्य स्वीकार करते हुए भी दूसरे की धारणा को असत्य नहीं ठहराया। ऐसा करके वे हमारे सामने एक उज्ज्वल श्रादर्श छोड़ गये हैं। हमें उनका अनुकरण करके शास्त्र के संवैध में हठवाद से काम नहीं लेना चाहिए और अपने आपको ही सत्यचादी ठहराकर दूसरे को भूठा घोषित करने का साहस नहीं करना चाहिए।
जिन पुद्गलों को प्राहार रूप में परिणत किया है, उनका शरीर में एकमेक होकर शरीर को पुष्ट करना चय कहलाता है। चय के परिणमन की ही तरह चार भंग हैं। इन चार भंगों का उचर परिणमन की तरह ही है। - चय और परिणमन के काल में बहुत अन्तर है। पहले परिणमन होता है. उसके बाद चय होता है । इसलिए दोनों चय और परिणमन पृथफ-पृथक हैं।
मानी महापुरुषों ने भूतकाल का वर्णन किया, इससे उनकी त्रिकालशता सिद्ध होती है। साथ ही नरक-लोक के प्राणियों के माहार के विषय में हमें जानकारी होती है। वर्तमान
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श्रीभगवती सूत्र
४१४) काल में जो जीव नरक में हैं और आगेजो नरक में जाएँगे, उन्हें कैसा आहार करना पड़ता है, या करना पड़ेगा, यह भी हमें विदित हो जाता है।
तीसरे भंग से यह भी प्रकट हो जाता है कि भूतकाल में तो यह आहार नहीं, किया, मगर भविष्य में करेंगे। उस समय होंगे वे भी करेंगे और नरक में जाएँगे वे भी करेंगे। इस.कथन से नरक का शाश्वतपन सिद्ध किया गया है। .
. न भूत में श्राहार किया है, न भविष्य में आहार करेंगे, यह कथन अव्यवहारराशि को सूचित करता है; क्योंकि श्रव्यवहारराशि के जीव उस राशि से न कभी निकले - हैं, न निकलेंगे।
चय के पश्चात् उपचय का कथन है ।जो चय किया गया है,उस में और और पुद्गल इकट्ठे कर देना उपचय कहलाता है। जैसे, ईट पर ईट चुनी गई यह सामान्य चुनाई कहलाई
और फिर उस पर मिट्टी या चूना आदि का लेप किया गया, यह विशेष चुनाई हुई । इसी प्रकार सामान्य रूप से शरीर का पुष्ट होना चय कहलाता है और विशेष रूप से पुष्ट होना उपचय कहलाता है।.. .
कर्म-पुद्गलों का स्वाभाविक रूप से उदय में न श्राकर करण विशेष के द्वारा उदय में श्राना उदीरणा कहलाता है। प्रयोग के द्वारा कर्म का उदय में आना उदीरणा है, इस प्रकार की 'कर्म प्रकृति की साक्षी भी यहां दी.गई है।
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[४१५]
आहार-परिणमन कर्स के फल को भोगना वेदना है। जिस समय से कर्म-फल का भोग प्रारंभ होता है और जिस समय तक भोगना जारी रहता है, वह सब काल चेदना का काल कहनाता है।
एक देश से कमी का क्षय होना निर्जरा है। जिस कर्म का फल भोग लिया जाता है, वह कर्म क्षीण हो जाता है। उसका क्षीण हो जाना निर्जरा है।।
चय, उपचय, दीरणा वेदना और निर्जरा, इन सब के विषय में परिणमन के समान ही वक्तव्यता है। वैसे ही प्रश्न, धैसे ही उत्तर, वैसे ही भंग समझने चाहिए। सिर्फ • परिणत के स्थान पर चित, उपचित,उदीरित आदि शब्दों का प्रयोग करना चाहिए।
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विभाजन चयानादि सूत्र
मूलपाठप्रश्न- नेरईयाणं भंते ! कतिविहा पोगगला भिज्जति ? - उत्तर-गोयमा ! कम्मदव्ववग्गणमहिकिच दुविहा पोग्गला भिज्जति । तं जहा-अण चेव, बायरा चेव ।
प्रश्न-नेरईयाणं भंते ! कतिविहा पोग्गला चिज्जति ?
उत्तर - गोयमा! आहारदववग्गणमहिकिच दुविहा पोग्गला चिज्जंति । तं जहा-अण चेव, बायरा चेव । एवं उवचिज्जति ।
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(४१७)
विभाजनादि-स्वरूप प्रश्न-रईयाणं भंते! कतिविहा पोग्गले उदीत ?
— उत्तर-गोयमा! कम्मदववग्गणमहिकिच्च दुविहे पोग्गले उदीत । तं. जहा-अणू चेव, बायरा चेव । सेसा वि एवं चेव भाणियव्वा. वेदेति, णिज्जरोति । उयहिसु, उयटेंति, उयट्टेस्सति । संकामिंसु, संकामेति, संकामेस्संति । णिहर्तिसुं, णिहत्तेति, णिहत्तेस्संति।णिकायिंसु, णिकायिंति, णिकायेस्सति । सव्वेसु वि कम्मदव्ववग्गणमाहीकेच्च । गाहा
भेदिय, चिया. उवचित्रा, वेदित्रा य निज्जिण्णा । उब्वट्टण-संकामण-णिहत्तण
णिकायणे तिविहकालो ॥ संस्कृत-छाया-प्रश्न--नैरयिकाणां भगवन् ! कतिविधाः पुद्गलाः भिद्यन्ते ? ..
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श्री भगवती सूत्र
(४१८) उत्तर-गौतम ! कर्मद्रव्यवर्गणामधिकृत्य द्विविधाः पुद्गला भिद्य: न्ते । तद्यथा-श्रणवश्वेव, बादराश्चैव ।
प्रश्न-नैरयिकाणां भगवन ! कतिविधाः पुद्गलाश्चीयन्ते ?
उत्तर-गौतम ! श्राहारद्रव्यवर्गणामधिकृत्य द्विविधाः पुद्गलाची. यन्ते । तद्यथा-प्रणवश्चैव, बादराश्चैव । एवमुपचीयन्ते ।
प्रश्न-नैरयिका भगवन् ! कतिविधान् पुद्गलान् उंदीरयन्ति !
उत्तर-गौतम ! कर्मेद्रव्यवर्गणामधिकृत्य द्विविधान् . पुद्गलानु. दीरयन्ति । तद्यथा-अणूंश्चैव, बारदांश्चैत्र । शेषा अप्येवं चैव भणि तव्याः-वेदयन्ति; नियन्ति; अपावर्तयन्, अपवर्त्तयन्ति अंपवतः यिष्यन्ति; समक्रमयन्, संक्रमयन्ति, संक्रमयिष्यन्ति, निधत्तानकार्युः, निधत्तान् कुर्वन्ति, निधतान् करिष्यन्ति निकाचितवन्तः, निकाचयन्ति, निकाचयिष्यन्ति । सर्वेष्वपि कर्मद्रव्यवर्गणामधिकृत्य । गाथा--भेदितः, चिताः, उपचिताः, वेदिताश्च निधाः ।।
अपवर्तन-संक्रमण-निधत्तन-निकांचने त्रिविधः कालः ।।
.::. मुलार्थ-... __प्रश्न-हे भगवन् ! नारकी जीवों द्वारा कितने प्रकार के पुद्गल भेदे जाते हैं ?
उत्तर-गौतम! कर्म द्रव्यवर्गणां की अपेक्षा दो प्रकार के पुद्गल भेदे जाते हैं । वे इस प्रकार हैं:-अणु और बादर ।
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(४१६)
विभाजनादि-स्वरूप प्रश्न-हे भगवन् ! नारकी जीव कितने प्रकार के पुद्गलों का चय करते हैं ?
उत्तर-हे गौतम ! आहारद्रव्य-वर्गणा की अपेक्षा दो प्रकार के पुद्गलों का चय करते हैं । वे इस प्रकार हैं-- अणु और वादर । इसी प्रकार उपचय समझना ।
प्रश्न-हे भगवन् ! नारकी जीव कितने प्रकार के पुद्गलों की उदीरणा करते हैं ? - उत्तर- गौतम ! कर्मद्रव्य-वर्गणा की अपेक्षा दो प्रकार के पुद्गलों की उदीरणा करते हैं । वह इस प्रकार हैंअणु और बादर । शेष पद भी इस प्रकार कहने चाहिएवेदते हैं, निर्जरा करते हैं, अपवन को प्राप्त हुए, अपवर्तन को प्राप्त हो रहे हैं, अपवर्तन को प्राप्त करेंगे। संक्रमण किया, संक्रमण करते हैं, संक्रमण करेंगे । निधत्त हुए, निधत्त होते हैं, निधत्त होंगे । निकाचित हुए, निकाचित होते हैं, निकाचित होंगे। इन सब पदों में भी कर्मद्रव्य-वर्गणा की अपेक्षा से (अणु और बादर पुद्गलों का कथन करना चाहिए ).
गाथार्थ:-भिदे, चय को प्राप्त हुए, उपचय को प्राप्त हुए, उदीरे, वेदे गये, और निर्जीण हुए। अपवर्तन, संक्रमण, निधत्तन, और निकाचन, इन चार पदों में तीनों प्रकार का काल कहना चाहिए।
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श्री भगवती सूत्र
(४२०)
व्याख्यान-नरक के जीव पुद्गल का माहार करते हैं, यह कहा जा चुका है। अब पुद्गल का अधिकार प्रारंभ होता है । इस अधिकार के अठारह सूत्र कहे गये हैं।
श्री गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं-नारकी जीव कितने प्रकार के पुद्गलों को भेदते हैं?
सामान्य रुप से पुद्गलों में तीन प्रकार का रस होता है, तीव्र, मध्यम और मन्द । यहाँ भेदने का अर्थ है, इस रस में परिवर्तन करना । जीव अपने उद्वर्तनाकरण (अध्यवसायविशेष ) से मदं रस वाले पुद्गलों को मध्यम रस वाले और मध्यम रस वाले पुद्गलों को तीव्र रस वाले बना डालता है। इसी प्रकार अपवर्तना करण द्वारा तीव्र रस के पुद्गलों को मध्यम रस वाले और मध्यम रस वालों को मंद रस वाले बना सकता है । जीव अपने अध्यवसाय द्वारा ऐसा परिवर्तन करने में समर्थ है, तो क्या नारकी जीव भी ऐसा कर सकते हैं ? क्या वे तीव्र रस वाले पुद्गलों को मन्द-रस के रूप में
और मंद-रस को तीव्र रस के रूप में परिणतः कर सकते हैं ? अगर कर सकते हैं तो कितने प्रकार के पुद्गलों को परिणत कर सकते हैं ? अर्थात् भेद सकते हैं ?
इस प्रश्न का उत्तर देते दुए भगवान् फरमाते हैं-कर्म द्रव्य वर्गणा की अपेक्षा दो प्रकार के पुद्गलों को नारकीजीव भेद सकते हैं। दो प्रकार के पुद्गल हैं- सूक्ष्म (अणु) और वादर।
सामान जाति के द्रव्य के समूह को वर्गणा कहते हैं। - द्रव्य वर्गणा औदारिक आदि द्रव्यों की भी होती है, लेकिन
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श्रीभगवती सूत्र
1४२४) संक्रमण के विषय में दूसरे प्राचार्य का यह मत है कि श्रायुकर्म, दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय को छोड़कर, शेप प्रकृतियों का उत्तर प्रकृतियों के साथ जो संचार होता है, वह संक्रमण कहलाता है। उदाहरणार्थ, कल्पना कीजिए किसी प्राणी के शुभ कर्म उदय में आये । वह साता वेदनीय का अनुभव कर रहा है। इसी समय उसके अशुभ कर्मों की ऐसी कुछ परिणति हुई कि उसका सातावेदनीय, असातावेदनीय के रूप में परिणत हो गया। इसी प्रकार असाता भोगते समय शुभ कर्मों की ऐसी परिणति हो गई कि उसकी असाता, लाता में परिणत हो गई। यह वेदनीय कर्म का संक्रमण कहलाया।
यद्यपि यह सत्य है कि कृत कर्म निष्फल नहीं होते, तथापि निराश होने का कोई कारण नहीं है। पाप को काट डालना या पुण्य रूप में पलट देना हमारी शक्ति के बाहर . नहीं है। पाप, पुण्य रूप में परिणत हो सकता है और कट भी सकता है। अगर ऐसा न होता तो दान, तप श्रादि अनु. छान निरर्थक हो जाता लेकिन यह अनुष्ठान निरर्थक नहीं हैं। तपस्या में इतनी प्रचण्ड शक्ति है कि उससे घोर से घोर कर्म भी नष्ट किये जा सकते हैं। प्रदेशी राजा अपने अशुभ कमाँ को शुभ रूप में पलट कर सूर्याभ देव हुआ था। तात्पर्य यह है कि आत्मा ही कमाँ का कर्ता और हर्ता है। उसमें असीम शक्ति है । वह शुभ को अशुभ रूप में और अशुभ को शुभ रूप में परिवर्तित भी कर सकता है। यह परिवर्तन ही संक्रमण । कहलाता है। • अगला प्रश्न है-नारकियों के कितने प्रकार के पुद्गल निघत्त हुए
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4.४२५)
विभाजनादि-स्वरूप मिन्न-भिन्न पुद्गलों को इकट्ठा करके धारण करना निधत्त करना कहलाता है। अर्थात् कर्म-पुद्गलों को एक दूसरे पर रच देना, जैसे एक थाली में बिखरी हुई सुइयों को एक के ऊपर दूसरी, आदि के क्रम से जमा देना, निधत्त करना कहलाता है । निधत्त शब्द यहाँ रूढ़ है।
निधत्त, कर्म की अवस्था-विशेष है। इस अवस्था को प्राप्त हुए कर्मों में उद्वर्तना या अपवर्तना करण ही परिवर्तन कर सकते हैं, अन्य करण नहीं। तात्पर्य यह है कि निधत्त अवस्था से पहले तो और भी करण लग सकते थे, मगर नियस अवस्था में उक दो फरणों के अतिरिक्त कोई तीसरा करण नहीं लग सकता । जब फर्म पूर्वोश उद्वर्त्तना और अप
वर्त्तना करण के सिवाय और किसी फरण का विषय न हो, .. उस अवस्था का नाम निधत्त है।
. अब प्रश्न यह है कि नारकी कितने प्रकार के कर्मों को निकाचित करते हैं?
जिन फर्मों को निधत्त किया गया था, उन्हें ऐसा मज़चूत कर देना कि जिससे वे एक-दूसरे से अलग न हो सके
और जिनमें कोई भी फरण कुछ भी फेरफार न कर सके, इसे निकाचित करना कहते हैं। उदाहरणार्थ-सुइयों को एक-दूसरे के पास इकट्ठा कर देना निधत्त करना कहलाता है। और उसके पश्चात् उन्हें अग्नि में तपाकर थोड़े से ठोक दिया और प्रापस में इस प्रकार मिला दिया, जिससे वे एक-दूसरी से अलग न हो सकें । सूइयों के समान कर्मों का इस प्रकार मज़बूत हो जाना कि फिर उसमें कोई परिवर्तन न हो, निकाचित हो जाना कहलाता है।
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श्री भगवती सूत्र
(४३६)
लिया। सैकिंडों पर आकर आप रूक गये। लेकिन क्या सैकिंडों के हिस्से नहीं हो सकते ? अवश्य ! मगर श्रापका काम इतने से ही चल जाता है, इस कारणं श्राप श्रागे विभाजन नहीं करते । किन्तु शानियों कोतो एक समय से भी काम है और अपनी दिव्य दृष्टि में वे उस 'समय' को स्पष्ट रूप से देखते भी है । शानियों द्वारा किये गये इस काल-विभाग से हो अनुमान लगाया जा.सकता है कि शास्त्र कितनी सूक्ष्म दृष्टि ले लिखे गये हैं। .
. दूसरी प्रश्न है-भगवन् ! नारकी जिन पुद्गलों को . तैजल-कार्मण शरीर के रूप में ग्रहण करते हैं, उन पुद्गलों की : जो उदीरणा होती है, वह भूतकाल में गृहीत पुद्गलों की ... होती है, या वर्तमान काल में ग्रहण किये जाने वाले पुद्गलों . की या भविष्य में ग्रहण किये जाने वाले पुद्गलों की होती है ? .
इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमाया-गौतम! नारको तैजस कार्मण शरीर के रूप में प्रहण किये हुए जिन .. पुद्गलों की उदारणा करते हैं वे पुद्गल भूतकाल में ग्रहण किये हुए होते हैं, वर्तमान या भविष्य काल में ग्रहण किये . हुए या किये जाने वाले नहीं होते। .. .. - बौद्धं लोग क्षणिकवादी हैं । वे वर्तमान काल में ठहरते.. वाली वस्तु ही मानते हैं, भूत और भविष्य काल में किसी भी पदार्थ का रहना नहीं मानते । जो वर्तमान क्षण में है,: उसका. दूसरे क्षण में समूल नाश हो जाता है। कोई भी पदार्थ वर्तमान के अतिरिक्त किसी भी काल में नहीं रहता। लोकिन जैन शास्त्र ऐसा नहीं मानता। जैन शास्त्र कहता है.कि.अगर .
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[ ४३७ ]
कालचलितादि-सूत्र
भूतकाल का पुण्य-पाप सर्वथा नष्ट हो जावे और श्रात्मा के साथ उसका सम्बन्ध न रहे, तो फिर भूतकाल के कर्म, वर्त्त - मान में उदित ही न हों। भूतकाल और भविष्यकाल को एकदम अस्वीकार कर देने से संसार के समस्त व्यवहार ही भंग हो जाएँगे । मान लीजिए, एक मनुष्य ने दूसरे को ऋण दिया । कुछ दिनों बाद ऋण देने वाला माँगने गया तो ऋण लेने वाला कहेगा- वाह ! किलन ऋण दिया और किसने ऋण लिया है ! जिसने ऋण दिया था और जिसने लिया था, वह दोनों तो उसी समय सर्वथा समाप्त हो गये । श्रव तुम कोई दूसरे हो और मैं भी और ही हूँ। इसी प्रकार अगर कर्म भी नष्ट हो जाते हों तो उनका फल भी किसी को भोगना न पड़ेगा और स्वर्ग-नरक आदि की मान्यताएँ हवा में उड़ जाएँगीं ।
·
उदीरणा भूतकाल में बँधे हुए कर्म की होती है । वर्चज्ञान में कर्म वँध ही रहा, उसकी उदीरणा नहीं हो सकती । और भविष्यकालीन कर्म अवतक बँधे ही नहीं हैं। उनकी उदीरणा होगी ही कैसे |
यहां तैजस और कार्मण दोनों शरीरों का कथन क्यों किया गया है ? अकेले कार्मण शरीर का कथन क्यों नहीं किया गया ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि तैजस शरीर श्राठस्पर्शी है और कार्मण चतुःस्पर्शी है। कार्मण शरीर तैजस के बिना नहीं रह सकता, जैसे बिजली और तांबे का तार । शक्ति विजली में होती हैं मगर तांबे के तार के बिना वह ठहर नहीं सकतीः । श्रतएव विजली और तार मिलकर उपयोगी होते हैं । इसी प्रकार विना तैजस शरीर के कार्मण शरीर ठहर नहीं सकता । इसी कारण यहां दोनों का ही ग्रहण किया गया है ।
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श्री भगवती सूत्र
(४३) आत्मा के साथ पहले का जो तेजस-कार्मण शरीर है, वह सूक्ष्म है । वर्तमान में जो पुद्गल ग्रहण किये जाते हैं, उनका पुद्गल नाम मिटकर तैजस कार्मण नाम हो जाता है। इस सूत्र से यह सिद्ध है कि जीव जहाँ कहीं भी जाता है, तैजस और कार्मण उसके साथ सदैव बने रहते हैं।
तीसरा प्रश्न है -भगवन् ! नारकी जिन कर्मों को वेदते हैं-जिन कमी का फल भोगते हैं, वे कर्म भूतकाल के हैं, या वर्तमान काल के या भविष्य काल के ?
इसके उत्तर में भगवान् ने कहा-गौतम! अतिकाल में ग्रहण किये हुए कर्मों का वेदन होता है। वर्तमान के तथा भविष्य के कर्मों का वेदन नहीं होता। इसी प्रकार निर्जराभी भूतकाल में ग्रहण किये हुए कर्मों की होती है, वर्तमान या भविष्यकालीन कर्मों की नहीं होती । यह चार सूत्र हुए।आगे कर्म-अधिकार से आ सूत्र कहे जाते हैं।
पहला प्रश्न है-भगवन् ! नारकी जीव चलित कर्म बाँधता है या प्रचलित कर्म वाँधता है ?
इस प्रश का उत्तर है-गौतम! नारकी जीव अचलित कर्म का बंध करता है, चलित कर्म का बंध नहीं करता।
___ यहांयह जिज्ञासा हो सकती है किजो अंचलित है, उस का वाँधना क्या? जो गाय बँधी है, वह तो बँधी है ही 'उसका बाँधना क्या? वाँधना तो उसे पड़ता हैं जो छूटी हो इसी प्रकार जो कर्म प्रचलित है-स्थिर हैं, उन्हें क्यायाँधना
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[३६].
कालचलितांदि-सूत्र इसका समाधान करने से पहले यह जान लेना आव. श्यक है कि चलित कर्म और श्रचलित कर्म की व्याख्या क्या है?
गाय को एक बार वाँधने के लिए लाते हैं और एक वार बाहर निकालने ले जाते हैं। यद्यपि गाय दोनों अवस्थाओं में चलित है, लेकिन बाहर निकलती हुई गाय बंधती है या वाँधने के लिए खूटे पर आई. हुई ? बँधने के लिए खूटे के पास आई हुई गाय वाँधी जाती हैं।
तो जीव के प्रदेश से. जो कर्म चलायमान हो गये, उन्हें जीव-नहीं, चाँधता, क्योंकि, वे ठहरने वाले, नहीं हैं। ऐसे कर्म चलित कहलाते हैं । इससे विपरीत कर्म अचलित, कहे जाते हैं।
व्याख्यान सभा में एक भाई आ रहा है और एक जा रहा है। एक भाई यहाँ सब को यथास्थान बैठाने वाला है। बैठाने वाला भाई उसी को विठलाएगा जो वैठने के लिए: धाया है। जो जा रहा है उसके बैठने के लिए व्यवस्था करने की क्या आवश्यकता है. जो रहा है और जो आ रहा है, दोनों ही चलित जान पड़ते हैं, लेकिन आने वाला. वैठने के लिए, आया है, अतएव वह स्थिर है, और जाने वाला चलित,है।
यही बात कर्म के सम्बन्ध में है। जीव. श्राने वाले कर्मों को वाँधता है या जाने वाले कर्मों को इसका उत्तर दिया गया है-श्राने वाले अर्थात् आये हुए कर्मों को । शास्त्रीय परिभाषा में जाने वाले-अर्थात् जो कर्म जीव-प्रदेश में नहीं रहने वाले हैं उन-कर्मों को चलित कहते हैं और सनसे विप..
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श्रीभगवती सूत्र
:: [४०] रीत को श्रचलित कहते हैं । इसी आधार पर गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से प्रश्न किया कि जीव चलित कर्म बाँधता है अथवा प्रचलित कर्म बाँधता है ? भगवान ने उत्तर दिया-जीव प्रचलित कर्म वाँधता है, चलित नहीं ।
दूसरा प्रश्न है-भगवन् ! नरक के जीव चलित कर्म की उदीरणा करते हैं या अचंलित कर्म की ?
इसका उत्तर भगवान् ने यह फरमाया है कि नारकी अचंलित कर्म की उदीरणा करते हैं। - जो कर्म चलित है, वह तो आप ही चलायमान हो रहा है, उसकी उदीरणा क्या होगी ! जो मनुष्य स्वयं जा रही हैं उसको बाहर निकालना ही क्या! ..बाहर तो वही निकाला जायगा जो वैठने की चेष्टा कर रहा हो या वैठो हो। जो वैठा हो.उसे निकालने की चेष्टा करना ही उदीरणा है। अर्थात् कर्मों को उनके जाने के नियत समय से पहले ही भंगा देना उदीरणा कहलाती है। अतएवं उदीरणा अचलितं कम की ही होती है, चलित की नहीं।
- तीसरा प्रश्न है-वेदना चलितं कर्म की होती है या श्रचलित कर्म की? इस प्रश्न का उत्तर भी यही है कि अंचलित कर्म की वेदना होती है, चलित कर्म की नहीं।
तात्पर्य यह है कि जो कर्म जीव प्रदेश से चलित हो गया है, वह जीव को अपनी फलं देने में समर्थ नहीं हो स. कता। जो जहां स्थित नहीं है, वह वहाँ फल भी उत्पन्न नहीं
कर सकता।
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[४४१]
कालचलितादि-सूत्र . चौथा प्रश्न है-तीव रस कामंद रसादि श्रचलित कर्म का होता है या चलित कर्म का ? इस प्रश्न का भी वही उत्तर है कि प्रचलित कर्म का होता है, चलित का नहीं।
इसी प्रकार पाँचवाँ प्रश्न संक्रमण का, छठा निघत्त का और सातवाँ निकाचित का है। इन सब प्रश्नों का उत्तर एक ही है अचलित कर्म का ही संक्रमण, निघतन, और निकाचन होता है।
आठवाँ प्रश्न निर्जरा के संबंध में है। निर्जरा चलित कर्म की होती है, अचलित की,नहीं। आत्मप्रदेशों से कर्मपुद्गलों को हटा देंना निर्जरा है । श्रचलित कर्म आत्मप्रदेश से हटते नहीं है, चलित कर्म ही हटते हैं । इसलिए निर्जरा चलित कर्म की होती है, अचलित कर्म की.नहीं।
इन पाठ प्रश्नों की संग्रह-गाथा में यही बात कही गई है। बंध-उदय, वेदना, उंदीरणा, अपवन, संक्रमण, निधत्त
और निकाचित, इन सात प्रश्नों में प्रचलित कर्म कहना चाहिए और आठवें प्रश्न-निर्जरामचलित कर्म कहना चाहिए।
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असुरकुमार देकोका कोना
LUNEAKTOR CTERTARA ATIODERMIND
HTTMMAL
मूलपाठ-- प्रश्न-असुरकुमाराणं भंते ! केवइयं कालं: ठिई पण्णत्ता.?
उत्तर-गोयमा ! जहणेणं. दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं सातिरेगं सागरोवमः।
प्रश्न-असुरकुमाराणं भंते ! केवइकालस्स प्राणमंति वा, पाणमंति वा?? - उत्तर-गोयमा !जहणणेणं सत्तण्हंथोवाणं, . उक्कोसेणं साइरेगस्स पक्खस्स आणमंति वा,
पाणमंति वा।
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[४४३]
असुरकुमार-वर्णन
प्रश्न-असुरकुमारा णं भंते! आहारट्ठी? उत्तर-हंता, आहारत्ती। ..
प्रश्न-असुरकुमाराणं भंते! केवइकालस्स अाहारट्टे समुप्पज्जइ ? .
उत्तर-गोयमा ! असुरकुमाराणं दुविहे आहारे पन्नत्तेः तंजहा भाभोगनिव्वत्तिए, अणाभोगनिव्वत्तिए । तत्थ णं जे से अणाभोगनिव्वलिए से अणुसमयं अविरहिए आहारट्टे समुप्पज्जइ। गोयमा! तत्थ एंजे से श्राभोगनिव्वाचिए से जहरणेणे चउत्थभत्तस्स, उक्कोसेणं साइरेगस्स वाससहस्सस्स प्राहरहे समुप्पज्जइ ।
प्रश्न-असुरकुमाराणं भंते ! किं आहारं आहारेंति ?
उत्तर- गोयमा ! दव्वश्रो अणंतपएसिआई दवाई, खित-काल-भाव-पन्नवणागमणं । -सेसं जहा नेरइयाणं जाव ।
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श्रीभगवती सूत्र
[४४४] प्रश्न-ते णं तेसिं. पोग्गला कीसचाए भुजो भुजो परिणमंति? ..
उत्तर-गोयमा ! सोइंदियत्ताए, सुरूवत्ताए सुवरणत्ताए, इट्टत्ताए, इच्छियत्ताए, भिज्जियत्ताए, उड्ढत्ताए, जो अहत्ताए, सुहत्ताए णो दुहत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमति ।
प्रश्न-असुरकुमाराणं पुबाहारिया पोग्गला परिणया ? ..
उत्तर-असुरकुमाराभिलावेण जहा नेरइयाणं, जाव चलिअं कम्मं निज्जरंतिः।
संस्कृत-छाया-प्रश्न-असुरकुमाराणा भगवन् .! कियत्कालं स्थितिःप्रज्ञप्ता ?
,, उत्तर--गौतम ! जघन्येन दश वर्षसहस्राणि, उत्कृष्टेन सातिरेक सागरोपमम् । ... .. ."
प्रश्न-असुरकुमारा भगवन ! कियत्कालेन श्रानमन्ति वा प्राणमन्ति वा ?
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श्रीभगवती सूत्र
[४४८] उत्तर--गौतम! असुरकुमार के अभिलाप से अर्थात् नारकी के स्थान पर असुरकुमार शब्द का प्रयोग करते हुए, यह सब नारकियों के समान ही समझना चाहिए। यावत् चलित कर्म की निर्जरा करते हैं।
thilATHemantmusne |
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ROPRIEDENIORDPRER WORDISTRATHI Darकुमारादि देवों का वर्णन । MX251000%*080Plete.
मूलपाठ
प्रश्न-नागकुमाराणं भते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ?
उत्तर-गोयमा ! जहरणेणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं देसूणाई दो पलिग्रोवमाई ।
प्रश्न-नागकुमारा ण भंते ! केवहकालस्स माणमंति वा ४ ___ उत्तर-गोयमा । जहरणेणं सत्तरह थोवाणं, उक्कोसेणं मुहुत्त हुत्तस्स प्राणमति 'चा४।
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श्रीभगवती सूत्र
४५०] प्रश्न-नागकुमारा णं श्राहारट्ठी ? उत्तर-हता, आहारट्ठी।
प्रश्न--नागकुमाराणं भंते ! केवइकालस्स अाहारट्टे समुप्पज्जइ ?
उत्तर--गोयमा । नागकुमाराण दुविहे श्राहारे पण्णत्ते। तंजहा अाभोगनिवत्तिए,अणाभोगनिवत्तिए य । तत्थं णं जे से अणाभोगनिव्वत्तिए से अणुसमयं अविरहिए आहारहे समुप्पज्जइ । तत्थ णं जे से श्राभोगनिव्वत्तिए से जहएणणं चउत्थभरास्स, उक्कोसेणं दिवसपुहुत्तस्स आहारट्टे समुप्पजइ । सेसं जहा असुरकुमाराणं, जाव नो अचालयं कम्मं निजरांति, एवंसुवन्नकुमाराणं वि, जाव थाणियकुमाराणं ति।
संस्कृत-छाया-प्रश्न-नागकुमाराणां भगवन् ! कियत्कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ?
उत्तर--गौतम ! जघन्येन दश वर्ष सहस्त्राणि, उत्कृष्टेन देशोने द्वे पत्योपमे ।
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श्रीभगवती सूत्र
[४०] प्रश्न-बेइंदिया एं भंते ! जे पोग्गले श्राहारचाए गेण्हंति, ते किं सब्वे अाहारांत, . एो सव्वे आहारात ? ___उत्तर-गोयमा बेइंदियाणं दुविहे पाहारे पन्नत्ते; तंजहा-लोमाहारे पक्खेवाहारे य । जे पोग्गले लोमाहारसाए गिरहंति ते सव्वे अपरिसेसए आहारति । जे पक्खेवाहारताए गिण्हति तेसि णं पोग्गलाणं असंखेज्जइभागं श्राहारेंति, 'अणेगाई च णं भागसहस्साई प्रणासाइज्जमागाई, अफासाइज्जमाणाई, विद्धंसं पागच्छति।
प्रश्न-एएसि णं भंते ! पोग्गलाणं श्रणासाइज्जमाणाणं अफासाइज्जमाणाएं य कयरे कयरेहितो अप्पा वा, बहुया वा, तुल्ला वा विसेसाहिया वा ?
— उत्तर-सव्वत्थोवा पुग्गला प्रणासाइ. ज्जमाणा, अफासाइज्जमाणा अपंतगुणा ।
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[४]
दौन्द्रिय-वर्णन - प्रश्न-इंदिया णं भते ! जे भोगले, 'आहारत्ताए गिण्हति, ते णं तेर्सि पुग्गला कीसताए भुज्जो मुंजो परिणमति ? .
उत्तर-गोयमा! जिभिदिय-फार्सिदियवेमायताए भुज्जो-भुज्जो परिणमंति ।
प्रश्न-बेइंदियाणं भंते ! पुवाहारिया पोग्गला परिणया ?'
उत्तर--तहेव, जाव चलिनं कम निज्जरति ।
संस्कृत-छाया-द्वन्द्रियाणणं स्थिति णित्वा उच्छ्वासी विमात्रया।
प्रश्न-द्वीन्द्रियाणामाहारे पृछा १
उत्तर-अनाभोगनिर्वीततस्तथैव । तत्र योऽसावाभोगनिवर्तितः सोऽसंख्येयसमयिक श्रान्तमौर्तिकः विमात्रया आहारार्थः समुत्पद्यते। शेषं तथैव याबदू अनन्तभांगमास्वादयन्ति ।'
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श्री भगवती सूत्र
[४६२]
प्रश्न- द्वीन्द्रिया भगवन् ! यान् पुद्गलान् आहारतया गृहणन्ति, तान् कि सर्वान् प्राहरन्ति, नो सर्वानाहरन्ति ?
उत्तर-गौतम ! द्वीन्द्रिय णां द्विविध आहारः प्रज्ञप्तः तद्यथा. लोमाहारः प्रक्षेपाहारश्च । यान पुद्गलान् लोमाहारतया गृह्णन्ति तान् सर्वान् अपरिशेषितान् अाहरन्ति । यान् प्रक्षेपाहारतया गृह्णन्ति तेषां पुद्गलानामसंख्येयभागमाहरन्ति, अनेकाने च भागसहस्राणि अनाखाद्यमानानि, अस्पयमानानि विध्वंसमागच्छन्ति ।
प्रश्न-एतेषां भगवन् ! पुद्गलानां अनास्वाद्यमानानां अस्पर्यमानानां च कतरे कतरेभ्योऽल्पा वा, बहुका वा, तुल्या का विशेषाधिका वा?
उत्तर-- गौतम ! सर्वस्तोका: पुद्गला अनास्वाधमाना अस्पः यमाना अनन्तगुणा।
प्रश्न-द्वीन्द्रिया भगवन् ! यान् पुद्गलान् आहारतया गृह्ः रणन्ति, ते तेषां पुद्गलाः कीदृशतया भूयो भूयः परिणमन्ति ?
उत्तर-गौतम ! जिह्वेन्द्रिय स्पर्शेन्द्रियविमात्रया भूयो भूयः परिणमन्ति।
प्रश्न--द्वीन्द्रियाणां भगवन् ! पूर्वाहृताः पुद्गलाः परिणताः १ . उत्तर-तथैव, यावत् चकितं कर्म निर्जरयन्ति ।
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[४२३] -
द्वीन्द्रिय-वर्णन
___ मूलार्थ-दो-इन्द्रिय जीवों की स्थिति कहकर उन का विमात्रा से-अनियत-श्वासोच्छ्वास कहना चाहिए। ____तत्पश्चात् द्वीन्द्रिय जीव के आहार का प्रश्न होता है कि-भगवन् ! वीन्द्रिय जीव को कितने काल में आहार की अभिलाषा होती है ?
उत्तर-अनाभोगनिर्मित आहार पहले के ही समान समझना चाहिए । जो आभोगनिर्चित आहार है वह द्वीन्द्रिय जीवों का दो प्रकार का है--रोमाहार (रोमों द्वारा खींचा जाने वाला आहार ) और प्रक्षेपाहार ( कौर करकेमुँह में डालकर किया जाने वाला आहार ) जो पुद्गल रोमाहार के रूप में ग्रहण किये जाने हैं, उन सब के सब का आहार होता है; और जो पुद्गल प्रक्षेपाहार के रूप में ग्रहण किये जाते हैं, उनमें से असंख्यातवाँ भाग खाया. जाता है, शेष अनेक हजार भाग विना आखाद के और विना स्पर्श के ही नष्ट हो जाते हैं।
प्रश्न-भगवन्! नहीं आस्वादन किये जाने वाले और नहीं स्पर्श किये जाने वाले पुद्गलों में से कौन किससे अल्प है, बहुत है, तुल्य है या विशेषाधिक है ? अर्थात् जो पुद्गल आस्वाद में नहीं आये, वे अधिक हैं, या जो स्पर्श में नहीं आये थे अधिक हैं ?
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श्रीभगवती सूत्र
[४६४] उत्तर--गौतम! आस्वाद में नहीं आने वाले पुद्गल सब से कम हैं और स्पर्श में नहीं आये हुए पुद्गल उनस अनन्तगुने हैं।
प्रश्न-भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव जिन पुद्गलों को. आहार रूप में ग्रहण करते हैं, वे पुद्गल किस रूप में पलटते हैं?
उत्तर--गोतम ! जिह्वा इन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय के रूप में पलट जाते हैं।
प्रश्न-भगवन्! द्वीन्द्रिय जीव द्वारा पहले ग्रहण किये हुए पुद्गल परिणत हुए-पलटे हैं ?
उत्तर-- यह सब वक्तव्य पहले की भाँति ही सम.. झना । यावत् चलित कर्म की निर्जरा होती है।
IIFIEI.PEERI . . . . .. . . .. . . . .. .. . . .. . . . .
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RESPOSUR
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क्रीन्द्रिय अादि जीकों का वर्णन ANSIS-888888888888
मूलपाठ
तेइंदिय-चउरिंदियाणं णाणत्तं ठिइए, . जाव णेगाइं च णं भागसहस्साई प्रणाघाइज. माणाई, अणासाइजमाणाई, अफासाइज्जमा- . पाइं विद्धंसं पागच्छन्ति ।
प्रश्न-एएंसिं णं. भंते ! पोग्गलाणं प्रणाघाइज्जमाणाणं ३ पुच्छा !
उत्तर- गोयमा !. सव्वत्थोवा पोग्गला अपाघाइज्जमाणा, अणासाइजमाणा.अणंतगुणा, अफासाइज्जमाणा . अणतगुणा, तेइंदियाणं
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श्रीभगवती सूत्र
१४६६ घाणिदिय-जिभिदिय फासिंदिय-चेमायाए भुज्जो भुज्जो परिणमंति। . . संस्कृत-छाया-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियाणां नानात्वं स्थिती यावत् अनेकानि च भागसहस्राणि अनाघ्रायमाणानि, अनास्वाद्यमानानि, अस्पृश्यमानानि विध्वंसमागच्छन्ति ।
प्रश्न-एतेषां भगवन् ! पुद्गलानामनाघ्रायमाणानां ३ पृच्छा।
उत्तर--गौतम ! सर्वस्तोका पुद्गला अनात्रायमाणाः, अनास्वाचमाना अनन्तगुणाः, अस्पय॑माना अनन्तगुणाः । त्रीन्द्रियाणां प्राणेन्द्रिय-जिह्वेन्द्रिय-स्पर्शेन्द्रियविमात्रया भूयो भूयः परिणमन्ति ।
मूलार्थ---तीन इन्द्रिय वाले और चार इन्द्रिय वाले जीवों की स्थिति में भेद है, शेष सब पहले की भाँति है । यावत् अनेक हजार भाग विना सूंघे, विना चख, विना स्पर्श ही नष्ट हो जाते हैं।
प्रश्न- भगवन् ! इन नहीं सूंघे, नहीं चखे और नहीं स्पर्श किये हुए पुद्गलों में कौन किससे थोड़ा, बहुत, तुल्य , या विशेषाधिक है ?
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[४६७]
त्रांन्द्रिय आदि वर्णनउत्तर- हे गौतम! सब से कम नहीं सूंघे हुए पुद्गल हैं, उनसे अनन्तगुने नहीं चखे हुए और उनसे अनन्तगुने नहीं स्पर्श किये हुए पुद्गल हैं। तीन इन्द्रिय वाले जीवों द्वारा खाया हुआ आहार घ्राणेन्द्रिय के रूप में, जिह्वा इन्द्रिय के रूप में और स्पर्श-इन्द्रिय के रूप में बार-बार परिणत होता है । चार इन्द्रिय वाले जीवों द्वारा खाया हुआ आहार आँख, नाक, जीभ और स्पर्शनेन्द्रिय के रूप में बार-बार परिणत होता है।
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पञ्चेन्द्रियत्तियंच-तथा- मनुष्य
प्रादि का वर्णन
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मूलपाठपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं ठिई भणिऊणं उस्सासो वेमायाए। आहारो अणाभोगनिव्वत्तिो अणुसमयं अविरहिनो, आभोगनिव्वत्तिो जहण्णेणं अंतोमुहूत्तस्स, उक्कोसेणं छठभत्तस्स । सेसं जहा चरांदियाणं, जाव-चलियं कम्म गिजरेति ।
एवं मणुस्साण वि, णवरं-आभोगनिन्धत्तिए जहण्णेणं अंतोमुडुत्ते, उक्कोसेणं अट्ठमभत्तस्स । सोइंदियवेमायत्ताए भुजो भुज्जो परिणमंति। सेसं जहा तहेब जाव-निज्जरेंति ।
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[४६९]
पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च मनुष्य वर्णन
संस्कृत-- छाया-- पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां स्थितिर्भणित्वा उच्छ्वासो विमात्रया । श्राहारोऽनाभोगनिवर्तितोऽनुसमयमविरहितः, श्राभोगनिवर्तितो जघन्येन अन्तर्मुहूर्तेन, उत्कृष्टेन षष्टभक्तेन शेपं यथा चतुरिन्द्रियाणाम् । यावत्-चलितं कर्म निर्जरयन्ति ।
एवं मनुष्याणामपि, नवरम् श्राभोगनिवर्तितो जघन्येन अन्तमुंहूतेन, उत्कृष्टेन अष्टमभक्तेन । श्रोत्रेन्द्रियविमानतया भूयो भूयः परिणमन्ति । शेषं यथा तथैव यावत्--निर्जरयन्ति ।
.. मूलार्थ-पाँच इन्द्रिय वाले तिर्यञ्चों की स्थिति कह कर उनका आहार विमानां से- विविध प्रकार से-(कहना चाहिए | अनाभोगनिर्वर्तित आहार प्रतिसमय निरन्तर होता है । आभोगनिर्तित आहार जघन्य अन्तर्मुहूर्त में
और उत्कृष्ट षष्ठ भक्त (दो दिन व्यतीत हो जाने पर) होता है। शेप वक्तव्यता चतुरिन्द्रिय जीवों के समान समझना चाहिए । यावत् चलित कर्म की निर्जरा होती है ।
मनुष्यों के सम्बन्ध में भी ऐसा ही जानना चाहिए। विशेषता इतनी हैं कि उनका आभोगनिवर्तित आहार जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अष्टम भक्त-तीन दिवस बीतनेपर होता है । पंचेन्द्रियों द्वारा गृहीत आहार (पूर्वोक्त चार इन्द्रियों के अतिरिक्त ) श्रोत्रेन्द्रिय के रूप में भी परिणत होता है। शेष सब पहले के समान समझना चाहिए, यावत्-चलित कर्म की निर्जरा करते हैं।
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EPIOEMETOOSTMISHIDEO SOSODEOCOPY ल काणा-यन्तर अादि का छान छ POSETOOSBISHOCTOBORTERED
मूलपाठवाणमंतराणं ठिइए नाणत्त्वं । अवसेसं जहा णागकुमाराणं । एवं जोइसियाण वि, णवरं उस्सासो जहरणेणं मुहत्तपुहुत्तस्स। अाहारो जहएणणं दिवसपुहुत्तस्स, उक्कोसेण वि दिवसपुहुतस्स । सेसं तहेव । . वेमाणियाणं ठिई भाणियव्वा श्रोहिया । ऊसासो जहणणेणं मुहत्तपुहुत्तस्स, उक्कोसेणं तेतीसाए पक्खाणं । आहारो अाभोगनिवत्तिो जहरणेणं दिवसपुहुत्तस्स, उक्कोसेणं तेनीसाए वाससहस्साणं । सेसं चलियाइयंतहेव निजरावेंति
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[४७१]
वाणाव्यन्तरादि देव वर्णन संस्कृत छाया-वानव्यन्तराणां स्थितौ नानात्वम्, अवशेष यथा नागकुमाराण'म् ।
एवं ज्योतिष्काणामपि, नवरं उच्छ्वासो जघन्येन मुहूर्तपृथक्त्वेन, उत्कृष्टेनापि मुहूर्तपृथक्त्वेन । अ हारो जघन्येन दिवसपृथक्त्वेन, उत्कृष्टेनापि दिवसपृथक्त्वेन | शेषं तथैव ।
वैमानिकानां स्थिति णितव्या श्रौधिकी । उच्छ्वासो जघन्येन मुहूर्तपृथक्त्वेन उत्कृष्टेन त्रयस्त्रिंशता पक्षः, श्राहार श्राभोगनिर्वतितो नयन्येन दिवसपृथक्त्वेन, उत्कृष्टेन त्रयस्त्रिंशता वर्षसहस्त्रैः। शेषं चलि+ तादिकं तथैव निर्जरयन्ति । .
मूनार्थ-वाण-व्यन्तरदेवों की स्थिति में भेद है, शेष सब नागकुमारों के समान समझना चाहिए ।
यही ज्योतिषी देवों के संबंध में भी जानना चाहिए । विशेषता यह है कि-ज्योतिपीदेवों का उच्छवास-निश्वास जघन्य
और उत्कृष्ट मुहूर्त-पृथक्त्व के वाद होता है; और आहार जघन्य एवं उत्कृष्ट से दिवस-पृथक्त्व के पश्चाव हुआ करता है । और सब बातें पहले के समान ही समझनी चाहिए। . वैमानिकों की स्थिति ओधिकी (सामान्य) कहनी चाहिए । उनका उच्छ्वास जघन्य मुहूर्त्त-पृथक्त्व और उत्कृष्ट तेतीस पन के पश्चात् होता है। उनका आभोग
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श्री भगवती सूत्र
(४७२) निर्वर्तित आहार जघन्य दिवसपृथक्त्व के बाद और उत्कृष्ट तेतीस हजार वर्ष बाद होता है । 'चलित कर्म की निर्जरा होती है, इत्यादि शेष सब पूर्ववत् ही समझना चाहिए ।
व्याख्यान-ऊपर जो विविध प्रकार के जीवों का वर्णन दिया गया है, उसकी कुछ विशेष बातों पर टीकाकार ने प्रकाश डाला है।
असुर कुमार की उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम से कुछ अधिक की कही गई है, सो बलि नामक असुरराज की अपेक्षा से है । चमरेन्द्र की आयु एक सागरोपम की ही है और बलिराज का श्रायुष्य, चमरेन्द्र के आयुष्य से कुछ . अधिक है।
असुरकुमार का श्वासोच्छ्वास जघन्य सात स्तोक में बतलाया है, किन्तु स्तोक किसे कहते हैं, यह जान लेना आवश्यक है । टीकाकार कहते हैं
हदुस्स अणवगल्लस्स निरुवकिट्ठस्स जंतुणो । एगे ऊसास नीसासे. एस. पाणुत्ति वुचइ ।। सत्त पाणुणि से थोचे, सत्त थोवाणि से लवे. । . लवाणं सत्तहत्तरिए, एस मुहुत्ते वियाहिए. ॥ .
स्तोक का परिमाण बतलाने के लिए श्वासोच्छवास से प्रारम्भ किया है; पर प्रत्येक जीव का श्वासोच्छ्वास समान कालीन नहीं होता, अतएव शास्त्र में कहा है कि इस गणना में मनुष्य का श्वासोच्छ्वास लेना चाहिए । वह मनुष्य
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[४७३]
दण्डक-व्याख्यान
हृष्ट हो, बहुत बूढ़ा न हो, शोक-चिन्ता वाला न हो, रुग्ण न हो । ऐसे मनुष्य के एक श्वास और उच्छ्वास को प्राण कहते हैं । सात प्राण का एक स्तोक होता है । सात स्तोक का लव होता है और सतचर लव का एक मुहूर्च होता है।
काल के लौकिक माप पराधीन हैं। आज घड़ी से काल का माप होता है, लेकिन घड़ी टूट जाय तोक्या किया जाएगा? शानियों का कथन है कि प्रकृति स्वयं काल नापती है, उसे समझ लेना चाहिए । अनुयोग द्वार सूत्र में प्रकृति का माप सरसों नादि से बतलाया है।
जो माप किसी और के आश्रित नहीं है, किन्तु प्रकृति के श्राश्रित है, वह लोकोचर माप है। दुनिया अपनी स्वतंअसा को त्याग कर परतंत्रता के माप में पड़ रही है, लेकिन अन्त में प्रकृति का आश्रय लेना ही पड़ता है।
ऊपर मुहूर्त का परिमाण बतलाया गया है। तीस मुहर्त का अहोरात्र और पंद्रह अहोरात्र का पक्ष (पखवाड़ा) होता है । एक मास में दो पक्ष होते हैं। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार महीने में कम-ज्यादा दिन हो जाते हैं, इसलिए पत्त में भी कम-ज्यादा होते हैं । अाजकल संवत्सरी पर्व ज्योतिष के हिसाब से माना जाता है, इसी कारण कोई कभी और कोई कभी मनाता है, लेकिन शास्त्रकारों ने काल के माप के लिए पाँच संवत्सर अलग कर दिये हैं। शास्त्र में कहा है कि ७७ लव का एक मुहूर्त होता है, ३० मुहर्च का एक दिनगत होता है, १५ दिन-रात का एक पक्ष और ३० दिन-रात का एक मास होता है। इस काल-पणना में किसी प्रकार की गड़बड़ नहीं पड़ती।
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श्रीभगवती सूत्र :
[२४] काल-गणना की अनेक विधियाँ प्रचलित हैं। अंगरेज लोग काल मापने के लिए ज्योतिष के सहारे नहीं रहे। उन्होंने अपनी तारीखें नियत कर ली है और चार वर्ष में एक दिन वढ़ा दिया है।
अगर हमारे यहां जीत व्यवहार से ऐसा कोई नियम वना दिया जाय तो संवत्सरी आदि में कोई अन्तर न रहे। प्रश्न होता है, नियम किस आधार पर बनाया जाय ? इसका उत्तर स्पष्ट है-७७ लव का एक मुहर्त, ३० मुहूर्त का एक अहोरात्र, १५ अहोरात्र का एक पक्ष और दो पक्ष का एक मास होता है। दो मास की एक ऋतु, तीन ऋतु का एक अयन और दो अयन का एक संवत्सर होता है।
असुरकुमार कााहार जघन्य चार भक्त में बताया है। चार भक्त का अर्थ-एक दिन श्राहार करे, फिर एक दिन और दो रात न खाकर तीसरे दिन खावे । इसे चतुर्थ भक्त कहते हैं। चतुर्थ भक्त उपवास की एंकं संज्ञा है।
नागकुमार की दो पल्योपम की स्थिति कही गई है। यह उत्तर दिशा के नागकुमार की अपेक्षा से है । दक्षिण दिशा के नागकुमार की अपेक्षा डेढ़ पल्योपम की ही स्थिति है। ।
.. मुहर्त पृथक्त्व का अर्थ है, ७७ लव बीतने पर एक मुहुर्त होता है और दो मुहर्त से लेकर नौ मुहर्त तक कोमुहूर्त । पृथक्त्व कहते हैं। दो से लेकर चौ. तक की संख्या सिद्धान्त में पृथक्त्व कहलाती है।
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[१५]
दण्डक-व्याख्यान
असुगकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक का वर्णन किया गया है। इनके बीच में किन-किन का समावेश है, यह बात इस संग्रह-गाथा से ज्ञात हो सकती है:
असुरा नाग-सुबएणा, विज्जु-अग्गी य दीव-उदही य । दिसि-वाऊ थणिया वि य, दसभेया भवणवासीणं ।
अर्थात् भवनवासी देवों के दस भेद हैं-(१) असुरकुमार २) नागकुमार (३) सुवर्णकुमार (8) विद्युतकुमार (५) अग्निकुमार (६ द्वीपकुमार (७) उदधिकुमार (८) दिक्कुमार (६) वायुकुमार और (१०) स्तनितकुमार।
एक दंडक नारकी जीवों का और दस दंडक भवनवासी देवों के, यह ग्यारह दंडक हुए । इसके पश्चात् एक दंडक पृथ्वीकाय के जीवों का आता है।
पृथ्वीकायिक जीवों की आयु अन्तर्मुहर्त की है। ऊपर जो परिमाण मुहर्त का बतलाया गया है, उसले कुछ कम समय अन्तर्मुहर्त कहलाता है । पृथ्वीकाय की उत्कृष्ट स्थिति २२ हजार वर्ष की, खर पृथ्वी की अपेक्षा से कही गई है।
पृथ्वी के बन कोखर पृथ्वा । पृथ्वीकाय कसले कुछ कम
सराहा य सुद्ध वालुय, मणोसिला सकरा य खर पुढवी । एग वारस चोदस सोलस अट्ठारस बावीस चि ।
पहली स्निग्ध-सुहाली पृथ्वी है। इस की स्थिति एक हजार वर्ष की है । दूसरी शुद्ध पृथिवी की बारह हजार वर्ष
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श्रीभगवती सूत्र
[४६] की स्थिति है। तीसरी बालुका पृथ्वी की चौदह हजार वर्ष की, चौथी मनःशिला पृथ्वी की सोलह हजार वर्ष की, पाँचवीं शर्करा पृथ्वी की अठारह हजार वर्ष की, और छठी खर । पृथ्वी की वाईस हजार वर्ष की स्थिति है।
विमात्रा-श्राहार कहने से यह तात्पर्य है कि उसमें कोई मात्रा नहीं है । जोई कैसा श्राहार लेता है, कोई कैसा। •पृथ्वीकाय के जीवों का रहन-सहन मिन्न-भिन्न और शिचित्र है। इसलिए उनमें श्वास की भी मात्रा नहीं है कि कब-कितना लेते हैं। तात्पर्य यह है कि इनका श्वासोच्छ्वास विषम रूप है। उसकी मात्रा का निरूपण नहीं किया जा सकता।
शास्त्र सम्बन्धी वार्ता बड़ी प्रानन्ददात्री है। मगर .. जिसमें इस वार्ता का रस लेने का सामर्थ्य हो, वही श्रानन्द ले सकता है । अाजकल हम लोगों का ज्ञान अत्यल्प है और जीवन में संजाल बहुत हैं । अतएव हम लोग शास्त्र के रहस्य को भली भांति समझ नहीं पाते । मगर श्राज जीवन कितना हो व्यस्त क्यों न हो, जिस समय शास्त्र का निर्माण हुत्रा. उस समय ऐसा जंजाल न था। इस कारण उस समय शास्त्र बड़े महत्व की दृष्टि से देखे जाते थे।
उक्त वर्णन से इस बात का भी भलीभांति अनुमान किया जा सकता है कि जैन धर्म क्या है ? उसको वारकिी और व्यापकता कहां तक जा पहुँची है ! एक छोटे से राज्य का राजा होता है, दूसरा बड़े राज्य का होता है। वासुदेव का भी राज्य है और चक्रवर्ती का भी। चक्रवर्ती का राज्य सबले वड़ा गिना जाता है, क्योंकि उसके राज्य में सभी एक छत्र में आ जाते हैं। सब का एक छत्र के नचेि आ जाना, यही चक्रवर्ती का चक्रवर्तीपन है।
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[४७७]
दरंडक-व्याख्यान
हम लोग तीर्थंकरों की महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं-'प्रभो ! तू त्रिलोकीनाथ है। अगर भगवान् त्रिलोकी नाथ है, तो उनके राज्य में तीनों लोक के जीवों का समावेश होजाना चाहिए । फिर भले ही कोई छोटा हो या बड़ा हो। चक्रवर्ती मनुष्यों पर ही शासन करता है, लेकिन निलोकीनाथ का छन तो चौवीस दण्डकों के जीवों के सिर पर है। उनका छत्र नारकी जीवों पर भी है। जैसे बड़ा राजा, अपने राज्य को प्रान्तों में विभक्त करता है, उसी प्रकार भगवान ने अपना राज्य चौवीस दंडक रूपी प्रान्तों में विभक्त किया है। इन दंडकों में से पहला दंडक नारकी का है। भगवान् ने नारकियों को सव से पहले याद किया है। मनुष्य के शरीर में 'भी पहले पाँव गिना जाता है, सिर नहीं । लोग पैर पूजना कहते हैं, सिर पूजना नहीं कहते । पैर का महत्व बढ़ने से सिर का महत्वं श्राप ही बढ़ जाता है। भगवान् का राज्य तीनों लोकों में फैला है। उन्होंने नरक को भी-एक प्रान्त बनाया है।
यहां यह प्राशका हो सकती है कि सुरकुमार श्रादि के, जो समीप ही हैं, दस दंडक माने गये हैं और नारकी जीवों का एक ही। इसका क्या कारण है ? इस आशंका का समाधान यह है कि नारकी जीवों में इतनी अधिक उथलपुथल नहीं होती; क्योंकि वे दुख में पड़े हैं। भवनवासी उथल-पुथल करते रहते हैं। इत्यादि कारणों से उनके दस देडक किये गये हैं।
* इस विषय में सूत्रों में कोई स्पष्टीकरण नहीं है किन्तु प्राचार्यों की धारणा ऐसी है कि नारकी में सातों नरक के नेरपिक परस्पर
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श्रीभगवती सूत्र
[४ ] फिर प्रश्न होता है कि असुरकुमार के सिवा नौ अवनवासी समान ही हैं, फिर इनके अलग-अलग दंडक क्यों वताये गये हैं। एक ही दंडक क्यों न बता दिया?
जिन भगवान् ने दंडक रूपी प्रान्त बनाये हैं, उन्हें इस विषय में अधिक ज्ञान था । हमें उनकी व्यवस्था पर ही निर्भर रहना चाहिए !
पृथ्वीकाय के जीवों का एक दण्डक है। पृथ्वींकाय के जीवों को यह मालूम नहीं है कि मैं पृथ्वी है। लेकिन भगवान् कहते हैं कि जो खेल सुरकुमारों में हो रहा है, वहीं पृथ्वीकाय के.जीवों में भी हो रहा है । जैन शास्त्रों में जैला अनन्त विज्ञान भरा है, वैसा ज्ञान अन्यत्र देखने में नहीं आता।
भगवान् ने नरक के जीवा, असुरकुमार और पृथ्वीकाय के विषय में ७२ वातें कही हैं। इन जीवों के जितनीजितनी इन्द्रियाँ हैं, उनका वर्णन भी किया गया। भगवान् की करुणा सभी जीवों पर समान है।
संलग्न है इनके बीच में कोई दूसरे त्रस जीव नहीं हैं किन्तु भवनपति देवों में यह बात नहीं है, इनके बीच में व्याघात होने से इनके दंडक प्रथक २ माने है अर्थात् प्रथम नरक के १३ प्रतर और १२. अन्तर है। अन्तर में एक २ जाति के भवनपति रहते हैं और प्रतर में नेरिये रहते है परन्तु प्रथम नरक के नीचे के प्रतर से . सातवी नरक तक बीच में कोई भी नहीं होने से नेरयिकों का एक
और दश, जाति के भवनपतियों के दश दंडक (विभाग )-किये गये है ऐसी. पूर्वाचार्यों की धारणा है।
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[ ४७९]
दण्डक - व्याख्यान
पृथ्वीकाय की ही तरह जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिका का भी एक-एक दण्डक माना गया है । फिर द्वन्द्रिय, त्रन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और विर्यश्च पंचेन्द्रिय का एकएक दंडक किया और एक दंडक मनुष्य का किया है । चाहे मनुष्य किसी भी क्षेत्र का और किसी भी जाति का हो, सबका दंडक एक ही है । मनुष्य के दंडक के बाद वान - व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक का दंडक गिना गया है ।
देव और असुर दो योनियां हैं | देव में ज्योतिष्क और वैमानिक गिने जाते हैं और असुर योनि में असुरकुमार आदि गिने जाते हैं । देवों में इतने झगड़े नहीं होते, जितने असुरो - में होते हैं । भगवान् ने असुरकुमार आदि दस के दस दडक गिनाये और देवों का एक ही दंडक गिता । यह त्रिलोकीनाथ का राज्य है ।
पृथ्वीकायिक जीवों के आहार के विषय में कहा गया है कि अगर व्याघात न हो तो उनका श्राहार छहों दिशाओं से होता है । यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि व्याघात किसे कहते हैं ?
लोक के अन्त में, जहां लोक और श्रलोक की सीमा मिलती है, वहीं व्याघात होना संभव है। जहां व्याघात नहीं है वहां छह दिशा का श्राहार लेते हैं, जहां व्याघात हो वहां सीन, चार या पाँच दिशा से आहार लेते हैं । तात्पर्य यह है कि लोक के अन्त में, कौने के ऊपर रहा हुआ पृथ्वीकार्य का. जीव तीन, चार या पाँच दिशाओं से आहार ग्रहण करता हैं। जयंतीम दिशाएँ अलोक में दव जाती हैं-तीन तरफ अलोक या जाता है, जैवं तीन दिशा से आहार लेते हैं। जब दो
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श्री भगवती सूत्र
(४८०) दिशाएँ अलोक में दव जाती हैं तव चार दिशा का और जब एक दिशा अलोक में दब जाती है तब पांच दिशाओं से पाहार लेते हैं। मतलव यह कि जो दिशा अलोक में दब जाती है, उसका आहार नहीं लेते। . पृथ्वीकाय के जीवों के एकमात्र स्पर्शनेन्द्रिय ही होती है। उन्हें रसेन्द्रिय नहीं है । जिसके रसेन्द्रिय है वह उसके द्वारा आहार ग्रहण करके स्वाद लेता है, मगर यह वात इनमें नहीं पाई जाती । इस लिए यह जीव स्पर्शेन्द्रिय से ही श्राहार ग्रहण करके उसका आस्वादन करते हैं। इनका यह स्पर्श भी एक प्रकार का आस्वादन है। - पाँच स्थावरों की स्थिति में अप्काय की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट सात हजार वर्ष की है। अग्निकाय के जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहर्त की और उत्कृष्ट तीन दिन की है। वायुकाय की उत्कृष्ट स्थिति तीन हजार वर्ष की, वनस्पतिकाय की दस हजार वर्ष की और पृथ्वीकाय की वाईस हजार वर्ष की स्थिति है । इस प्रकार इन सब की स्थिति है।
दो इन्द्रिय की स्थिति उत्कृष्ट वारह वर्ष की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है। दो इन्द्रिय वाले जीवों को प्राभोग-आहार की इच्छा असंख्यात समय बाद होती है। असंख्यात समय कितना. लेना चाहिए, यह बताने के लिए अन्तर्मुहूर्त का असंख्यात. समय ग्रहण किया गया है । द्वीन्द्रिय जीवों के आहार का कोई निश्चित नियम नहीं है, अतएव वह विमात्रा . से कहा गया है।
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[४८१]
दण्डक-व्याख्यान इन जीवों का प्राभोग पाहार रोम द्वारा भी होता है। जब वर्षा होती है तव रोमों द्वारा शीत श्राप ही श्राजाता है। वह रोमाहार कहलाता है।
द्वीन्द्रिय जीवों के प्राभोग-शाहार के विषय में यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि वे रोम द्वारा गृहीत आहार को पूर्ण रूप से खा जाते हैं और प्रक्षेपाहार का वहुत-सा भाग नष्ट हो जाता है और असंख्यातवाँ भाग शरीर रूप में परिणत होता है । इस कथन के आधार पर यह प्रश्न किया गया है कि जो पुद्गल स्पर्श में तथा प्रास्वाद में आये विना ही नष्ट हो जाते हैं, उनमें कौन से अधिक हैं ? अर्थात् स्पर्श में न -भाने वाले पुद्गल अधिक है या आस्वाद में न आने वाले ? इस प्रश्न का उत्तर यह दिया गया है कि आस्वाद में न भाने वाले पुद्गल थोड़े हैं और स्पर्श न किये जाने वाले पुद्गल अनन्तगुण हैं ।
, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों की स्थिति में अन्तर है। त्रीन्द्रिय जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट ४६ रात:दिन की है। चौइन्द्रिय जीवों को जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट छह मास की है । आहार आदि में जो अन्तर है, वह पहले बतलाया जा चुका है। . .
पंचेन्द्रिय तिर्यंच का श्राहार पष्ठभक्त अर्थात् दो दिन बीत जाने पर बतलाया गया है। यह आहार देवकुरू और उत्तर कुरू के युगलिक तिर्यंचों की अपेक्षा कहा गया है । इसी प्रकार मनुष्यों का जो अष्टमभक अर्थात् तीन दिन बाद श्राहार कहा है, वह. भी देवकुरू, उत्तरकुरू के युगलिक मनुष्यों की अथवा भरतादि में जव प्रथम आरा प्रारम्भ होता
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श्रीभगवती सूत्र
[ २४ ]
प्रकृति ने इसे कैद कर रक्खा है, मगर यदि प्रकृति के रोकने से यह शरीर में रुका रहता है और कत्ती नहीं है तो उसे मुक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है ? इसके अतिरिक्त जड़ प्रकृति को तो कर्त्ता माना जाय और चेतन श्रात्मा को श्रकर्त्ता कहा जाय, यह कहां तक तर्क संगत हो सकता है !
अव यह कहा जा सकता है कि आपके (जैन) मत में आत्मा रूपी है या अरूपी ? रूपी तो आप स्वीकार नहीं करते । अगर रूपी है और ज्ञानवान् भी है तो वह अज्ञान के कार्य क्यों करता है ? इसका उत्तर यह है कि श्रात्मा स्वभाव से अरूपी होते हुए भी प्रकृति के साथ लगा हुआ है। श्रात्मा श्रनादि काल से है और अनादि काल से ही कर्मों के साथ उसका संयोग हो रहा है । कर्मों के साथ एकमेक हो जाने के कारण संसारी आत्मा कथञ्चित् रूपी बना हुआ है और अपने असली स्वरूप को भूल गया है। वास्तव में आत्मा ही कर्त्ता है | वही सव क्रियाएँ करता है श्रात्मा शरीर में रहने वाला देही है और शरीर, देह है । श्रात्मा के दो देह हैं । एक सूक्ष्म, दूसरा स्थूल । स्थूल देह जब छूट जाता है, तव भी सूक्ष्म देह श्रात्मा के साथ वना रहता है। सूक्ष्म शरीर के साथ रहने से ही आत्मा वार-बार जन्म-मरण करता है । जन्म-मरण का यह कारण जंव मिट जाता है तब जन्म-मरण भी मिट जाता है । जन्म-मरण का कारण क्या है, यही वर्णन अव भगवती सूत्र मै आता है।
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प्रात्मरम्मा वरार
- मूलपाठ
.. प्रश्न-जीवाणं भंते किं आयारंभा, परारंभा, तदुभयारंभा, अणरिंभा ? - ... उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइया जीवा आयाः रंभावि, परारंभावि, तदुभयारंभाःणोणारंभा। अत्थेगच्या जीवाणो अायारंभा, नो परारंभा, नो तदुभयारंभा, अनारंमा। . ....
प्रश्न से कपडणं भते ! एवं वुच्चह, "अत्यगइया जीवा आयरिंभा वि' एवं पडिक उच्चारेयव्वं ?
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[ ४८६ ]
उत्तर - गोयमा ! जीवा दुबिहा पण्णत्ता,
श्रीभगवती सूत्र
तंजहा - संसारसमावण्णगा य,
वरणगा य । तत्थ णं जे ते वण्णगा ते णं सिद्धा, सिद्धा णं नो श्रायारंभा ३ जाव - अपारंभा । तत्थ णं जे ते संसारसमावण्णगा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहासंजयाय, संजयाय । तत्थ णं जे ते संजया ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - पमत्तसंजया य, अप्पम संजया य । तत्थ णं जे ते अप्पमतसंजया ते णं नो श्रायारंभा, नो परारंभा, जावअणारंभा । तत्थ णं जे ते पमत्तसंजया ते सुहं जोगं पडुच्च नो प्रायारंभा, नो परारंभा, जाव अणारंभा । असुभं जोगं पडुच्च आयारंभा वि, जाव णो णारंभा । तत्थ णं जे ते संजया ते अविरतिं पहुच्च प्रायारंभा वि जाव नो णारंभा । से तेणट्टेणं गोयमा । एवं बुचइ 'प्रत्थेगइया जीवा जाव अपारंभा' ।
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असंसारसमाअसंसारसमा
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[४८७]
. श्रात्म-परारम्भादि वर्णन संस्कृत छाया-प्रश्न-जीवा भगवन् ! किंमात्मारम्भार, परारम्भाः, तदुभयारम्भाः, अनारम्भाः !
उत्तर-गौतम सन्त्येकका जीवा प्रात्मारम्भा श्रपि, परारम्मा अपि, तदुभयारम्भा अपि, नो अनारम्भाः । सन्येकका वीवा लो श्रात्मारम्भाः, नो परारम्भा नो उभयारम्भाः, अनारम्भाः ।
प्रश्न-तत् केनार्थेन भगवन् ! एवमुच्यते-सन्सेकका मौका श्रात्माम्भा अपि, 'एवं प्रत्युच्चारयितव्यम् ?
उत्तर-गौतम ! जीवा द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- संसारसमा पनकाश्च, असंसारसमापनकाश्च । तत्र ये ते असंसारसमापनकास्ते सिद्धाः, सिद्धा नो अात्मारम्भा: यावत् अनारमाः । तत्र ये ते संसारसमापनकास्ते द्विविधाः प्रज्ञता , तद्यथा- संयताश्च, असंयताश्च । तत्र ये ते संयतास्ते द्विविधाः प्रज्ञप्ताः । तद्यथा-प्रमचसंयताश्च, अप्रमत्तसंयताश्च । तत्र ये ते अप्रमत्तसंयतास्ते नो अात्मारम्भाः, नो परारम्भाः, यावत् अनारम्भाः । तत्र ये ते प्रमत्तसंयतास्ते शुभ योग प्रतीत्य नो अस्मारम्माः , नो परारम्भाः, यावत् अनारम्भाः । अशुभं योगं प्रतीत्य आत्मारम्मा अपि, यावत् नो अनारम्भाः । तत्र ये ते असंयतास्ते अविरति प्रतीत्य आत्मारम्भा अपि, यावत् नो अनारम्भाः । तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-'सन्त्येकका जीवा यावत् अनारम्भाः'
मूलार्थ-प्रश्न-भगवन् ! क्या जीव आत्मारंभ है, परारंभ हैं, उभयारंभ हैं, या अनारंभ हैं ?
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• श्रीभगवती सूत्र
[४८८ उत्तर-गौतम ! कितनेक जीव आत्मारंभ भी है, परारंभ भी हैं और उभयारंभ भी हैं, पर अनारंभ नहीं हैं। तथा कुछ जीव आत्मारंम नहीं हैं, परारंभ नहीं हैं, उभयारंभ नहीं हैं, पर अनारंभ हे.. . . .
प्रश्न-भगवन् ! इस प्रकार किस हेतु से कहते हैं कि 'कितनेक जीव आत्मारंभ भी हैं ', इत्यादिक पूर्वोक्त प्रश्न फिर से उच्चारण करना चाहिए ? ... .
उत्तर-गौतम ! जीव दो प्रकार के कहे गये हैं ! वे इस प्रकार-संसारसमापन्नक और असंसारसमापन्नक । उन. में जो जीव असंसारसमापन्नक हैं, वें सिद्ध हैं और वे आत्मारंभ परारंभ या उभयारंभ नहीं हैं, पर अनारंभ हैं। उनमें से जो संसारसमापनक हैं, वे दो प्रकार के कहे गये हैं। वह इस प्रकार संयत और असंयत । उनमें जो संयत हैं; वे दो प्रकार के हैं । वह इस प्रकार-प्रमत्त संयत और अप्रमत्त संयत। उनमें जो अप्रमत्त संयत हैं वे आत्मारंभ, परारंभ या उभयारंभ नहीं हैं, पर अनारंम हैं । उन में जो प्रमत्तसंयत हैं, वे शुभ योग की अपेक्षा
आत्मारंभ,' परारंभ यांवत् उभयारंभ नहीं, पर अनारंभ हैं। और वे अशुभ योग की अपेक्षा आत्मारंभ भी है, यावत् अनारंभ नहीं है। और जो असंयत हैं, वे
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पारस
[४८९].
आत्म-परारम्भादि वर्णन अविरति की अपेक्षा से आत्मारंभ भी है, और यावत् अनारंभ नहीं है। इसलिए हे गौतम ! इस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि 'कितनेक जीव आत्मारंभ भी हैं, यावत् अनारंभ भी हैं। . .
. व्याख्यान-गौतम स्वामी भगवान से प्रश्न करते हैंभगवन् ! जीव आत्मारंभी हैं, परारंभी है, तदुभयारंभी अर्थात् आत्मारंभी और परारंभी हैं, या अनारंभी हैं ? ....
श्रारंभ शब्द अनेक अर्थों में प्रचलित है। किसी कार्य को शुरू करना भी आरंभ कहलाता है । लेकिन यहां यह अभिप्राय नहीं है । यहां प्रारंभ का अर्थ है-ऐसा सावध कार्य करना, जिससे किसी जीव को कष्ट पहुँचती हो, या उसके प्राणों का धात होता हो। अर्थात् प्रानव द्वार में प्रवृत्ति करना प्रारंभ कहलाता है। "
. आत्मारंभ के दो अर्थ है -पानवद्वार में आत्मा को प्रवृत्त करना और आत्मा द्वारा स्वयं प्रारम्भ करना । जो ऐसा करता हैं वह आत्मारंभी कहलाता है । दूसरे को आस्रव में प्रवृत्त करना या दूसरे के द्वारा प्रारंभ कराना परारंभ है और ऐसा करने वाला प्रारंभी कहलाता हैं। श्रात्मारंभ और परारंभ दोनों करने वाला उभयारंभी कहा जाता है. । जो जीव, आत्मारंभ, परारंभ. और उभयारंभ से रहित होता है, वह अनारंभी है।श्री गौतम स्वामी ने इसी संबंध में भगवान से प्रश्न किये हैं।
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श्री भगवती सूत्र
(४६० )
गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर में भगवान् फ़रमाते हैं - गौतम | कई जीव ऐसे है जो, श्रात्मारंभी भी हैं, परारंभी भी हैं, उभयारंभी हैं, पर श्रारंभी नहीं हैं । तथा कुछ जीव ऐसे भी है जो न श्रात्मारंभी हैं, न परारंभी हैं, न उभयारंभी हैं, किन्तु श्रारंभी हैं ।
प्रश्न किया जा सकता है कि अगर आत्मा रूपी है तो आरंभी कैसे हो सकता है ? अगर श्रात्मा श्ररूपी होते हुए भी श्रारंभी है तो सभी आरंभी होने चाहिए। कोई श्रारंभी और कोई अनारंभी, यह भेद किस कारण से है ?
इस प्रश्न का समाधान यह है कि जीव एक ही प्रकार हैं- एक संसारी अर्थात् संसारी अर्थात् जन्म
के नहीं है। जीवों के मुख्य दो भेद जन्म-मरण करने वाले और दूसरे मरण से मुक्त-सिद्ध भगवान् ।
-
एक प्रश्न और हो सकता है कि संसार में से सिद्ध हुए हैं या सिद्धों में से संसारी जीव श्राये हैं ? यह दो भेद कब से बने हैं ? अगर दोनों भेद श्रनादिकाल से हैं तो सिद्ध, संसार में रहकर बने हैं या संसार से बाहर रहकर ? अगर संसारी जीव पहले हैं और सिद्ध उन्हीं में से निकले हैं, तो जीव मूलतः एक ही प्रकार के हुए । अगर सिद्धों को अनादिकालीन माना जाय तो यह भी मानना पड़ेगा कि कोई जीव स्वभाव से निरंजन, निर्विकार हैं और कोई स्वभाव से संसारी होते हैं। ऐसा माने बिना दो भेद किस प्रकार हो सकते हैं ?
यह प्रश्न उपर से अटपटा जान पड़ता है, लेकिन
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[४६१]
श्रात्म-परारम्भादि वर्णन वास्तव में अटपटा नहीं है । शानी जनों का कथन है कि जीव अनादिकाल से, स्वभाव से, निश्चयनय की अपेक्षा असंसारी ही है, किन्तु कर्म-रूप उपाधि के संसर्ग से संसारी यना हुआ है यद्यपि जीवों के मौलिक स्वभाव में तनिक भी भेद नहीं है, मगर शुद्धि-अशुद्धि के कारण भेद हो गया है।
थोड़ी देर के लिए मान लिया जाय कि जीव अनादिकाल से असंसारी है, तो यह सवाल खड़ा होता है कि संसार कबसे है?
'अनादिकाल से!'
जब संसार अनादिकाल से है, तो जीव कर्म नाश करने का उपाय भी तभी से कर रहा है, ऐसी स्थिति में सिद्ध जीव की आदि किस प्रकार होगी? कल्पना कीजिए, एक नगर में दो मुहल्ले हैं। एक मुहल्ले के रहने वाले दूसरे मुहले में गये हैं अय प्रश्न यह है कि शहर कय से है ?
'अनादि से !'
अगर नगर को अनादि से मानोगे तो दोनों मुहल्ले और एक मुहल्ले से दूसरे मुहल्ले में जाना अनादि से मानना पड़ेगा। ऐसा न मानने पर नगर को भी अनादि नहीं माना जा सकता।
कल का भविष्य काल पहले वर्तमान के रूप में आया; तय भूतकाल हुआ है। आगे के इजार, लाख और करोड़ वर्ष भी इसीप्रकार समझ लीजिए । लेकिन भूतकाल कितना वीता, इसकी कोई सीमा है ? 'नहीं!
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श्रीभगवंती सूत्र
[ ४६२ ]
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जब भूतकाल, कभी न कभी वर्त्तमान के रूप में रह चुका है, और वर्तमान के बाद ही भूतकाल बना है, तब उसे श्रनादि क्यों कहा जाता है ? इसलिए कि उसकी आदि कां पता नहीं है । इसी प्रकार कोई भी जीव, विना संसारी श्रवस्था के सिद्ध नहीं हुआ है लेकिन कब से संसारी सिद्ध हो रहे हैं इस बात का पता नहीं लगाया जा सकता ।
तात्पर्य यह है कि जीव दो प्रकार के हैं—संसारी और श्रसंसारी । संसारी जीव आत्मारंभी, परारंभी, उभयारंभी और अनारंभी भी हैं तथा श्रसंसारी निरारंभी ही हैं । श्रसंसारी किसी भी प्रकार का प्रारंभ नहीं करते । संसारी जीव आरम्भ करते हैं, इसी कारण वे संसार में हैं और प्रारम्भ ... की सर्वथा परित्याग कर देने पर असंसारी हो जाते हैं ।
आजकल आरंभ का संकुचित अर्थ लिया जाता है, लेकिन शास्त्रकार का कथन है कि मेन, वचन, काय के बुरे योग को भी श्रारम्भ कहते हैं ।
इस संबंध में बहुत-सी बातें हैं, मगर हमें गड़बड़ में नं पड़कर यही देखना है कि मोक्ष कैसे हो सकता है ? वास्तव में आरंभ ही कर्म -बंध का कारण है । कर्मबंध रुक जाय और पूर्वसंचित कर्मों का क्षय हो जाय तो मुक्ति प्राप्त हो जाती है ! गीता में भी कहा है
सहजं कर्म कौन्तेय ! सदोषमपि न त्यजेत् । - - सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः ॥
जैनदर्शन को चाहे जिस दर्शन से मिलाओ, इसकी छाया सभी दर्शनों में दिखेगी। गीता में कहा है- हे अर्जुन !
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[४६३]..
• प्रात्म-परारम्भादि, वर्णन संसार में जितने भी भारम्भ है, वह सब धर्मवन्ध के कारण हैं। जैसे अग्नि और धूम का अविनाभाव सम्बन्ध है, उसी प्रकार श्रारम्भ और दोष का भी अविनाभाव है। जहाँ श्रारम्भ है, वहाँ कर्मवन्ध रूप दोप अवश्य होता है। प्रारम्भ ही दोप का कारण है। कारण हट जाने पर कार्य आप ही इंट जाता है। . यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रारम्भ के बिना न खेती होती है, न व्यापार होता है, न श्वासोच्छ्वास ही लिया जा सकता है। ऐसी दशा में प्रारम्भ न करके क्या मर जाना चाहिए? इस सम्बन्ध में गीता का कथन है कि कर्म के दो भेद करना चाहिए-सहज कर्म और असहज फर्म ।
जैन शास्त्रों में भी अल्पारम्भ और महारम्भ का विभाग किया है। विना किश्चित् श्रारम्भ के कोई जी नहीं सकता। कर्मभूमि अर्थात् श्रारम्भ का स्थान । कदाचित्. शकर्मभूमि में कोई हो तो वह मोक्ष नहीं जा सकता। जब बिना भारम्भ के जीवन निभना कठिन है, तो शास्त्र कहता है कि श्रारम्भ के दो भेद कर लो अल्पारम्भ और महारम्भ । इस अल्पारम्भ और महारम्भ को ही गीता में, फुछ भेद के साथ सहजकर्म और मसहज कर्म कहा है। , . '
सहज कर्म और असहज कर्म में ज्या अन्तर है, इसे समझिए । व्यापार करना कर्म है। लेकिन एक आदमी झूठ चोल कर व्यापार करता है और दूसरा झूठ बोले विना करता है। व्यापार में झूठ का आश्रय न लेने वाला सहज कर्म करता है.और झूट का प्रयोग करने वाला असहज फर्म करता है।
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(४२४)
इस प्रकार सहज कर्म और असहज कर्म का अर्थ अल्पारम्भ और अहारम्भ लेना चाहिए ।
आज कई लोग ल्यारम्भ और महारम्भ का विवेचन करके एकदम निरारम्भी होने का उपदेश देते हैं । वे महारम्भ को त्यागने का उपदेश नहीं देते वरन् महारम्भ को छोड़े बिना ही निरारम्भी होने का उपदेश देते हैं । इसका परिणाम यह आ रहा है कि लोग निरारम्भी तो हो नहीं पाते, और महारम्भ में पड़े रहते हैं । गांधीजी ने श्राज जिस श्र हिंसा का उपदेश दिया है, वह यही है कि महारम्भ से बचो । महारम्भ से निकलने वाला अहिंसावादी ही माना जायगा ।
एक कपड़ा चखे से बना हुआ है और एक मिल से चना हुआ होता है । चर्खे से बने कपड़े में अल्पारम्भ है और मिल के बने कपड़े में महारम्भ है । अगर वस्त्र के बिना ही निर्वाह हो सके, तब तो दोनों ही प्रकार के आरम्भ उठ जाएँ, लेकिन वस्त्र के बिना नहीं रहा जाता, अतएव महारम्भ की जगह अल्पारम्भ से काम चलाना श्रेयस्कर है ।
तात्पर्य यह है कि अल्पारम्भ और महारम्भ, दो वातें | नग्न रहना शक्य नहीं है, श्रतएव वस्त्र की आवश्यकता हुई । चत्र विना श्रारम्भ के मिल नहीं सकते। ऐसी अवस्था में वस्त्र के लिए महारम्भ होने देना, यां अल्पारम्भ से ही काम चलाना, इस विषय पर विवेक के साथ विचार करने. की आवश्यकता है। कदाचित् श्राप का यह खयाल हो कि जैसे शालिभद्र के लिए स्वर्ग से पेटियाँ आती थीं, उसी प्रकार हम लोगों के लिए मैनचस्टर से गाँठे श्राती हैं और विना श्रारम्भ किये ही हमें वस्त्र मिल जाते हैं। मगर आप को यह
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[
५]
धात्म-परारम्भादि वर्णन
भी ध्यान रखना चाहिए कि शालभद्र ने उन वस्त्रों को भी बन्धन कारक समझ कर त्याग दिया था। उसने कहा थायह वस्त्र हमें नीचे गिराने वाले हैं। ऊँचे चढ़ाने वाले नहीं। अतएव शालिभद्र ने स्वर्गीय चलों को त्याग कर, मुनि चत कर देश की खादी धारण की थी। यह विचारणीय है कि जब स्वर्ग के वस्त्र भी वन्धनकारक है तो मिल के रख, जो महारम्भ से बने हैं, अधोगति के कारण क्यों न होंगे।
मुझे मिलों से द्वेष नहीं है। पारम्म और महारम्भ की मीमांसा करना और आप को यवलाना मेरा कर्तव्य है। अगर नग्न न रह सके और अपारम्भी वस्त्र भी शरण न किये तो महारम्भ में पड़ना ही पड़ेगा।
कहा जा सकता है कि वन-वन सव समान है। कौन वन कहाँ बना है, इस पचड़े में पड़ने की हमें क्या पावश्यकता है ? हमें वो तन ढंकने से प्रयोजन है । लेकिन अगर मांसभक्षी भी यह कहने लगे कि हमें तो पेट भरने से मतलब है। अन्न हो या मांस हो, हमें इस पचड़े में पड़ने की क्या आवश्यकता है ? तो क्या उसका कहना ठीक होगा? अतएव चख-पत्र सब समान है यह समझना और अल्पारम्भ,
महारम्भ का विचार न करना धर्मशता का लक्षण नहीं है। : संसार का पतन असहज कर्म से हुआ है, सहज कर्म
से नहीं हुआ। बालक, माता का दूध पीता है, यह सहज कर्म है और फपीना असहज कर्म है । उचित यह समझा जाता है कि बड़ा होने पर बालक सहज कर्म दूध पीना भी छोड़ दे। लेकिन जब तक बड़ा नहीं हुआ है, वयं तक रक्त पीने कर असहज कर्म तो न करे!
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[ ६] . बच्चा कभी माँ के स्तन में दांत लंगा देता है तो माँ उसे थप्पड़ मारती है। यह इसलिए कि वालक को माता का दूध पीने का अधिकार है, रंक पीने का हक नहीं है। इसी प्रकार यह पृथ्वी माता है । इस पर दूध पीने के समान अधि. कारमय कार्य जक तक होते रहें तब तक इसका सौन्दर्य नहीं दिगड़ा था, लेकिन खून पीने के समान महारम्भ के कार्यों से इसका लौन्दर्य नष्ट हो रहा है। कोयलों के लिए जंगल वीरान हो गये, जिससे अनेक हानियाँ हुई। इसी प्रकार धुए ले प्रकृति बिगड़ी। इन-सक के बदले मिला क्या? केवल तन टैंकने के लिए कपड़ा, जो चर्खे की बदौलत भी मिल.सकताथा।
. . खादी पहनने में जो क्रिया लगेगी वह खादी की ही
लगेगी, मिल की नहीं लगेगी। मगर मिल के वस्त्र पहनने से तो मिलं की क्रिया लगेगी ही। हाथ से बनी खादी की क्रिया हस्की लगेंगी. और मिल की क्रिया भारी लगेगी । इसके ‘अंतिरिक्त मिलों के कारण मनुष्यों की आजीविका छिन रही है। मशीने. बहुत से मनुष्यों के बदले का काम कर डालती हैं और इससे मनुष्यों में बेकारी वढ़ती हैं. और वेकारी बढ़ने से भुखमरी फैलती है। मनुष्यों का असली भोजन पैदा करनेवाले लोग मिल के गुलाम बन जाते हैं और अपने जीवन को खो वैठते हैं।। मिल के कपड़े के लिए लोग हाथ, पैर कंटा वैठते हैं.: उसमें लगने वाली चर्वी और चमड़े के लिए पशुओं की निर्दयताःपूर्वक हत्या की जाती है। क्या आपको भी उन दोन 'भार मूक.पशुओं पर दया नहीं आती? अगर श्राप.इन जीवों -:.की.हिंसा..पर विचार.करेंगे तो आपको हाथ के और मिल के. · कपड़े का अन्तर साफ मालूम हो जायगा। .
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[४६७]
शात्म परारम्भादि वर्णन वस्त्र पहनने का उद्देश्य शरीर को शीत-तापसे बचाना है। यह उद्देश्य क्या खादी पहनने से सिद्ध नहीं होता? रहा इज्जत का सवाल, सो आज जनता की. मनोभावना में बहुत अन्तर पड़ गया है । अव खादी जिस आदर की दृष्टि से देखी जाती है, वह आदर चमकीले भड़कीले वस्त्रों को भी नसीव नहीं है। ऐसी स्थिति में जो लोग खादी नहीं पहनते वे धर्म और इज्जत दोनों से हाथ धोते हैं। ,
महारम्भ का त्याग करके अल्पारम्भी होना ही निरा. रम्भी होने का मार्ग है। आज महारम्भ का त्याग करोगे तो 'कल अल्पारम्भ को भी त्याग कर निरारम्भी हो सकोगे और अन्त में सिद्ध हो जाओगे।
श्राप लोग सन्देहही सन्देह में पढ़े रहते हैं । सुनते हैं, यूरोपियन लोग जब तक न जाने, तब तक तो चाहे न करेंगे, मगर जान लेने पर करने में देरी नहीं लगाते । आप लोग समझते हैं, पुरे को पुरा जान लिया तो वस हो गया, मिथ्यात्व का पाप टल गया। लेकिन पर-स्त्री कों पर स्त्री समझते हुए कुकर्म करने वाला क्या पाप का भागी नहीं होता ? इसी प्रकार महारंभ और अल्पारंभ को जानते हुए भी अगर महारस्म को न छोड़ा तो यह जानना कैसा ! इस जानने का फल क्या है ?
.एक गृहस्थ के घर में चोर घुस । चोर जव घर में थे, नमी सठानी की निद्रा भंग हो गई । सेठानी ने सेठजी को जगाया, सावधान किया और कहा-घर में चोर घुसे हैं, माल लिये जा रहे हैं । सेठजी ने उत्तर दिया-'ठीक है, मालूम हो गया। सटानी ने फिर सेठ को चेताया, मगर उत्तर वही
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श्रीमंगवती सूत्र, 'जानता हूं, मालूम है। अन्त में सेठजी "जानता हूं, जानता हूं," करते रहे और चोर माल असबाब उठा ले गये।
इसी प्रकार देश सेवक प्रापको चेतावनी दे रहे हैं कि . जागो, सँभलो, देखो धन चला जा रहा है। अभी कुछ विशेष नहीं बिगड़ा है। अभी थोड़े ही पराक्रम का काम है, और वह भी सिर्फ इतना ही की महारंभ को त्याग दीजिए । वि. देशी खान-पान और वृथा व्यय से मुँह मोड़ लीजिए । उन्नति के कार्यों में जुट जाइए । श्राप विवाह आदि अवसरों पर जो वृथा व्यय करते हैं, वही अगर देश और जाति के उत्कर्ष में करें तो क्या आपको बदला नहीं मिलेगा? श्राप समझते हैं, विवाह में अधिक खर्च करने से समाज में सम्मान मिलता है, मगर क्या आप यह भी जानते हैं कि इससे कौन सम्मान " देता है? - 'मुर्ख लोग!'
तोइन मुखोद्वाराप्राप्त होने वाले सम्मान कोतोआप मानते हैं, लेकिन देश सेवकों द्वारा मिलने वाले सम्मान को क्या आप सम्मान नहीं समझते ? आप जो फिजूल खर्च करते हैं सो आप अपनी समझ में अपना खर्च करते हैं; लकिन देश-सेवकों का कहना है कि श्राप भारतवर्ष के धन से होली खेल रहें हैं। आप ऐसा करके भारत का गला दबोच रहे हैं। कदा चित् श्राप देश और समाज की उन्नति में खर्च न करें, सिर्फ विवाह-शादियों और विदेशी वस्तुओं में खर्च करना बंद करदें, तो भी वह धन वचा तो रह सकेगा! अगर सेठ की तरह 'जानूं हूं, जानू हूं' करते रहे और जानकर भी आलस्य में पड़े रह तो पूर्वोक सेठ की भांति लुट जानोगे और सेठानी के . धिक्कार के पात्र बनोगे।
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[४६६]
मात्म-परारम्भादि वर्णन धन कभी, किसी के यहां स्थायी नहीं रहा। आज है, कलं चला जायगा। इस लिये उसले सुस्त कर लो। आप जैन है, जैनधर्म का प्रभाव अपने उच्च चरित्रंद्वारा बढ़ाइये।जैनधर्म को कलंकित करने वाला कोई काम न कीजिये ।
भव.मूल विषय पर श्राइए । यह कहा जा चुका है कि प्रारम्भ का सरल अर्थ है जीव को कष्ट पहुँचाना । लेकिन इस अर्थ में यह शंका हो सकती है कि जीव सदा सर्वदा तो दूसरे को कप्ट पहुँचाता नहीं है। सब समय प्रारम्भ नहीं करता है। अतएव जीवों को कभी प्रारम्भ करने वाले और कभी प्रारम्भ न करने वाले कहना चाहिए। यह शंका उत्पन्न न हो, इस लिए प्रारम्भ का समुच्चय में अर्थ किया गया है-आस्रवद्वार में प्रवृत्ति करना। .
अव प्रश्न यह है कि छठे गुणस्थान वाले प्रमत्तसंयत प्रारम्भी हैं, और सातवें गुणस्थान वाले प्रारम्भी नहीं है, तथा पासव की प्रवृत्ति तेरहवें गुणस्थान तक है। फिर यह अर्थ कैसे संगत होगा कि आस्रव-द्वार में प्रवृत्ति करना प्रारम्भ है, क्योंकि सातवें गुणस्थान से आगे श्रारम्भिया ‘क्रिया नहीं है। . .
। इसी सूत्र में आगे गौतम स्वामी ने प्रश्न किया है किभगवान् ! जीव जव तक चलता-फिरता है, तब तक उसे मोक्ष प्राप्त होता है ? इस प्रश्न का उत्तर भगवान् ने निषेध में दिया है। क्योंकि जब तकजीव चलता-फिरता है, तब तक उस के शरीर से प्राणियों को दुःख पहुँचता ही है । तात्पर्य यह है कि चौदहवें गुणस्थान से पूर्व जीव के शरीर से दूसरे प्राणियों को कष्ट पहुँचता ही है।
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. [५००] आत्मा का प्रारम्भ करे वह अथवा अपने प्रात्मा की प्रेरणा से जो प्रारम्भ करे वह आत्मारम्भी है। मतलब यह है कि स्वेच्छासे जो प्रारम्भ करता है वह आत्मारंभी कहलाता है।
इसी प्रकार परारंभी के भी दो अर्थ है । प्रथम दूसरे के श्रात्मा को कष्ट पहुंचावे वह अथवा दूसरे की प्रेरणा से प्रारंभ कर वह परारंभी है। . अपने आत्मा का भी प्रारंभ करे और दूसरे के प्रात्मा का भी आरंभ करे, इसी प्रकार दूसरे की प्रेरणा तथा अपनी इच्छा से जो प्रारंभ करे वह उभयारंभी कहलाता है।
आत्मा कई वार काम, क्रोध शादि आन्तरिक विकारों .. के वश होकर कार्य करता है, कई वार दूसरे के दवाव से काम करता है और कभी-कभी दोनों कारणों से कार्य करता है। इसी कारण प्रारंभी के तीन भेद किये गये हैं। . गौतम स्वामी के इसी प्रश्न का एक भाग यह है कि, क्या ऐसे जीव भी हैं, जो न आत्मारंभी हैं, न परारम्भी है, न उभयारंभी हैं ? क्या कोई निरारंभी भी हैं ?
यह प्रश्न इसलिए किया गया है कि ठाणांग सूत्र में आत्मा को एक * कहा है। अतएव या तो सभी प्रारंभी हो या सभी निरारंभी हों। इसके अतिरिक्त मूल रूप में आत्मा अंरूपी है । सो क्या प्रात्मा प्रारंभ करता है या सांख्य के कथनानुसार प्रकृति आरंभ करती है और आत्मा भोगता है.! इत्यादि बातों को लक्ष्य में रखकर ही यह प्रश्न किया गया है। .. * एगे आया-ठाणांग सूत्र, प्रथम ठाणा प्रथम सूत्र । .
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[५०१]
श्रात्म-परारम्भादि वर्णन इस प्रश्न का उत्तर भगवान ने यह दिया है कि-गौतम! कई जीव 'आत्मारंसी हैं, कई परारंभी हैं, कई उभयारंभी है, पर निरारंभी नहीं कई जीव ऐसे भी हैं जो न वात्मारंभी हैं, न परारंभी हैं, न उभयारंभी है, किन्तु निरारंभी हैं। - ठाणांगसूत्र में, श्रात्मा को एक कहा गया है, वह शुद्ध संग्रहनय की अपेक्षा से ही। व्यवहारनय से जीप दो प्रकार के है-संसारी और सिद्ध।
. - संसरणं संसारः । अर्थात् एक गति से दूसरी गति में जाना संसार है। श्रात्मा की चंचल दशा ही संसार है। जो आत्मा चंचल दशा में है; वह संसारी है और जो चंचल दशा में नहीं है वह संसारी या मुक्त है। इन्हीं को सिद्ध कहते हैं। - अष्टकर्म रूपी काष्ठ को या जीव के पात्रव श्रादि के हेतुओं को शुक्लध्यान की अग्नि से जलाकर, आवागमन-रहित होने वाले को सिद्ध कहते हैं। गीता में कहा है___ 'यद् गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम'
अथोर-जिस स्थिति में पहुँच जाने पर फिर लौट कर नहीं.भाना पड़ता, उस स्थिति को सिद्ध गति कहते हैं । जो यह स्थिति प्राप्त करते हैं, वह सिद्ध कहलाते हैं। - सिद्ध भगवान् न आत्मारंभी हैं, न परारंभी हैं और न उभयारंभी हैं। वे सर्वथा निरारंभी हैं।
कुछ लोगों का कथन है कि जो शक्ति, ईश्वर मानी गई है, वही जगत् का कर्ता है। अगर यह कथन मान लिया तो ईश्वर को भी प्रारंभी मानना पड़ेगा । इस हालत में
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श्रीभगवती सूत्र
१५०२) संसारी जीवों से उसमें कोई विशेषता न रह जायगी । अतः जैन-धर्म ऐसा नहीं मानता । जैन धर्म के अनुसार सिद्ध कृतकृत्य होते हैं, उन्हें कोई भी काम करना शेष नहीं रहा है। विना इच्छा के जगत्-निर्माण होना संभव नहीं है और ईश्वर, में इच्छा शेष नहीं रहती।
जो लोग ईश्वर को कर्ता मानते हैं, उनसे यह पूछना चाहिए कि आप ईश्वर को पूर्णतया कर्ता मानते हैं या अंशतया? अगर ईश्वर पूर्णतया कर्ता है, तो हम लोग कुछ भी करने-घरने वाले नहीं रहे । जो कुछ किया, ईश्वर ने ही किया । खिलाना, पिलाना, चलाना श्रादि हमारी समस्त • क्रियाओं का कर्ता भी ईश्वर ही ठहरता है । सभी भले बुरे काम उसके ही कर्तव्य हैं । अगर यह सत्य है तो जीवों को भिन्न भिन्न फल क्यों भोगने पड़ते हैं ? मान लीजिए, एक वादशाह की प्रेरणा से पांच आदमियों ने पांच काम किये। जब पांचो वादशाह के बताये हुए काम करके लौटे, तो वादशाह ने उनमें से एक को वजीर बनाया, एक को दूसरा कोई ओहदा दिया, एकं को पुरस्कार दिया, एक की सम्पत्ति छीन ली और एक को जेल में डाल दिया । सभी ने वादशाह की इच्छा से, प्रेरणासे, उसके बतलाए काम किये, फिर किसी को पुरस्कार और किसी को दंड क्यों ? ऐसा करने वाला वादशाह क्या न्यायी कहला सकता है ? नहीं।
इली प्रकार आत्मा यदि ईश्वर की प्रेरणा से कार्य करता है, स्वयं नहीं करता, तो फिर ईश्वर भिन्न-भिन्न फल क्यों देता है ? एक को सुखी और दूसरे को दुखी क्यों वनाता है ? . किसी को स्वर्ग में और किसी को नरक में क्यों भेजता है ?
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[ ५०३]
आत्म-परारम्भादि वर्णन
अगर यह कहा जाय कि जीव जैसा कर्म करता है वैसा फल भोगता है, तो फिर कर्म का कर्त्ता कौन ठहरा ? आत्मा ही कर्म का कर्त्ता सिद्ध हुआ । श्रात्मा श्रगर कर्म का कर्त्ता हैंता ईश्वर पूर्णतया कर्त्ता नहीं रहा ।
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अव आप कह सकते हैं कि कर्म का कर्त्ता श्रात्मा ही है, लेकिन फल देने वाला कोई और है । जैसे चोर स्वेच्छा से जेल नहीं जाता, उसी प्रकार आत्मा अपने कर्म का फल नहीं भोगना चाहता है। ऐसी हालत में फल देने वाला कोई और ही होना चाहिए ।
इसका समाधान यह है कि जो जेल में भेजता है, वह जेल जाने योग्य कामों को करने से रोकता भी है । अगर परमात्मा कर्म फल देता है, वह ज्ञानी भी है- सभी कुछ जानता है और सर्वशक्तिमान भी है, तो वह चुरे काम करने वाले को रोक क्यों नहीं देता ? अगर वह उसी समय रोक दे तो कर्म फल देने की श्रावश्यकता ही न रहे। आखिर आप उस पिता को क्या कहेंगे, जो अपने पुत्र को, अपनी आँखों के सामने, जान-बूझकर कुएँ में गिरने देता है, रोकने का सामर्थ्य होने पर भी नहीं रोकता; और फिर अन्त में कुएँ में गिरने के लिए दंड देने पर उतारू हो जाता है । क्या वह पिता शक्तिमान्, न्यायी और दयालु कहला सकता है ?
तव प्रश्न होता है, आाखिर जीव किसकी प्रेरणा से कर्म का फल भोगता है ? इसका सरल समाधान यह है कि अगर कोई अपने मुँह में मिश्री डालेगा तो उसे मिठास आप ही आएगी । यह मिठास ईश्वर ने दी या मिश्री में ही मिठास का गुण है ? मिर्च खाने वाले का मुँह जलेगा । सो ईश्वर
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श्रीभगवती सूत्र
[५०४ |
उसका मुँह जलाने श्रायगा या मिर्च में ही मुँह जमाने का गुण है। मिश्री अगर मिठास नहीं देती और मिर्च मुँह नहीं जलाती, तो वह मिश्री या मिर्च ही नहीं है। इसी प्रकार कर्म में अगर शुभाशुभ फल देने की शक्ति न हो तो वह कर्म ही नहीं है । जिस प्रकार मुँह को मीठा करने और जलाने का गुण मिश्री और मिर्च में है, उसी प्रकार शुभ और अशुभ फल देने की शक्ति कर्म में है ।
प्रश्न होता है कि क्या ईश्वर को कर्त्ता न माना जाय ? हम प्रार्थना में ईश्वर को कर्त्ता मानते हैं, लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि ईश्वर के सिर पर संसार रचने का मार लाते हैं और उसे संसार - कार्य में प्रवृत्त करते हैं । भगवान् ने अपने शान में सब जीवों को देखा है। जीव स्वयम् तो अपने कार्यों को नहीं जानते, परन्तु ईश्वर को अपने विशिष्ट ज्ञान द्वारा सब के कार्यों का पता है । इसी लिए उन्होंने गौतम स्वामी को अपना वजीर बना कर सब हाल बतला दिया कि जीव इस प्रकार आत्मारंभी, इस प्रकार परारंभी और इस प्रकार उभयारंभी या निरारंभी होते हैं । ऐसा प्रकट करके भगवान ने जगत् को सन्मार्ग दिखलाया है। सन्मार्ग प्रदर्शक होने से भगवान कर्त्ता है । हम परमात्मा से प्रार्थना करते हैं
आग्गवोहिलाभ, समाहिवरमुचमं दिन्तु ।
अयात्-रोग रहित बौधि और श्रेष्ठतम समाधि दीजिए ।
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अगर परमात्मा कुछ न देता होता तो उससे यह याचना क्यों की जाती ? इससे प्रकट है कि परमात्मा निमित्त रूप से कर्त्ता है । वह समस्त श्रात्मगुणों को प्रकट करने
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[५०५]
आत्म-परारम्भादि वर्णन वाला है । यद्यपि हाथ से लिखा जाता है, तथापि प्रकाश के अभाव में लिखना शक्य नहीं है। लेखन-क्रिया में हाथ कर्ता है, लेकिन प्रकाश भी निमित्त कर्ता है । जैसे सूर्य आँख को प्रकाश देता है, उसी प्रकार ईश्वर हृदय को प्रकाश देता है । अतः ईश्वर को निमित्त कर्ज मानने में कोई हानि नहीं है । स्तुति में भी कहा हैकारण पद कापणे रे, करि आरोप अभेद । निज-पद अर्थी प्रभु थकीरे, करे अनेक उमेद।
___अजित जिन! तारजोरे ॥ जिसे कारण कहते हैं, उसे का मान कर, अभेद रूप से उसकी स्तुति करते हैं। अपने आत्मा की स्वतंत्रता चाहने वाला प्राणी, उस परमात्मा से अनेक उम्मीदें करता है और कहता है-प्रभो! मुझे तारो।
सिद्ध निरारंभी है, इसी कारण हमें तार सकते हैं अगर वह निरारंभी न होते तो हमें तार भीन सकते ।
. सिद्ध पद ध्येय है। इसी की प्राप्ति के लिए सव कुंछ किया जाता है। मगर देखना चाहिए कि उस पद की माप्ति कैसे हो सकती है?
सर्व प्रथम आप लोगों को यह शान प्राप्त करना चाहिए कि आप यहां क्यों भाये हैं ? हमारा और आपका ध्येय एक ही है । श्राप हमारे ध्येय को अपना ध्येय बनाकर यहां उपस्थित हुए है, इसलिए हमारा यात्मा,परमात्मा को जिस रूप में स्वीकार करता है, परमात्म-पद प्राप्त करने के जो उपाय
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श्रीभगवती सूत्र
[५०६] देखता है, वही सव हम आपको सुनाते हैं । जो भव्य पुरूष इन उपायों का सदा ध्यान रखते हैं और परमात्मा की स्तुति में मम लगाते हैं, वे संसारी से असंसारी बन जाते हैं, प्रारंभी से निरारंभी बन जाते हैं।
भगवान् कहते हैं-गौतम ! संसारी जीव भी दो तरह के हैं-संयत और असंयत । जो मनुष्य सव प्रकार की वाह्याभ्यन्तर ग्रंथि से और विषय-कपाय से निवृत्त हो गये हैं, वह संयत कहलाते हैं। जो विपय-कपाय से निवृत्त नहीं हुए. हैं और प्रारंभ में प्रवृत्त है, वह असंयत कहलाते हैं।
संयत भी दो प्रकार के हैं-प्रमादी और अप्रमादी। अप्रमादी संयत न आत्मारंभी हैं, न परारंभी है, न उभया. रंभी हैं, किन्तु निरारंभी हैं। प्रमादी संयत के दो भेद हैं - - शुभ योग वाले और अशुभ योग वाले शुभ योग वाले प्रमादी संयत न आत्मारंभी हैं, न परारंभी है, न उभयारंभी हैं, किन्तु निरारंभी हैं । अशुभ योग वाले प्रमादी संयत निरारंभी नहीं हैं, किन्तु श्रात्मारंभी हैं, परारंभी हैं और उभयारंभी हैं।
पूरी तरह विचार न करने वाला इन्हीं वचनों से झगड़े में पड़ जाता है । तेरहपंथी भाइयों का कथन है कि यहां शुभ योग वाला निरारंभी है, ऐसा कहा है। वे मन, वचन और काय के योग को ही योग समझते हैं और ऐसे शुभ योग वाले को ही निरारंभी समझते हैं । इसी आधार पर वे मिथ्यात्वी की क्रिया को भी भगवान् की आज्ञा में बतलाते हैं। लेकिन ऐसा शुभ योग तो सभी गुणस्थानों में है-मिथ्या दृष्टि में भी ऐसा शुभ योग मिल सकता है। अगर इस शुभ योग के होने से ही कोई निरारंभी हो जाता है तो फिर प्रथम
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श्रीभगवती सूत्र
[५०८]. . यद्यपि प्रतिलेखन करते समय छहों कार्यों के जीव वहाँ नहीं पाते, लेकिन जहाँ उपयोग है वहीं दया है। उपयोग न रखना ही हिंसा है।
ऊपर जो गाथा प्रमाण रूप में उद्धृत की गई है, उस का व्यतिरेक रूप से अर्थ किया जाय तो यह स्पष्ट है कि उपयोग शुद्ध हो और प्रतिलेखन करे तो छहों कार्यों की दया करता है । अतएव यहाँ योग का अर्थ सामान्य योग नहीं लिया गया है, किन्तु उपयोग के अर्थ में योग शब्द का व्यव. हार किया गया है । मन, वचन, क्यय की प्रवृत्ति रूप धोम यहाँ लिया जाय तो बड़ी गड़बड़ी होगी। . .
सातवे से दसवें गुणस्थान में योग के नौ भेद माने जाते हैं। मगर तेरहपंथियों ने नौ भेद मिटा कर उनके स्थान पर पांच ही भेद रख दिये हैं। शुभ योग मिथ्यात्वी और, अमव्य जीव के भी होता है, मगर उनके उपयोग-यतना-नहीं होने के कारण उन्हें निरारम्भी नहीं कहा जा सकता।
सार यह है कि प्रमादी साधु छठे गुणस्थान में हैं। शब्द नय के अनुसार जिसमें उपयोग है, वह साधु है और जिसमें उपयोग नहीं है, वह साधु नहीं है । अनारम्भी होत का कारण उपयोग है। .
शरीर के योग से तेरहवं गुणस्थान तक हिंसा होती है। लेकिन उपयोग होने से वह हिंसा, हिंसा नहीं मानी जाती। 'प्रतिलेखन करते समय भी हलन-चलन होता है. और उससे जीवघात भी होता है, लेकिन वहां उपयोग युक्त शुभ योग हैं, इस लिए हिंसा नहीं है। ऐसा साधु शुभयोगी
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[५०६]
श्रात्म-परारम्भादि वर्णन होने के कारण अनारम्भी है। इसके विपरीत हलन चलन न करने वाले कर योग भी अंगर श्रेशुभ है तो वहं प्रारंभी ही "माना जायगा
जैनधर्म में हिंसा और अहिंसा क्या है, यह देखने योग्य हैं। कई लोग यह तर्क किया करते हैं कि जैनशास्त्रों में एकेन्द्रिय जीव के घात को भी हिंसा कहा गया है। उधर साधुको पूर्ण आहंसक भी माना है। यह कैसे संभव हो सकता है ? मुनि से शयुकाय के जीवों की हिंसा होती है, चलनेफिरने में हिंसा होती है, विना हिंसा किए कोई जीव
जीवित नहीं रह सकता, ऐसी स्थिति में साधु भी पूर्ण --अहिंसक कैसे हो सकते हैं ? कदाचित् और क्रियाएँ नंद हो जाएँ तो भी जीवन के लिए श्वासोच्छ्वास अनिवार्य है। थोड़ा बहुत हलन-चलन भी अनिवार्य है। इसमें जीवधात होता है । फ़िर पूर्ण अहिंसा की साधना कैसे संभव हो सकती है ? अतएवःया तो इतनी सूक्ष्म हिंसा को हिंसा ही न समझा जाय या अहिंसा को अव्यवहार्य माना जाय।
जैवशास्त्रों में हिंसा का जो स्वरूप बतलाया गया है, इस पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने से इस प्रश्न का समा
शन सहज ही हो जाता है। हिंसा का लक्षण इस प्रकार है.. अमत्तयोगात्. प्राणज्यपरोपणं हिंसा ।'
तत्त्वार्थसत्र । प्रमाद के योग से अर्थात् उपयोग से भ्रष्ट हो कर जीव . के प्राणों का घात करना हिंसा हैं। मुनि जव चोलते हैं तो
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श्री भगक्ती जून मापासमिति से वोलते हैं और जब चलते हैं तो यतना के साथ चलते हैं। अतएव मुनि सर्वथा अहिंसक हैं।
। अव प्रश्न होता है कि जिनकल्पी मुनि वस्त्र नहीं रखते हैं, फिर वे यतता कैसे करते हैं ? इसका उत्तर यह है कि सुनि चाहे जिनकल्पी हो या स्थविरकल्पी, उसमें लिंग का होना आवश्यक है। और लिंग में रजोहरण तथा मुलवस्त्रिका का होना आवश्यक है । तात्पर्य यह है कि जहाँ प्रमाद कायोग. है-अबतना है-असावधानी है-यही हिंसा होती है। मुनि प्रत्येक किया यततापूर्वक ही करते हैं, अतएव वे पूर्णरूप से हिंसक है। .
. संसार-समापन्न जीवों के दो भेद कहे गये हैं संयत और असंयत । मुनि-महात्मा संयत कहलाते हैं। जिन्होंने कपाय पर विजय प्राप्त कर ली है और जो आत्मा के असली प्रानन्द का उपभोग करते हैं, वे संयत हैं, और जो ऐसा नहीं कर पाये हैं, वे असंयत है, । संयत-मुनियों में भी दो भेद हैं-अप्रमादी और प्रमादी । अप्रमादी संयत न आत्मारंभी हैं, न परारंभी हैं, न उभयारमी हैं, किन्तु निरारंभी हैं। सातवें गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान तक के साधु अप्रमादी कोटि में अन्तर्गत है । प्रमादी संयत भी दोप्रकार के हैंएक शुभयोगी, दूसरे अशुभयोगी । शुभयोगी के दिपय में पहले ही कहा जा चुका है । विस्तार के भय से उस पर और अधिक विचार नहीं किया जा सकता। जो शुभ योगी नहीं हैं, अर्थात् जो साधु हो गये हैं मगर यतना को भूले हुए हैं, जिन्होंने प्रारम्भ का त्याग तो कर दिया है मगर सावधानजागरूक नहीं है। वे शब्दनय से आत्मारंभी हैं, परारंभी हैं, अभयारंभी है. किन्त निरारंभी नहीं हैं।
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[५११]
आत्म-परारम्भादि वर्णन साधुओ.! इस प्रश्नोत्तर से आपके लिए एक बात स्पष्ट हो जाती है। आप यह न समझे कि आपने तीन करण, तीन मेग से पाप का त्याग कर दिया सो पाप एकदम निप्पाप अवस्था में पहुंच गये हैं। अब कोई भी पाप आपको स्पर्श नहीं कर सकता..त्याग की प्रतिज्ञा का शाब्दिक उच्चारण करने से ही त्याग नहीं हो जाता। वास्तविक त्यागी और निरारंभी बनने के लिए सावधानी रखने की आवश्यकता है। जिस श्रद्धा के साथ संसार का परित्याग किया है, वही श्रद्धा
आजीवन, स्थिर रहे, बल्कि बढ़ती जाय,.ऐसा प्रयत्न सदैव करना चाहिए । इसी प्रयोजन से भगवान् ने गौतम को क्षण भर भी प्रमाद न करने के लिए कहा है। प्रमाद ही श्रारंभ है। अतएव आरंभ का त्याग कर देने पर भी संयज में साबधानी न रखने से प्रारंभ होता है। . .
प्रश्न हो सकता है कि जो निरारंभी नहीं हैं, उन्हें साधु कैसे कहा जा सकता है ? इसका समाधान यह है कि उनमें गफलत आ गई है, पर उस गफलत को मिटाने की इच्छा उनमें है और उनकी लेश्याशुद्ध है। अन्तःकरण में लेश्या की अशुद्धि नहीं है, इसलिए वे साधु-पद में ही.गिने जाते हैं । ऐसा व्यक्ति शीघ्र ही शुद्ध हो सकता है । जिसकी लेश्या विगड़ जायगी, चह लिंग-धारी होने पर भी साधु नहीं है । भेप होने पर भी मिथ्यात्व होता है।
तात्पर्य यह है कि प्रमादी संयमी अशुभ योग की अ... पेक्षा तो श्रात्मारंभी हैं, परारंभी हैं, उभयारंभी हैं-अनारंभी नहीं हैं, और शुभ योग की अपेक्षा न आत्मारंभी, न परारंभी. न उभयारंभी हैं, वरन् अनारंभी हैं।
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श्रीभगवती सूत्र
[ ५१२. ]
यह हुई संयत की बात । असंयत के विषय में भग वान कहते हैं - असंयतों में जो अविरति हैं, वे आत्मारंभी भी हैं, परारंभी भी हैं और उभयारंभी भी हैं । वे श्रारंभी नहीं हैं । संयत में भले ही शुभ योग की प्रवृत्ति हो जाय, तब भी त्याग - दशा में होने वाली सावधानी उसमें नहीं है, श्रतएव वह अनारंभी नहीं है. !
गौतम स्वामी, भगवान से कहते है कि हे देवाधिदेव ! आपकी अमृतवाणी सुनने से मुझे तृप्ति नहीं होती, इसलिए: मैं फिर प्रश्न करता हूँ । भगवान् ने भी गौतम स्वामी को लक्ष्य करके बाल जीवों के कल्याण के लिए. सब बातें कही. हैं। बड़े आदमी को अमृत मिलता है तो वह सब को वांट: देता है। इस नियम के अनुसार गौतम स्वामी ने जो प्रश्न किये हैं, वे सारे संसार के लिए हैं।
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नारकी प्रादि चौकीर दंडक के जीक
হকি ?
NIOSPE
मूलपाठ--- . प्रश्न-नेरइया. णं. भंते ! किं आयारंभा, परारंभा, तदुभयारंभा, अणारंभा ?
... उत्तर-गोयमा ! नेरहया पायारंभा वि, जाव णो अणारंभा ।
प्रश्न-से केपट्टेणं ?
उत्तर-गोयमा ! अविरति पडुच्च, ते तेणठणं,- जाव : नो अणारंभा' एवं जाव असुरकुमारा वि । पंचिदियतिरिक्खजोणियावि।
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श्रीभगवती सूत्र
[१४] मणुस्सा जहा जीवा, णवरं सिद्धविरहिया भाणियत्वा। ... वाणमंतरा जाव-वैमाणिया, जहा
नेरइया। • सलेस्सा जहा ओहिया । कण्हलेसम्स, नीललेसस्स, काउलेसस्स जहा श्रोहिया जीवा, नवरं-पमत्त अप्पमत्ता न भाणियव्वा । तेउलेसस्स, पम्हलेसस्स, सुकलेसस्स जहा श्रोहिया जीवा, नवरं सिद्धा न भाणियव्वा । . . संस्कृत-छाया-प्रश्न-नैरयिकाः भगवन् ! किमात्मारम्भाः, परारम्भाः , तदुभयारम्भाः , अनारम्भाः ? ___ उत्तर-गौतम ! नैरयिका श्रात्मारम्भा अपि, यावत् नो अनारम्भाः। . . प्रश्न-तत्केनार्थेन ? ... उत्तर. गौतम ! अविरति प्रतीत्य, तत् तेनार्थेन, यावद् 'नो अनारम्भाः' एवं यावद असुरकुमारी अपि। पञ्चन्द्रियातिर्यग्यानिकार,
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५१५]
दण्डकों में आत्मा-रम्भादि वर्णन
मनुष्या यथा जीवाः , नवरं सिद्धविरहिता भीणतव्याः । . वानव्यन्तरा यावद . वैमानिकाः , यथा नैरयिकाः ।
सलेश्या यथा भौधिकाः । कृष्णलेश्यस्य, नीललेश्यस्य, कापोत. लेश्यस्य यथा भौधिका जीवाः, नवरं प्रमत्ताऽप्रमत्ता न भणितव्याः। तेजोलेश्यस्य, पदमलेश्यस्य, शुक्ललेश्यस्य, यथा श्रोधिका जीवा, नवरं सिद्धा न भणितव्याः ।
मूलार्थ-प्रश्न-भगवन् ! नारकी जीव क्या आत्मारंभी है, परारंभी है, तदुभयारंभी है, या अनारंभी है ? .
उत्तर-गौतम ! नारकी आत्मारंभी भी है; यावत् अनारंभी नहीं है।
प्रश्न-भगवन् ! किस कारण से ? .
उत्तर-गौतम ! अविरति की अपेक्षा से-इस लिए अविरति रूप हेतु से नारकी. यावत् अनारंभी नहीं है । इसी प्रक र यावत् असुरकुमार भी । पूर्वोक्त सामान्य जीवों की भांति पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनि वाले तक जानना चाहिए। मनुष्यों में ज्यों समुच्चय जीव का कहा वैसे कहना । विशेषता यह है कि सामान्य जीवों में सिद्ध कहे हैं सो यहां नहीं कहना चाहिए।
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श्रीभगवती सूत्र
[५१६॥ - नैरयिकों की तरह वान-व्यन्तर यावत् वैमानिक समझना।
लेश्या वाले जीवों के विषय में सामान्य जीवों के समान समझना चाहिए । कृष्णलेश्या वाले नीललेश्या और कापोतलेश्या वाले जीव भी, सामान्य जीव की भांति हैं । विशेषता यह है कि सामान्य जीवों में कहे हुए प्रमत्त और अप्रमत्त यहां नहीं कहना चाहिए । तथा तेजोलेश्या वाले, पद्मलेश्या वाले और शुक्ललेश्या वाले जीव सामान्य जीवों के समान समझना । विशेषता यह कि सामान्य जीवों में से सिद्धों का कथन यहां नहीं करना चाहिए।
· व्याख्यान-गौतम स्वामी पछते हैं:-भगवन् ! नारकी जीव घोर दुःख भोग रहे हैं, उन्हें एक श्वास की भी साता . नहीं है, और अशक-ऐसे हैं. कि कुछ कर नहीं सकते । इस. 'लिए वे निरारंभी हैं,
इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् फरमाते हैं-हे गौतम.! नारकी.जीव आत्मारंभी हैं, परारंभी हैं, परन्तु निरारंभी नहीं हैं। मेरी आरंभी और अनारंभी की व्याख्या शक्ति-अंशति यो दुःख-सुख पर अवलंबित नहीं है, किन्तु व्रत, और अव्रत को अपेक्षा से है। नरक के जीवों के न व्रत है, न मर्यादा है . और न उन जीवों के व्रत-मर्यादा हो ही सकती है।
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[ ५१७.]
दण्डकों में आत्मारम्भादि वर्णन
धर्म का पालन न घोर दुःख में होता है, न घोर सुख में। मध्यम श्रेणी के जीव ही व्रतों का पालन कर सकते हैं । नरक के जीव बहुत दुखी हैं और स्वर्ग के जीव बहुत सुखी है; इसलिए इन दोनों के ही व्रत नहीं होते । सुख दुख के संग्राम में उतर कर श्रात्मा को वहाँ उत्तम घवाये रखने वाला ही व्रत में उतर सकता है ।
भगवान् कहते हैं—-गौतम! नारकी अती हैं, इस कारण वे अनारंभी नहीं हैं। इसी प्रकार असुरकुमार ले वैमानिक देव तक सभी देवगति वाले निरारंभी नहीं हैं, क्योंकि " वे सभी श्रव्रती है।
यह कथन करके भगवान् ने सावधान किया है किहे साधुन । ऐ मनुष्यो ! जो योग देवों को भी प्राप्त नहीं हो सकता, वह योग: तुम्हें प्राप्त है । इस दुर्लभ योग को प्रमादी होकर वृथा न खोओ। देवता भी निरारंभी नही हो सकते । तुम निरारंभी हो सकते हो ।. इसलिए व्रतों का पालन करने श्रसावघान मत रहना ।
मैं
.
पृथ्वीकाय के जीव एकेन्द्रिय हैं। हिलते डूलते नहीं हैं, न कुछ क्रिया ही करते हैं । वे इतने स्थिर हैं कि साधु भी उतना स्थिर नहीं दिखाई देता । साधुओं को पृथ्वी के समान बनने के लिए कहा जाता है। फिर भी वह वैसे नहीं हो पातेः। पृथ्वी अच्छे-बुरे सभी व्यवहारों को समानभाव से सहन करती है । तो क्या पृथ्वी के जीव निरारंभी हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में भी भगवान् ने यही कहा है कि वे भी निरारंभी नहीं हैं। क्योंकि आत्मा की शुद्ध दशा की धारणा और आत्मा की
!
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श्रीभगवती सूत्र
[५२०॥ अगर मैं संयम के साथ इन दुःखों को सहन करुंगा तो सर्वार्थसिद्ध के देवता भी मेरी समानता नहीं कर सकेंगे। मैंने संसार में रहकर घोर दुःख पाया, फिरभी कोई फल नहीं. निकला । लेकिन संयम का पालन करते हुए यह जो दुःख
आया है, इसे अगर प्रसन्नता पूर्वक, संयम में स्थिर रहते · हुएं संहन कर लिया तो मेरा संयम रूपी हीरा सुरक्षित
रह जायंगा और उसके प्रभाव से अनन्त और अक्षय मुख
की प्राप्ति होगी। यह दुःख, दुःख नहीं है, मेरा आन्तरिकविकार __ ही है, जो दुःख के रूप में बाहर फूट रहा है। इसका वाहर निकल जाना ही श्रेयस्कर है। .
जुलाव लेने पर भी दस्त लगते हैं और संग्रहणी की बीमारी में भी दस्त लगते हैं । इन दोनों प्रकार के दस्तों में क्या विशेषता है ? एक दस्त रोग ले भरा हुआ है और दूसरा रोग को बाहर निकालता है । वही वात दु:ख के सम्बन्ध में है। कोई कोई दुःख, दुःख को बढ़ाने वाला होता है, कोई दुःख आत्मा को चिर सुखी बनाता है। .. - गौतम स्वामी,भगवान् से पूछते हैं-भगवन् ! सलेश्यवेश्या वाले-जीव आत्मारंभी हैं, परारंभी हैं, उभयारंभी हैं, या अनारंभी हैं ? . . .
. इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् फरमाते हैं लेश्यावाले जीव के विषय में वही उत्तर समझ लो, जो जीव के विषय में दिया गया है । कृष्ण, नील और कापोत लेश्या वाले जीवों को
औधिक समझो । इतनी विशेषता अवश्य है कि इनमें प्रंमांदी, अंप्रमादी तथा संयतं, असंयत का भेद नहीं है। क्योंकि जिनमें यह तीन लेश्याएँ होती हैं, वे संयत (साधु)
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[५२१]
दण्डकों में आत्मारम्भादि वर्णन नहीं होते। शेष आगे की तीन लेश्या वालों में यह भेद होते हैं । जहाँ लेश्या पद आवे वहाँ सिद्धों को छोड़ देना चाहिए, क्योंकि सिद्धों में लेश्या नहीं होती।
कृष्ण श्रादि द्रव्यों के निमित्त से जीव के जो परिणाम होते हैं, उन्हें लेश्या कहते हैं। कहा भी है:कृष्णादिद्रव्य साचिव्याव, परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्राऽयं, लेश्याशब्दः प्रयुज्यते ॥
प्राचार्य-रचित इस श्लोक का अर्थ यह है कि कृष्ण श्रादि द्रव्यों की सन्निकटता से आत्मा में जो परिणाम उद्भूत होते हैं, उसे लेश्या कहते हैं । जैसे स्फटिक के नीचे काले रंग की वस्तु रखने से स्फटिक काला दिखाई देता है, वैले ही लेश्या से आत्मा हो जाता है।
लेश्यावाले जीवों का जहाँ निरूपण करना हो वहाँ 'संसारसमापनक और असंसारसमापनक भेद नहीं करना चाहिए, क्योंकि लेश्या वाले संसारसमापनक ही होते हैं, असंसारसमापनक नहीं होते। ,
'हे भगवन् ! क्या लेश्या वाले जीव आत्मारंभी है?" यह लेश्या का प्रश्न-क्रम है। इसी तरह के छह प्रश्न, छह लेश्याओं के संबंध में और समझ लेने चाहिए । अतः लेश्या संबंधी सात प्रश्न होते हैं। इनके उत्तर में कृष्ण, नाल और कापोत लेश्या में जीव-सामान्य के समान समझना चाहिए, सिर्फ प्रमादी और अप्रमादी के भेद छोड़ देने चाहिए । संयत,
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श्रीभगवती सूत्र . .
(५२२) असंयत का भी भेद नहीं करना चाहिए, क्योंकि इन लेश्याओं में संयम नहीं हो सकता।
शंका-भगवती सूत्र के २५ वे शतक में कषाय कुशीला . संयमी को.छहों लेश्याएँ कही हैं, फिर यहां आप तीन श्र. प्रशस्त लेश्याओं में संयम का निषेध कैसे करते हैं ? सामायिक . चारित्र और छेदोपस्थापना चारित्र तथा मनःपर्यय ज्ञान में छहों लेश्याएं बताई गई है, फिर यहां लिर्फ तीन लेश्या वालों में ही साधुपन होता है, ऐसा क्यों कहते हैं ? अतएव यहां प्र. मादी, अप्रमादी के भेद का जो निषेध किया है सो उचित नहीं जान पड़ता। हां यह कहा जा सकता है कि कृष्ण श्रादि . तीन लेश्या चाले प्रमादी ही हैं; अप्रमादी नहीं। .
समाधान: यदि प्रमादी होने के कारण ही अप्रशस्त लेश्याओं का होना कहते हो तो पुलाक-नियठा (निर्ग्रन्थ-साधु) सूल गुण और उत्तर गुण के प्रतिसेवी हैं और लब्धि फोड़ने पर उनमें तीन शुद्ध लेश्याएँ ही कही हैं। अगर इनमें अप्र: शस्त लेश्याएँ भी होती, तो फिर तीन प्रशस्त लेश्याएँ ही . क्यों कही है ? इसी प्रकार बकुश नियंठा में भी तीन ही. लेश्याएँ कही है। ''कोई अपने में दोष लगाना नहीं चाहता, फिर भी दोष लग गया है। किन्तु दोष लगने मात्र से लेश्या बुरी नहीं . हो सकती । एक आदमी संकट में पड़ कर, विवशता से बुरा काम करता है और दूसरा स्वेच्छा से प्रसन्नता पूर्वक । इन दोनों में कुछ भेद है या नहीं ? अवश्य है। पहला मनुष्य बुरा काम करता हुआ भी विचार से शुद्ध है। दूसरा काम से और
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[५२३] . दण्डकों में प्रात्मारम्भादि वर्णन विचार से भी अशुद्ध है । अगर दोनों की लेश्याएँ समान मानी जाएँ तो दोनों समानरूप से पापी समझे जाएँगे।
श्राचार्य कहते हैं कि कुशील में,जो वह लेश्याएँ कही हैं, उनमें तीन द्रव्य लेश्याएँ और तीन भाव लेश्याएँ हैं। तात्पर्य यह है कि पहले अशुद्ध लेश्या थी। भावना पलटी और साधुपना भा गया । इस लिए भाव लेश्या तो शीघ्र पलट गई, मगर द्रव्य लेश्या के पलटने में देरी लगती है। ऐसी स्थिति में द्रव्य लेश्या तो तीन पहले वाली बनी रही, मगर भाव लेश्याएँ तीन प्रशस्त हो गई । इन तीन अप्रशस्त लेश्याओं में प्रमादी, अप्रमादी का अभाव है। अतएव कुशीलनियंठा में जो छह लेश्याएँ कही हैं उनमें तीन द्रव्य लेश्याएँ समझनी चाहिए । इस विषय का विशेष विचार सद्धर्ममण्डन नामक ग्रंथ में किया गया है।
तेरहपंधी कहते हैं कि भगवान् में छह लेश्याएँ थीं और पाठों कर्म मौजूद थे। श्रतएव गौशाला को मृत्यु से बचाने में अगर वह चूक गये तो आश्चर्य ही क्या है ?.जर उनसे कहा जाता है कि कपायकुशालनियंठा में लेना क्यों कहा है ? तव कहते हैं-कहा होगा किसी अपेक्षा से, ! अव उनसे पूछते हैं कि-पुलाक-नियठा धकुशनियंठा तथा प्रतिसेवनानियंठा में तीन शुद्ध लेश्याएँ क्यों कहीं हैं ? तो बस, चुप हो रहते हैं।
भगवान में शुद्ध लेश्या कही गई है। मगर तेरहपंथी गोशालक को बचाने के कारण भगवान् को पाप लगना कहना चाहते थे, इसलिए उन्होंने भगवान् को लेश्याएँ भी छह कह दी है।
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श्रीभगवती सूत्र
. [५२५] तात्पर्य यह है कि शुद्ध लेश्याओं मसाधुता नहींरहती। वल्कि गोम्मटसार अन्य में तथा अन्य ग्रंथातो अशुद्धलेश्याम श्रावकपन भी नहीं माना । इस पर यह प्रश्न किया जासकता है कि श्रावक संसार संबंधी कार्य करता है, फिर उसमें शुद्ध लेश्या कैले रह सकती है ? इसका उत्तर यह है कि साधु लन्धि फोड़कर दूसरे को सज़ा देने पर भी जैसे विराधक नहीं है, उसी प्रकार श्रावक संसार संबंधी कार्य करता हुआ भी, भावना की अशुद्धता न होने के कारण अप्रशस्त लेश्या वाला नहीं है । व्रत का पालन, शुद्ध लेश्या के अन्तर्गत है। यह कहा जा सकता है कि श्रावक श्रारंभ करता है, मगर यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जहां वह हल्का प्रारंभ करता है वहां व्रतों का पालन भी करता है। श्रावक के परिणाम सदा अच्छे रहते हैं, इसलिए उसकी लेश्या भी शुद्ध ही है। .
तात्पर्य यह है कि कृष्ण, नील और कापोत लेश्या का एक दंडक कर लीजिए । यह तीन प्रोधिक हैं। इनमें प्रमादी, अप्रमादी का भेद नहीं है, क्योंकि कृष्ण, नील और कापोत लेश्या में साधुता नहीं है जहां साधु में छह लेश्याएँ कही गई हो वहां तीन द्रव्य लेश्याएँ समझनी चाहिए, भाव लेश्याएँ नहीं। यह बात टीकात्रों और टब्बों में स्पष्ट करदी गई है। श्रतएव अशुद्ध लेश्याओं में प्रमादी और अप्रमादी का भेद नहीं रहता। - प्रश्न-सूत्र का उच्चारण किस प्रकार करना चाहिए? यह विधि बतलाते हैं। वह इस प्रकार है-भगवन् कृष्णलेश्या -वाले-जीव आत्मरंभी हैं, परारंमी हैं, उभयारंभी हैं, या अनारंभी हैं ? इसका उत्तर है-गौतम ! श्रात्मारंभी हैं, परारंभी है, उभयारंभी है, अनारंभी नहीं हैं। .
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[५२५]
दण्डकों में आत्मारस्भादि वर्णन ... . इससे यह सिद्ध हुआ.कि कृष्णलेश्या वाला जीव जव अनारंभी होता ही नहीं है, तय इसमें प्रमादी और अप्रमादी का भेद कहाँ से आएगा? . . . . . .
गौतम स्वामी पूछते हैं-भगवन् ! आपने जो निरूपण किया है सो किस हेतु से इसका उत्तर भगवान देते हैं-अवत की अपेक्षा से कृष्णलेश्या वाले जीव आत्मारंभी होते हैं, परारंभी होते हैं, उभयारंभी होते हैं, किन्तु अनारंभी नहीं होते।
शास्त्रकारों ने विरताविरत (एकदेशविरत-श्रावक) में तीन 'अशुद्ध लेश्याएँ भी मानी हैं, लेकिन कई ग्रंथ इससे सहमत नहीं हैं। गोम्मटसार में, श्रावक में तीन शुद्ध लेश्याएँ ही बताई हैं। इसके अनुसार खोटी लेश्या वाला श्रावक भी नहीं हो सकता। .. - जैसा प्रश्न और उत्तर कृष्णलेश्या के विषय में ऊपर लिखा गया है, वैसा ही नील और कापोत लेश्या में भी समझना चाहिए !
तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या के प्रश्नोत्तर वैसे ही समझना चाहिए, जैसे समुच्चय जीव के विषय में हैं। इन लेश्याओं में संयत, असंयत, प्रमादी और अप्रमादी का भेद भी है। ..
प्रमादी में भी तेजोलेश्या, पालेश्या और शुक्ललेश्या होती है । उसमें शुभयोग और अशुभयोग भी होता है। अगर वह उपयोगपूर्वक प्रवृत्ति करता है तो अनारंभी है अगर ऐसा नहीं करता तो अनारंभी नहीं है।
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श्रीभगवती सूत्र .. . [५२६]
तेजोलेश्या आदि में समुच्चय जीव की अपेक्षा इतनी विशेषता है कि इनमें असंसारसमापन्नक (सिद्ध नहीं कहना चाहिए, क्योंकि सिद्ध अलेश्य हैं।
संसार-परिभ्रमण का हेतु प्रारंभ माना गया है। जितने . आरंभ हैं, सव दोषयुक्त हैं। मुक्ति पूर्ण निर्दोष को प्राप्त होती है, दोषी को नहीं। गीता में भी कहा है किः
'सारम्भा हिदोषेणं धूमेनाग्निरिवावृता'
जितने भी प्रारंभ है, सब दोष से व्याप्त हैं। जैसे अग्नि के विना धूम नहीं होता, उसी प्रकार दोष के विना आरंभ नहीं होते।
यहाँ एक बात स्पष्ट कर देना श्रावश्यक है। प्रश्न होता है कि जीव का घात न करना ही आरंभ का त्याग है, या . इसके लिए और भी फिसी क्रिया का सेवन करना आवश्यक है ? इसका उत्तर यह है कि अगर जीव-घात न करना ही
आरंभ का त्याग कहलाता तो पृथ्वीकाय के जीव भी अनारंभी कहलाते । पृथ्वीकाय के जीव स्थिर पड़े हैं। वे प्रायः किसी जीव का घात नहीं कर पाते। लेकिन इतने मात्र ले पृथ्वीकाव के जीव अनारंभी नहीं हो सकते। अनारंभी होने के लिए एक और विशेषता होनी चाहिए। वह है ज्ञान, दर्शन और चारित्र की विद्यमानता। जिसमें इस रत्नत्रय का सद्भाव है,वही निरारंभी हो सकता है। अतएव अव ज्ञान का प्रकरण भारंभ होता है। .
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ज्ञान, दर्शन, चारित्र सम्बन्धी
प्रश्नोत्तर...
मूलपाठप्रश्न-इहभविए भंते ! पाणे, परभविए । नाणे, तभयभविए. नाणे ? . . . उत्तर-गोयमा ! इहभविए वि नाणे, परभविए वि नाणे, तदुभयभविए वि नाणे । दसणं पि एवमेव ।
प्रश्न-इहभविए भंते ! चरिते, परभविए चरित्ते, तदुभयभविए चरिते ?
उत्तर-गोयमा ! इहभविए चरित्ते, नो
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श्रीभगवती सूत्र
{५२८] परभविए चरित्ते, नो तदुभयभविए चरित्ते । एवं तवे, संजमे।
. संस्कृत-छाया-प्रश्न-ऐहभविकं मगवन् ! ज्ञानं, पारभविकं ज्ञानं, तदुभयभविकं ज्ञानम् ?
। उत्तर-गौतम ! ऐहभाविकमपि ज्ञानं, पारभविक्रमपि ज्ञानं, तदुभयभविकमपि ज्ञानम् । दर्शनमपि एवमेव ।
प्रश्न-ऐहभविकं भगवन् ! . चारित्रं, पारभविकं चारित्रं, तदुभयभविक चारित्रम् ?
उत्तर-गौतम ! ऐहभाविक चारित्रं, नो पारभविकं चारित्रं, नो तदुभयभविकं च रित्रम् । एवं तपः, संयमः । ।
.. मूलार्थ-प्रश्न-भगवन् ! क्या ज्ञान ऐहभाविक हैं ? पारभविक है या उभयभविक है ? ... ... . ___ उत्तर-गौतम ! ज्ञान ऐहभविक भी है; पारभविक भी है और उभयभविक भी है । इसी प्रकार दर्शन भी। - "प्रश्न-भगवन् ! चारित्र ऐहभविक है, पारभविक है .
या उभयमविक है ? . ... उत्तर गौतम चारित्रं ऐहभविक है, पारंभविक नहीं है
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[ ५२६]
ज्ञानादि विषयक प्रश्नोत्तर
तथा उभयभविक भी नहीं है । इसी प्रकार तप और संयम भी
. समझना चाहिए ।
व्याख्यान - सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र, यह तीनों मोक्ष के मार्ग हैं। इनके विषय में गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं
हे भगवन् ! मोक्ष के श्रंग ज्ञान आदि को आत्मा जब एक वार प्राप्त कर लेता है, तब यह भवान्तर में साथ रहते है, या इसी भव में रह जाते हैं ? अर्थात् यह अगले भव में साथ जाते हैं या नहीं ?
जीव वर्त्तमान काल में जो भव भोग रहा है वह इह भव कहलाता है । इह भव का ज्ञान श्रागामी भव में जायगा या नहीं ?
इस प्रश्न का उत्तर यह दिया गया है कि ज्ञान तीनों तरह का है। कोई शान ऐभविक है अर्थात् वर्त्तमान भव में ही रहता है, परमंत्र में साथ नहीं जाता। कोई ज्ञान पारभविक है अर्थात् आगामी जन्म में भी श्रात्मा के साथ जाता है । और कोई ज्ञान उभय-भविक है अर्थात् इस भव और परंभव मैं साथ रहता है ।
उभयभविक ज्ञान, एक प्रकार से पारभविक ज्ञान ही है; मगर यहाँ उसे अलग ग्रहण किया है । अतएव उभयभविज्ञान का अर्थ पर तर भविक ज्ञान लेना चाहिए। तात्पर्य यह है कि कोई कोई ज्ञान अगले जन्म से भी अगले जन्म में साथ रहता है। उसे यहाँ उभयभविक ज्ञान कहा है ।
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श्रीभगवती सूत्र
- [५३०], - इस वर्णन से निम्नलिखित वात स्पष्ट हो जाती हैं:
(१) इस भव में ज्ञान नहीं है, इस कारण परभव में भी ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता, यह बात नहीं है।
(२) परलोक में ज्ञान जाता है। ज्ञान-उपार्जन करने के लिए जो प्रयास किया गया है, उसका फल इसी जन्म में समाप्त नहीं हो जाता । एक जन्म का प्रयास अनेक जन्मों तक फलदायक होता है।
(३) जिसने इस जन्म में ज्ञान का अध्ययन नहीं किया, उले परभव में भी पश्चाताप करना पड़ता है। ठाणांग सूत्र में कहा है जो साधु, शिक्षक का योग मिलने पर भी और .. भिक्षा आदि की असुविधा न होने पर भी ज्ञान की आराधना नहीं करता, वह देवभव में जाकर पश्चाताप करता है। .
जो वस्तु परलोक में साथ जाने वाली नहीं है, उसके लिए लोग प्रयत्न करते हैं, यहां तक कि ऐसी वस्तुओं के लिए ही लम्पूर्ण जीवन व्यतीत कर देते हैं, मगर जो साथ जाने वाली है, उसी के लिए प्रयत्न कम करते हैं, अथवा करते ही नहीं हैं। जो वस्तु इस भव में भी शायद ही पूरा साथ देती है, जो पल भर में नष्ट-भ्रष्ट या पराई बन जाती है, जो थोड़ी ही देर तक रुचिकर प्रतीत होती है
और थोड़ी देर में श्ररुचिकर वन जाती है, इसी तुच्छ चीज़ के लिए जीवन निछावर कर देना और परभव में भी आनन्द देने वाली वस्तु की ओर उपेक्षा रखना, कितने अविवेक की बात है! । प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा ज्ञान प्राप्त किया जाय तो कुछ
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[ ५३१ ]
ज्ञानादि विषयक प्रश्नोत्तर
ही दिनों में बहुत-सा ज्ञान हो सकता है; लेकिन इस ओर कौन ध्यान देता है !
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इस प्रश्नोत्तर में उनका भी समाधान हो गया है, जो आत्मा को शानशून्य मानते हैं, अर्थात् जिनके मत के अनुसार मोक्ष में ज्ञान का प्रभाव हो जाता है ।
बौद्ध लोग श्रात्मा को क्षणिक मानते हैं । उनके मत के अनुसार परलोक में अनुयायी श्रात्मा नहीं है । इस प्रश्नोत्तर से उनके मत का भी खंडन हो जाता है । अगर आत्मा परलोक में न जाता तो श्रात्मा का ज्ञान-गुण भी कैसे जा सकता है ?
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इस प्रकार गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमाया - हे गौतम । ज्ञान इस भव में भी साथ रहता हैं, परभव में भी साथ रहता हैं और परतरभव में भी साथ रहता है।
दर्शन का अर्थ यहाँ सम्यक्त्व है; क्योंकि मोक्ष मार्ग का प्रकरण है । मोक्षमार्ग के प्रकरण में दर्शन का अर्थ सम्यक्त्व ही लिया जाता है । दर्शन के विषय में भी वही उत्तर समझना चाहिए, जो ज्ञान के सम्बन्ध में दिया गया है।
यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि तत्त्वार्थसूत्र में 'सम्यग् - दर्शन - ज्ञान - चारित्राणि मोक्षमार्गः' इस सूत्र में पहले सम्यगदर्शन और उसके अनन्तर ज्ञानं का उल्लेख किया है; मगर यहाँ पहले ज्ञान का और फिर दर्शन का उल्लेख किया है । इन दो क्रमों में से कौन-सा क्रम ठीक माना जाय ? इसका समाधान यह है कि वास्तविक रीति से पहले सम्यग्दर्शन'
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[५३२
श्री भगवती सूत्र . . ही आता है, मंगर उपकार की दृष्टि से पहले. सम्यग्ज्ञान क ही उल्लेख किया जायगा । मेघ हटने पर सूर्य जव उदित होत है तो उसका प्रताप.और प्रकाश एक साथ ही प्रकट होता है उसी प्रकार जब मिथ्यात्वमोहनीय रूपी मेघ पटल का विनाए होता है तब सम्यग्दर्शन और सस्यग्ज्ञान एक ही साथ प्रात्म में प्रकट होते हैं। उनमें क्रम की कल्पनानहीं की जा सकती। इसी प्रकार जान और दर्शन लहभावी हैं। जहाँ ज्ञान है, वहाँ दर्शन है, जहाँ दर्शन है वहाँ जान भी है। ऐसा होने पर भी ज्ञान को सम्यक् बनाने वाला दर्शन है। अतएव कहीं-कहीं दर्शन को प्रथम स्थान दिया गया है। मगर ज्ञान के विना श्रद्धा (सम्यक्त्व ) नहीं जानी जा सकती, इसलिए ज्ञान की महत्ता प्रदर्शित करने के लिए यहाँ उसे प्रथम स्थावदिया गया है।
: अव चारित्र का प्रश्न उपस्थित होता है। गौतम स्वामी पूछते हैं-भगवन् ! चारित्र ऐहभविक हैं, पारभविक है या लभयभविक है ? भगवान् इसका उत्तर देते हैं-गौतम ! चारित्र इसी अव में रहता है, परभव में साथ नहीं जाता। . चारित्र की ही तरह तप और संयम का भी प्रश्नोत्तर है । अर्थात् जैसे चारित्र परभव में साथ नहीं जाता, उसी प्रकार तप और संयम भी नहीं जाता। . . . चारित्रवान पुरुष, इस भव में जिस चारित्र से चारित्री हुआ था, परभव में भी इसी चारित्र से चारित्री हो या वही चारित्र परलोक में भी सार्थ जाय, यह बात नहीं है। इसी कारण चारित्र धारण करते समय यावज्जीवन की
प्रतिज्ञा ली जाती है, जन्मान्तर की नहीं । चारित्र की अवधि, . मृत्यु हो जाने पर पूर्ण हो जाती है। ..
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[५३३]
ज्ञानादि-विषयक प्रश्नोत्तर प्रश्न होता है कि अगर इस भव का चारित्र परभव में साथ नहीं जाता तो न सही, परभव में नया चारित्र उत्पन्न होता है या नहीं ? इसका उत्तर यह है कि मुनि सर्वचारित्री हैं और श्रावक देशचारित्री हैं। इस जन्म के पश्चात् यह दोनों ही देवगति में जाते हैं और देवगति में चारित्र का प्रभाव है। श्रतः परभव में चारित्र उत्पन्न नहीं होता।
जो साधु मोक्ष जाते हैं, उनमें भी चारित्र की उत्पत्ति असंभव है, क्योंकि कर्मों का क्षय करने के लिए ही चारित्र फा अनुष्ठान किया जाता है और कर्मों का क्षय हो जाने पर ही मोक्ष प्राप्त होता है, इसलिए मोक्ष में चारित्र की कोई उपयोगिता ही नहीं है । चारित्र धारण करते समय जीवनपर्यन्त की प्रतिक्षा ली थी, वह पूर्ण हो गई और मोक्ष में नया चारित्र उत्पन्न नहीं होता। इस प्रकार मोक्ष में भी चारित्र नहीं है। यहाँ स्वरूप-रमण रूप चारित्र का प्रहण नहीं किया है, मगर अनुष्ठान रूप-क्रियास्वरूप-चारित्र लिया गया है।
शंका-चारित्रमोहनीय कर्म के क्षय से उत्पन्न होने वाला चारित्र मोक्ष में क्यों नहीं है ?
समाधान-इस शंका का समाधान पहले ही हो गया है। अनुष्ठानरूप चारित्र की मर्यादा पूर्ण होगई,अतएव वह मोक्ष में नहीं रहा। हाँ, श्रात्मा का सत् चित्-आनन्द रूप सहज चारित्र मोक्ष में भी विद्यमान रहता है।
इसके अतिरिक्त, क्रिया शरीर से होती है और सिद्ध शरीर-रहित होते हैं। अतएव सिद्ध भगवान् न चारित्री हैं, न' अचारित्री ही कहे जा सकते हैं । अवत का अभाव होने से उन्हें प्रचारित्री नहीं कहा जा सकता।
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श्री भगवती सूत्र
[५३४] । अव प्रश्न यह है कि तप इस भव में है, परमव में है, या दोनों भवों में है ? इस प्रश्न का उत्तर चारित्र के समान होहै।
तेरहपंथियों की यह मान्यता है कि अहिंसा, संयम और तप, इस क्रम में से संयम तो ऊपर के गुणस्थानवालों में ही होता है, लेकिन तप मिथ्यात्वी को भी होता है। मगर यह मान्यता भ्रमपूर्ण है, क्योंकि तप, चारित्र से अलग नहीं है। चारित्र में ही तप का अन्तर्भाव होता है।
अनन्तानुवंधी चौकड़ी (क्रोध, मान, माया, लोम ) का क्षयोपशम या क्षय होने पर सम्यग्दृष्टि होती है और अप्रत्याख्यान-चौकड़ी का क्षयोपशम या क्षय होने पर-देश चारित्र होता है। उदाहरणार्थ-जिसकी अप्रत्याख्यानी चौकड़ी का क्षय या क्षयोपशम नहीं हुआ है, उसने अगर तेला किया, तो वह तेला चारित्र के अंश रूप तप में अन्तर्गत नहीं होगा, अपितु अभिग्रह रूप होगा। इस प्रकार तप और संयम चारित्र के ही अंग होने से उनके संबंध में प्रश्न और उत्तर भी उसी प्रकार के होंगे, जो चारित्र के विषय में है।
किसी-किसी का कथन है कि दर्शन से भ्रष्ट होने वाला सिद्ध नहीं हो सकता, किन्तु चारित्रभ्रष्ट सिद्ध हो सकता है। अतएव चारित्र की अपेक्षा दर्शन अधिक वांछनीय है और दर्शन की अपेक्षा चारित्र सामान्य वस्तु है। यह कथन शास्त्रकार को स्वीकार नहीं है। अतएव जिनका ऐसा कथन है, उन्हें गौतम! स्वामी और भगवान् महावीर के प्रश्नोत्तर में शिक्षा दी जाती है।
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असंवृत अमरकार सम्बन्धी ।
छनोत्तर
मूलपाठप्रश्न-असंवुडे णं भत्ते! अणगारे किं सिज्मइ, बुज्झइ, मुच्चइ, परिनिव्वाइ, सव्व. दुक्खाणं अंतं करेइ ? .
उत्तर-गोयमा ! णो इणढे सम? ? प्रश्न-से केणटेणं,जाव-नोअंतं करेइ ?
‘उत्तर-गोयमा! असंवुडे अणगारे आउवजाबो सत्तकम्मपगडीयो सिढिलबंधणबद्धाश्रो धणियबंधणंबद्धाओ पकरेइः हस्सकालठिड्यायो दोहकालाठिड्याश्रो पकरेइ, मंदाणुभावाओ तिव्वाणुभावानो पकरेइ, अप्पपए
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श्रीभगवती सूत्र
[ ५३६ ]
सग्गाओ बहुप्पएसग्गाओ पकरेइ चाउयं च णं कम्मं सिय बंधड़, सिय नो बंधइ । श्रस्साया - वेयणिज्जं च णं कम्मं भुज्जो भुजो उवचिणइ, अणाइयं च णं अणवयग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं श्रणुपरियट्टइ । से तेणट्टेणं गोयमा ! असंवुडे अणगारे णो सिज्झइ, जावणो अंतं करेइ ।
संस्कृत - छाया - प्रश्न - प्रसंवृतो भगवन् ! अनगारः किं सिध्यति, बुव्ये, मुच्यते, परेनिर्ऋति, सर्वदुःखानामन्तं करोति ?
उत्तर - गौतन ! नायमर्थः समर्थः ।
प्रश्न - ततु केनार्थेन, यात्रद्नो श्रन्तं करोति !
उत्तर - गौतन ! असंवृते ऽनगार श्रायुर्वजाः सप्तकर्मप्रकृती: शिथिलवन्धनबद्धाः गाढबन्धनवद्धा प्रकरोति, ह्रस्वकालस्थितीकाः दीर्घकालस्थितिकाः प्रकरोति, मन्दानुभावास्तीवानुभावाः प्रकरोति, अल्पप्रदे गामा बहुप्रदेशाप्रा: प्रकरोति. आयुष्कं च कर्म स्याट् बध्नाति, स्याट् न बन्नात्।ि असातावेदनीयं च कर्म भूयो भूय उपचिनोति, अनादिकं च श्रनवनता, दीर्घाध्यम्, चतुरन्तारकान्तारमनुपर्यटति । तत् तेनार्थेन गौतम! असंत्रृतोऽनगारो नो सिध्यति, यातु नो श्रन्तं करोति: ।
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[५३७]
असंवृत अनगार मूलार्थ-प्रश्न-भगवन् ! क्या असंवृत अनगार सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है, निर्वाण प्राप्त करता है, सब दुःखों का अन्त करता है ?
उत्तर-गौतम ! यह अर्थ समर्थ-ठीक नहीं है ।
प्रश्न-भगवन् ! सो किस कारण से यावत् दुःखों का अंत नहीं करता ?
उत्तर-गौतम! असंवृत अनगार आयु को छोड़ कर शिथिल बंध से बाँधी हुई सात कर्म--प्रकृत्तियों को घन रूप
बांधना आरंभ करता है, अल्पकालीन स्थिति वाली प्रकतेयों को दीर्घ कालीन स्थिति वाली करता है, मंद अनुभाग वाली प्रकृत्तियों को तीन अनुभाग वाली करता है और थोड़े प्रदेश वाली प्रकृत्तियों को बहुत प्रदेश वाली बनाता है । और आयु कर्म को कभी वांधता है। कभी नहीं भी बांधता । असाता वेदनीय कर्म को पारंवार उपार्जन करता है। तथा अनादि अनंत, दीर्घ मार्ग वाले, चतुर्गति रूप संसार रूपी अरण्य में बार-बार पर्यटन करता है। इस कारण हे गौतम ! असंवृत अनगार सिद्ध नहीं होता, यात्-सर्व दुःखों का अंत नहीं करता।
व्याख्यान-श्रीगाँतम स्वामी प्रश्न करते हैं कि-हे भगवन् ! असंवृत अनगार क्या सिद्ध गति को प्राप्त करता
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श्रीभगवती सूत्र
[५३८] है। वह क्या घुद्ध होता है ? मुक्त होता है ? निर्वाण पाता है ? समस्त दुःखों का अंत करता है?
इस प्रश्न का उत्तर समझने से पहले यह जान लेना श्रावश्यक है कि असंवृत अनगार किसे कहते हैं ? जिसने आस्रवद्वार को नहीं रोका है, अर्थात् जो फर्म का प्रास्रव करने वाली क्रियाएँ करता है, जिसकी प्रवृत्ति हिंसा और मृपावाद आदि में है, जो अदत्त को ग्रहण करता है, जो ब्रह्मचर्य का भी भली भाँति पालन नहीं करता, जो अपरिग्रही भी नहीं है, फिर भी जो अनगार कहलाता है, उसे असंवृत अनगार समझना चाहिए।
प्रश्न होता है-जिसमें साधु के अहिंसा आदि लक्षण ही नहीं पाये जाते, उसे अनगार या साधु क्यों कहा जाय ? इसका उत्तर यह है कि यद्यपि वह वास्तव में साधु नहीं है, . फिर भी अपने आपको साधु के रूप में प्रसिद्ध करता है, वाह चिह्न भी.वह साधु के ही रखता है, इस कारण लोक में वह साधु कहलाता है । मगर क्योंकि वह साधु के सम्पूर्ण प्राचार का पालन नहीं करता, इसलिए केवल नाम और भेप के उस साधु को यहां असंवृतं (असंवुड ) अनगार कहा है। ऐसा साधु क्या मुक्ति प्राप्त करता है ? यह गौतम स्वामी का प्रश्न है। . . . . . . . " . चरम भव-अंतिम जन्म-की प्राप्ति होने पर सिद्धि प्राप्त होती है। अतएव 'सिद्ध होता है' इस क्रिया-पद का अर्थ यहाँ यह समझना चाहिए-चरम भव प्राप्त करके मोक्ष के योग्य होता है ?'.
. चरम भव प्राप्त करने पर भी. बुद्ध सब नहीं होते ।
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[ ५३६ ]
असंवृत अनगार
जिन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हो जाता है, उन्हें बुद्ध कहते हैं । तात्पर्य यह है कि चरम शरीरी मनुष्य को भावी नय की अपेक्षा से सिद्ध कह सकते हैं, लेकिन बुद्ध तभी कहेंगे जब केवल ज्ञान प्राप्त हो जाय । श्रतएव यहाँ बुद्ध होने का अर्थकेवलज्ञानी होता है ।
मूल पाठ में तीसरा पद 'मुम्बई' है, जिस जीव को केवलज्ञान प्राप्त हो चुका है- जो युद्ध हो गया है- उसके सिर्फ भवोपग्राही कर्म शेष रहते हैं । जब वह भवोपग्राही कर्म को प्रतिक्षण छोड़ता है, तब 'मुक्त' कहलाता है ।
चौथा पद ' परिनिब्वाइ' है । 'भवोपग्राही' कर्म को प्रतिक्षण छोड़ने वाला वह महापुरुष कर्मपुदलों को ज्यों ज्यों क्षीण करता जाता है, त्यों-त्यों शीतल होता जाता है । इस प्रकार की शीतलता प्राप्त करना ही निर्वाण प्राप्त करना कहलाता है ।
निर्वाण के विषय में बौद्धों की मान्यता कुछ विलक्षण ही है । एक बार बुद्ध से पूछा गया -'मुक्त जीव कहाँ जाता है ?' इस प्रश्न के उत्तर में बुद्ध ने प्रश्न किया- 'दीपक बुझ कर कहाँ जाता है ?' जब उनसे यह कहा गया कि दीपक वुझने पर कुछ शेष नहीं रहता - दीपक शून्य रूप में परिणत हो जाता है; तब बुद्ध ने कहा - इसी प्रकार मुक्त होने पर जीव शून्य हो जाता है, कुछ भी नहीं रह जाता। मगर वास्तचिक बात यह नहीं है । किसी भी सत् वस्तु का सर्वथा नाश नहीं होता। जो है, वह सदा रहेगी ही । उसकी अवस्थाओं में परिवर्तन तो होगा, मगर उसका सर्वथा नाश होना संभव नहीं है । दीपक का भी सर्वथा नाश नहीं हो
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श्रीभगवती सूत्र
[५४०] जाता है। दीपक तेज के परमाणुओं का समुदाय है। जब वह बुझता है तो तेज के परमाणु, अन्धकार के परमाणुओं के रूप में परिणत हो जाते हैं-सर्वथा नष्ट नहीं हो सकते । तेज और अन्धकार, दोनों ही पौद्गलिक हैं और उनमें यह अवस्था-भेद होता रहता है। अतएव दीपक, द्रव्य कप से कायम रहता है। . इस विषय का विस्तारपूर्वक विचार न्यायशास्त्र में किया गया है । वह जरा गहन विचार है, अतएव यहाँ उसे छोड़ देते हैं । तात्पर्य यह है कि जैसे दीपक घुझ जाने पर भी सर्वथा नष्ट नहीं होता-तामस परमाणुओं के रूप में पलट जाता है और द्रव्य रूप से विद्यमान रहता है, उसी प्रकार मुक्त जीव भी, द्रव्य दृष्टि से विद्यमान.रहता है। उसकी पहले की अवस्था बदलती है, नवीन अवस्था उत्पन्न होती है, मगर द्रव्य से प्रात्मा नष्ट नहीं होता।
सर्वथा नए नय रूप से विद्यमान रहता है ।ता है, मगर
जिस जीव ने चरम भव प्राप्त किया, केवलज्ञान भी पा लिया,जो भवोपनाही कर्मों को क्षीण कर रहा है, वही जीव अपने चरम भवके अन्त में, जब सव कर्म-अंशों को क्षय कर चुकता है, तव उसके समस्त दुःखों का अन्त होता है। दुःखों का सर्वथा अन्त होने पर शुद्ध सुख ही सुख शेष रह जाता है। - यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि वास्तव में कर्म ही दाख है। वह कर्म भले ही उच्च गति के कारण हो, लेकिन हैं दुःख रूप ही । लव कर्मों से मुक्त होना ही सव दुःखों का अन्त करना कहलाता है । कर्म की उपाधि से मिलने वाला सख वास्तविक रूप में दुःख ही है। कर्म के उदय से प्राप्त होने वाले दुःख को तो सभी दुःख मानते हैं, मगर ज्ञानी.
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[५४१]
असंवृत अनगार जन कर्म से प्राप्त होने वाले सुख को भी दुःख रूप ही मालते हैं। अगर ऐसा न माना जाय तो आत्मा का विकास नहीं दो संकंता और सहज-सिद्ध शाश्वत सुख की प्राप्ति भी नहीं हो सकती।
गौतम स्वामी का प्रश्न है कि असंवृत अनगार क्या इस गति को प्राप्त करता है। इस प्रश्न के उत्तर में भगवान फर्माते हैं-हे गौतम! ऐसी बात नहीं है, अर्थात् असंवृत अनगार मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता।
भगवान् का संक्षिप्त उत्तर सुनकर गौतम स्वामी फिर पूछते हैं:-प्रभो! असंवृत असनार मुक्ति क्यों प्राप्त नहीं कर सकते ! वह भी तो अनगार हुए हैं। भगवान् फर्माते हैंगौतम चाहा अनगारपन ही मोक्ष का कारण नहीं है । श्रानव का त्याग ही वास्तविक अनगारपन है और वही मोक्ष का हेतु है। केवल घर-द्वार का त्याग कर देने से ही कोई सच्चा अनगार नहीं हो जाता और न मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
है गौतम ! श्रनगार हो करके भी जो प्रालय को नहीं रोकता है, उसकी क्या स्थिति होती है, यह ध्यान पूर्वक सुन। वह असंवृत अनगार श्रायु कर्म के लिवार सात समों को पुष्ट करता है।
भगवान ने यह उत्तर क्या दिया है, इस सम्बन्ध में टीकाकार कहते हैं-इस संबंध में आगे विचार किया जायगा। असंवृत अनगार की मोक्ष प्राप्ति अनेक दोप रूपी मुहरों से चूर्ण हो जाती है। अर्थात् असंवृत को मोक्ष मानने से अनेक प्रवल दोप पाते हैं। उन पर आगे प्रकाश डाला गया है।
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श्रीभगवती सूत्र
१५४२] जो लोग चारित्र-भ्रष्ट को भी मोक्ष मानते हैं, उनकी मान्यता को दूपित करने के लिए यह कथन किया गया है।
____ यहाँ वायुकर्म को पृथक् कर दिया है, क्योंकि वह वार-वार नहीं बँधता, बल्कि एक भव में एक बार ही बघता है और वह भी एक अन्तर्मुहूर्त में ही बँध जाता है। शेष सात कर्मों को, अगर वे शिथिल बँधे होतो मज़दूत रूप से वाँध लेता है । मोक्ष, कर्मों का, सर्वथा नाश होने पर होता है
और असंवृत अनगार कर्मों को और अधिक सुदृढ़ बनाता है। ऐसी स्थिति में उसे मोक्ष कैले प्राप्त हो सकता है ?
असंवृत अनगार ढीले कर्मों को मजबूत करता है, रूखे कर्मों को चिकने करता है, अर्थात् आत्मप्रदेशों के साथ कमों का प्रगाढ़ संबंध कर लेता है।
यहाँ शुभ कर्म का ग्रहण न करके अशुभ कर्म का ही ग्रहण करना चाहिए। क्योंकि यहाँ असंवृत अनगार की निन्दा का प्रकरण है । तात्पर्य यह है कि असंवृत अनगार अशुभ कर्मों को ही मजबूत करता है, शुभ कमों को नहीं। असंवृत अनगार पहले के अशुभ कर्म के बंध को निधत कर लेता है और निधत्त को निकाचित के रूप में परिणत करता है।
'पकरेई' पद में जो 'प्र' उपसर्ग है,वह प्रारंभ का सूचक है। असंवृत अनगार कलों को प्रगाढ़ बंधन में वाँधना प्रारंभ करता है । इसी प्रकार अन्यत्र समझना चाहिए। .
' असंवृत अनगार की प्रास्तव में जो प्रवृति होती है, वह प्रकृति बंध रूप है, क्योंकि असंवृतपन अशुभ योग रूप होता है और योग से प्रकृातवंध होता है। कहा भी है- .
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[ ५४३]
असंवृत अनगार
जोगा पयडिपri |
अर्थात् — योग से प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध होता है ।
संवृत अनगार थोड़ी स्थिति वाली कर्म-प्रकृतियों को दीर्घकाल की स्थिति वाली बना लेता है, क्योंकि संवृतपन कषायरूप भी है और कषाय स्थितिबंध का कारण है । इस संबंध में कहा है
ठि
भागं कसाय कुणइ ।
. अर्थात् स्थितिबंध और अनुभागबंध कषाय से होते हैं। अनुभाग का अर्थ है - रस । संवृत अनगार मंद रस चाली कर्म - प्रकृतियों को तीव्र रस वाली बनाना आरंभ करता है । अर्थात् पतले रस वाले कर्मों को गाढे रस वाले बनाता है । जैसे नीम के पत्ते का रस पतला होता है । उसे श्रौटाया तो वह गाढ़ा हो गया । वह जितना गाढ़ा होगा, उतना ही अधिक कटुक होगा। इसी प्रकार अलंकृत अनगार पतले रस वाले कर्मों को गाढ़े रस वाले करता है, जिससे कि उन कर्मों में तीव्र फल देने की शक्ति आ जाती है । रसबंध भी कषाय से होता है और असंवृत अनगार में कपाय की तीव्रता होती है ।
कर्म-बंध के चार प्रकार हैं - प्रकृतिबंध, प्रदेशबंध, स्थितिबंध और अनुभागबंध । इनमें प्रकृति और प्रदेश बंध योग से होते हैं और स्थिति तथा अनुभागच कषाय से होते हैं । संवृत अनगार का योग अशुभ होता है और कषाय तीव्र होते हैं । इसलिए वह चारों ही बंधों में वृद्धि करता है ।
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श्रीभगवती सूब
[५४८] योग और कपाय की प्रवृति प्रायः साय ही होती है। दोनों के लिए एक शब्द का प्रयोग किया जाय तो 'लेश्या' शब्द का प्रयोग किया जा सकता है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि जैसी लेश्या होगी, वैसा ही कर्म वैवेगा।
' असंवृत अनगार थोड़े प्रदेश वाले कर्म-दलिकों को बहुप्रदेशी दलिक बना लेता है। प्रदेश बंध योग से होता है और असंवृत अनगार में अशुभ योग विद्यमान रहता है ।
असंवृत अनगार असातावेदनीय कर्म का बार-बार उपचय करता है। यहाँ यह आशंका की जा सकती है कि असातावेदनीय कर्म, सात कमों के अन्तर्गत वेदनीय कर्म में आ गया है । फिर उसे अलग क्यों कहा गया ?
इसका उत्तर यह है कि असंवृत अनगार अत्यन्त दुःखी होता है, यह प्रकट करने के लिए असातावेदनीय कर्म का पृथक् उल्लेख किया है। इससे यह शिक्षा मिलती है कि साता से बचने के लिए असंवृतपन का त्याग करना चाहिए । . यह सब वर्णन असंवृत अनगार को लक्ष्य करके किया गया है।जो पुरुष. साधु होकर भी सुख की भ्रान्ति से पासव में प्रवृत होता ह, उसके लिए शास्त्र कहता है-तू आस्रव की प्रवति में मत पड़ । ऐसा करेगा तो दुखी होगा। संसार के 'सुख की लालसा मिटने से पाप मिटता है। लेकिन आश्चर्य तो यह है कि संसार के सुख को दुख रूप समझ लेने पर भी उसकी लालसा नहीं मिटती! इसी भ्रमणा के कारण पाप में पड़ना पड़ता है। उदाहरण के लिए अफीम समझिए। अफी. मची सुख के लिए अफीम खाता है और समझता है कि मैं इस पर माधिपत्य रक्खूगा लेकिन अफीम उसी पर कब्जा
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[ ५४५] .
असंवृत अनगार कर लेती है और वह उसके अधीन होकर दुःखी वन जाता है। जूआ, वेश्या सेवन आदि दुर्व्यसनों में भी सुख की लालसा से ही प्रवृत्ति की जाती है, लेकिन जुआरियों और वेश्यागामियों का जीवन स्पष्ट बतलाता है कि वे किस बुरी तरह आपदानों में पड़कर घोर दुःख के भागी होते हैं । • उनकी विवेक हीन प्रवृत्ति सुख के बदले दुःख के पहाड़ उसके सिर पर पटक देती है । श्रतएव सुख की भ्रमणा में पड़कर दुःख के कारण भूत असंवृतपन को अंगीकार करना घोर अज्ञान है । उससे यत्न पूर्वक साधुओं को सदा बचते रहना चाहिए।
यह वर्णन करके भगवान् ने अानव-द्वार की प्रवृत्ति से डराया है। क्या भगवान् डराते हैं ? वे अभयंकर होते हैं । वे भय को भंजन करते हैं। मगर मुनि के निमित्त से कोई भयभीत हो जाय तो मुनि को प्रायश्चित्त लगता है। फिर भगवान् ने क्यों डराया है ? यह प्रश्न किसी को उठ सकता है। मगर देखना यह चाहिए कि भगवान् का वास्तविक उद्देश्य क्या है ? भगवान् ने किन बातों से डराया है ? धर्म से डराने
और पाप से डराने में बहुत अन्तर है । भगवान् ने यह सूत्र पाप से डराने के लिए कहे हैं, जिससे सामान्य लोग पाप से दूर रहें और अकल्याण से बच जाएँ । वस्तु के स्वरूप का यथातथ्य वर्णन कर देना दोष नहीं है और करुणा भाव से ऐसा करना महान् गुण है ! यह वर्णन असंवर से डराने वाला होते हुए भी सच्ची निर्भयता का कारण है, संसार के भयों से छुड़ाने वाला है, दुःखों से बचाने वाला है और परम कल्याण का कारण है । इस वर्णन का असली उद्देश्य अंसाधुता से बचाना है। श्रतएव यह दोषपूर्ण नहीं है, वरन्
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श्रीभगवती सूत्र
[५४६] चतुर और करूणावान् वैद्य द्वारा प्रयुक्त चिकित्सा के समान मंगल-साधन करने वाला है।
भगवान् कहते हैं-~गौतम! असंवृत अनगार अपार संसार रूपी अरण्य में भ्रमण करेगा । गौतम स्वामी ने भगवान् से पूछा था कि असंवृत अनगार क्या मोक्ष जाएगा? उसका उत्तर भगवान् ने दिया-नहीं, वह अपार संसार में भ्रमण करेगा।
क्या गौतम स्वामी को यह मालूम नहीं था कि असाधु मोक्ष नहीं जाते ? अगर मालूम था तो भगवान् से उन्होंने किस लिए पूचा १ कुछ लोगों का कथन था कि चारित्र-भ्रष्ट भी मोक्ष जा सकता है। जो लोग चारित्र-भ्रष्ट । को भी मोक्ष मानते थे, उन्हें चारित्र का महत्त्व बताने के लिए, यह बात स्वयं न कह कर भगवान् के मुख से कहलाई है। अगर गौतम स्वामी स्वयं ही कह देते तो भी हमारे लिए यह वात मान्य ही होती, तथापि उसे विशेष प्रभाव शाली बनाने के लिए उन्होंने संपूर्ण-ज्ञानी भगवान् से कहलाना ही उचित समझा।
असंवृत अनगार जिस संसार में भ्रमण करता है, उसके लिए भगवान् ने प्रणाइयं, अण्वयग्गं और दीहमद्धं श्रादि विशेषण लगाये हैं। इन विशेपणों का अर्थ क्या है, यह संक्षेप में वतलाया जाता है।
पहला विषेशण 'श्रणाइयं' है। अणाइयं का अर्थ है अनादिकं अर्थात् जिसकी आदि न हो । दूसरा अर्थ हैअशातिर्क-जातिहीन अर्थात् जिसका कोई स्वजन नहीं रहता, ऐसे पापकर्म वाँधता है। तीसरा अर्थ है-ऋणातीतम् ।
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[५४७]
असंवृत अनगार अर्थात् ऋण से होने वाले दुःख की अपेक्षा भी अधिक दुःखदायी। जिसके सिर पर ऋण होता है, उसे शान्ति नहीं मिलती । कहावत है-'ऋणकर्ता पिता शत्रुः' अर्थात् ऋण (कर्ज) करने वाला पिता अपने पुत्र का शत्रु है। जिस पर ऋण होता है, उसे घोर दुःख होता है। उसकी स्थिति सदैव विगड़ी रहती है। वह घड़ी भर चैन नहीं लेने पाता। सदा संताप एवं प्रशान्त के कारण ऋणी को बड़ी व्यग्रता रहती है। अतएव यहाँ संसार का 'अपाइयं' विशेषण ऋणातीतम् है, जिसका अर्थ है-ऋण के दुःख से भी अधिक दुःख वाला। ऐसे संसार में असंवृत अनगार को भ्रमण करना है।
अपाइयं का चौथा अर्थ है-श्रणातीतम् । 'अण' का अर्थ 'पाप' है और प्रणातीत का अर्थ है-अतिशय पाप । सारांश यह है कि संसार में पाप तो अनेक है, मगर साधु होकर श्रास्रव का सेवन करना सब पापा से बढ़ कर पाप है, इसलिए असंवृत अनगार अतिशय पापरूप संसार में भ्रमण करता है।
संसार का दूसरा विशेषण है-श्रणवयग्गं । यहाँ 'अचयग्ग' शब्द देशी प्राकृत भाषा का है, जिसका अर्थ होता हैअन्त । इसमें निषेध वाचक 'श्रण लगा देने से 'श्रणवयग्ग' शब्द बना है । 'अणवयग्ग' का अर्थ अनन्त है।
अथवा 'अवयग्ग 'शब्द का अर्थ है जिसका अन्त समीप हो । उसमें निषेधवाची 'अण' लगा देने से यह अर्थ होता है जिसका अन्त समीप न हो।
. अथवा-'अणवयग्गं' का अर्थ 'अनवताग्रम् ' है। जिसका परिमाण ज्ञात न हो, जिसके अन्त का पता न चले, वह 'अनवतार' कहलाता है।
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श्री भगवती सूत्र
[Yes]
तीसरा विशेषण - ' दीहमद्धं ' है । अव का अर्थ मार्ग है, और दीह का अर्थ दीर्घ ( लम्बा ) है । जिसका मार्ग लम्बा हो, वह 'दीहमद्ध' कहलाता है । अथवा दीर्घकाल वाले को 'दीमद्ध' कहते हैं ।
चौथा विशेपण 'चाउरंत' है । चाउरंत का अर्थ हैचार विभाग वाला | देवगति, मनुष्यगति, तिर्यञ्चगति श्रीर नरकगति, इस प्रकार चार विभाग जिसमें हैं वह (संसार) चाउरंत ( चातुरन्तक ) कहलाता है ।
इस प्रकार के विशेषणों वाले संसार- कान्तार में अर्थात् भव-वन में असंवृत अनगार बार-बार परिभ्रमण करता है ।
इस लव का आशय यह है कि असंवृत अनगार ऐसे संसार रूपी वन में भ्रमण करता है, जिसमें दुःख ही दुःख है, जिसके अन्त का कोई प्रमाण नहीं है, जिसकी समाप्ति का पता नहीं है, जिसका मार्ग लम्बा है और जिसके चार गति रूप चार विभाग हैं ।
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संवृत अनगार सम्बन्धन प्रचन्ह
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मूलपाठप्रश्न-संवुडे णं भंते ! अंणगारे सिझइ, जाव-सव्वदुक्खाणं अंत करेइ ?
उत्तर-हंता, सिन्झइ, जाव- अंतं करे।
प्रश्न-से केणटेणं ?
उत्तर-गोयमा ! संवुडे अणगारे श्राउयवज्जाश्रो सत्तकम्मपगडीयो धणियबंधणबद्धाओ सिढिलबंधणबद्धाश्रो पकरेइ, दहिकालट्ठियारो हस्सकालट्ठियारो पकरेइ, तिव्वाणुभावाओ मंदाणुभावात्रो पकरेइ, बहुप्प
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श्रीभगवती सूत्र
[५५०] एसग्गाश्रो अप्पपएसग्गाश्रो पकरेइ, आउयं च णं कम्मं ण बंधइ । असायावेयणिज्जं च णं कम्मं नो भुज्जो सुज्जो उवचिणइ । अणादीयं चणं अणवदग्गं, दीहमद्धं, चाउरंतसंसारकतारं वीईवयइ, से तेणटणं गोयमा ! एवं वुच्चइ"संवुडे अणगारे सिज्झइ जाव अंत करेइ।
संस्कृत-छाया–प्रश्न-संवृतो भगवन् ! अनगारः सिद्ध्यति, यावत् सर्वदुःखानामन्तं करोति ?
उत्तर---इन्त, सिद्ध्यति यावत्-अन्तं करोति । .
प्रश्न .. तत् केनान?
उत्तर----गौतम ! संवृतोऽनगार आयुर्वर्णाः सप्तकर्मप्रकृति: गाढ़बन्धनबद्धाः शिथिलबन्धनबद्धाः प्रकरोति, दीर्घकालस्थितिकाः हृस्वकालस्थितिकाः प्रकरोति, तीव्रानुभावा मन्दानुभावा प्रकरोति, बहुप्रदेशामा अल्पप्रदेशाग्राः प्रकरोति, आयुष्कं च कर्म न बध्नाति । असातावेदनीयं च कर्म नो भूयो भूयः उपचिनोति । अनादिक चानवनता, दीर्घाध्वं चातुरन्तसंसारकान्तारं व्यतिवनति । तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते संवृतोऽनगारः सिद्ध्यति यावद् अन्तं करोति।
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[ ५५१ ]
संवृत अनगार
मूलार्थ - प्रश्न - भगवन् ! संवृत अनगार सिद्ध होता है ? यावत् सव दुःखों का अन्त करता है ?
उत्तर - हाँ, सिद्ध होता है, यावत् सब दुःखों का करता है ।
प्रश्न -सो किस हेतु से भगवन् !
उत्तर - गौतम ! संवृत अनगार आयु को छोड़ कर सात गाढ़ी बांधी हुई कर्म - प्रकृतियों को शिथिल बंध वाली " करता है, दर्घिकालीन स्थिति वाली प्रकृतियों को अल्पकालीन स्थिति वाली बनाता है, तीव्र फल देने वाली प्रकृतियों को मन्द फल देने वाली बनाता है, बहुत प्रदेश बाली प्रकृतियों को अल्प प्रदेश बाली बनाता है । आयुष्य कर्म का बंध नहीं करता है । तथा सातावेदनीय कर्म का बार-बार उपचय नहीं करता है । इस लिए अनादि, अनंत लंबे मार्ग वाले, चातुरन्तक चार प्रकार की गति वाले - संसार रूपी वन का उल्लंघन करता है । इस लिए हे गौतम ! संवृत अनगार सिद्ध होता है यावत् सत्र दुःखों का अन्त करता है, ऐसा कहा जाता है ।
"
व्याख्यान - असंवृत अनगार के विषय में कहा जा चुका है । प्रस्तुत प्रश्नोत्तर में संवृत अनगार की चर्चा की गई है । वद्वार का निरोध करके संवर की साधना करने
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श्रीभगवती सूत्र
[ ५५२ ]
वाला मुनि संवृत अनगार कहलाता है। गौतम स्वामी पूछते हैं - भगवन् ! संवृत अनगार सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होता है और निर्वाण पाता है ? गौतम स्वामी के इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने कहा- हाँ गौतम ! पाता है ।
संवृत अनगार छठे गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान तक होते हैं। छठे गुणस्थानवत्ती प्रमत्त और सातवें से चौदहव गुणस्थान तक के श्रप्रमत्त होते हैं । यहाँ किस गुणस्थानवती लंवृत अनगार से प्रयोजन है ?
इस सम्बन्ध में कहा गया है-संवृत अनगार चरमशरीरी और श्रचरमशरीरी के भेद से दो प्रकार के हैं । जो दूसरा शरीर धारण नहीं करेंगे वह चरमशरीरी कहलाते हैं । जिन्हें दूसरी देह धारण करनी पड़ेगी वह अचरमशरीरी हैं । गौतम स्वामी और भगवान् के यह प्रश्नोत्तर चरमशरीरी की अपेक्षा से हैं । श्रचरमशरीरी के विषय में नहीं हैं । इस के लिए एक सूत्र की दो गति करनी चाहिए- एक परम्परा और दूसरी साक्षात् । अर्थात् साक्षात् - इसी भव से सिद्धि होगी और परम्परा से अगले किसी भव में सिद्धि प्राप्त होगी चरमशरीरी इसी भव से मोक्ष जाएँगे अतएव यह सूत्र उन पर साक्षात् रूप से लागू होता है । अचरमशरीरी सात श्राठ भव में मोक्ष जाएँगे, अतएव उनके लिए परम्परा ले सिद्धि • होगी, ऐसा समझना चाहिए ।
इस समाधान से एक प्रश्न नया उपस्थित होता है । वह यह कि परम्परा से तो शुक्लपक्षी असंवृत अनगार भी मोक्ष प्राप्त करेंगे। फिर संत और असंवृत अनगार का भेद करने से क्या लाभ है ?
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श्रीभगवती सूत्र
[५५६] मुह-पट्टणाऽऽसम-सण्णिवेसेसु अकामतबहाए, अकामछुहाए, अकामवंभचेरवासेणं, अकामसीताऽऽतव-दसमसग-अकामश्रण्हाणग-सेय-जलमल-पंक-परिदाहणं, अप्पतरो वा भुजतरो वा कालं अप्पाणं परिकिलेसंति, अप्पाणं परिकिले सित्ता कालमासे काल किच्चा. अन्नयरस वाप मंतरसु, देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवति ।
संस्कृत छाया-प्रश्न-जीवो भगवन् ! असंयतः, अविरतिकः, अप्रतिहतप्रत्याख्यात पापकर्मा, इतरच्युतः प्रेत्य देवः स्यात् ?
उत्तर-गौतम ! अस्ति एकको देवः स्यात् , अस्ति एकको नो देवः स्यात् । ।
प्रश्न-तत्केनार्थेन, यावद-इतव्युतः प्रेय अस्त्येकको देवः स्यात् , प्रत्येकको नो देवः स्यात् ।
सर-
ख-पटना
उत्तर-गौतम ! ये इमे जीवा ग्रामाऽऽकर-नगर-निगम-राजधानी-खेट-मडम्ब-द्रोणमुख-पट्टनाऽऽ-श्रम-सन्निवेशेषु, अकामतृषा, श्रकामक्षुधा, अकामब्रह्मचर्यवासेन, अकामशीताऽऽतप-दंशमशक-श्रका. मश्रस्नानक-स्वेद-जल्ल-मल-पङ्कपरिदाहेनाऽल्पतरं वा भूयस्तरं वा काल मात्मानं परिक्लेशयन्ति, श्रात्मानं परिक्लेश्य - कालमासे कालं कृत्ला
कामनाक छेद-जन आत्मानं परिबन
मशीता
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[ ५५७ ]
श्रन्यतरेषु वानव्यन्तरेषु देवलोकेषु देवतया उपपत्तारो भवन्ति ।
मूलार्थ - प्रश्न – हे भगवन् ! असंयत, अविरत और पापकर्म का हनन तथा त्याग न करने वाला जीव इस लोक से चयकर - मर कर - परलोक में देव होता है ?
संवृत अनगार
'
उत्तर - गौतम ! कितनेक देव होते हैं, कितनेक देव नहीं होते ।
प्रश्न- भगवन् ! यहाँ से चयकर यावत् पूर्वोक्त जीव, कोई देव होते हैं, कोई देव नहीं होते, इसका क्या कारण है ?
उत्तर - गौतम ! जो जीव ग्राम, आकर, नगर, निगम, राजधानी, खेट, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमुख, पट्टन, आश्रम तथा सन्निवेश में अकाम तृपा से, अकाम क्षुधा से,
काम ब्रह्मचर्य से काम शीत आतप तथा डांस-मच्छरों के काटने के दुःख को सहन करने से, काम अस्नान, पसीना, जल्ल, मैल तथा पंक (कीचड़ ) से होने वाले परिदाह से, थोड़े समय तक या बहुत समय तक अपने आत्मा को क्लेशित करते हैं। वे आत्मा को क्लेशित करके, मृत्यु के समय मर कर वान- व्यन्तर देवलोकों के किसी देवलोक में, देव रूप से उत्पन्न होते हैं ।
व्याख्यान - गौतम स्वामी ने असंवृत और संवृत
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श्री भगवती सूत्र
{ ५५८ ]
अनगार की गति के सम्बन्ध में प्रश्न किये और भगवान् ने उन प्रश्नों के उत्तर भी दिये। लेकिन संमार में और भी जीव हैं जो संवृत या असंवृत अनगार नहीं हैं। वे असंयत और - अविरत कहलाते हैं । वे इस भव के पश्चात् देवगति में जाते हैं या नहीं ? यह गौतम स्वामी का प्रश्न है ।
इस प्रश्न का अभिप्राय यह है किं मनुष्य गति मिलना कठिन है, लेकिन देवगति का मिलना उतना कठिन नहीं है । इसी अभिप्राय से गौतम स्वामी ने प्रश्न किया है कि-भगवन् ! जो जीव असंयत हैं, असाधु हैं, वे यहाँ से मर कर देवगति प्राप्त करते हैं ? असंयम वाला सम्यग्दृष्टि भी हो सकता है, इसलिये यहाँ स्पष्ट कर दिया है कि जिसने प्राणातिपात आदि के व्रत - प्रत्याख्यान नहीं धारे हैं । अथवा 'वि' अर्थात् विशेष प्रकार की 'ते' अर्थात् तल्लीनता होना, तात्पर्य यह कि जिसमें तप आदि के प्रति विशेष तल्लीनता नहीं है, वह अविरत कहलाता है ।
जिसने भूतकालीन पाप को निन्दा गर्दा आदि के द्वारा दूर कर दिया हो वह प्रतिहत-पाप-कर्मा कहलाता है । जिसने भविष्यकालीन पापों का त्याग कर दिया हो वह प्रत्याख्यात - पापकर्मा कहलाता है । यहाँ पाप से हिंसा, असत्य, चोरी आदि अठारह पाप समझने चाहिए । जो मनुष्य पाप-कर्मों को प्रतिहत और प्रत्याख्यात नहीं करता अर्थात् जो भूतकाल के पापों की आलोचना नहीं करता और भविष्य के पापों का त्याग नहीं करता, वह अप्रतिहतप्रत्याख्यात पापकर्मा कहलाता है ।
प्रश्न में 'अस्संजए अविरइए ' पाठ श्राया है। इसका
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[५५६]
संवृत अनगार. अर्थ है, जिसने संयम धारण नहीं किया और जिसने तपविशेष को नहीं अपनाया है।
यहाँ शंका हो सकती है कि जब असंयमी कह दिया था, तब अविरत कहने की क्या आवश्यकता थी? इसका उत्तर यह है कि वर्तमान काल के पाप का निरोध न करने वाले का बोध कराने के लिए अविरत शब्द का प्रयोग किया है।
एक प्राचार्य इन शब्दों का अर्थ दूसरा लेते हैं । उनके मत के अनुमार मरणकाल से पहले तप श्रादि द्वारा जिसने पाप का नाश न किया हो, वह अप्रतिहत पापकर्मा कहलाता है। और मृत्युकाल आजाने पर भी पाप का नाश न करने वाला अप्रत्याख्यातपापकर्मा है । तात्पर्य यह है कि जिसने न मृत्यु से पहले पापों का त्याग किया, न मृत्यु आने पर ही त्याग किया, वह अप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा कहलाता है। '
अप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा का एक अर्थ और भी लिया जाता है । जिसने सम्यग्दर्शन की प्राप्ति करके पापकर्मों को नष्ट नहीं किया वह अप्रतिहतपापकर्मा कहलाता है । शुद्ध श्रद्धा धारण करना, पूर्व के पापों का नाश करना कहलाता है। और सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाने पर सर्वचिरति श्रादि अंगीकार करके पाप-क्रमों का निरोध न करने वाला अप्रत्याख्यातपायकर्मा कहलाता है । इस प्रकार जिसने न सम्यक् श्रद्धा धारण की और न व्रत धारण किये वह अप्रतिहत-प्रत्याख्यातपापकर्मा कहलाता है।
गौतम स्वामी पूछते है-एसा जीव यहाँ से मरकर
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श्री भगवती सूत्र
[५६०] देवता होता है ? 'यहाँ से मरकर' का अर्थ होगा-जहाँ यह प्ररूपणा की जा रही है, वहाँ से चलकर । यह प्ररूपणा मध्यलोक में की जा रही है और मध्यलोक में प्रायः मनुष्यतिर्यंच होते हैं । इसलिए यहाँ से' का अर्थ मनुष्यगति से और तिर्यंचगति से, समझना चाहिए । तात्पर्य यह कि ऐसा जीव मनुष्यगति और तिर्यंचगति से च्युत हो कर क्या देवता होता है? .
गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर में भगवान कहते हैंगौतम ! ऐसे जीव कोई कोई देवता होते हैं और कोई-कोई देवता नहीं होते।
___यहाँ तृष्णा-विजय की बात कही है। लाधु अथवा श्रावक होकर संयम और व्रत जैसी कल्याणकारी वस्तु के बदले में तुच्छ वस्तु की अभिलाषा करना उचित नहीं है। देवयोनि मिलना बड़ी बात नहीं है। वह तो मिथ्यादृष्टि को भी मिल जाती है। अतएव इस प्रश्नोत्तर द्वारा यह भी सूचित किया गया है कि स्वर्ग की कामना मत करो। स्वर्ग तो मिथ्यादृष्टि और पशु भी पा सकते हैं । इस कथन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि जब देवलोक का ऐश्वर्य भी. तुच्छ है तो मनुष्यलोक का वैभव कब उत्कृष्ट होगा? - गौतम खामी फिर प्रश्न करते हैं जिनका मिथ्यात्व नहीं छूटा है, उन असंयतियों में से कोई देवता होता है और कोई नहीं, इसका क्या कारण है?
इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् कहते हैं। इस उत्तर में अनेक स्थानों के नाम आयें हैं । उनका अर्थ यह हैं:
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[ ५६१ ]
संवृत, अनगार
ग्रामः - जहाँ थोड़ी बुद्धि वाला और बहुत बुद्धि वालादोनों प्रकार के मनुष्य रह सकते हों, वह ग्राम कहलाता है । एक जगह एक टीका में लिखा है कि जहाँ बसने से बुद्धि नष्ट होजाय, वह ग्राम है। मगर ग्राम का यह अर्थ उपयुक्त नहीं जँचता, क्योंकि अधिकतर मस्तिष्कशक्ति की उत्पत्ति ग्रामों में ही होती है। असली तत्त्व ग्रामों में ही हैं । नागरिक लोग, ग्रामों में उत्पन्न पदार्थ ही खाते हैं। आम तौर पर यह खयाल किया जाता है कि नगर के लोग चतुर होते हैं । लेकिन कच्चा लोहा खान से निकलता है और शाण पर चढ़ने से वह तीक्ष्ण हो जाता है, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह शाण पर चढ़ा लोहा वहीं बना है। इसी प्रकार नगर में बुद्धि का संघर्ष होता है, इस कारण नगर निवासियों की बुद्धि में तीक्ष्णता आ जाती हैं, मगर बुद्धि की उत्पत्ति ग्रामों में ही होती है ।
आकर-खदान को 'आर' कहते हैं । जहाँ लोहा यदि धातुएँ निकलती हैं, वह भूभाग आकर कहलाता है ।
नगर-नं कर अर्थात् जहाँ कर (टेक्स) न लगे, वह स्थान नगर है । श्राज़ नगरों पर खूब कर लग गया है और नवीन नवीन कर लगते जाते हैं, मगर प्राचीन काल में नगरों पर कर नहीं थे। इसलिए नगरों में खूब क्रय-विक्रय होता था और नागरिक लोग ग्रामीणों की भी सार - सँभाल कर सकते थे । श्राज के नागरिकों पर इतना वोझ लदा है कि उन्हें अपनी ही सुध-बुध नहीं है । वे ग्राम्य जनता की क्या सुध ले सकेंगे !
निगम -- जहाँ व्यापारी अधिक निवास करते हो, इस
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श्रीभगवती सूत्र
! ५६२] यस्ती का नाम निगम है। अर्थात् जहाँ माल का आना-जाना बना रहता हो और व्यापार खूब होता हो, वह निगम कहलाता है।
राजधानी-जहाँ स्वये राजा स्थायी रूप से रहता हो, वह राजधानी है। ___ खेट-जिस छोटी वस्ती के चारों ओर घूल का कोट हो उसे खेट या खेड़ा कहते हैं।
कर्बट-कुत्सित नगर कर्वट कहलाता है। जिसकी गणना न ग्राम में की जा सके, न नगर में ही, वह कर्वट है। जैसे आजकल के कस्बे
मडम्ब-जिस वस्ती के समीप दूसरी वस्तीन हो, जिससे दूसरी वस्तियाँ दूर हों, वह मडम्ब है। दूर का अर्थ यहाँ हाई कोस लिया मंया है।
द्रोणमुख--जहाँ के लिये जलमार्ग भी हो और स्थलमार्ग भी हो, वह वस्ती द्रोणमुख कहलाती है।
. पहन--पाटन । जहाँ देश देशान्तर से आया हुश्रा माल उतरता है, उसे पट्टन कहते हैं। पट्टन दो प्रकार के होते हैंजलपट्टन,और स्थल-पट्टन । जो जल के बीच में या किनारे पर वसा हो वह जलपट्टन और जो स्थल में हो-जहाँ स्थलमार्ग से पाया माल उतस्ता हो, वह स्थल पट्टन है। जहाँ सव प्रकार के हाथी, घोड़े, राय आदि बहुमूल्य पदार्थ विकते हो.. उसे भी पट्टन कहते हैं।
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[५६३] . संवृत अनगार
आश्रम---जिल स्थान पर कंदमूल, फल, फूल खाने चाले तापस रहते हों, वह आश्रम कहलातर है।। - सन्निवेश--जहाँ दूध, दही, बेचने वाले लोग रहते हो, वह सन्निवेश कहलाता है। उसे घोष भी कहते हैं।
. भगवान् कहते हैं कि इन स्थानों में से किसी भी स्थान में रहता हो, मगर जो अकास विजय करता है, वह देव होता है।
अकाम निर्जरा का साधारण अर्थ है-विना इच्छा के लिर्जरर करना-अर्थात् भूखों, प्यासों मरना। लेकिन यहाँ यह अर्थ संगत नहीं है। मोक्ष प्राप्ति के योग्य निर्जरा की अभिलाषा नहीं होना अकाम निर्जरा है। और मोक्ष प्राप्ति की कामना से जो निर्जरा की जाती है, वह सकाम निर्जरा कहलाती है। मुझे स्वर्ग प्राप्त हो जाय, या मेरा अमुक लौकिक कार्य सिद्ध हो जाय, इस भावना से भूखा रहना, प्यासा रहना, कष्ट भोगना, यह सव सकाम निर्जरा नहीं है। अभिलाषा किये बिना भी फल की प्राप्ति हाती है, अतएव अभिलाषा करने की आवश्यकता नहीं है। यही नहीं, परन् अभिलाषा न करने से हजारगुना अधिक फल होता है। अतएव चाह करना, फल में न्यूनता उत्पन्न कर लेना है।
हे गौतम! असंयमी, अविरत और मिथ्यादृष्टि कहीं भी रहता हो, अगर वह अकाम निर्जरा करता है; अन्न के अभाव में नहीं वरन् अन्न होते हुए भूखा रहता है, वह देवयोनि प्राप्त करता है। . अज्ञानपूर्वक की जाने वाली निर्जरा अकामनिर्जरा है और ज्ञानपूर्वक की जाने वाली सकामनिर्जरा है।
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श्रीभगवती सूत्र
[ ५६४ ]
जिसे सम्यग्ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ, वह पूर्वोक्त स्थानों में से किसी में भी रहता हुआ मिध्यादृष्टि पुरुष निर्जरा श्रादि की अभिलाषा से रहित काम तृषा सहन कर रहा है । वह भूखा रहता है, मगर अकाम अर्थात् धर्म भावना से नहीं । स्त्रीसमागम नहीं करता है, मगर यों ही बिना किसी प्रयोजन के । ब्रह्मचर्य पालने का उसका अभिप्राय कुछ नहीं है । वह धर्म समझकर ब्रह्मचर्य का पालन नहीं करता, मगर स्त्री होते हुए भी लज्जा आदि के कारण समागम नहीं करता और ब्रह्मचर्य रखता है । यह काम ब्रह्मचर्य है । वह रात्रि में ऐसे स्थान पर रहता है जहाँ स्त्री से भेंट न हो, वह श्रकाम ब्रह्मचर्यवास कहलाता है ।
इस काम ब्रह्मचर्य के लिए या यों ही स्नान नहीं' करता है, स्वेद ( पसीना ) जल्ल, मल आदि सहन करता है । यह सब अकामनिर्जरा है ।
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स्वेद का अर्थ है - पसीना । पसीने पर जो रज लग जाती है वह जल्ल कहलाती है। जल्ल का जम जाना मल है । इन सब कष्टों को सहन करना मगर धर्मभाव से निर्जरा के लिए नहीं - वह श्रकामनिर्जरा है। इस प्रकार थोड़े काल तक या बहुत काल तक वह आत्मा को क्लेश पहुँचाता है, फिर भी उसके इन कार्यों से मोक्ष प्राप्त नहीं होता । इस अकामनिर्जरा के कारण वह वान-व्यन्तर आदि देव के भव में जाकर जन्म लेगा ।
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यहाँ एक मिध्यादृष्टि के विषय में ही प्रश्नोत्तर है। उववाई सूत्र में विस्तारपूर्वक वर्णन है। यहाँ सामान्य रूप से, निर्जरा की इच्छा न रखने वाले और दुःख पड़ने पर अच्छे
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[ ५६५ ]
संवृत अनगार
परिणाम रखने वाले का ही वर्णन किया है, लेकिन आगे कहा जायगा कि अकाम निर्जरा नौवें ग्रैवेयक विमान तक होती है। कई ज्ञानी सकाम निर्जरा वाले भी देवलोक में जाते हैं और कई मिथ्यात्वी अकामनिर्जरा वाले भी देवलोक में जाते हैं। इन दोनों के देवलोक में जाने में क्या अन्तर है. यह बताने के लिए कहा है कि काम निर्जरा वाले वान-व्यन्तर देव भी होते हैं और काम निर्जरा वाले. परलोक की उत्तम से उत्तम स्थिति प्राप्त करके मोक्ष की भी आराधना कर सकते हैं।
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छान-मान्तरों का (स्थान)
मूलपाठप्रश्न-केरिसा णं भंते ! तेर्सि वाणमंतराणं देवाणं देवलोया पण्णत्ता ?
उत्तर-गोयमा ! से जहानामए इह मणुस्सलोगम्मि असोगवणे इ वा, सत्तवण्णवणे इवा, चंपयवणे इ वा, चूयवणे इ वा, तिलगवणे इ वा, लाउवणे इ वा, निग्गोहवण इ वा, छत्तोहवणे इ वा, असणवणे इ वा, सणवणे इ वा, अयसिवणे इ वा, कुसुंमवणे इ वा, सिद्धत्थवणे इ वा, बंधुजीवगवणे इ वा, णिच्चं कुसुमिय, माइय, लवइय, थवड्य, गुलुइय, गोच्छिय,जमलिय,जुवलिय, विणमिय, पणमिय,
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[ ६७ ] .
व्यन्तरों के स्थान
सुविभत्तपिंडिमंजरिवडेंसगधरे सिरीए अतीव अतीव २ उवसोभमाणे चिट्ठइ, एवामेव तेसिं वाणमंतराणं देवाणं देवलोगा जहराणेणं दसवाससहस्सट्टितीए हैं, उक्को सेणं पलियोवमट्ठिती एहिं, बहूहिं वाणमंत रेहिं देव हैं, तद्देवीहि य इण्णा, विकिण्णा, उवत्थडा, संथडा, फुडा, श्रवगाढगाढा, सिरीए अतीव प्रतीव उवसोभैमाणा उवसोभमाणा चिति । एरिसगा णं गोयमा !. तेसिं च वाणमंतराणं देवाणं देवलोत्रा पन्नत्ता, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइजीवे णं असंज जाव - देवे सिया |
"
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संस्कृत - छाया प्रश्न - कीदृशा भगवन् ! तेपां वानव्यन्तराणां देवानां देवलोकाः प्रज्ञप्ता: ?
उत्तर - गैतम ! तद् यथा नाभे मनुष्यलोके अशोकवनं वा, सप्तपर्णवनं वा, चम्पकवनं वा, चूतवनं वा, तिलकवनं वा, अलाबुवनं वा, न्यग्रोधवनं वा, छत्रीधनं वा प्रसनवनं वा, शावनं वा, श्रतसिवनं वा, कुसुम्भवनं वा, सिद्धार्थवनं वा, बन्धुजीवकत्रनं वा, नित्यं कुसुमितं, मयूरितं, लवक्तिम्, स्तत्रकितम्, गुल्मकितम्,
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श्रीभगवती सूत्र
[५६८ ] गुच्छितम् , यमलितम्, युगलितम्, विनमितम्, प्रणमितम्, सुविभक्तपिण्डी-मञ्जयवतंसकधरं श्रिया अतीवातीवोभशोभमानम्-उपशोभमानं तिष्ठति, एवमेव तेषां वानव्यन्तराणां देवानां देवलोका जघन्येन दशवर्षसहस्रस्थितिकः, टस्कृष्टेन पल्योपमस्थितिकैर्वहुमि नव्यन्तरेदेवैः तद्देवीभिश्च श्राकीर्णाः, विकीर्णाः, उपरतीर्णाः संस्तार्णाः, स्कूटाः, अवगादगाढ़ाः, चिया अतीवातीवोपशोभमाना उपशोभमानास्तिष्टन्ति । ईशा गौतम! तेषां च वानव्यन्तरदेवानां देवलोकाः प्रज्ञप्ताः, तत तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-जीवोऽसंयतो यावद-देवः स्यात् ।
मूलार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! उन वान-व्यन्तर देवों के देवलोक किस प्रकार के कहे गये हैं ?
उत्तर-हे गौतम ! जैसे यहां मनुष्यलोक में सदा फूला हुआ, मंयूरित-पुष्प-विशेष वाला-मौर वाला, लवकितकॉपलों वाला, फूलों के गुच्छों वाला, लता-समूह वाला, पत्नों के गुच्छों वाला, यमल-समान श्रेणी के वृक्षों वाला, युगल वृत्तों वाला, फल-फूल के भार से नमा हुआ, फल'फुल के भार से नमने की शुरुआत वाला, विभिन्न प्रकार की बालों और मंजरियों रूपी मुकुटों को धारण करने वाला, अशोकवन, सप्तपर्णवन, चम्पाका वन, आमोंका वन. तिलक वृक्षों का वन, तूंचे की लताओं का वन, वड़ वृक्षों का वन, छत्रौध वन, अशन वृक्षों का वन, सन का वन, अलसी के पौधों का वन, कुसुंब वृक्षों का वन, सफेद सरसों
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[ ५६९ ]
व्यन्तरों के स्थान
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का वन तथा दुपहरिया वृक्षों का चन, अतीव अतीव शोभा से सुशोभित होता हैं, इसी प्रकार वारा व्यन्वर देवों के देवलोक जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति वाले और उत्कृष्ट यल्योपम की स्थिति वाले, बहुत से वाण - व्यन्तर देवों और देवियों से व्याप्त, विशेष व्याप्त, उपस्तीर्ण - एक दूसरे के ऊपर आच्छादित, परस्पर मिले हुए भोगे हुए. या प्रकाश वाले, अत्यन्त श्रवगाढ़, शोभा से अतीव तीव सुशोभित रहते हैं । हे गौतम : वारा व्यन्तर देवों के स्थान, देवलोक इस प्रकार के कहे गये हैं । इस कारण हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि असंयत जीव यावत् देव होता है ।
व्याख्यान - श्रव गौतम स्वामी वाण-व्यन्तर देवों के देवलोक के विषय में प्रश्न करते हैं । व्यन्तरों का देवलोक कैसा है ? वहाँ क्या कोई सुख है ?
इस प्रश्न के उत्तर से पहले यह जान लेना श्रावश्यक हैं कि वारा व्यन्तर देव किन्हें कहते हैं ? इस सम्बन्ध में कहा गया है कि वन विशेष में उत्पन्न होने वाले अर्थात् बसने वाले देव वान-व्यन्तर कहलाते हैं ।
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दूसरे आचार्य के मत से वन में उत्पन्न होने वाले यान कहताते हैं और वन में क्रीड़ा करने वाले व्यन्तर देव कहलाते हैं । चन से यद्यपि फूल - फल भी उत्पन्न होते हैं, मगर यहाँ उनका ग्रहण नहीं करना चाहिए । यहाँ देवयोनि के उन जीवों को ही लेना चाहिए जो यन में उत्पन्न होकर वन में क्रीड़ा करते हैं ?
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श्रीभगवती सूत्र
[६७० वाण व्यन्तरों के स्थान का वर्णन करने के लिए भगवान् ने मनुष्यलोक के वृत्तों के वनों का उदाहरण दिया है। यह आशंका की जा सकती है कि मनुष्यलोक में महल आदि - उत्तम स्थान बहुत से हैं, उनकी उपमा न देकर सिर्फ वनों की उपमा क्यों दी है ? वास्तव में वन की उपमा देने में प्रकृति सम्बन्धी बहुत विचार गर्भित हैं।
अाजकल लोग प्रकृति से बहुत दूर हट गये हैं, इसलिए उन्हें कृत्रिम वस्तु बहुत प्रिय लगती है। लेकिन जिसने प्रकृति का अभ्यास किया है, जिसने प्रकृति के लौन्दर्य की अनुभूति की है, वही प्राकृतिक और कृत्रिम वस्तुओं का भलीभाँति अन्तर समझ सकता है। एक आदमी घाम से । व्याकुल और थका हुआ है। उसे एक ओर कलकल करता.. हुभा निर्भर और उसी के किनारे एक सुन्दर सघन छायादार' वृक्ष मिलता है और दूसरी ओर राजमहल वह किले- पसंद करेगा?
'वृक्ष की छाया को!" · महल के लोभी को चाहे महल प्रिय लगे, लेकिन थके हुए निर्लोभ पंथिक को तो वृक्ष की छाया ही अधिक प्रिय लगेगी । थके हुए को वृक्ष की गोद में जो आनन्द प्राप्त होगा, वह महल की कैद में नहीं हो सकता।
( वृक्ष की छाया में आनन्द प्राप्त होने का एक कारण और भी है। मनुष्य कारवानिक वायु छोड़ता है और वृक्ष उसे ग्रहण करके उसके वदले आक्सीजन वायु छोड़ता है। वृत्त के लिये कारवॉनिक वायु पथ्य है और मनुष्य के लिए
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[५७१]
व्यन्तरों के स्थान
पारसीज़न वायु पथ्य है। मनुष्य आक्सीज़न वायु के बिना जीवित नहीं रह सकता। यह वायु महल से नहीं, वृक्ष से मिलती है। महल, मनुष्य के जीवन को प्रकृति विरोधी बनाता है। इस प्रकार वृन्न की छाया में जो भानन्द है, वह वेचारे महल में कहाँ!
महलों के कारण लोग प्रकृति से इतने दूर जा पड़े हैं कि महल की दीवार पर बने हुए वन के दृश्य तो प्रसत्रता चूर्वक देखते हैं, लेकिन वन को साक्षात् देखना नहीं चाहते। मगर चाहे आप यज को साक्षात् न देखना चाह तथापि दिना चन के चन नहीं है ! इसी कारण वन के चित्र देखने पड़ते हैं। आप प्रकृति से दूर भागना चाहते हैं मगर प्रकृति
आपको अपनी ओर खींच रही है। इसलिए आप नैसर्गिक चन के बदले कृत्रिम बन के चित्र की ओर आकृष्ट होते हैं।
मनुष्य-जीवन के लिए जो वस्तुएँ अत्यन्त उपयोगी हैं, वह महल से नहीं निकलती हैं। बल्कि महल ऐसी वस्तुओं का विनाश करता है। ऐसी वास्तविक वस्तु वन में ही उपजती है । इसलिए वाण व्यन्तर देवा के स्थान की रपमा . चक्रवर्ती के महल से न देजर धन से दी गई है।
भगवान् कहते हैं-गौतम ! वाण-व्यन्तर देवों का स्थान वैसा ही सुशोभित होता है, जैसा सनुन्यलोक में अशोक वृक्ष सावन शोभा देता है।
. भगवान् ने इस उपमा द्वारा यह सृचित किया है कि प्राकृतिक वस्तु जैसी शोभा देती है, कृत्रिम वस्तु वैसी शोभा वहीं दे सकती।
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श्रीभगवती सूत्र
[ ५२ : अशोक वृक्ष को लोकभाषा में प्रासापाला कहते हैं। अशोक वृक्ष की शोभा देखने से मन की चिन्ता और शोक मूल जाता है । असक वृक्ष की उपमा देकर भगवान् ने
और भी अनेक रुपमाएँ दी हैं। जैसे-सप्तपर्ण ( सादड़) के वृक्षों का वन, चम्पा का वन, श्रावन, तिलक वृक्षों का वप, तूंवे की वेलों का वन, वड़ वृक्षों का वन, छत्रौघ का बन, कुसुभ वन, सरसों का वन, प्रशन वृक्षों का वन, लन का वन, अलली का वन, बंधुजीव का वन, यह सब शोभा देते हैं उसी प्रकार वाण-व्यन्तर देवों का देवलोक शोभा देता है। जैसे इन वनों में फल आते हैं, मौर आते हैं, कोपलें आती हैं, फूलों के गुच्छे लगते हैं, यह लता समूह ले व्याप्त होते हैं, इन वृक्षों के धन कतार में खड़े होते हैं, फूलों, फलों और लताओं के भार से झुके होते हैं, उस समय की शोभा अवर्णनीय होती है। ऐसे वन जिस प्रकार सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार वाण-व्यन्तरों के देवलोक सुशोभित होते हैं।
भगवान् ने वन की शोभा देवलोक से. इसी लिए दी है कि वन का सौन्दर्य कृत्रिम नहीं है,प्राकृतिक है। कभी-कभी कृत्रिय वस्तु में सुन्दरता दिखलाई पड़ती है, वह सुन्दरता वास्तव में उस अकृत्रिम वस्तु की ही समझना चाहिए, जिसकी नकल कृत्रिम में उतारी गई है । लेकिन वह सुन्दरता सिर्फ देखने भर को होती है, वह कोई लाभ नहीं पहुँचा सकती। लाभ तो साक्षात् वनश्री ही पहुँचाती है। यदि मंसार में वनस्पति न हो तो मनुष्यों का जीवन कठिन हो जाता । कई लोग अपने भ्रम के कारण समझते हैं कि हमें जंगल भला नहीं लगता और महल सुहावना लगता है। अगर यह सच हो तो महल में रहने वाला क्यों जंगल की
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[.५७३ ]
व्यन्तरों के स्थान शरण लेता है ? शहर में जब प्लेग का प्रकोप होता है, तव लोग कहाँ जाते हैं ?
“जंगलों को।'
उस समय घर में रहने के लिए आपको कुछ रकम दी जाय तो श्राप घर में रहना पसंद करेंगे?
'नहीं!'
और अगर जंगल में रहने की फीस लीजाय, तो आप देंगे या नहीं?
'अवश्य देंगे।'
श्राप लोग.वनावटी के चक्कर में पड़कर अकृत्रिम को भूल रहे हैं, लेकिन प्राकृतिक रचना ही वास्तव में सब प्रकार से सुन्दर ओर लाभदायक है।
वाह्य सुख की अपेक्षा से व्यन्तर देव सुखी है, क्योंकि उन्हें रोग-शोक नहीं होता। मनुष्य लोक के जीव इसलिए सुखी नहीं हैं कि मनुष्य प्रकृति के विरोधी हैं। प्रकृति से विरोध करने वाले को सुख कहाँ ! सुख देने वाली प्रकृति है, मगर वह तभी सुख देती है, जब उसका विरोधन किया जाय ।
भगवान् ने जिस समय वाण-व्यन्तर के देवलोक से इन वनों की उपमा दी, उस समय भारत में खूब वन थे।
और उन वनों में बनुष्य उसी प्रकार विचरते थे, जैसे वाणव्यन्तर अपने देवलोक में विचरते हैं। लेकिन धीरे-धीरे भारतीयजन कृत्रिमता के मोह में फँस गये। परिणाम यह
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श्रीभगवती सूत्र
[ ५७४ ]
हुआ कि वे वन उजड़ गये । श्राज वह घर बड़ा माना जाता है, जिसके यहाँ कोयले जलते हैं। लकड़ी जलने से घर काला हो जाता है, कोयला जलने से काला नहीं होता । कोयलों के लिए हरे-हरे वृक्ष काट लिये जाते हैं, क्योंकि कोयले अधसूखी लकड़ी के बनते हैं । मनुष्य स्वास्थ्यदायक वृक्षों को कटवा डालता है और हवा को रोकने तथा दूषित करने वाले महल खड़ा करता है ।
•
कृत्रिमता स्वयं एक प्रकार का विकार है । श्रतएव मनुष्य कृत्रिमता के साथ जितना अधिक सम्पर्क स्थापित करेगा, उतने ही अधिक विकार उसमें उत्पन्न होते जाएँगे । इसके विपरीत मनुष्य-जीवन में जितनी अकृत्रिमता होगी, उतना ही वह अधिक श्रानन्दमय होगा । पहले मुनि-महात्मा / वन में ही ठहरते थे । प्राम और नगर में सिर्फ भिक्षा के लिए जाते थे, रहते वन में ही थे। वन में उन्हें अद्भुत शान्ति मिलती थी । इसी कारण उनके मस्तिष्क में अपूर्व, उत्तम और हितकर विचार प्रादुर्भूत होते थे ।
•
प्रश्न हो सकता है कि भगवान् वीतराग थे और गातम स्वामी भी केवलज्ञानी के समान थे, उन्होंने वन की सुन्दरता क्यों कही सुनी ? उन्होंने संसार की बातें क्यों कहीं ? गौतम स्वामी ने ऐसा प्रश्न क्यों किया ? और भगवान् ने इस प्रकार की उपमाओं से भरा हुआ उत्तर क्यों दिया ?
भगवान् ने मोह उत्पन्न करने के लिए यह उत्तर नहीं दिया है । उन्होंने अनन्त करुणा से प्रेरित होकर यह बताया है कि मनुष्यो ! बनावटी चीज़ के भे. गोपभोग में उलझ कर प्राकृतिक पदार्थों को मत भूलो प्रकृति के समान सुखदायक
!
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[५७५]
व्यन्तरों के स्थान और कोई वस्तु नहीं है । साथ ही वन के समान जीवन को आनन्दमय बनाने वाला और कोई नहीं है। • हवा प्रायः शहर की ही गंदी होती है। ग्राम की हवा को भी नगर वाले ही दूषित बनाते हैं। नगर की अपेक्षा प्राम कम गंदे होते हैं । आज तो ग्रामीणों ने भी अपना जीवन-क्रम बदल-सा दिया है और ग्रामों में भी गंदगी का प्रवेश हो गया है। मगर कभी आपने यह सुना है कि अमुक वन की हवा बिगड़ी है और नगर की हवा नहीं बिगड़ी है ? अगर कभी किसी. वन की वायु में किसी प्रकार का विकार हुश्रा
भी हो तो वह नगर की ही देन होगी। । .. एक भाई प्रश्न करते हैं कि भगवान् का समवसरण कृत्रिम है या अकृत्रिम ? इसका उत्तर यह है कि उववाइसूत्र में समवमरण का विस्तृत वर्णन है। समवसरण में देव कृत्रिमता प्रकट करते हैं, अन्यथा समवसरण अकृत्रिम ही हैं। ग्रंथों में कहा गया है कि देवकृत तीर्थंकरों का समवसरण भी दो ही वार होता है-एक बार केवलज्ञान उत्पन्न होने के समय और दूसरी बार निर्वाण के लमय । जैसी कृत्रिमता इन समयों पर देव प्रकट करते हैं, उस कृत्रिमता के विना समवसरण झुड़ता ही न हो, सो बात नहीं है। यह आवश्यक नहीं कि अब तांये के कोट आदि हों तभी समवसरण होता हो। उववाईसूत्र में वर्णन है कि भगवान् अमुक उद्यान में विराज. मान हुप और धर्म कथा कही । समवसरण का सामान्य अर्थ है, उस विशद परिषद् का जुड़ना, जिसमें धर्म का उपदेश तीर्थकर ने किया हो। ' . ' भगवान् सदैव अकृत्रिम अवस्था में ही रहते थे !
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श्रीभगवती सूत्र
[५७६ । चौवीसों तीर्थंकरों को वृक्ष के नीचे ही केवलज्ञान हुआ था। किसी तीर्थंकर को वट वृक्ष के नीचे केवलझान हुआ, किसी को खिरनी.के नीचे और किसी को शाल्मली वृक्ष के नीचे। किसी भी तीर्थंकर को किसी महल में विराजमान होने पर केवलज्ञान हुश्रा, ऐसा कहीं देखने में नहीं आता। . इस कथन का आशय यह नहीं है कि वृक्ष के नीचे ही केवलज्ञान हो सकता है और अन्यत्र नहीं हो सकता। यह कथन उन मर्यादा पुरुप तीर्थकर भगवान् के लिए है। उन्हें वृक्ष के सिवा दूसरी जगह केवलज्ञान नहीं होता।
वाण -व्यन्तर देवों के देवलोक में वह मिथ्यादृष्टि कम से कम दस हजार वर्ष की स्थिति भोगता है और अधिक से अधिक एक पल्योपम की।
वाण-व्यन्तरों का वह स्थान देवों और देवियों से व्याप्त होता है । उस देवलोक में वहुत-से देव देवी शोभायमान होते हुए रहते हैं।
पहले यह बतलाया गया है कि अकाम निर्जरा करने वाला, अकाम क्षुधा, तृषा, ब्रह्मचर्य आदि का पालन करता है । इस प्रकार एक ओर रूखा जीवन व्यतीत करने का चित्र है और दूसरी ओर वाणं-व्यन्तरों के देवलोक का चित्र है। तात्पर्य यह है कि अकाम क्षुधा, तृषा आदि सहन करने का यह परिणाम निकला है । यद्यपि मिथ्यादृष्टि ने जो कष्ट सहे हैं, वह अज्ञानपूर्वक सहे हैं, ज्ञानपूर्वक नहीं, तथापि भूखप्यास को सहन करने से उसे देवलोक की प्राप्ति हुई है। .
आप प्रकाश देते हुए बिजली के लट्ट को देखते हैं।
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[५७७]
व्यन्तरों के स्थान जो विजली प्रकाश देती है, उसकी उत्पन्न होती हुई गैस दुर्गन्ध देती है, ऐसा सुना जाता है। लेकिन वही गैस प्रकाश देती है। अगर उस दुर्गन्ध से घृणा की जाय तो विजली का प्रकाश नहीं हो सकता। आप कदाचित् घृणा करें भी, मगर जो आदमी उस गैस को त्पन्न करता है वह यदि घृणा करने लगे तो किसी को प्रकाश न मिले । मतलब यह है कि उस दुर्गन्धयुक्त गैस से विजली का उज्ज्वल प्रकाश निकलता है। इसी प्रकार भूख प्यास सहने वाले और अकाम निर्जरा करने वाले के लिए, लोग कहते हैं, यह वृथा कायक्लेश कर रहा है, मगर ज्ञानी पुरुष जानते हैं कि यह कष्ट नहीं, गैस है जिस ‘से वाण व्यन्तर का विद्युत्प्रकाश उत्पन्न होगा। - बिजली पर पतंग मँडराते हैं और अपनी जान दे देते हैं। यही वात आप के लिए भी है, श्राप विजली को देखते हैं, पर यह नहीं देंखेत कि यह प्रकाश किसके अधीन है ?
आप देवलोक के सुख-को तो देखते हैं, परन्तु यह नहीं देखते कि यह सुख निकला कहां से है ? देवलोक के सुख के उद्गम को न देखकर, केवल सुख को ही देखना विजली पर पड़ने के समान है।
जैसे जेल से डरने वाला स्वराज्य प्राप्त नहीं कर सकता और जैसे आँच और धुएँ से डरने वाली महिला रसोई नहीं बना सकती, उसी प्रकार कष्टों से घबराने वाला देवलोक के सुख नहीं पा सकता। यह ठीक है कि अज्ञानपूर्वक सहन किया गया कष्ट मोक्ष का कारण नहीं है, मगर वह भी सर्वथा निष्फल नहीं होता। उस कष्ट का फल यह देवलोक है। मगर यह ध्यान रखना चाहिए कि केवल कष्ट सहने मात्र
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श्रीभगवती सूत्र
[ ५७८ ]. से स्वर्ग नहीं मिलता है । केवल कष्टसहन से ही स्वर्ग मिलता तो नरक में घोर कष्ट सहने वाले नारकी और बूचड़खाने में मारे जाने वाले पशु भी स्वर्ग ही पाते। स्वर्ग वास्तव में पुण्य से मिलता है और पुण्य शुभमाव से होता है। इस प्रकार गौतम स्वामी के प्रश्न का उत्तर समाप्त हुश्रा।
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उपसंहार
मूलपाठसेवं भंते! सेवं भंते! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति, नमसति, वंदित्ता, नमंसित्ता, संजमेणं, तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरड्।
संस्कृत-छाया-तदेवं भगवन् ! तदेवं भगवन् ! इति भगवान गौतमः श्रमगं भगवन्तं महावीरं वन्दते, नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्या संयमेन तपसाऽऽत्मानं भावयन् विहरति ।
मुलार्थ-हे भगवन्! यह इसी प्रकार है, यह इसी प्रकार है, ऐसा कह कर भगवान् गौतम, श्रमण भगवान् महावीर को बन्दना करते हैं, नमस्कार करते है, वन्दनानमस्कार करके संयम तथा तप से यात्मा को भांवित करते हुए विचरते हैं।
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[५८०]
उपसंहार व्याख्यान-भगवान् के वचन सुनकर गौतम स्वामी ने कहा-प्रभो! जैसा आप कहते हैं, वैसा ही है । श्राप अनन्त हैं और मैं तुच्छ हूँ, इसलिए मैं श्रायके वचनों पर विश्वास करता हूँ।
ऐसा कह कर गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना की, नमस्कार किया और तप तथा संयम में विचरने लगे।
यहाँ वन्दना -नमस्कार करने का उल्लेख इसलिए किया गया है कि प्रश्न पूछने से पहले और उत्तर सुनने के पश्चात् चन्दना करना विनयं प्रदर्शित करना है । विना विनय के ज्ञान प्राप्त नहीं होता। अतः ज्ञान प्राप्त करने में विनय की अत्यन्त आवश्यकता है।
यह भगवतीसूत्र के प्रथम शतक का प्रथम उद्देशक समाप्त होता है । मेरी समझ में जैसा आया, जैसा मैंने वर्णन किया।इस वर्णन म जो वातें शास्त्र के अनुकूल हों, उन्हें ग्रहण कीजिए और जो प्रतिकूल कही गई हों उन्हें त्याग दीजिए। .. सेवं भंते सेवं भंते, गौतम बोले सइ। .
श्री वीरजी का वचनां में सन्देह नई ॥
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प्रथम शतकः-द्वितीय उद्देशक
प्रश्नोत्थान
मूलपाठ रायगिहे नगरे समोसरणं । परिसा णिग्गया, जाव-एवं वयासी.. संस्कृत-छाया- राजगृहे नगरे समवसरणं । परिषद् निर्गता, . यावत्-एवमवादीत् 1, .. . ..
. मूलार्थ-राजगृह नगर में समवसरण हुआ । परिषद् निकली । यावत्-इस प्रकार फरमाया। .
व्याख्यान-श्रव भगवतीसूत्र के प्रथम शतक का दूसरा उद्देशक प्रारम्भ होता है। पहले उद्देशक के साथ दूसरे का सम्बन्ध बतलाते हुए कहा गया है कि पहले उद्देशक में
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श्रीभगवती सूत्र
[५८२] चलन आदि धौं वाले कर्म का निरूपण किया गया है। दूसरे में, पहले उद्देशक के बचे हुए अंश का ही वर्णन किया जायगा उद्देशकों के नाम की जो संग्रह गाथा शतक के प्रारम्भ में कही गई है, उसमें यह बतलाया है कि द्वितीय उद्देशक में दुःख सम्बन्धी प्रश्न हैं । दुःख के इस कथन की प्रस्तावना के लिए : यहाँ दुःख का ही पहले पहले वर्णन किया जाता है।
दूसरे उद्देशक के आरम्भ में राजगृह नगर और गुणशील नामक उद्यान आदि का वर्णन प्रथम उद्देशक के समान ही समझ लेना चाहिए । गौतम स्वामी भगवान् को वन्दना करके प्रश्न पूछते हैं, यहाँ तक का समस्त पाठ पहले उद्देशक के समान ही यहाँ उच्चारण करना चाहिए ।
इस प्रकार का उपोद्घात प्रत्येक उद्देशक के प्रारम्भ में किया जाता है । इसका कारण यह है कि जहाँ वचन होंगे -वहाँ वक्ता भी अवश्य होगा। और जब वक्ता है तो वह किसी स्थान पर स्थित होकर ही भाषण करेगा । अतएव इस उपोद्घात में स्थान का, समय का और वका का सामान्य परिचय दे दिया जाता है । मीमांसक मत वाले वेद को अपौरुषेय मानते हैं। मगर जैनसिद्धान्त, शास्त्र की अपौरुप्यता स्वीकार नहीं करता। कोई भी शास्त्र अपौरुषेय नहीं हो सकता। यह प्रकट करने के लिए भी प्रत्येक उद्देशक के प्रारम्भ में वक्ता, स्थान और समय का उल्लेख कर दिया गया है।
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दुःखों का वेदन
मूलपाठःप्रश्न-जीवे णं भंते ! सयंकडं दुखं वेएइ ?
उत्तर-गोयमा। अत्थेगइयं वेएह, अत्थे. गइयं नो वेएइ ।
प्रश्न-से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ 'अत्थेगडयं वेएड. अत्यंगइयं नो वेएइ ?'
उत्तर-गोयमा! उदिण्णं वेएड, अणुदिएणं नो वेएइ । से तेणठणं एवं वुच्चइ-अत्थेगइयं वेएइ अत्थेगइयं नो वेएइ ।' एवं चउबीसदंडएणं, जाव वेमाणिए ।
प्रश्न-जीवा णं भंते ! मयंकडं दुक्खं वेदेति ?
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श्रीभगवती सूत्र
[ ५८४ ] उत्तर-गोयमा! अत्यगइयं वेदेति, अत्थेगइयं नो वेदेति ।
प्रश्न-से केण?णं?
उत्तर-गोयमा! उदिएणं वेदेति, नो अणुदिएणं वेदेति । से तेणटेणं, एवं जाव-वैमाणिया। .. प्रश्न-जीवेण भंते ! सयंकडं पाउयं वेएड ? ___ उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइयं वेएड, अत्थेगइयं नो वेएइ । जहा दुक्खेणं दो दंडगा तहा पाउएणं वि दो दंडगा-एगतपुहत्तिया, एगत्तेणं जाव-पुहत्तेण वि तहेव ।
संस्कृत छाया-प्रश्न-जीवो भगवन् ! स्वयंकृतं दुःख वेदयति ?
उत्तर-गौतम ! अस्त्येककं वेदयति, अस्त्येककं नो वेदयति ।
प्रश्न-तत् केनार्थेन भगवन् ! एवमुच्यते-अस्त्येककं वेदयंति, अस्त्येकक नो वेदयति ।
उत्तर-गौतम ! उदीर्ण वेदयति, अनुदीर्ण नो वेदयाति ।
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[५८५] .
दुःख-वेदन तत् तेनार्थेन एवमुच्यते-प्रत्येक वेदहति, अस्त्येककं नो वेदयति ।' एवं चतुर्विशति-दण्डकेन, यावद्-वैमानिकः ।
प्रश्न-जीवा भगवन् ! स्वयंकृतं दुःखं वेदयन्ति ?
उत्तर-गौतम ! प्रत्येककं वेदयन्ति, अस्त्येककं नो वेदयन्ति ।
प्रश्न-तत् केनार्थेन ?
उत्तर-गौतम! उदीर्ण वेदयन्ति, नो अनुदीर्ण वेदयन्ति, तत् तेनार्थेन एवं, यावद-वैमानिकाः ।।
प्रश्न-जीवो भगवन् ! स्त्रयंकृतमायुः वेदयति ?
उत्तर--गौतम ! अस्त्येककं वेदयति, अस्त्येककं नो वेदयति । यथा दुःखेन द्वौ दण्डको तयाऽऽयुष्मेणापि द्वौ दण्डको-एकत्वपृथक्विती, एकत्वेन यावद् वैमानिकाः, पृथक्त्वेनाऽपि तथैव ।
मूलार्थ-प्रश्न-भगवन् ! जीव स्वयंकृत दुःख-कर्मभोगता है ?
उत्तर-गौतम! कुछ भोगता है, कुछ नहीं भोगता ।
प्रश्न-भगवन् ! सो किस प्रकार आप कहते हैं-'कुछ भोगता है कुछ नहीं भोगता। .
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श्रीभगवती सूत्र
[१४६] ___ उत्तर-गौतम? उदीर्ण-उदय में आये हुर-कर्न को भोगता है, अनुदीर्ण कर्म को नहीं भोगता। इस लिए कहा गया है-'कुछ भोगता है, कुछ नहीं भोगता।' इस प्रकार चौबीस दंडकों में, यावत्-वैमानिक तक समझना ।
प्रश्न-भगवन्! जीव स्वयंकृत कर्म भोगते हैं ? उत्तर-गौतम ! कुछ भोगते हैं. कुछ नहीं भागते । प्रश्न-सो किस कारण ?
उत्तर- गौतम । उदीर्ण कर्म को भोगते हैं, अनुदीर्ण को नहीं भोगते. इस कारण ऐसा कहा है। इस प्रकार यावबैमानिकों तक समझना चाहिए ।
प्रश्न-भगवन् ! जीव स्वयंकृत आयु को भोगता है ?
उत्तर-गौतम ! कुछ को भोगता है, कुछ को नहीं भोगता । जैसे दुःख-कर्म-के विषय में दो दंडक कहे हैं, उसी प्रकार आयुष्य के सम्बन्ध में भी एकवचन और बहुः
चन वाले दो दंडक कहने चाहिए । एक वचन से यावत्वैमानिकों तक कहना और बहुवचन से भी उसी प्रकार कहना चाहिए।
व्याख्यान-गौतम स्वामी भगवान् महावीर से प्रश्न करते हैं-हे भगवन् ! जीव क्या स्वयंकृतं दुःख भोगता है ?
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५८७ ]
• दुःख वेदन गौतम स्वामी ने स्वयंकृत (अपने किये ) कहकर दुसरे द्वारा किये हुए दुःख को भोगने की बात हटाई है। इस प्रश्न द्वारा उन्होंने अन्य अनेक मतों के विधान का निषेध करके जैन धर्म की मान्यता प्रकट की है। किसी-किसी मत में यह स्वीकार किया गया है कि कर्म दूसरा करता है और उसका फल दूसरा भोगता है। गौतम स्वामी ने यह प्रश्न उपस्थित करके इस मान्यता को हटाया है।
कदाचित् कोई यह आशंका करे कि दूसरे के किये कर्म, दुसरा नहीं भोगता, इसमें क्या प्रमाण है ? इसके उत्तर में शास्त्रकार का कथन यह है कि अगर ऐसा हो तो समस्त लौकिक और लोकोत्तर व्यवहार गड़बड़ में पड़ जाएँगे। यज्ञदत्त के भोजन करने से देवदत्त की भूख नहीं मिटती, यह प्रत्यक्ष देखा जाता है। यज्ञदत्त के निद्रा लेने से देवदत्त की थकावट नहीं मिटती; यह भी प्रत्यक्ष सिद्ध है । देवदत्त के औषध सेवन से यशदत्त का रोग नहीं मिटता, यह वात कौन नहीं जानता? जो भोजन करता है उसी की भूख मिटती है, जो सोता है उसी की थकावट दूर होती है और जो औषध · का सेवन करता है वही निरोग होता है, यह बात इतनी प्रसिद्ध है कि बच्चा-यचा जानता है । यह वात कर्म के सम्बन्ध में भी समझी जा सकती है। कहा भी है
स्वयंकृतं कर्म यदात्मना पुरा, - फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । . परेण दत्तं यदि लम्यते स्फुटं, स्वयंकृतं कर्म निरर्थकं तदा ॥
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श्रीभगवती सूत्र
[५८८] अर्थात् स्वयं प्रात्मां ने जो कर्म पहले उपार्जन किये हैं, उन्हीं कमों का शुभ या अशुभ फल वह आत्मा भोगता है। अगर दूसरे के किंय हुएं कौ का फल आत्मा भोगने लगे तो अपने किये कर्म निष्फल हो जाएँगे।
कई लोग कहते हैं-लोक में यह देखा जाता है कि कोई कर्म करता है और दूसरा कोई उसका फल भोगता है । उदाहरणार्थ-इंग्लेण्ड और जर्मनी परस्पर युद्ध करते हैं, मगर उसका फल भारतवर्ष को भी भुगतना पड़ता है। इस सम्बन्ध में शास्त्रकार कहते हैं कि यह समझ की कमी हैं । धर्म शास्त्र के ज्ञाता यही मानते हैं कि कर्ता द्वारा जो किया जाता है, वही कर्म कहलाता है । जिसें का नहीं करता वह कर्म ही नहीं है। . क्रियते इति कर्म। . .
... अर्थात् कर्ता द्वारा जो किया जाय,वह कर्म कहलाता है। .. अगर नहीं किये हुए कर्म भोगे जाते हैं, तो किये हुए ..कर्म विना फल के. ही नष्ट भी हो जाएँगे। ऐसी स्थिति में
बड़ी गड़बड़ी मंचेंगी। कल्पना कीजिए एक व्यक्ति ने शुभ कर्म किया और दूसरे ने अशुभ कर्म किया। शुभ कर्म का फल शुभ और अशुभ कर्म का फल अंशुभ है। अगर एक व्यक्ति दूसरे के कर्म का भी फल भोगता है तो उसे शुभ और अशुभ फल एक ही साथ भोगना पड़ेगा ! दूसरे के कर्म का फल भागन के कारण कोई भी प्राणी सुखी नहीं हो सकेंगा, क्योंकि उसे दसरों के अशुभ कर्म भोगने पड़ेंगे । इसी प्रकार कोई भी जीव अशुभं कर्म करके भी दुःख नहीं भोगेगा. क्योंकि वह
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[५८९]
दुख वेदन दूसरों के शुभ कर्म से सुख प्राप्त कर लेगा। किसी भी मनुष्य को मुक्ति प्राप्त न हो सकेगी, क्योंकि उसे पर-कृत कर्मों का फल भोगना होगा। इस प्रकार उसके मोक्षसाधक सभी अनुष्ठान निष्फल हो जाएँगे। ऐसा होने से कृतकर्मनाश और अकृतकर्माभ्यागम दोष श्राएँगे अर्थात् किये कर्मों का फल न मिलना और विना किये का फल मिलना, यह दोनों बाधाएँ उपस्थित होंगी। अतएव यही मानना अनुभव और युक्ति के अनुकूल है कि जीव अपने किये हुए कर्मों का ही फल भोगता है, पराये किये का नहीं।
कमी मत समझो कि का दूसरा है और आपत्ति हमारे सिर श्री पड़ी है । विना किया कोई भी कर्म भोगा . नहीं जाता। यह संभव है कि अभी तुमने कोई कार्य नहीं किया है और फल भोगना पड़ रहा है, मगर यह फल तुम्हारे ही किसी समय किये कर्म का फल है। प्रत्येक कर्म का फल तत्काल नहीं मिल जाता। इसलिए हमारे किस कर्तव्य का फल किस समय मिलता है, यह चाहे समझ में न आये, तथापि यह सुनिश्चित है कि तुम जो फल आज भोग रहे हो वह तुम्हारे ही किसी कर्म का है।
, हम अपने ही किये कर्म का फल भोगते हैं, यह जान लेने पर शान्ति ही रहती है, अशान्ति नहीं होती । अपनी आँख में अपनी ही उँगली लग जाय तो उलहना किसे दिया जाय ! उसे शान्तिपूर्वक सह लेने के सिवाय और क्या उपाय है ? दूसरा उँगली लगाता तो उलहना दिया जा सकता था। लेकिन ज्ञानी जन कहते हैं-अगर कभी दूसरे की उँगली आँख में लग जाय, तो भी समभाव रखना चाहिए, क्योंकि
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श्रीभगवती सूत्र
[६९०] दूसरा निमित्त मात्र है। वास्तव में तो जीव अपना किया कर्म ही भोगता है।
उक्त बातों को ध्यान में रखते हुए ही गौतम स्वामी ने अपने किये हुए कर्म के विषय में प्रश्न किया है। पहला प्रश्न दुःख के सम्बन्ध में किया गया है, अतः पहले यह देखना चाहिए कि दुःख किसे कहते हैं ? ___ मगर इस प्रश्न का उत्तर देने से पूर्व एक बात पर और विचार कर लेना आवश्यक है। वह यह है कि दुःख अगर अपने ही किये भोगे जाते हैं तो सुख किस का किया भोगा जाता है ? इस का उत्तर यह है कि संसार के दुःख तो दुःख हैं ही, लेकिन संसार के सुख भी दुःख ही हैं । पर के संयोग ले कभी सुख नहीं प्राप्त होता, दुःख ही होता है।
___ कहा जा सकता है कि संसार में साक्षात् सुख अनुभव किया जाता है, सभी सुख को जानते हैं, फिर उन्हें सुख न मानकर दुःख क्यों कहा गया है ? इस सम्बन्ध में यहां इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि भोगोपभोग से प्राप्त होने वाला सुख, दुःख का कारण है। सुख भोगने से दुःख की दीर्घ परम्परा पैदा होती है । इसके अतिरिक्त वह सुख पराधीन है-भोग्य पदार्थों के, इन्द्रियों के और शारीरिक शक्ति के अधीन है। जहां पराधीनता है वहां दुःख है। उस सुख में निराकुलता नहीं है, व्याकुलता है, अतृप्ति है, भय है, उसका शीत्र अन्त हो जाता है । उसकी मात्रा अत्यल्प होती है । इन सब कारणों से सांसारिक सुख, वास्तव में दुःखरूप है, दुःख.
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श्रीभगवती सूत्र
[ ५९२ ] होते थे, वही थोड़े समय वाद दुःखदायी कैसे प्रतीत होने लगे? लड्डू में अगर सुख देने का स्वभाव है तो वह प्रत्येक स्थिति में सुख क्यों नहीं देता? इससे यह स्पष्ट है कि लड्डू में सुख की कल्पना करना भ्रम है.। वास्तविक बात यह है कि जव एक दुःख होता है तो उस दुःख के कारण दूसरा दुःख मी सुख प्रतीत होने लगता हैं । संसार में तो दुःख ही दुःख है। नरक से लेकर. सर्वार्थसिद्ध विमान तक यही वात है। संसार की जिस वस्तु में जितना अधिक सुख माना जायगा, उसके पीछे उतना ही अधिक दुःख लगा हुआ है। उदाहरणार्थ-चांदी के कड़ों में कम और सोने के कड़ों में अधिक सुख माना जाता है । अतएव चांदी के कड़ों के गुम . जाने की अपेक्षा सोने के कड़े गुम जाने में अधिक दुःख है। इल प्रकार जिसे जितना ज्यादा आनन्द दायक मानोगे, वह , उतना ही अधिक दुःखद सिद्ध होगा। . . ..
- सारांश यह है कि संसार के सुख भी. वस्तुतः ढुंःख ही हैं । किंपाक फल दीखने में बहुत सुन्दर और खाने में बहुत खादिष्ट होता है, पर उसका खाना मृत्यु को आमंत्रण देना है। उसे आप सुख मानेंगे या दुःख ?..
'दुःख!' ।
इसी प्रकार कर्म-मात्र दुःखरूप है, चाहे वह सातावेदनीय हो, या असातावेदनीय हो। .
- गौतम स्वामी का प्रश्न है कि जीव अपने किये कर्म भोगता है या नहीं भोगता? इसके उत्तर में भगवान् ने फर्मा. या-किसी कर्म को भोगता है, किसी को नहीं भोगता।
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[५९३ ]
दुःख वेदन
इस संक्षिप्त उत्तर से वस्तुस्थिति स्पष्ट न होते देख गौतम स्वामी ने फिर पूछा-भगवन् ! जीव किसी कर्म को. भोगता है, किसी को नहीं भोगता; इसका क्या कारण है ?
इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् फर्माते हैं-गौतम! कर्म की दो अवस्थाएँ हैं- उदयावस्था और अनुदयावस्था। जो कर्म जदीरणा द्वारा या खाभाविक रूप से पदय में आये हैं, उन्हें जीव भोगता है, और जो कर्म अब तक उदय में नहीं आये हैं, उन्हें नहीं भोगता । इस लिए सामान्य रूप में यही कहा जा सकता है कि जीव अपने किये कर्म भोगता भी है और नहीं भी भोगता है।
यहां यह आशंका हो सकती है कि जगत् में कर्मों के फल में कोई व्यवस्था नहीं देखी जाती । एक हिंसा करने वाला, झूठ बोलने वाला और चोरी करने वाला व्यक्ति सुखमय जीवन व्यतीत करता है और इसके विपरीत अच्छे काम करने वाला धर्मात्मा गरीवी और मुसीवत की जिन्दगी विताता है। ऐसी स्थिति में यह कैसे माना जा.सकता है कि कर्मों का फल अवश्य होता है, अथवा अच्छे कर्मों का अच्छा फल औरः बुरे कर्मों का बुरा फल मिलता है ?
इस शंका का समाधान करने के उद्देश्य से ही गौतम स्वामी ने यह प्रश्न किया है और भगवान् ने उत्तर दिया है। पहले बतलाया गया है कि कर्म की दो अवस्थाएँ हैं-उदया'वस्था और अनुदयावस्था । चोरी करना, झूठ बोलना और दूसरों को लताना पाप-कर्म है और उसका फल अशुभ ही हो सकता है, मगर ऐले पापी के पापकर्म अभी उदय-अवस्था में नहीं पाये हैं। वह अपने पहले किये हुए किसी शुभकर्म:
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श्रीभगवती सूत्र
[ २९ ]
का फल इस समय भोग रहा है, इसी कारण सुखी मालुम होता है । वर्त्तमान में किये जाने वाले अशुभ कर्मों की जब उदय अवस्था होगी, तब उसे इनका फल भी अवश्य भोगता पड़ेगा । यही बात दुखी धर्मात्मा के विषय में लागू पड़ती है । इस समय अगर कोई धर्मनिष्ठ पुरुष दुखी है तो समझना चाहिए कि वह पहले किये हुए किसी अशुभ कर्म का फल भोग रहा है। उसके वर्त्तमानकालीन धर्म कार्यों का फल अभी नहीं हो रहा है । पहले के कर्म उयावस्था में हैं और वर्त्तमान कालीन कर्म अनुदय-अवस्था में हैं । जब वह उदयावस्था में श्राएँगे तो उनका अच्छा फल उसे श्रवश्य प्राप्त होगा ।
-
गौतम स्वामी फिर पूछते हैं- भगवान् ! क्या चौबीस दंडकों के सभी जीव इसी प्रकार अपने किये कर्म भोगते हैं ? इसके उत्तर में भगवान् फर्माते हैं - हाँ गौतम, इसी प्रकार भोगते हैं ?
पहले प्रश्न में और इस प्रश्न में क्या अन्तर रहा ? यह प्रश्न इसलिए किया गया है कि नरक के जीव को तो परमाधामी देव दुख देते हैं, फिर क्या वहाँ पर भी जीव अपने ही किये दुख भोगता है ? भगवान् ने इस प्रश्न का उत्तर' हाँ' में दिया है, इससे यह सिद्ध हुआ कि नरक के जीव भी अपने ही किये कर्मों का फल भोगते हैं । कोई भी जीव दूसरे के किये कर्म नहीं भोगता । परमाधामी जीव निमित्तमान । वास्तव में असली कारण तो अपने २ कर्म ही हैं ।
गौतम स्वामी ने पहला प्रश्न एक जीव की अपेक्षा से किया था, अब वह बहुत जीवों की अपेक्षा कर रहे हैं । इस
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- ( ५६५)
दुख वेदन प्रश्न के उत्तर में भी भगवान ने 'हाँ' कहा है। अर्थात् जो उत्तर एक जीव के सम्बन्ध में है, वही बहुत जीवों के संबंध में भी है। और वह उत्तर यही कि बहुत जीव (सभी जीव) अपने ही किये कर्म का फल भोगते हैं और उदय-प्राप्त कर्म का फल भोगते हैं, अनुदय प्राप्त का फल नहीं भोगते । यह वात चौवीसों ही दंडकों के जीवों के लिये समान रूप से चरितार्थ होती है।
दुख या कर्म सम्बन्धी प्रश्नोत्तर के पश्चात् गौतम स्वामी ने दूसरा प्रश्न किया कि:-भगवन् ! जीव अपने किये आयुष्य को वेदता है ? इसका उत्तर भगवान् फर्माते हैंहे गौतम! जीव अपने उपार्जन किये श्रायुष्य को वेदता है, पर-कृत को नहीं वेदता।
यहाँ यह शंका की जा सकती है कि श्रायु-कर्म पाठ कमों के अन्तर्गत है । अतएव समुच्चय रूप से कर्मों के विषय में जो प्रश्नोत्तर किया जा चुका है, वह आयुकर्म पर भी लागू होता ही है। उसी प्रश्नोत्तर से यह सिद्ध हो जाता है कि जीव स्वयं-कृत श्रायु को भोगते हैं। तथापि यहाँ अलग प्रश्नोत्तर श्रायुक्रर्म के विषय में क्यों किया गया है ?
इसका समाधान यह है कि लोक-भ्रम निवारण के लिये विशेष रूप से यह प्रश्नोत्तर किया गया है। महाभारत आदि प्रन्थों में यह कल्पना पाई जाती है कि प्रायु भी दी और ली जा सकती है । इसके अतिरिक्त कई अज्ञान पुरुष अपनी आयु चढ़ाने के लिए बकरा मारते हैं और समझते हैं कि हमने उस की आयु ले ली है । इस प्रकार की मूढ़ता का निवारण करने के लिये भगवान् ने यह स्पष्ट कर दिया है कि अपनी श्रायु
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[ ५९६ ]
श्रीभगवती सूत्र
ही भोगी जाती है, दूसरे की आयु कोई नहीं भोग सकता । अपनी उपार्जन की हुई आयु में से भी किसी आयु का भोग होता है, किसी का नहीं होता । उदाहरणार्थ- कोई मनुष्य यहाँ मौजूद है लेकिन उसने स्वर्ग की आयु बांध ली है। वह पहले बँधी मनुष्य श्रायु को भोग रहा है और अभी बँधी देव-आयु को नहीं भोग रहा है-आगे भोगेगा, क्योंकि उसका उदय अभी नहीं आया है। चौबीसों दण्डकों के लिये- श्रायु के विषय में यही बात समझनी चाहिए ।
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कारकी जीक सक समान है ?
मूलपाठःप्रश्न-नेरइया एं भंते ! सब्वे समाहारा, • सब्वे समसरीरा, सव्वे समुस्सासनीसासा ? .
उत्तर-गोयमा ! णो इण? समढे। .
प्रश्न--से केण्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ'नेरइयां नो सव्वे समाहारा, नो सब्वै समसरीरा, नो सव्वे समुस्सासनीसासा ?
उत्तर-गोयमा ! नेरइया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-महासरीरा य अप्पसरीरा य । तत्थ णं जेते महासरीरा ते बहुतराए पोग्गले आहारेंति, बहुतराए पोग्गले परिणामेति, बहुतराए पोग्गले
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श्रीभगवती सूत्र
[ ५९८ ] उस्ससंति, बहुतराए पोग्गले नीससंती; अभिक्खणं श्राहारेंति, अभिक्खणं परिणामेंति अभिक्खणं उस्ससंति, अभिक्णणं नीससंति । तत्थ णं जे ते अप्पसरीरा ते णं अप्पतराए पोग्गले अाहाति, अप्पतराए पोग्गले परिणामेंति, अप्पतराए पोग्गले उस्ससंति, अप्पतराए पोग्गले नीससंति, श्राहच आहारेंति, श्राहच्च परिणमोति, पाहच्च ऊससंति, पाहच नीससंतिः से तेणटेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-नेरइया सव्वे नो समाहारा, नो सब्बे समसरीरा, नो सब्वे समुस्सासनीसासा ।' .
संस्कृत-छाया-प्रश्न-नैरपिका भगवन् ! सर्वे समाहाराः, सर्वे समशरीराः, सर्वे समोच्छ्वास-निःश्वासाः ?
उत्तर-गौतम ! नाऽयमर्थः समर्थः ।
प्रश्न-तत्केनार्थेन भगवन् ! एवमुच्यते-'नरयिका नो सर्वे' समाहाराः, नो सर्वे समशरीराः, नो सर्वे समोच्छ्वास-निःश्वासाः?
उत्तर-गौतम ! नैरयिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-महा
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( ५९९ )
नारकी जीव समान है?
शरीराश्च, अल्पशरीराश्च । तत्र ये ते महाशरीरास्ते बहुतरान पुद्गलान श्राहारंपन्ति, बहुतरान् पुद्गलान् परिणमयन्ति, बहुतरान् पुद्गलान् उच्छ्वसन्ति बहुतरान् पुगलान् नि:-श्वसन्ति । अभिक्षणमाहारयन्ति. अभिक्षणं परिणमयन्ति, अभिक्षणमुच्छ्वसन्ति, अभिक्षणं निःश्वसयन्तिः तत्र ये ते अल्पशरीरास्ते अल्पतरान् पुद्गलान् श्राहारयन्ति, अल्पतरान् पुद्गलान् परिगणमयन्ति, अल्पतरान् पुद्गलानुच्छ्वसन्ति, अल्पतरान् पुद्गलान् निःश्वसन्ति, आइत्य श्राहात्यन्ति, श्राहत्य परिणमयन्ति, पाहत्योच्छ्वसन्ति, श्राहत्य निःश्वसन्ति, तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-'नरयिका नो सर्वे समाहाराः, नो सर्वे समशरीराः, नो सर्वे समोच्छ्वासनिःश्वासाः'। . . :.
मूलार्थ-प्रश्न-भगवन् ! सब नारकी समान आहार वाले, समान शरीर वाले, तथा समान उच्छ्वास और निश्वास वाले हैं ?
उत्तर-गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है-ऐसी बात नहीं है। .
प्रश्न-भगवन् ! इस प्रकार आप किस हेतु से कहते हैं कि-'सब नारकी समान आहार वाले, समान शरीर और समान उच्छ्वास-निःश्वास वाले नहीं हैं. ..
उत्तर-गौतम ! नारकी दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार-बड़े शरीर वाले और छोटे शरीर वाले। इन
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श्रीभगवती सूत्र
[ ६०० ]
में जो बड़े शरीर वाले हैं, वहुत पुद्गलों का आहार करते हैं, बहुत पुद्गलों को परिणमाते हैं, बहुत उच्छ्वास-निश्वास लेते हैं। बार-बार. आहार करते हैं, बार-बार परिणमाते हैं, बार-बार उच्छ्वास तथा निश्वास लेते हैं। तथा उनमें जो छोटे शरीर वाले हैं, वे थोड़े पुद्गलों का आहार करते हैं, थोड़ें पुद्गलों को परिणमाते हैं, थोड़ा उच्छ्नास-निश्वास लेते हैं, कदाचित् आहार करते हैं, कदाचित् परिणमाते हैं. कदाचित् उच्छ्वास तथा निश्वास लेते हैं । इसलिए हे गौतम! इस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि-' सब नारकी समान आहार वाले, समान शरीर वाले, समान उच्छ्वास तथा निःश्वास वाले नहीं हैं।'
.
. .. व्याख्यान-श्रीगौतम स्वामी प्रश्न करते हैं कि-हे भगवन् ! नैरयिक दुख में पड़े हैं। उन सवका आहार समान ह? वे समान शरीर वाले हैं । और उन सबका श्वास तथा निश्वास भी एक सरीखा है ?
इस प्रश्न के उत्तर में भगवान कहते हैं-'नहीं गौतम! ऐसी वात नहीं है। सव नैरयिकों का आहार आदि समान नहीं है.।' तव गौतम स्वामी ने फिर प्रश्न किया-प्रभो ! क्या कारण हैं ? सव:नारकियों का आहार वगैरह समान क्यों नहीं है ? भगवान फर्माते हैं-गौतम! मैंने और भूतकाल के सर्वज्ञों ने दो प्रकार के नारकीय देखे हैं और उनका कथन भी किया है। कोई नेरिये महाशरीर वाले होते हैं, कोई अल्प:
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[६०१]
नारकी जीव समान हैं? शरीर वाले होते हैं । जब उनके शरीर में भिन्नता है तो आहार आदि में भिन्नता होना स्वभाविक है।
बड़ा और छोटा शरीर अपेक्षा से है। छोटे की अपेक्षा कोई वस्तु बड़ी कहलाती है और बड़ी की अपेक्षा छोटी कहलाती है । नारकियों का छोटे से छोटा शरीर अंगुल के असंख्यातवें भाग जितना है और.बड़े से बड़ा पाँच सौ धनुष बराबर है। यह दोनों प्रकार के शरीर भविधारणाय शरीर की अपेक्षा से कहे गये हैं। उत्तर विक्रिया की अपेक्षा शरीर के परिमाण में अन्तर पड़ जाता है। सारांश यह है कि पूर्वोक्त परिमाण शरीर का खाभाविक परिमाण है।
उत्तरचक्रिय शरीर अर्थात् .इच्छानुसार बड़ा या छोटा बनाया हुआ शरीर । जब इच्छापूर्वक बड़ा या छोटा शरीर बनाया जाता है तब यह छोटे से छोटा अंगुल के संख्यातवें भाग तक हो सकता है, इससे अधिक छोटा नहीं हो सकता। इसी प्रकार बड़े से बड़ा एक हजार धनुष का हो सकता है, इससे ज्यादा बड़ा नहीं हो सकता।
गौतम स्वामी ने जो प्रश्न किया है, उसमें पहले आहार की बात पूछी है, उसके बाद शरीर की बात पूछी है। मगर भगवान् ने पहले शरीर के सम्बन्ध में निरुपणं किया है। इस व्यतिक्रम का कारण यह है कि शरीर का परिमाण, बताये विना आहार आदि के विषय में ठीक.और सुबोध उत्तर नहीं दिया जा सकता था। शरीर का परिमाण बता देने पर ही आहार, श्वासोच्छवास श्रादि का ठीक परिमाण घतलाया जा सकता था। इसी कारण शरीर की बात बाद में पूछने पर
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श्रीभगवती सूत्र
[६०२ भी पहले क्तलाई गई है और आहार का प्रश्न यद्यपि पहला था, तथापि उसका उत्तर पीछे दिया गया है। ... बड़े शरीर वाला नैरयिक बहुत पुद्गलों का आहार करता है और छोटे शरीर वाला कम पुद्गलों का । यहां भी यही बात देखी जाती है कि बड़े शरीर वाला अधिक खाता है और छोटे शरीर वाला कम । इसके लिए हाथी और शशक (खरगोश) का उदाहरण दिया जा सकता है। ... आहार का यह परिमाणभीसापेक्ष ही समझना चाहिए। अर्थात् बड़े शरीर वाले के आहार की अपेक्षा छोटे शरीर वाले का आहार कम है, और छोटे शरीर वाले के आहार की अपेक्षा बड़े शरीर वाले नारकी का आहार अधिक है।
. यहां यह तर्क किया जा सकता है कि आपने इस लोक के प्राणियों का.जो उदाहरण दिया है सो उससे कोई निश्चित नियम सिद्ध नहीं होता.। कभी-कभी यह देखा जाता कि छोटे शरीर वाला बहुत आहार करता है और बड़े शरीर वाला कोई प्राणी अल्प आहार करता है। ऐसी अवस्था में श्राप का दृष्टान्त कैलै घट सकता है ? .. " इसका समाधान यह है कि बहुत-सी बातें प्रायिक कथन रूप होती हैं अर्थात् वहुत-अधिकांश-को दृष्टि में रख कर कही जाती हैं। कहीं-कहीं यह बात अवश्य देखी जाती है कि बड़े शरीर वाला कम.और छोटे शरीर वाला अधिक आहार करता है । जुगलियों का शरीर अन्य मनुष्यों की अपेक्षा बड़ा होता है; लेकिन प्राहार उनका कम होता है। दूसरे मनुष्यों का शरीर जुगलियों की अपेक्षा छोटा होता है, मगर
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[ ६०३ ]
आहार उनका अधिक होता है । इसी प्रकार अन्यत्र भी इस क्रम में अन्तर देखा जाता है । ऐसा होने पर भी प्रायः यह सत्य ही है कि बड़े शरीर वाले का आहार अधिक होता है । अपवाद सभी जगह पाये जाते हैं, मगर सामान्य विधान भी होते ही हैं । प्रस्तुत कथन बहुतों को दृष्टि में रखकर ही किया गया है । श्रतएव बड़े शरीर वाला नारकी अधिक आहार करता हैं और छोटे शरीर वाला थोड़ा आहार करता है । कदाचित् नैरयिकों में भी आहार और शरीर का व्यतिक्रम कहीं पाया जाय, तो भी बहुतों की अपेक्षा यह कथन होने से निर्दोष है ।
नारकी जीव समान है ?
1
नरक के उन जीवों को, जो छोटे शरीर में उत्पन्न होते हैं, महात्रास नहीं होता और कुछ साता भी मिलती है । महा-'शरीर वाले नारकियों को क्षुधा की वेदना भी अधिक होती है और ताड़ना तथा क्षेत्र श्रादि से उत्पन्न होने वाली पीड़ा भी अधिक होती है।
बड़े को जितनी ताड़ना होती है, उतनी छोटे को नहीं । यह कथन प्रसिद्ध ही है कि हाथी के पैर के नीचे और जीव तो दबकर मर जाते हैं, परन्तु चींटी प्रायः वच जाती है ।
बड़े शरीर वालों का श्राहार भी बहुत होता है और परिणमन भी बहुत होता है । यह परिणमन श्राहार की अपेक्षा से हैं । इसी प्रकार बड़े शरीर वाले नैरयिक श्वास में. बहुत पुद्गल ग्रहण भी करते हैं और निश्वास में बहुत पुगलों को छोड़ते भी हैं। बड़े शरीर वाले को वेदना ज्यादा होती है इस कारण उन्हें श्वासोच्छ्वास भी ज्यादा लेना पड़ता है । छोट शरीर वाले को दुःख कम होता है, अतः उनका श्वासोच्छ्वास भी कम होता है ।
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श्रीभगवती सूत्र
[ ६०४ ]
इस वाक्य में 'जे' और 'ते' पद श्राये हैं । इनके संबंध में यह आशंका की जा सकती है कि अकेले 'जे' कह देने से काम चल सकता था, फिर 'ते' कहने की क्या श्रावश्यकता थी ? इस शंका का उत्तर यह है कि भाषा के सौन्दर्य के लिए 'ते' पद का प्रयोग किया गया है ।
भगवान् फर्माते हैं - हे गौतम! जिसका शरीर छोटा होता है, वह श्रहार कम लेता है और श्वासोच्छ्वास में भी कम पुद्गलों को ही ग्रहण करता है । इसके सिवाय कदाचित् आहार लेता है और कदाचित् नहीं भी लेता ।
शंका- पहले उद्देशक में नारकी जीवों के वर्णन में, कहा गया है कि नारकी जीव निरन्तर आहार करते हैं । यहाँ कहा जा रहा है कि कदाचित् श्रहार करते हैं, कदाचित् नहीं करते । दोनों कथन परस्पर विरोधी हैं । तव इनमें से किसे सत्य समझा जाय ?
समाधान - यह सारा कथन बड़े शरीर की अपेक्षा से है । इसके सिवाय जय जीव अपर्याप्त शरीर में होते हैं, तत्र लोम् - आहार की अपेक्षा से श्राहार नहीं करते हैं, पर्याप्त शरीर वाले होने पर आहार करते हैं। इसी दृष्टि कोण से यहकहा गया है कि कदाचित् आहार करते हैं और कदाचित् श्राहार नहीं करते हैं ।
उपर्युकं सब कथन का श्राशय यह है कि सब नंरक के जीव न तो समान आहार करते हैं, न समान श्वासोच्छ्वासं ही लेते हैं, क्योंकि उनका शरीर अपेक्षाकृत छोटा बड़ा है ।
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समकादि प्रश्नोत्तर
मूलपाठःप्रश्न-नेरइया णं भंते.! सबै समकम्मा ? उत्तर-गोयमा ! णो इणढे समटे । प्रश्न-से केणटेणं?
उत्तर-गोयमा ! नेरइया दुविहा पत्नत्ता, तंजहा-पुबोववन्नगा य, पच्छोववनगा य । तत्थणंजेतेपुवोववन्नगा तेणं अप्पकम्मतरागा, तत्थ णं जे ते पच्छोववनगा ते णं महाकम्मतरागा, से तेणटेणं गोयमा !
प्रश्न-नेरइयाणं भंते ! सव्वे समवन्ना ? उत्तर-गोयमा ! नो इणद्वे समझे ।
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श्रीभगवती सूत्र
[६०६] प्रश्न--से केणटेणं तह चेव० ?
उत्तर--गोयमा। जे ते पुब्बोववनगा ते णं विसुद्धवन्नतरागा, तत्थ एं जे ते पच्छोववनगा ते णं अविसुद्धवन्नतरागा, तहेव से तेण?णं एवं०
प्रश्न-नेरझ्या णं बंते ! सव्वे समलेस्सा ? उत्तर-गोयमा ! णो इणढे समहे। ..
प्रश्न--से केणटेणं जाव-'नो सम्वे समलेस्सा ?'
उत्तर-नेरइया दुविहा पण्णत्ता, तंजहापुव्वोववन्नगा य पच्छोववन्नगा यः तत्थ णं जे ते पुव्वोववन्नगा ते णं विसुद्धलेस्सतरागा, तत्थ णं जे ते पच्छोववन्ना ते णं अविसुद्धलेस्सतरागा, से तेणटेणं०
संस्कृत छाया-प्रश्न-नैरयिका भगवन् ! सर्वे समकर्माणः ?
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[६०७ ]
समकर्मादि प्रश्नोत्तर
उत्तर-गौतम ! नायमर्थः समर्थः ।
प्रश्न तत्केनार्थेन ?
उत्तर-गौतम ! नैरायका द्विविधाः प्रज्ञताः; तद्यथा-पूर्ती८पनकाश्च पश्चादुपपन्नकाश्च । तत्र ये ते पूर्वोपपन्नकास्तेऽल्पकर्मतरकाः, तत्र ये ते पश्चादुपपन्नकास्ते महाकर्मतरकाः, तत् तेनार्थेन गौतम ! •
प्रश्न-नैरयिका भगवन् ! सर्वे समवर्णाः ! उत्तर-गौतम ! नायमर्थः समर्थः । प्रश्न-तत् केनार्थेन-तथैव० ?
उत्तर--गौतम ! ये ते पूर्वोपपन्नकास्ते विशुद्धवर्णतरकाः, तत्र थे ते पश्चादुषपन्नकास्तेऽत्रिशुद्धवर्णतरकाः, तथैव तत् तेनार्थेनैवम् ।
प्रश्न-नैरायिका भगवन् । सर्वे समलेश्याः ?
उत्तर-गौतम ! नायमर्थः समर्थः । .
प्रश्न-तत्केनार्थेन, यावत्--'नो सर्वे समलेश्या !!
उत्तर-गौतम ! नैरयिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पूर्वोपपन्नकाच, पश्चादुपपन्नकाच। तत्र ये ते पूर्वोपपन्नकास्ते विशुद्धलेश्याः, तत्र ये ते पश्चादुपपन्नकास्तेऽविशुद्धलेल्याः । तत्तेनार्थेन
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श्रीभगवती सूत्र
[६०८] मूलार्थ-प्रश्न-भगवन् ! सत्र नारकी समान कर्म वाले हैं ?
उत्तर-गौतम ! यह समर्थ नहीं है ! प्रश्न-भगवन् ! किस कारण से ?
उत्तर-गौतम ! नारकी जीव दो प्रकार के कहे गये हैं । वह इस प्रकार-पूर्वोपपन्नक-पहले उत्पन्न हुए, और पश्चादुपपन्नक-पीछे उत्पन्न हुए। इनमें जो नरयिक पूर्वोपपन्नक हैं वे अल्प कर्म वाले हैं और जो पश्चादुपपन्नक हैं वे महाकर्म वाले हैं । इसलिए हे गौतम! इस हेतु से यह , कहा जाता है कि-'नारकी सब समान कर्म वाले नहीं हैं ?
प्रश्न-भगवन् ! सब नारकी समान वर्ण वाले हैं ? उत्तर-गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है।
प्रश्न-भगवन् ! सो किस कारण से ?-( ऐसा कहा जाता है कि सब नारकी समान वर्ण वाले नहीं है ?)
उत्तर-गौतम ! नारकी दो प्रकार के हैं-पूर्वोपपन्नक और पश्चादुपपन्नक । उनमें जो पूर्वोपपन्नक हैं वे विशुद्ध वर्ण • वाले और जो पश्चादुपपन्नक हैं वे अविशुद्ध वर्ण वाले हैं ।
इस लिए गौतम! ऐसा कहा गया है।
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( ६०९)
समर्मादि प्रश्नोत्तर प्रश्न-भगवन् ! सब नारकी समान लेश्या वाले हैं ? । उत्तर-गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है।
प्रश्न-भगवन् ! किस कारण से कहा जाता हैयावद-सब नारकी समान लेश्या वाले नहीं हैं ?
उत्तर-गौतम ! नारकी दो प्रकार के कहे गये हैं । वह इस प्रकार-पूर्वोपपन्नक और पश्चादुपपन्नक । उनमें
जो पूर्वोपपन्नक है वह विशुद्ध लेश्या वाले हैं, और उनमें - जो पश्चादुपपन्नक हैं वह अविशुद्ध लेश्या वाले हैं। इस " कारण ऐसा कहा जाता है कि सब नारकी समान लेश्या वाले नहीं है।
व्याख्यान-नारकियों के आहार आदि के सम्बन्ध में प्रश्न कर चुकने के पश्चात् अव गौतम स्वामी ने कर्म के विषय में प्रश्न किया है कि क्या सभी नारकियों के कर्म समान हैं ? सभी नारकियों का वर्ण समान है ? सभी नारकियों की लेश्या समान है ? इन तीन प्रश्नों के उत्सर में भगवान् ने फरमाया है-गौतम/ सब नारकियों के कर्म, वर्ण और लेश्या समान नहीं हैं । गौतम स्वामी ने इस असमानता का कारण पूछा, तब भगवान ने उत्तर दिया कि हे गौतम ! नरक के जीवों के दो भेद है:-प्रथम घे जो पहले उत्पन्न हुए हैं, और दूसरे चे जो बाद में उत्पन्न हुए हैं। जो जीव नरक में पहले उत्पन्न हो चुके हैं, उन्होंने नरक की यहुत-सी स्थिति भोग ली है, उनके बहुत से कर्मों की निर्जरा हो चुकी है। इस कारण
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श्रीभगवती सूत्र
ये अल्पकर्मी है । इसके विपरीत जो जीर बाद में उत्पन्न हुए है-हाल ही पैदा हुए हैं, उन्हें व त कर्म भोगने हैं, इसलिए वे बहुकर्मा हैं।
सगवान् का यह कथन भी अपेक्षा से ही समझना चाहिए । मान लीजिए, एक जीव दस हजार वर्ष की स्थिति बाँधकर हाल ही नरक में उत्पन्न हुआ। और दूसरा जीव कई सागर की स्थिति से, उससे बहुत पहले उत्पन्न हो चुका है । दस हजार की स्थिति वाला चाहे बाद में ही उत्पन्न हुआ है, फिर भी वह पूर्वोत्पन्न सागरोपम की स्थिति वाले नारकी को अपेक्षा लघुकर्मी ही होगा। और पहले उत्पन्न होने वाला, सागरोपम की स्थिति वाला, दस हजार वर्ष की स्थिति वाले की अपेक्षा बनुकर्मी होगा। अगर दो जीव समान स्थिति, बाँधकर नरक में गये हैं, तो उनमें से पहले उत्पन्न होने वाला खाधुकर्मी होगा और पञ्चात् उत्पन्न होने वाला यहुकर्मी होगा, क्योंकि पहले उत्पन्न: ए नारकी ने अपने अधिक कर्म भोग लिचे हैं और पश्चात् उत्पन्न होने वाले ने कम भोगे हैं।
का योग का जाना है पीर को प्रसन्न
यही वात वर्ण के विषय में है । शिसने स्थिति का कुछ भाष भोग लिया है. उसका वर्ण शुद्ध होता है और जो अभीअभी उत्पन्न हुआ है, उसले नहीं झोनम, इस कारण उसका अभी अशुद्ध होता है । अतएव जो जीवनरक में पहले उत्पन्न हो चुका है, उसका वर्ण शुद्ध है. जो बाद में उत्पन्न हुआ है उसका वर्ण, पूर्वोत्पन्न की अपेक्षा अशुख है।
. लेश्या के संबंध में भी यही बात है। लेश्या से यहाँ भाय लेश्या को ही ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि द्रव्य लेश्या
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[ ११]
समकादि प्रश्नोत्तर वर्ण में आ चुकी है। इस प्रकार जो जीव नरक में पहले उत्पन्न
हो चुका है उसकी भाव लेश्या पश्चात् उत्पन्न होने वाले जीव । की अपेक्षा शुद्ध है और पश्चात् उत्पन्न होने वाले की भाष
लेश्या पूर्वोत्पन्न की अपेक्षा अशुद्ध है।
उदाहरणार्थ-एक मनुष्य पहले जेल गया और दूसरा बाद में गया। पहले जेल जाने वाला प्रारम्भ में घवराया होगा, मगर उसके कारावास के दिन व्यतीत होते जात हैं, वैसे-वैले उसे शान्ति मिलती है और उसकी लेश्या शुद्ध होती जाती है। लेकिन जो मनुष्य हाल ही जेल में गया है, उसे पहले वाले की भांति शान्ति नहीं हुई है। अतएव उसकी लेश्या पेक्षाकृत अधिक अशुद्ध है।
यही वात नरक के जीव के लिए है । नरक के जीव की लेश्या भी अपेक्षाकृत ही शुद्ध और अशुद्ध बतलाई गई है। सामान्य रूप से तो नरक में अशुद्ध लेश्या ही पाई जाती है, मगर अधिक अशुद्ध की अपेक्षा कम अशुद्ध लेश्या को यहां शुद्ध लेश्या कहा है।
शुद्ध और श्रशुद्ध लेश्या किसे समझना चाहिए, इस बात पर संक्षेप में विचार किया जाता है । एमारे अन्तःकरण में जो भावना, वासना या इच्छा होती ,वह लेश्या कहलाती है।
सुना गया है कि वैज्ञानिक आज कल मन की भावनाओं का भी फोटो लेते हैं। कहा जाता है कि पहले फोटोग्राफरों को यह पता नहीं था कि मन के विकल्पों का चित्र खींचा जा सकता है, मगर एक घटना ऐसी घटी कि जिस
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श्रीभगवती सूत्र
[६१२] से यह पता चल गया । एक अंगरेज सजन ने एक महिला का चित्र खींचा । उसमें महिला के साथ मुर्गी के बच्चे और विल्ली का भी फोटो आ गया, क्योंकि महिला उनके सम्बन्ध में उस समय विचार कर रही थी। तभी यह पता लगा कि मन की भावनाओं का भी चित्र अंकित हो सकता है। मगर यह नहीं कहा जा सकता कि मानसिक भावना में किस कोटि की उग्रता हो तब उनका चित्र आता है, अन्यथा नहीं।
कहते हैं कि जिसके विचार अशुद्ध और क्रूर होते हैं, उसका फोटो भी भद्दा आता है। स्वार्थहीन, उदार तथा शुद्ध विचार वाले का फोटो साफ पाता है।
जैन शास्त्रों में उन्हीं मानसिक भावों के लिए लेश्या का निरूपण किया गया है और उनकी शुद्धता-अशुद्धता को देखकर विशिष्ट ज्ञानियों ने उनके कृष्ण, नील श्रादि छह भेद भी यताये हैं। उत्तरांध्ययन और प्रशापना सूत्र में लेश्याओं का विस्तृत वर्णन पाया जाता है। वहाँ उनके वर्ण, गंध, रस आदि का भी निरूपण किया है।
जिसके मन में जैसे विचार होते हैं, वैसे ही परमाणु उसके श्रा चिपटते हैं। जिसके मन में किसी की हत्या करने की भावना होगी, उसके काले और काले में भी अत्यन्त भद्दे पुदल प्रा चिपटेंगे । तात्पर्य यह है कि खोटे परिणाम होने पर रंग भी खोटा हो जाता है।
विज्ञान की अनेक उपयोगी वातें जैन शास्त्र में पहले ही बतला दी गई हैं, लेकिन आज वह वाते शास्त्र के पन्नों में ही पड़ी हुई है । यह हम लोगों की कमजोरी या उपेक्षा है। आज
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((' '६१३: ),
समकर्मादि प्रश्नोत्तरं
धर्मशास्त्र को गहराई से अध्ययन करने वाले और साथ ही. विज्ञान के पारंगत. पंडितः हमारे यहाँ नहीं है । अतएव उन
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'सब शास्त्रीय बातों पर यथेष्ट वैज्ञानिक प्रकाश नहीं पड़ता ।
.
लेश्याएँ छह हैं - (१) कृष्ण (२) नील (३) कापोत (४.) पतिः ( ५ ) पद्म और (६) शुक्ल । इनमें से जब कोई मनुष्य कृष्ण लेश्या को त्याग कर नील लेश्या में आता है, तबशास्त्रकारों के कथनानुसार वह कापोत. लेश्या की अपेक्षा अधिक अशुद्ध है, मगर कृष्ण लेश्या की अपेक्षा शुद्ध ही है । उसमें अपेक्षाकृत अधिक उदारता और शुभ विचार आ गये हैं । लेश्या के परिणामों की तरतमता समझाने के लिए, एक उदाहरण इस प्रकार है:
―
*
छह आदमी एक साथ जा रहे थे। उन्हें भूख लगी तो वे इधर-उधर दृष्टि दौड़ाने लगे । उन्हें एक फला हुआ श्रम, का वृक्ष दिखाई दिया। सबने श्रामं खाने का निश्चय किया । यहाँ तक सबके विचारों में समानता है, मगर आगे उनके विचारों में अन्तर पड़ जाता है। छहों में इस प्रकार वार्त्तालाप होने लगा ।
पहले ने कहा -- अपने पास कुल्हाड़ी भी है और अपन इतने आदमी हैं कि दो-दो हाथ मारते ही आम का पेड़ कट कर गिर जायगा । तब हम लोग मन चाहे श्राम खा लेगें ।
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थोड़े-से आम खाने हैं, मगर परम्परा तक. वृक्ष काट • गिराने से कितनी हानि होगी, इस बात का विचार इस आदमी को नहीं है ।
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दूसरे आदमी ने कहा- यह वृक्ष न जाने कितने दिन
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समवेदनादि प्रश्नोत्तर
.. मूलपाठःप्रश्न-नेरइया णं भंते ! सबै समवेयणा ? उत्तर-गोयमा ! णो इणढे समढे । प्रश्न-से केणठेंगणं ?
उत्तर--गोयमा ! नेरइयां दुविहा पन्नत्ता, तजहा-सरिणभूा य, असणिणसूत्रा यः तत्थं णं जे ते सणिणभूषा ते णं महावयणा, तत्थ. णं जे ते असण्णिभूषा ते णं अप्पवेयणतरांगा से तेणटेणं गोयमा !
प्रश्न-नेरइयाणं भंते ! सवे समकिरिया ? उत्तर-गोयमा ! णो इणढे समहे। .
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प्ति
!६१७]
समवेदनादि-प्रश्नोत्तर प्रश्न-से केंगडेण
उत्तर--गोंयमानेरइयां तिविहां पण्णना। तजहा सम्मदिही, मिच्छदिट्ठी, सम्मामिच्छदिट्ठी तत्थ णं जे ते सम्मदिही तेर्सि णं चत्तारि किरियानो पन्नता । तंजहा--प्रारंभिया, परिग्गहिया, मायावत्तिया, पञ्चक्खाणकिरिया। तत्थणं जेते मिच्छदिछी तसिंणं पंच किरीयात्रो कजति, तंज़हा-प्रारंभिया जाव मिच्छादसणवत्तिा । एवं सम्मा मिच्छादिहोणं पि से तेंणडेणं गोंयमा ! ।
प्रश्न-नेरइयाणं भंते ! सब्वे समाउमा सब्बे समोववन्नगा?
उत्तर--गौयमा ! णो इण्टे समठे। . . प्रश्न-से केणटेणं ? : उत्तर--गोयमा ! नेरइया चउविहा
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श्रीभगवती सूत्र
[६१८] पन्नता, तंजहा-अत्थेगइभा समाउना समो. ववन्नगा,अत्थेगासमाउप्राविसमोरवन्नगा, प्रत्येगमा विसमाउत्रा समोरवन्नगा, अत्थेगइना विसमाउना विसमोववन्नगा, से तेणटेणं मोयमा ! । .
संस्कृत-छायाप्रश्न-नैरयिका भगवन् ! सर्वे समवेदनाः?
उत्तर-गौतम ! नायमर्थः समर्थः ! प्रश्न-तत्केनार्थेन ?
उत्तर--गौतम ! नरयिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः । तद्यथासंज्ञिभूताश्च, असंज्ञिभूताश्च तत्र ये ते संज्ञिभूतास्ते महावेदनाः, तत्र ये ते.ऽसज्ञिभूतास्ते ऽल्पवंदनाः, तत्तेनार्थेन गौतम ! |
०
प्रश्न-नैयिका भगवन् ! सर्वेसमक्रियाः १ उत्तर-गौतम ! नायमर्थः समर्थः ।
प्रश्न-तत्केनार्थेनः १.
उचर-गौतम ! नारकास्त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सम्यादृष्टिः, मिथ्यादृष्टिः, सम्यग्-मिध्यादृष्टिः, तत्र ये ते सम्यग्दृष्टयस्तेषां
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[६१९]
समवेदनादि-श्नोत्तर चंतनः क्रियाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-प्रारम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यपा, अप्रत्याख्यानक्रिया । तत्र ये ते मिध्यादृष्टयस्तैः पंच क्रियाः क्रियन्ते, तद्यथा-प्रारम्भिकी यावद् मिथ्यादर्शनप्रत्यया, एवं सम्यग मिथ्यादृष्टिनामपि, तत् वेनार्थेन गौतम ? . !
प्रश्न-नैरयिका भगवन् ! सर्वे समायुष्काः, सर्वे समोपपन्नकाः १ उत्तर-गौतम ! नायमर्थः समर्थः ।
प्रश्न-तत् केनार्थेन । ..... उत्तर--गौतम ! नारकाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः । तद्ययाअस्त्येककाः समायुष्काः समोपपन्नकाः, अस्त्येककाः समायुष्काः विपमोपपन्नकाः, अस्येकका विपमायुष्काः समोपपन्नका, अस्येकका वित्रमायुष्का विपमोपपन्नकाः । तत् तेनार्थेन गौतम ! 01
मूलार्थ प्रश्न-भगवन् ! सब नारकी समान वेदना चाले हैं?
उत्तर-गौतम! यह समर्थ नहीं है ! प्रश्न-भगवन् ! किस कारण से ?
उत्तर-गौतम ! नारकी दो प्रकार के कहे गये हैं। वह इस प्रकार-संज्ञिभूत और असंज्ञिभूत । उनमें जो
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श्रीभगवती सूत्र
[ ६२९. ]]
संज्ञिभूत हैं वे महावेदना, चाले हैं। उनमें जो असंज्ञिभूत वे अल्पवेदना वाले हैं । इस कारण, गौतम ! ( ऐसा कहा जाता है कि सवः नारकी समान, वेदना वाले नहीं हैं ।).
प्रश्न- भगवन् ! सव नारकी समान क्रिया वाले हैं ? उत्तर - गौतम : यह अर्थ समर्थ नहीं है । .
..
प्रश्न- भगवन् ! सो- किस कारण से 2
1
उत्तर - गौतम ! नारकी तीन प्रकार के कहे गये हैं । वे इस प्रकार सम्यग्दृष्टि, मिध्यादृष्टि और सम्यग् - मिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि) उनमें जो सम्यग्दृष्टि हैं उन्हें चार क्रियाएँ कही गई है। वे इस प्रकार - आरंभिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया और अप्रत्याख्यानक्रिया । और जो मिथ्यादृष्टि हैं उन्हें पांच क्रियाएँ होती हैं । वे इस प्रकार - आरंभिकी यावत् मिथ्यादर्शनप्रत्यया । इसी प्रकार सम्यग् मिथ्यादृष्टि को भी समझना चाहिए । इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा जाता हैं कि सब नारकी समान क्रिया वाले नहीं हैं ।
प्रश्न- भगवन् ! सर्व नारकी समान आयुष्य वाले और समोपपन्नक (एक साथ उत्पन्न होने वाले ) हैं ?
उत्तर --- गौतम, 1. यह अर्थ समर्थ नहीं है ।
प्रश्न- भगवन् ! किस कारण से :..
1
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[६२१]
समवेदनादि-प्रश्नोत्तर - उत्तर-गौतम ! नारकी चार प्रकार के कहे गये. हैं । वह इस प्रकार-कोई कोई समान आयु वाले और एक साथ ही उत्पन्न होने वाले हैं, कोई-कोई समान आयु वाले परन्तु विषमोपपन्नक-आगे-पीछे उत्पन्न होने वाले हैं । कोई-कोई विषम आयु वाले और एक साथ उत्पन्न होने वाले हैं और कोई-कोई विषम आयु वाले तथा आगे-पीछे उत्पन्न होने वाले हैं। इस कारण गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि सब नारकी समान आयु वाले और एक साथ उत्पन्न होने वाले नहीं हैं।
व्याख्यान लेश्यासंबंधी प्रश्नोचर के पश्चात् गौतमस्वामी ने वेदना के विषय में प्रश्न किया है। वह पूछते हैंभगवन् ! क्या सभी नरक के जीवों को एक सरीखी वेदना होती है ? भगवान ने इस प्रश्न का उत्तर निषेध में दिया है। तब.गौतम स्वामी फिर प्रश्न करते हैं-भगवन् ! क्या कारण है कि.नरक के सब जीवों को एक-सरीखी वेदना नहीं होती? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फर्माया है-नारकी जीवों में कोई संनिभूत होते हैं और कोई असंशिंभूत होते हैं । संक्षिभूत नारकियों को बहुत वेदना होती है। और भंसंज्ञिभूत नारकियों को अल्प वेदना होता है।
यहां प्रश्न उपस्थित होता है कि समिभूत और असंशिभूत किसे कहते हैं ? इस संबंध में टीकाकार का कथन है कि संकी का अर्थ है-सम्यग्दर्शन अर्थात् शुर'या। सम्यग्दर्शन
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श्रीभगवती सूत्र
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वाले जीव को संक्षी कहते हैं और जिन्हें संक्षीपन प्राप्त हुआ है, उसे संक्षिभूत कहते हैं ।
- "
संशिभूत का दूसरा अर्थ है - जो पहले संधी (मिथ्यादृष्टि ) थे और द संजी ( सम्यग्दृष्टि ) हो गये हैं, अर्थात् जिन्हें सम्यग्दर्शन रूप जन्म मिला हैं, नरक में ही जो मिथ्यात्व छोड़कर सम्यग्द्दष्टि हुए हैं, वे संज्ञी कहलाते हैं । संक्षित को बहुत वेदना होती है |
यह आशंका की जा सकता है कि सम्यन्हटि को कम वेदना होनी चाहिए परन्तु यहां अधिक वेदना बतलाई गई है । इसका क्या कारण है ? इस आशंका का समाधान यह है कि सम्यग्दृष्टि जब नरक में जाता है-या नारकी को जब सम्यन दर्शन हो जाता है तब वह अपने पूर्वकृत कर्मों का विचार करता है और सोचता है: -'अहो ! मैं कैसे घोर संकट में श्रा पड़ा हूँ ! यह संकट अचानक ही श्रां गया है। भगवान् श्रन्त का धर्म सब संकट टालने वाला और परमानन्द देने वाला है, उसका मैं ने श्रांचरण नहीं किया । इसी कारण यह अचिन्तित आपदा श्री पड़ी है । मैं विषय रूपी विष के लालच में फंस गया, जो ऊपरी दृष्टि से अच्छे प्रतीत होते थे, मगर जिनका परिणाम अत्यन्त दारुण है ! इन विषयों के जाल में फंस जाने के कारण ही मैंने अर्हन्त भगवंत के धर्म का आचरण नहीं किया । और श्रव इस घोर विपदा में पड़ा हूं ' इस प्रकार का पश्चात्ताप संनिभूत नारकी को होता है जिससे उसकी मानसिक वेदना, ग्लान और क्षोभ बढ़ जाता है और वह महान् वेदना का पात्रं होता है।
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असंक्षिभूत को यह मालूम ही नहीं कि 'हम अपने कर्म -
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[६२३]
समवेदनादि-प्रश्नोत्तर
का फल भोग रहे हैं।' अतरव उन्हें पश्चात्ताप नहीं होता और न मानसिक पीड़ा ही होती है। इसी कारण असशिभूत. को कम वेदना होती है।
__ यह वात लोक व्यवहार में भी देखी जाती है। कोई कुलीन तथा बुद्धिमान् पुरुष, अपने पूर्वजों की सुशिक्षा को जानता हो, उस पर श्रद्धा भी रखता हो, और कुमार्ग से घृणा करता हो, तथापि कभी किसी के बहकाने-फुसलाने में पाकर अगर कोई नीति विरुद्ध काम कर डालता है, और कदाचित् उसे कारागार की सज़ा मिलती है तो उसके पश्चात्ताप की सीमा नहीं रहती। आत्मग्लानि की घोर वेदना से वह बेचैन रहता है। कारागार के कभी-कभी होने वाले कप्टों की अपेक्षा आत्मग्लानि और पश्चात्ताप का कष्ट उसके लिए बहुत अधिक और असह्य हो जाता है। इसके विपरीत जो, अकुलीन और निर्लज हैं, उनके लिए कारागारं सुसराल बन जाता है । उन्हें न पश्चात्ताप होता है, न ग्लानि होती है। वे वहाँ मस्त और प्रसन्न रहते हैं। ऐसे लोगों को कारागार में कम कष्ट होता है।
तात्पर्य यह है कि सम्यग्दृष्टि को वेदना अधिक होती है, क्योंकि उसे पश्चात्ताप अधिक होता है और असशिभूत अर्थात् मिथ्यादृष्टि को कम वेदना होती है क्योंकि स्वकृत कर्म को न जानने से उन्हें पश्चात्ताप नहीं होता। यह एक प्राचार्य का अभिप्राय है।
बहुत से लोगों को अपने विषय में ही यह नहीं मालूम होता है कि मैं सम्यग्दृष्टि हूं। इस बात को जानने के लिए अपने आत्मा को अपने ही गज से नापना चाहिए। जिस.
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श्रीभगवती सूत्र.
[२८] का उत्तर यह है कि शास्त्र रखना जीत-श्राचार है भगवान ने कहा है कि पाँच प्राचार्य मिल कर जिस श्राचार की स्थापना करें और जो लोक एवं लोकोत्तर व्यवहार के विरुद्ध न हो वह '. जीत-व्यवहार कहलाता है। इस प्रकार ले स्थापित किया । हुआ श्राचार प्रामाणिक होता है।
तीसरी क्रिया मायाप्रत्यायिकी है। सरलता का भाव न होना-कुटिलता का होना माया है। क्रोध और मान आदि कषाय.माया के उपलक्षण है, अतएव इनकी गणना भी माया में ही समझना चाहिए । अतपंवः काम, क्रोध, मान, मोह
आदि माया के अन्तर्गत है । काम, क्रोध आदि के निमित्त से मायावत्तिया (मायाप्रत्ययिकी) क्रिया होती है।
चौथी क्रिया अप्रत्याख्यान क्रिया है। कर्म बंध के कारण का त्यागन करना अप्रत्याख्यान किया है।
__ कई लोगों का. कथन है कि अगर हम जान-बूझकर कोई काम नहीं करते, अनजाने में कोई काम हो जाता है, तब क्रियां कैसें. लग. सकती है ? इसका समाधान: यह है कि गफलत के कारण क्रिया लगती है:। गफलत न करके, अगर मर्यादा करली.जाय तो क्रिया नहीं लगती। गफलत करने वाले को सजा मिलती ही है।
· पाँचवी मिथ्यादर्शन किया है.।.अजीव को.जीव, जीव. कों अजीव, धर्म को अधर्म, अधर्म को धर्म, साधु को असाधुः और अंसाधु को साधु समझना, इस प्रकार विपरीत अष्टिः होना मिथ्यादर्शन हैं। इसके निमित्त से लगने वाली क्रिया मिथ्यादर्शन क्रिया कहलाती है।
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[६२९]
समवेदनादि प्रश्नोत्तर
भंगवान् फर्मातें हैं-सम्यग्दृष्टि को पहली चार क्रियाएँ लगती है, मिथ्यादर्शन की क्रिया नहीं लगती है।'
यहाँ यह विचारणीय है कि नरयिकों के पास हल, . कुदाली श्रादि प्रारंभ के साधन विद्यमान नहीं हैं, फिर भी उन्हें प्रारंभिंकी क्रिया क्यों लगती है ?. उन्हें इस क्रिया के
लगने का कारण उपयोग का अभाव है। बाह्य परिग्रह भी . उनके पास नहीं है, पर ममता के कारण परिग्रहिकी क्रिया
उन्हें लगती है । नरक के जीव घोर दुःख में पड़े हैं। वे मायाचार क्या करते हैं ? मगर वे क्रोध करते हैं, इस कारण मायावत्तिया क्रिया उन्हें लगती है। उन्हें भोग-विलास प्राप्त
नहीं हैं और न प्राप्त होने की अनुकूलता ही है, लेकिन उन -: में मोह विद्यमान है और अप्रत्याख्यानावरण कपाय का क्षयो
पंशम नहीं हुआ है, इस कारण वह प्रत्याख्यान नहीं कर सकते। प्रत्याख्यान न करने से उन्हें अप्रत्याख्यान क्रिया लगती है।
- शंका-शास्त्र में मिथ्यात्व, अविरति,प्रमाद, कषाय और योग को कर्मबंध का कारण बतलाया है। मगर यहाँ प्रारंभ
आदि को कर्मबंध का कारण कहा है। सो दोनों कथन परस्पर 'विरोधी क्यों न माने जाएँ? .
समाधान-दोनों कथनों में तात्विक विरोध तनिक भी नहीं है । एक जगह योग को कारण कहा है, दूसरी जगह 'प्रारम्भ-परिग्रह को कारण बतलाया है। यह दोनों योग के • अन्तर्गत है । शष दोनों ओर तीन-तीन रहे। एक ओर मिथ्यात्व, अविरति और कषाय है, दूसरी ओर मिथ्यादर्शन,
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श्रीभगवती सूत्र
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श्रप्रत्याख्यान और माया हैं । इन में लेशमात्र भी विरोध नहीं है । अतएव शब्दों का किंचित् भेद होने पर भी वस्तु दोनों जगह एक ही है ।
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[ ६३० ]
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नारकियों में जों सम्यग्दृष्टि हैं उनमें चार क्रियाएँ होती .. हैं. और जो मिथ्यादृष्टि हैं उनमें पांचों क्रियाएँ होती हैं ।
इसके पश्चात् गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं-भगवन् ! सब नारकी समान श्रायु वाले और साथ ही उत्पन्न हुए हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् फर्माते हैं-नहीं गौतम ! ऐसा नहीं है । तब गौतम स्वामी द्वारा कारण पूछने पर भगवान् उत्तर देते हैं:
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गौतम ! इस अपेक्षा से नारकी चार प्रकार के हैं। कई समान आयु वाले और साथ ही उत्पन्न हुए हैं, जैसे स्थिति दस-दस हजार वर्ष की है और उत्पन्न भी साथ-साथ हुए हैं । यह समायु और समोपनक कहलाते हैं । दूसरे समान आयु वाले और विषम उत्पत्ति वाले हैं, जैसे श्रायु तो दस-दस हजार वर्ष की है मगर एक साथ उत्पन्न नहीं हुए हैं। तीसरे 'विषम आयु वाले और सम उत्पत्ति वाले हैं, जैसे एक साथ उत्पन्न होने वाले दस हजार वर्ष की और एक सागरोपम स्थिति वाले । चौथे विषम आयु वाले और विषम उत्पत्ति वाले हैं, अर्थात् जिनकी आयु भी समान नहीं है और उत्पत्ति भी एकसाथ नहीं हुई है । इस चौभंगी के कारण सब नारकी समान श्रायु वाले और एक साथ उत्पन्न हुए नहीं है ।
नारक जीवों के पहले दो भेद किये थे, फिर तीन भेद किये और यहाँ चार भेद किये गये हैं । इसमें पारस्परिक
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[ ६३१ ]
समवेदनादि - प्रश्नोत्तर
विरोध की संभावना नहीं करना चाहिये । प्रत्येक वस्तु में नेक धर्म पाये जाते हैं । उन धर्मों के आधार पर उनकी जाति (समूह) को विभिन्न दृष्टियों से विभिन्न संख्यक भेदों जा सकता है । जैसे, किसी कक्षा में पाँच विद्यार्थी हों तो उन्हें प्रान्त के भेद से दो भागों में विभक्त किया जा सकता है, उम्र के लिहाज़ से उनके तीन भेद किये जा सकते हैं, वस्त्रों की अपेक्षा चार भेद किये जा सकते हैं और व्यक्तित्व के आधार पर वह पाँच हैं । यही बात यहाँ नारक जीवों के विपय में है ।
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ब्राखुर कुमार देव-सच समान है !
मूल पाठप्रश्न-असुरकुमारा णं भंते ! सवे समाहारा, समसरीरा ?
उत्तर-जहा नेरइया तहा भाणियब्वा, नवरं-कम्म-वण्ण-लेस्साश्रो परिवणणेवाश्रो-पुव्वोववण्णा महाकम्मतरा, अविसुद्धवगणतरा, अविसुद्धलेस्सतरा । पच्छोववरणा पसत्था, सेसं तहेव । एवं जाव थणियकुमाराणं ।
संस्कृत-छाया-प्रश्न-असुर कुमारा भगवन् ! सर्वे समाहाराः, समशरीरा
उत्तर-यथा नैरयिकास्तथा भणितव्याः , नवरम-कर्म-वर्ण
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[ ६३३ ]
असुरकुमारादि की समानता ?' लेझ्याः परवर्गातम्या:-पूर्वोपपन्ना महाकर्मतराः, अविशुद्धवर्णतराः, अवशुद्धलट्यानमः । पश्चादुपपन्नाः प्रास्ताः, शेषं तथैव । एवं यावत् . स्तनित-कुमारः।
मूलार्थ-प्रश्न-भगवन् ! सब असुरकुमार समान आहार वाले और समान शरीर वाले हैं ?
उत्तर--गौतम ! असुर कुमारों का वर्णन नारकियों के समान कहना चाहिए। रिशेपना यह है कि-असुरकुमारों के कर्म, वर्ण और लेश्या नारक्रियों से विपरीत कहना - चाहिए । अर्थात् पूर्वोत्पन्न असुरकुमार महाकर्म वाले, अवि
शुद्ध वर्ण वाले और अशुद्ध लेश्या वाले हैं । पश्चात् उत्पन्न होने वाले प्रशस्त हैं । शेप पहले के समान समझना । इसी प्रकार स्तनित कुमारों तक जानना चाहिए।
व्याख्यान-पहले दंडक नारकी के विपय में प्रश्नोत्तर हो चुके । अब अलुरकुमारों के दूसरे दंडक के विषय में प्रश्नो. त्तर प्रारंभ होते हैं।
गौतम स्वामी पूछते हैं कि असुरकुमार जाति कीअपेक्षा एक ही है तो क्या उन सबका आहार और शरीर भी समान है ? इसके उत्तर में भगवान ने, फर्माया है-गौतम! ऐसा नहीं है । असुरकुमारों के विषय में भी सभी बातें नैरयिकों के समान ही हैं । अन्तर केवल यह है कि असुरकुमारों का कर्म, वर्ण और लेश्या, नरयिकों के कर्म, वर्ण और लेश्या स विपरीत समझना।
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श्रीभगवती सूत्र
[ ६३ ]
भगवान् ने संक्षेप में यह उत्तर दिया है। टीकाकार विपय को स्पष्ट करने के लिये कहते हैं कि यद्यपि श्रनुरकुमारों के आहार का सूत्र नैरयिकों के आहार के सूत्र ही के समान है, तथापि नैरयिकों का आहार किस अपेक्षा से कहा है और असुरकुमारों का किस अपेक्षा से कहा है, यह भेद जानने योग्य है ।
नार की जीवों के समान असुरकुमार भी अल्पशरीर वाले और महाशरीर वाले हैं । महाशरीर वाले असुर कुमार बहुत पुद्गलों का श्राहार करते हैं, बारम्बार श्राहार करते हैं और बार-बार उच्छ्वास लेते हैं । श्रल्पशरीरवाले असुरकुमार थोड़े पुद्गलों का आहार करते हैं, वारम्वार श्राहार नहीं करते हैं और बार-बार उच्छ्वास भी नहीं लेते हैं ।
असुरकुमारों का स्वाभाविक शरीर जघन्य अंगुल के संख्यात भाग का और उत्कृष्ट सात हाथ का है । उत्तर वैक्रिय की अपेक्षा जघन्य अंगुल के संस्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक लाख योजन है ।
असुरकुमारों का आहार मानसिक आहार समझना चाहिए । वे इच्छा करते हैं और उसी समय उनकी जाती है । उनका आहार सामान्यतया मनुष्य के समान नहीं मिट भूख होता । अल्प शरीर वालों का कम आहार और महाशरीर वालों का अधिक श्राहार अपेक्षाकृत समझना चाहिए ।
: शंका - कोई-कोई देव मनुष्य की तरह कवलाहार करते हैं और कोई-कोई रोम से भी आहार करते हैं। फिर यहां देवों को मानसिक आहार करने वाला क्यों कहा है ?
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[ ६५ ]
असुर कुमारादि की समानता १
समाधान - देवों का प्रधान आहार मानसिक ही होता है। वे विशेष तया मानसिक आहार ही करते हैं और शास्त्र मैं विशेष की बात ली जाती है। अतएव देवों को मानसिक आहारी कहा है।
अल्प शरीरी और महाशरीरी का अल्पाहार तथा महाश्राहार धपेक्षा से ही है किसी असुरकुमार का शरीर सात हाथ का है और किसी का छह हाथ का । सात हाथ वाले की अपेक्षा छह हाथ वाले का आहार कम है, परन्तु पांच हाथ वाले की अपेक्षा छह हाथ वाले का अधिक है । इस प्रकार का कम अधिक होना अपेक्षाकृत ही है ।
शंका- सुरकुमार का श्राहार चतुर्थ भक्त का और श्वासोच्छवास सात स्तोक में कहा है । फिर यहां बार-बार श्राहार और उच्छ्वास क्यों कहा ?
समाधान - बार-बार का आहार भी अपेक्षाकृत ही समझना चाहिए । एक असुरकुमार चतुर्थ भक्त अर्थात् एक दिन के अन्तर से आहार करता है और दूसरा हजार वर्ष में एक बार श्राहार करता है । हजार वर्ष में एक बार श्राहार करने वाले की अपेक्षा एक दिन के अन्तर से आहार करने वाला बार-बार प्रहार करता है और पांच दिन में आहार करने वाला कदाचित् श्राहार करता है । लोक में भी ऐसा ही व्यवहार होता है । यही बात श्वासोच्छ्वास के संबंध में भी समझनी चाहिए। कोई सात स्तोक में श्वास लेता है औौर कोई एक वक्त में श्वास लेता है। पक्ष में एक बार उच्श्वास लेने वाले की अपेक्षा सात स्तोक में श्वास लेने वाला वार-वार श्वास लेता है।
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[ ६६ ]
भगवती सूत्र
श्रथवा - अल्पशरीरी का अल्पाहार और अल्पश्वास तथा कदाचित् आहार और कदाचित् श्वाम ग्रन्तराल की अपेक्षा से कहा है अल्प शरीर वालों के आहार और श्वासोच्छ्वान में अन्तराल बहुत पड़ जाता है, इस अपेक्षा में यह कथन किया है।
अन्तराल का अर्थ है-चीच या श्रांरा । एक आहार और दूसरे आहार के बीच का समय अन्तराल, श्रांतरा व्यवधान. या अन्तर कहलाता है ।
यद्यपि महाशरीर वाले के आहार में भी अन्तराल हैएक दिन का अन्तर पड़ता है, परन्तु वह अन्तर अत्यल्प है, इसलिए नगण्य है | नगण्य होने के कारण ही अल्प शरीरी की अपेक्षा महाशरीरी का आहार अभीक्ष्ण आहार कहा है । .. यह वातं श्रागम से भी सिद्ध है कि महाशरीर वाले का आहार वारंवार होता है और अल्पशरीर वाले का हार, अन्तरालबड़ा होने से बार-बार नहीं होता । यथा- प्रथम देवलोक के देव का शरीर सात हाथ का है। उनका आहार दो हजार वर्ष के अन्तर से और उच्छ्वास दो पक्ष के अन्तर से होता है । . अनुत्तर विमान के देव का शरीर एक हाथ का है और उनका - श्राहार तैंतीस हजार वर्ष के अन्तर से तथा श्वासोच्छ्वास तैतीस पक्ष के अन्तर से होता है इस अपेक्षा से, प्रथम ... देवलोक के देवों का शरीर बड़ा है इसलिए वे आहार और उच्छ्वास भी बार-वार लेते हैं । इनकी अपेक्षा अनुत्तर विमान के देवों का शरीर छोटा है, इस लिए वे आहार और उच्छ्वास भी अल्प लेते हैं । यही बात असुरकुमारों के विषय में है ।
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अथवा पर्याप्त अवस्था में महाशरीरं वाले असुरकुंमार लोमाहार की अपेक्षा बार-बार श्राहार लेते हैं और अपर्याप्त
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श्राभगवता सूत्र
[६४०] प्रश्न- पुढविक्काइया णं भंते ! सब्बे समकिरिया ? .. उत्तर-हता. समकिरिया।
प्रश्न-से केणटेणं ?
उत्तर-गोयमा ! पुढविस्काइया सब्वे मायी मिच्छादिट्ठी । ताणं णिप्रभाश्रो पंच किरियानो कज्जति, तंजहां-बारभिया जान मिच्छादसणवत्तिया से लेंगटेणं० । समाउना, समोरवन्नगा जहा नेरइया तहा भाणियब्वा । ___ संस्कृत-छाया---पृथिवी कायिकानामाहार-कर्म: वर्ण-लेश्या यथा नयिकाणाम् ।
प्रश्न-पृथिवीकायिका भगवन् ! सर्वे समवेदनाः ? ‘उत्तर- हन्त, समवेदनाः । ।
प्रश्न- तत्केनार्थेन भगवन् ! समवेदनाः । : उत्तर-गौतम! पृथिवीका यका. सर्वेऽसंज्ञिनोऽसज्ञिभूता अनियतन वेदनां वेदयान्त, तत्तनार्थेन ।
... ..
......
......
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६४१ ]
पृथ्वीकाय की समानता है ?
प्रश्न-पृथिवीकायिका भगवन् ! सर्वे समक्रियाः ?
उत्तर-हन्त, समक्रियाः । प्रश्न-तत्केनार्थेन ?
उत्तर-गौतम ! पृथिवीकायिकाः सर्वे मायिनो मिध्यादृष्टयः । तैर्नियतिकाः पञ्च क्रियाः क्रियन्ते, तद्यथा-प्रारम्भिकी यावद् मिध्यादर्शनप्रत्यया ।. तत्तेनार्थेन । समायुष्काः, समोपपन्नकाः, यथा नैरयिकास्तया भणितव्याः।
... मूलार्थ-पृथिवीकाय के जीवों का आहार, कर्म, वर्ण और लेश्या नारकियों के समान समझना चाहिए। .
प्रश्न--भगवन् ! थिवीकायिक अब समान वेदना
वाले हैं ?
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उत्तर-हाँ गौतम ! समान वेदना वाले हैं। .. , प्रश्न भगवन् ! किस कारण से समान वेदना वाले हैं ? (ऐसा कहा जाता है ) .. .:: उत्तर-गौतम ! सब पृथिवीकायिक जीव असंज्ञी हैं
और असंज्ञिभूत वेदना को अनिर्धारित रूप से वेदते हैं, इस कारण हे गौतम ! ऐसा पूर्वोक्तं कहा गया है।
. .
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श्रीभगवती सूत्र
[ ६५ ]
श्रावक को आरंभिकी, पारि हिकी और माचाप्रत्यया क्रिया लगती है । तेरहपंथी सम्प्रदाय की मान्यता है कि . श्रावक का लेन देन खान-पान आदि सब एकांत अत में है और व्रत पाप में हैं । अतएव श्रावक का लेन-देन, खानापीना, आदि सब एकान्त पापरूप है । इसीलिए श्रावक को भोजन आदि देना एकान्त पाप है। उनके कथनानुसार सिर्फ तेहपंथी साधुओं को आहार देने से व्रत निपजता है । तेरहपंथी साधुओं के सिवाय और सबको देना पाप है ।
*
इस प्रकार श्रव्रत का नाम लेकर वे श्रावक के सभी काम में एकान्त पाप कहते हैं मगर उनसे पूछना चाहिए कि व्रती को पुण्य होता है या नहीं ? और वह स्वर्ग जाता है या नहीं ? इसके उत्तर में वे कहते हैं-श्रव्रती स्वर्ग तो जाते हैं मगर व्रत सेवन से नहीं, वरन् वह जो तप करता है, श्रकाम कष्ट सहन करता है और वस्तुओं का त्याग करता 'है' इस कारण स्वर्ग जाता है । अव प्रश्न यह उपस्थित होता है किं. उसने जो तप किया है, कष्ट सहन किया है, यह सत्र व्रत 'मैं समझा जाय या अत में ? और वह किस चौकड़ी का क्षयोपशम करता है ? इन प्रश्नों का उनसे कुछ भी उत्तर नहीं बन पड़ता । नगर उसका कष्ट सहन भी व्रत में है तो श्रवत से स्वर्ग नहीं मिलता, अतएव उसे स्वर्ग भी नहीं मिलना चाहिए ।
तेरहपंथी भाई श्रावक को अव्रत कैसे लगाते हैं, यह समझ
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[६५३ ]
द्वीन्द्रिय आदि जाव समान हे ? में ही नहीं आता। समझ में प्राने योग्य बात भी तो नहीं । है । भगवान ने संयतासंयत तिर्यंच पंञ्चेन्द्रिय को भी तीन ही क्रियाएँ बतलाई हैं, मगर तेरहपन्थी मनुष्य श्रावक को भी अव्रत की क्रिया लगाते हैं। अगर यह कहा जाय कि श्रावक स्वस्त्री का श्रागार रखता है, इसलिए वह अवती है. तो फिर भगवान् ने श्रावक को तीन ही क्रियाएँ क्यों वत. लाई हैं ? भगवान ने उसे अवत की क्रिया प्यों नहीं चतलाई? कदाचित् वे यह कहे कि श्रावक में पूर्ण रूप से श्रव्रत नहीं पाया जाता, इस लिए.अव्रत की क्रिया नहीं बतलाई गई है। उसमें तीन क्रिया पूरी है, चौथी अधूती है। श्रावक ने जितना त्याग किया है उतनावत में है, अतएव उसे चौथी क्रिया नहीं यतलाई । इस पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि श्रावक ने अप्रत्याख्यानावरण का क्षयोपक्षम किया है, वह क्या कहलाया? थावक में एक देश व्रत होने से अगर अत्रत की क्रिया नहीं लगती तो माया की क्रिया भी नहीं लगनी. चाहिए क्योंकि श्रावक में माया भी एक देश से ही है। मगर माया की क्रिया तो दसवें गुणस्थान तक लगना कहा है। किञ्चित् लोभ रहने से भी प्रिया बतलाई है, फिर एक देश से चौथी क्रिया लगने पर भी श्रावक को प्रनत क्रिया क्यों नहीं बताई ?
तेरहपन्थी पूछते हैं-श्रावक ने जितने अंशों में त्याग किया है, उतने अंशों में व्रत.है, मगर जितने अंशों में त्याग नहीं किया, उतने अंश किसमें गिनने चाहिए। इसका उत्तर यह है कि त्यागने से जो शेष रह गया है वह परिग्रह में शामिल है, क्योंकि श्रावक में परिग्रहि की किया विद्यमान है। इस विषय का विशेष विचार 'सद्धर्ममण्डन' नामक ग्रन्थ में किया गया है।
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श्रीभगवती सूत्र
[६५४ तात्पर्य यह है कि अनन्तानुवन्धी चौकड़ी का उदय होने पर पांच, अप्रत्याख्यानावरण चौकड़ी के उदय में चार, प्रत्याख्यान चौकड़ी की विद्यमानता में तीन क्रियाएँ लगती - है.। जव कपाय की निवृति हो जाती हैं तर क्रिया की भी । निवृत्ति हो जाती है। __ . गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं भगवन ! तिथंच पञ्चेन्द्रिय विवेकहीन और विकल माने जाते हैं, इसलिए क्या सब पञ्चन्द्रिय तिर्यंच जीव समान किया वाले हैं? वे सब समान कर्मवंध करते हैं या कम-ज्यादा? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फर्माया है-हे गौतम! सव पंचेन्द्रिय तिर्यंच समान क्रिया वाले नहीं है, क्योंकि उनके तीन भेद हैं-उनमें कोई सम्यग्दृष्टि: है, कोई मिथ्यादृष्टिं हैं, कोई मिश्रदृष्टिं हैं। सम्यग्दृष्टि भी दो प्रकार के हैं, कोई संयतासंयत हैं और कोई असंयत हैं। संयतासंयत के पूर्वोक्त तीन, असंयत सम्यग्दृष्टि के चार तथा मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि के पांचों क्रियाएँ लगती हैं। .
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मनुष्य का वर्णन है
मूलपाठमणुस्सा जहा नेरइया, नाणत्तं-जे महांसरीरा ते वहुतराए पाग्गले अाहारेंति, ते श्राहच्च अाहारेति । जे अप्पसरीरा ते अप्पतराए पोग्गले अाहारेंति । अभिक्खणं २ श्राहारेति । सेसं जहा णेरइयाणं जाव-वेयणा ।
प्रश्न-मणुस्सा णं भंते ! सबे समकिरिया ? उत्तर-गोयमा ! णो इणढे समझे। प्रश्न-से केणटेणं ? उत्तर-गोयमा ! मणुस्सा तिविहापण्णत्ता.
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श्रीभगवता सूत्र
1 ६५६
तं जहा - सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्टी, सम्मामिच्छादिट्ठी, तत्थ णं जे ते सम्मदिट्टी ते तिविहा पण्णत्ता, तं जहा - संजया, संजयासंजया, श्रसंजया । तत्थ एणं जे ते संजया ते दुविहा पन्नत्ता- सरागसंजया य, वीरागसंजयाय । तत्थ णं जे ते वीरागसंजया ते णं अकिरिया | तत्थ णं जे ते सरागसंजया ते दुबिहा पन्नत्ता,
जहां- पमत्तसंजया य, अप्पमत्तसंजया य ।
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तत्थ णं जे ते अप्पम संजया तेसिं णं एगा
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मायावत्तिया किरिया : कजइ । तत्थ णं जे ते
कजंति,
पम संजया तो णं दो किरिया तं जहा - प्रारंभिया, मायावचित्रा । तत्थ णं जे ते संजयासंजया तेसिं णं आइल्लाओ तिरिण किरिया कज्जंति, तं जहा - प्रारंभिया, परिगहिया, मायावृत्तिया । असंजयाणं चत्तारि
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। ६५७
सनुष्य-वर्णन
किरियात्रों कजति-प्रारंभिया, परिग्गहियो, मायांवत्तिया, अपञ्चक्खाणपञ्चया । मिच्छादिट्ठीणं पंच-प्रारंभिया, परिग्गहिया, मायावत्तिया, अपचक्खाणपञ्चया,मिच्छादसणवत्तिया। सम्मामिच्छादिट्ठीणं पंच।
संस्कृत-छाया-मनुष्या यथा नैरयिकाः, नानात्वं-ये महाशरीरास्ते बहुतरान् पुद्गलानाहारयन्ति, ते पाहत्याऽऽहारयन्ति । येऽल्पशरीरास्ते अल्पतरान पुद्गलानाहारयन्ति । अभीक्षणं २ आहारयन्ति | शेषं यथा नैरयिकानाम् , यावद् वेदना ।
प्रश्न-मनुष्या भगवन् ! सर्वे समक्रियाः ? उत्तर-गौतम् ! नायमर्थः समर्थः । प्रश्न-तत्केनार्थेन !
उचर-गौतम! मनुप्यात्रिविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सम्यग्दृष्टिः, मिव्यादृष्टिः, सम्यग्-मिथ्यादृष्टिः । तत्र ये ते सम्यग्दृष्टयस्ते त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-संयताः, संयताऽसंयताः, असंयताः । तत्र ये ते संयतास्ते द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सरागसंयताः, वीतरागसंयंताश्च
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श्रीभगवती सूत्र
[६९८]
तत्र ये ते वीतरागसंयतास्तेऽक्रियाः । तत्र ये ते सरागसंयतास्ते . द्विविधाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा- प्रमत्तसंयताश्च, अप्रमत्तसंयतःश्च । तत्रं ये ते अप्रमत्तसंयतास्तैरेका मायाप्रत्यया क्रिया क्रियते । तत्र ये ते प्रमत्तसंयतास्तै क्रिये क्रियते, तद्यथा-श्रारम्भिकी, मायाप्रत्यया । तत्र ये ते संयतासंयतास्तर द्यास्तिसः क्रियाः क्रियन्ते, तद्यथा-प्रारम्भिकी, पारिप्रहिकी, मायाप्रत्यया । असंयतैः चतस्रः क्रियाः क्रियन्ते, प्रारम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया, अप्रत्याख्यानप्रत्यया । मिथ्यादृष्टीनां पञ्चप्रारम्भिकी, 'पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया, अप्रत्याख्यानप्रत्यया, मिध्यादर्शनप्रत्यया । सम्यग्-मिथ्यादृष्टीनां पञ्च ।
- मूलार्थ- मनुष्यों का वर्णन नारकियों के समान समझना चाहिए । उनमें भेद यह है-जो महाशरीर वाले हैं वे बहुतर पुद्गलों का आहार करते हैं और वे कभी कभी
आहार करते हैं। जो अल्प शरीर वाले हैं वे अल्पतर पुद्गलों का आहार करते हैं और बार-बार आहार करते हैं। शेषः सब नारकियों के समान वेदना पर्यन्त समझना।
अप्र-भगवन् ! सब मनुष्य समान क्रिया वाले हैं ? उत्तर-गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्रश्न--सो किस कारण भगवन् ? :
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[१९]
मनुष्य-वर्णन उत्तर-गौतम! मनुष्य तीन प्रकार के हैं। वह इस प्रकार-सभ्यग्दृष्टि, मिथ्याष्टि और सम्यग् मिथ्यादृष्टि । उनमें जो सम्यग्दृष्टि हैं वे तीन प्रकार के कहे गये हैं, वे इस प्रकार-संयत, संयतासंयत और असंयत । उनमें जो संयत हैं वे दो प्रकार के कहे गये हैं-सराग संयत और वीतराग संयत । उनमें जो वीतराग संयत हैं वे किया रहित हैं। उनमें जो सराग संयत हैं, वे दो प्रकार के कहे गये हैं, वे इस प्रकार-प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत । उनमें जो अप्रमचसंयत हैं उन्हें एक मायावतिया क्रिया लगती है। उनमें जो प्रमत्तसंयत है उन्हें दो क्रियाएँ लगती है, वह इस
प्रकार--प्रारंभिया और मायावत्तिया । उनमें जो संयतासंयत - हैं उन्हें आदि की तीन क्रियाएँ होती हैं. वह इस प्रकार-प्रारं.भिया, पारिग्रहिकी और मायावचिया । असंयत मनुष्य चार क्रियाएँ करते हैं:- यारम्भिया, परिग्गहिया, मायावत्तिया
और अपचक्खाणकिया । मिथ्यादृष्टियों को पांच क्रियाएँ होती हैं-याम्मिया, परिग्गहिया, मायावत्तिया, अपच. 'क्वाणक्रिया और मिथ्यादर्शनप्रत्यया । मिश्रदृष्टियों को भी
पांच क्रियाएँ होती हैं। .: व्याख्यान गौतम स्वामी पूछते हैं-भगवन् ! सव • मनुष्य समान आहार करने वाले हैं ? इसके उत्तर में भगवान् ..ने फर्माया-नारकियों के समान ही सारा वर्णन समझ लो।
जो विशेषता है, वह इस प्रकार है:
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श्रीभगवती सूत्र
[ ६३० महाशरीर वाले मनुष्य बहुत पुद्गलों का श्राहार करते हैं, परन्तु कदाचित् आहार करते हैं । महाशरीरी नारकी चार-चार श्राहार करते हैं लेकिन महाशरीर मनुष्य कभी-कभी श्राहार करते हैं। यहां महा शरीर वाले मनुष्यों से देयकुर
और उत्तरकुर के भोग-भूमिज मनुष्य लेने चाहिए । उनका शरीर तीन गाउ का होता है और श्राहार अष्टम भक्त होता है अर्थात् तीन दिन में एक यार आहार करते हैं। इसलिए उन्हें कदाचित् प्राहार करने वाला कहा है।
अल्प शरीर वाले मनुष्य घोड़े पुद्गला का श्राहार करते हैं, परन्तु बार-बार करते हैं। - शका-नरक के जीव जिन पुद्गलों का ग्राहार करते हैं वे निस्तार और स्थूल होते हैं, अतएका महाशरीर नारकों को बहुत पुद्गलों का आहार करना पड़ता है, मगर देवकुंरू और उत्तरमुरु के मनुष्य सारयुक्त पुद्गलो. का आहार करते हैं. अतएव उन्हें अधिक पुद्गलों की आवश्यकता नहीं होनी "चाहिए । तथापि यहाँ बहुत पुद्गलों का श्राहार बतलाया
गया है ? जैले पाँच सौ तोले की मिठास रखने वाली एक 'तोला शकर में बहुत पुद्गल रहते हैं, उसी प्रकार देवकुत
और उत्तरमुरु के जुगलिये जोपाहार करते हैं, उसमें सारभूत 'पुद्गल अधिक हैं। इसलिए उन्हें अल्पाहारी कहना चाहिए।
समाधान-जिस प्रकार एक तोला चांदी की अपेक्षा एक तोला सोने में अधिक पुद्गल होते हैं, दोनों का तोत वरावर होने पर भी-दोनों के युद्नंतों में न्यूनाधिकता है, और यही कारण है कि एक तोला सोना-जितना फ़ल सफ्ता है'एकतोला सोने से जितने वर्तनों पर मुलम्मा किया जा सकता
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[ ६६१ ]
मनुष्य वर्णन है, उतनी चांदी नहीं फैलतीं-चांदी से. उतने बर्तनों पर मुलम्मा नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार सारभूत आहार में जितने पुद्गल होते हैं, निस्सार आहार में उतने नहीं होते । तात्पर्य यह है कि देवकुरू-उत्तरकुरू के मनुष्यों का आहार दीखने में कम होता है मगर उसमें अल्पशरीरी के आहार की अपेक्षा अधिक पुद्गल होते हैं । यही कारण है कि उन्हें बहुत पुद्गलों का श्राहार करने वाला कहा गया है ।
अल्पशरीरी मनुष्य बार-बार अाहार करता है, यह वात प्रत्यक्ष देखी जाती है, जैसे कि बालंक बार-बार आहार करता है।
. तीन गव्यूति (गाउ ) की अवगाहना वाले महाशरीरी मनुष्य भी मनुष्य कहलाते हैं और मल-मूत्र में उत्पन्न होने वाला, अंगुल के असंख्यातवें भाग की अवगाहना वाला मनुष्य भी मनुष्य कहलाता है। भगवान ने ऐसे मनुष्य कीटों के आहार पर भी विचार किया है।
फर्म और वर्ण, पहले उत्पन्न हुए मनुष्यों के विशुद्ध और पीछे उत्पन्न होने वालों के अविशुद्ध होते हैं। यद्यपि पहले उत्पन्न होने वाले वृद्ध मनुष्य के कर्म और. वर्ण भी
अशुद्ध देखे जाते हैं; तथापि इस कथन में कोई बाधा नहीं 'श्राती, क्योंकि यह कथन सापेक्ष है। . .
इसके पश्चात् क्रिया का प्रश्न श्राता है । भगवान् ने फर्माया है कि मनुष्य सम्याहाष्टि, मिथ्याष्टि और मिश्रदृष्टि के भेद से तीन प्रकार के हैं । सम्यग्दृष्टियों में भी तीन भेद हैं
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शीभगवती सूत्र
[६६.] और उनमें भी प्रवान्तर भेद हैं। उनमें भिन्न-भिन्न संख्या वाली क्रियाएँ होती हैं, जिनका कथन ऊपर आ चुका है।
जिसकी श्रद्धा यथार्थ हो वह सम्यग्दृष्टि कहलाता है। विपरीत श्रद्धा अर्थात् अताश्चिक श्रद्धा वाला मिथ्याष्टि कहलाता है। जिसकी श्रद्धा में वास्तविकता और वास्तविकता का सम्मिश्रण हो वह मिदृष्टि है। मिश्रष्टि, मिथ्याष्टि के ही समान है । जैसे अपरीक्षक काँच और हीरे को समान समझता है, मलयपर्वत की भीलनी चन्दन और साधारण लकड़ी को समान समझ कर जलाती है, उसे साधारण लकड़ी और चंदन की लकड़ी का विवेक नहीं है, उसी प्रकार यथार्थ और अयथार्थ के विवक से शून्य मिथदृष्टि वाला पुरुष होता है।
जो संयम का पालन करता है, चारित्र रूपी यतना का विवेक रखता है वह संयत कहलाता है और जिसमें चारित्र की क्रिया नहीं है वह असंयत है । जो देशचारित्र की आराधना करता है, जिसके अणुव्रत है पर महाबत नहीं है, वह संयतासंयत या. श्रावक कहलाता है।
- जो संयम का पालन करता है किन्तु जिसका काय क्षीण या उपशान्त नहीं हुआ है वह मराग संयमी कहलाता है। प्रश्न किया जा सकता है कि जिसमें क्रोध और मान विद्यमान है, वह साधु कैसे हो सकता है ? इसका उत्तर यह हैं कि शास्त्रकारों ने क्रोध आदि प्रत्येक कपाय के चार-चार भेद बतलाये हैं। अनन्तानुबन्धों, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान के क्रोध, मान आदि जब तक विद्यमान रहते हैं तब
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[ ६६३ ]
मनुष्य वर्णन
तक साधु अवस्था प्रकट नहीं हो सकती । यह बारह कवाय सफल संयम के विरोधी हैं । लेकिन संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ में इतनी तीव्रता नहीं है । इनसे सकल संयम का घात नहीं होता । संज्वलन कषाय यथारूपात चारित्र का घातक है, मगर सामायिक चारित्र का घातक नहीं है । श्रतएव संज्वलन कपाय की विद्यमानता में भी जो सकल संयम का पालन करते हैं वे सराग संयमी कहलाते हैं ।
जिनके काय का सर्वथा अभाव हो गया है वह वीतनाग संयत करते हैं। वह भी दो प्रकार के हैं:-तीरा कषायी श्रीर उपशान्त कपायी। जैसे अनि को राख से ढँक कर दवा दिया जाता है उसी प्रकार कर्म-प्रकृति की शक्ति को दवा देना उपशम कहलाता है और अग्नि को बिलकुल बुझा देने के समान कमों को नष्ट कर देना जय कहलाता है । ग्यारवे गुणस्थान वाले उपशान्त करायी वीतराग कहलाते हैं श्री चारुवं तथा धागे के गुणस्थान वाले क्षीणकषायी वीतराग कहलाते हैं ।
जो महापुरुष कपायों से सर्वथा मुक्र हो गये हैं, वे क्रिया से न्ध की कारणभूत किया से रहित हैं । यद्यपि संयोगी वस्था में योग की प्रवृत्ति से होने वाली पथिक किया उनमें विद्यमान है पर वह क्रिया नहीं के बराबर है और इन क्रियाओं में उसकी गणना नहीं है ।
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सराय संयमी प्रमत्त और अप्रमत्त के भेद से दो प्रकार के हैं । श्रप्रमत्त संयमी के सिर्फ एक मायाप्रत्यया क्रिया होती है, क्योंकि उनमें अभी कपाय अवशिष्ट है । इसीलिए पूर्वा
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श्रीभगवती सूत्र
[६६४ ]
चार्यों ने दसवें गुणस्थान तक नौ योगों की प्रवृत्ति वतलाई है । नौ योगों की प्रवृत्ति है, इस लिए वहां यह क्रिया है। जव धर्म के विषय में अपवाद होता है, अर्थात् मिथ्यावाद द्वारा धर्म पर कलंक लगाया जाता है तब अप्रमत्त संयत को भी ऐसी क्रिया करनी पड़ती है, जिससे कि धर्म पर लगाया गया कलंक दूर हो जाय । उदाहरणार्थ एक बार श्रेणिक राजा ने चेलना रानी को जैनधर्म के प्रति घृणा उत्पन्न कराने के लिए एक साधु और एक वेश्या को एक ही मकान में बंद कर दिया था। ऐसा करके श्रेणिक, चेलना रानी के हृदय में जैन साधुओं के विषय में घृणा उत्पन्न कर देना चाहता था। साधुको धर्म का, यह उपहास सह्य नहीं था । वह धर्म को इम निन्दा से बचाना चाहता था। साधारण मनुष्य की अपेक्षा राजा की वात का प्रभाव प्राधिक पड़ता है, इसलिए ऐसा करना और भी आवश्यक हो गया था।
- मुनि सोच-विचार में पड़े थे कल हल्ला मच जायगा और धर्म की बड़ी अप्रतिष्ठा होगी । मैं घर-घर कैसे कहता फिरूंगा कि मैं निर्दोष हूँ और राजा ने बलात्कार पूर्वक सुझे बंद कर दिया था। इसके सिवाय, लोग स्वभावतः आशंका• शील होते हैं । फिर राजा की यात के आगे मेरी कौन सुनेगा? इससे अच्छा तो यहां होगा कि मैं राजा का ही गुरु-चौद्ध साधु होजाऊँ। इससे सारा झगड़ा ही खत्म हो जायगा। ऐसा विचार करके मुनि ने अपनी लब्धि से राजा के गुरु का , ही भेष बना लिया । वेश्या मुनि को, राजा के गुरू के भेष में - देखकर घबराने लगी। वह सुंनि से क्षमा याचना करने लगी।
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मनुष्य-वर्णन योली में राजा की श्राशा से आई हूँ। मुझे क्षमा कीजिए। मुनि ने कहा-घबराने का क्या काम है ? मगर मुझसे दूर ही नहो।
प्रभात हुश्रा । राजा ने चेलना पर ताने कसने शुरू किये । वह चोला तुम्हारे गुरु बड़े ढोंगी होते हैं। ऊपर से बड़े त्यागि बनते एर वेश्यागमन तक कात्याग नहीं करते!
रानी दृढ़ श्रद्धा वाली थी। उसने कहा-महाराज, यह असंभव है। मेरे गुरु ऐसे कदापि नहीं हो सकते, श्राएके गुरू चाहे ऐसे भले ही हो।
अन्त में राजा और रानी-दोनों उस मकान पर पाये। यात सारे नंगर में फैल गई थी। हजारों-लाखों शादमियों की भीड़ इकट्ठी हो गई। राजा ने उस मकान के किवाड़ खुलशये तो उसमें वेश्या के साथ राजा के ही गुरू निकले । राजा की नज़र जर उस पर पड़ी तो वह भौचक्का रह गया। यह क्या मामला है । यह तो उल्टी वलाय सिर पड़ी। श्रय रानी चेलना को अवसर मिला। वह राजा की हँसी करने लगी और राजा लजित होकर एंछताने लगा।
आशय यह है कि धर्म पर जब कलेक पाता हो तो मुनि को ऐसा करना पड़ता है। व्यवहारसूत्र में उल्लेण्ड है. कि धर्म पर अपवाद पाने का अवसर उपस्थित होने पर साधु लिंग पलट कर अन्यलिंगी का भेष धारण कर ले । यद्यपि ऐसा करना माया. ही है, तथापि विशेष परिस्थिति में उसका 'आचरण करना पड़ता है, और वह भी दूसरे को धोखा देने " के लिए नहीं, वरन् प्रशस्त भाव से, धर्म की रक्षा और प्रतिष्ठा
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1 ६६६ !
के लिए । इस प्रकार अप्रमत्त सरागी को भी मायाप्रत्यया क्रिया लगती है।
वैक्रिय लन्धि फोड़कर वेश बनाना प्रमत्त संयत में ही संभव है, किन्तु वेप परिवर्तन अप्रमत्त संयत में भी संभव है।
प्रमत्त सरागः संयमी के दो क्रियाएँ है आरंभिया और मायावत्तिया । यहाँ पर प्रश्न किया जा सकता है कि प्रमत्त संयमी ने घर-द्वार सब त्याग किया है, फिर उसे प्रारंभिया क्रिया क्यों लगती है ? इसका उत्तर यह है कि उसमें प्रमाद का अस्तित्व है और प्रमाद प्रारम्भरूप ही है । जहाँ गफनत आई कि प्रारंभ हुत्रा । इसी कारण प्रमादी संयमी को श्रारंभिया क्रिया यहाँ वतलाई गई है।
प्रमत्त संयमी को प्रारंभिया तो लगती ही है, इसलिए भोजन बनाने आदि का प्रारंभ करने में भी क्या शनि है ? इस प्रकार का तर्क करना अनुचित है, क्योंकि सर्व विरति के साथ जिस प्रारंभ का परित्याग किया गया है, वह प्रारंभ करने से सर्व विरति का भंग हो जाता है। असावधानी से चलने-फिरने के कारण अरंमिया किया लगती है। अगर साधु होकर भी प्रारंभ की स्थापना की जाय, श्रारंभ करने में हानि नहीं है, इस प्रकार की प्ररूपणा की जाय तो व्रतों के साथ सम्यक्त्व भी नष्ट हो जाता है। अतएव प्रमत संयत को
उन्मत्थ अप्रमत्तगुणस्थानों का काल बहुत ही कम है-इस लिये एलो या प्रमत्तगुणस्थान में ही की जाती हैं फिर भी शुभयोग प्रत्यय होती या दह किया अप्रमत्तगुणस्थानों में भी कायम रह सकती है। प्रनाशक
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[ ६६७ ] .
मनुष्य-वर्णन श्रारंभ से मुक्त होना चाहिए, तथापि गफलत होने पर उसे आरंभिया क्रिया लगती है। . भगवान् ने प्रमाद के योग में लगने वाली क्रिया की भी गणना की है, फिर तेरहपंथियों के कथनानुसार अगर श्रावक में देश से भी अव्रत होता तो श्रावक में चार क्रियाएँ वतलाई गई होती। प्रमत्त संयत जो प्रारंभ करते हैं, वह परिग्रह रहित है । वे ममत्व करके प्रारंभ नहीं करते हैं । ममत्व करके प्रारंभ करने में परिग्रह की क्रिया लगती है। . . संयतासंयत अर्थात् श्रावक के तीन क्रियाएँ होती है। , असंयत सम्यग्दृष्टि के चार होती है और मिथ्यादृष्टी तथा . मिश्रदृष्टि के पाँचों ही होती है ।
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मूलपाठवाणयन्तर-जोतिस-वेमाणिया जहा असूरकुमारा, नवरं वेयणाए पाण-मायामच्छादिट्ठा उववरणगा य अप्पवेयणतरा. प्रमा यिसम्मदिट्ठी उववनगा य महावयणतरागा भाणियब्वा जोतिस वेमाणिया।
संस्कृत-छाया-वानव्यन्तर-ज्योतिप-वैमानिका यथा असुरकुमाराः, नवरस वेदनायां नानात्वं, माथिमिथ्यादृष्ट्यु पपनकाश्च अल्पवेदनाकाः, अमाथिसम्यग्दृट्युपानकाच, महावेदनका भणितव्या ज्योतिष वैमानिकाः।
मूलार्थ-यहाँ वाण-व्यन्ता,ज्योतिपी और वैमानिक, यह सत्र असुरकुमारों के समान कहने चाहिए । इन्दझी वेदना • में भिन्नता है-ज्योतिषी और वैमानिकों में जो मायी
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[ ६६९ ]
मनुष्य वर्णन मिथ्यादृष्टि उत्पन्न हुए हों वे अल्प वेदना वाले हैं और जो अमायी सम्यग्दृष्टि उत्पन्न हुए हों वह महा वेदना वाले होते हैं, ऐसा कहना चाहिए ।
व्याख्यान-यहाँ वाण व्यन्तर, ज्योतिरिक और वैमानिक का वर्णन असुरकुमार देवों के समान ही बतलाया गया है, इनमें वेदना का भेद है।
वाण-व्यन्तर, ज्योतिपिक और वैमानिक दो प्रकार के उत्पन्न होते हैं-एक मायी मिथ्याष्टि, दूसरे अमायी सम्यग्बोष्ट । इनके शरीर का परिमाण अवगाहना के अनुसार 'भिन्न-भिन्न है। इनमें जो अल्पशरीरी है उनका श्राहार अल्प है और जो महाशरीरी है चे अधिक पुद्गलों का आहार करते हैं।
वेदना के विषय में असुरकुमारों के लिए यह कहा गया है कि जो संक्षी हैं उन्हें महावेदना और असंशी भूतों को अल्प वेदना होती है । यद्यपि व्यन्तरों का पाठ शास्त्रकार ने अलग कर दिया है किन्तु असुरकुमार और व्यन्तर के वर्णन में कोई अन्तर नहीं है, क्योंकि व्यन्तरों में भी असंशिभूत जीव उत्पन्न हो सकते हैं। व्यन्तरों में संशी जीव उत्पन्न होते हैं, यह बात इसी सूत्र में आगे कही जायगी। यहां यह पाठ श्राया हैअसएणीणं जहएणणं भवणवासीसु, उक्कोसेणं वाणमंतरेसु ।'
अर्थात्-असंझी जीव अगर देवगति में उत्पन्न हो तो जघन्य भवनवासियों में और उत्कृष्ट चान-व्यन्तरों में उत्पन्न होते हैं।
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[६७०] .
ज्योतिष्क और वैमानिकों में असंही जीव उत्पन्न नहीं: होते । इस लिए इनकी वेदना असुरकुमारों की तरह नहीं कहनी चाहिए । ज्योतिषी देवों के दो भेद हैं-मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और असायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक । मिथ्याष्टि को कम वेदना होती है और सम्यग्दृष्टि को अधिक वेदना होती है । मगर सम्यग्दृष्टि की वेदना शुभ रूप है, शातारूप है अशुभ रूप नहीं है।
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लेश्या काले जीवों का पचन
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मूलपाठप्रश्न-सलेस्सा एं भंते ! नेरइया सब्वे समाहारगा?
उत्तर-प्रोहियाणं, सलेस्साणं, सुक्कलेस्साणं; एएर्सि णं तिराहो एको गमो । कण्हलेम्साणं, नीललेस्साणं पि एको गमो। नवरं वेदणाए-मायिमिच्छदिट्ठी-उववन्नगा य, अमायिसम्मदिट्ठी-उपवनगा य भागियया । मणुस्सा किरियासु सराग-वीश्रराग-पमत्ताऽपमत्ता न भाणियव्वा । काउलेस्साणं पि एसेव गमो । नवरं-नेरइया जहा प्रोहिए दंडए तहा भाणियवा। तेउलेस्सा, पम्हलेस्सा जत्थ अस्थि जहा
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श्रीभगवती सूत्र
| ६७२ ]
प्रोहियो दंड तहा भाणियव्वा । नवरं मणुस्सा सरागा, वीरागा न भाणियव्वा । गाहाः :
AT
P
दुक्खा - उए- उदिए आहार कम्म-वण्ण-लेस्सा य। समवेयण समकिरिया समाउए चेव बोधव्वा ||
-
संस्कृत - छाया - प्रश्न – सलेश्या भगवन् नैरर्थिकाः सर्वे समाहारकाः ?
उत्तर -- श्रधिकानां, सलेश्यानां, शुक्ललेश्यानां, एतेषां त्रयणामेको गमः, कुणलेश्यानां, नीललेश्यानामपि एको गमः । नवरम्वेदनायां मायिमिध्यादृष्य्युपपन्न काश्च माविसम्यग्दृष्टयुपपन्न काश्च
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भणितव्या: । मनुष्याः क्रियासु सराग- वीतराग - प्रमत्ता - ऽप्रमत्ता न भणितव्याः, कापोतलेश्यायामपिः एष एव गतः । नवरम् - मनुष्याः सरागाः, वीतरागा न भणितव्याः । गाथा:
दुःखायुष्के उदीर्णे श्राहारः कर्म - वर्ण - लेश्याश्च । समवेदन - समक्रियाः समाऽऽयुष्कं चैव बोद्धव्यम् ।
मूलार्थ - प्रश्न -भगवन् ! लेश्या वाले सब नैरयिक समान आहार वाले हैं ?
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[६७३ ]
मनुष्य वर्णन उत्तर-हे गौतम ! औधिक-सामान्य, सलेश्य और शुक्ल लेश्या वाले, इन तीनों का एक गम--पाठ कहना चाहिए । कृष्णलेश्या वालों और नील लेश्या वालों का एक:-समान पाठ कहना चाहिए, पर उनकी वेदना में इस प्रकार भेद है:-मायिमिथ्यादृष्टि-- उपपन्नक और अमायी सम्यग्दृष्टि--उपपन्नक कहने चाहिए । तथा कृष्ण लेश्या
और नील लेश्या में मनुष्यों को सरागसंयंत, वीतरागसंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्त संयत नहीं कहना चाहिए । तथा कापोतलेश्या में भी यहीं पाठ कहना चाहिए, मेद यह है कि कापोत लेश्या वाले नैरयिकों को औधिक दंडक के समान • कहना चाहिए । तेजो लेश्या और पद्म लेश्या वालों को
औधिक दंडक के ही समान कहना चाहिए विशेषता यह है कि मनुष्यों को सराग और वीतराग नहीं कहना चाहिए । गार्थी:
कर्म और आयुष्य उदीर्ण हों तो वेदते हैं । आहार, कर्म, वर्ण, लेश्या, वेदना, क्रिया और आयुष्य इन सब की समानता के संबंध में पहले कहे अनुसार ही समझना चाहिए।
व्याख्यान-अब तक जो वर्णन किया गया है, उसमें किसी खास अपेक्षा का विचार नहीं था । सामान्य रूप से चौवीस दंडकों के विषय में विचार किया गया है । अव लेश्या की अपेक्षा से चौवीस दंडकों का विचार किया जाता है ।
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[६७ ] छः लेश्याओं के छः दंडक और सलेश्य का, एक इस प्रकार सात दंडकों से यहां विचार किया गया है । सरलता से सर झाने के लिए लेश्याओं की कोटियां बना ली गई है।
पहले नैरयिकों का जो वर्णन किया गया है, उसमें सामान्य नैरयिकों का प्रश्न था । लेकिन यहाँ यह प्रश्न हैभगवन् ! लेश्या घाले नारक समान प्राहारी हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान कहते हैं-गौतम ! सलेश्य नारकों के दो भेद हैं- अल्पशरीरी नैरयिक भी सलेश्य हैं और महाशरीरी नरयिक भी सलेश्य (लेश्यायुक्त) है । अतएव नारकियों के आहार आदि की वक्तव्यता पहले के ही समान समझ लेनी चाहिए।
आहार के विषय में जिस प्रकार प्रश्न किया गया है, उसी प्रकार शरीर, उच्छ्वाल, कर्म, वर्ण, लेश्या, वेदना, क्रिया और उपपात के लिए भी प्रश्न करना चाहिए । इसी प्रकार चोवीसों, दण्डकों को लेकर प्रश्न करने चाहिए ।
सामान्य रूप से सलेश्य का प्रश्न करने के पश्चात् कृष्ण लेश्या संबंधी प्रश्न प्राता है । वह इस प्रकार है-कृपा लेश्या वाले सव नारकी समान आहारी हैं ? इसके उत्तर में भगवान् फर्माते हैं-नहीं ! क्योंकि कृष्णलेश्या यद्यपि सामान्य रूप ले एक है, तथापि उसके अवान्तर भेद अनेक हैं । कोई कृष्णलेश्या अपेक्षाकृत विशुद्ध होती है, कोई अविशुद्ध होती है। एक कृष्णलेश्या ले नरकगति मिलती है और एक कृष्णलेश्या से भवनपात देवों में उत्पत्ति होती है । अतएव कृष्ण लेश्या में तरतमतर के भेद से अनेक भेद हैं । कृष्ण लेश्यावाले नार
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लेश्या का कान्ह
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मूलपाठःप्रश्न-कइणं भंते ! लेस्सागो पण्णत्तानो ?
उत्तर-गोयमा ! छ लेस्सानो पण्णत्ता, तंजहा-लेस्साणं बिईनो उद्देसो भाणियब्वो, जाव-इड्ढी।
संस्कृत-छाया-प्रश्न-ऋति भगवन् ! लेश्याः प्रज्ञप्ताः ?
उत्तर-गौतम ! षड् लेश्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा---लेश्यानां द्वितीय उद्देशको भणितव्यः, यावद्-ऋद्धिः ।
मूलार्थ-प्रश्न-भगवन् ! लेश्याएँ कितनी कही गई हैं ?
उत्तर--गौतम ! लेश्याएँ छ। कही गई हैं । वह इस प्रकार क सा आदि। यहाँ प्रज्ञापनासूत्र में कथित
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[ ६७७
मनुष्य वन लेश्या पद का दूसरा उद्देशक कहना चाहिए । वह ऋद्धि की वनाव्यता तक कहना चाहिए।
व्याख्यान-लश्या के भेदों को भलिभाँति समझने के लिए उसके स्वरूप को समझ लेना आवश्यक है । लेश्या के संबंध में पहले कुछ विवेचन किया गया है, फिर भी यहाँ दूसरे प्रकार से वर्णन करना आवश्यक है । जिसके द्वारा श्रात्मा के साथ फर्मपुद्गलों का श्लप दो-आत्मा और फर्म मिलकर एकमेक हो जाएं उसे लश्या कहते हैं। मैंने पहले बतलाया था कि काय से अनुरंजित योग की प्रवृति लेश्या कहलाती है। मगर योगफी प्रवृति भी लेश्या कहलाती है। लेश्या का यह लक्षण बतलाते हुए एक प्राचार्य ने कहा है जहां योगद यही लेश्या होती है और जहां योग नहीं है वहां लेश्या भी नहीं होती, जैसे चौदहवें गुण स्थान में । अतएव योग की प्रवृति को दी लेश्या कहना चाहिए।
फपाय से अनुजित योग की प्रकृति को लेश्या माना जाय तो तरह गुण स्थान में लक्ष्या का अभाव हो जायगा, क्योंकि इस गुण स्थान में जो योग की प्रवृति है वह कपाय सअनुजित नहीं है, क्योंकि यहां कपाय का सर्वथा अभाव हो जाता है। श्रतएव लेक्ष्या का यह लक्षण ठीक नहीं जान पड़ता। यह एक पक्ष का कथन है।
दुसरे पक्ष की युति इस प्रकार :-योग की प्रवृति कोही लश्या मानना उचित नहीं है, क्योंकि कपाय के बिना योग से स्थितिबंध नहीं सकता। योग से सिर्फ प्रतिबंध और प्रदेशबंध होता है, स्थितिबंध नहीं होता। स्थितियध और
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[६ ] अनुभागबंध कपाय से होते हैं । अतएव अगर योग के परिरणाम को लेश्या माना जाय तो कहना होगा कि स्थितिबंध और अनुभागरंध कपाय से नहीं होता।
इन दोनों पक्षों को ध्यान में रखते हुए यही कहा जा सकता है कि कयाय से अनुरंजित योग की प्रवृत्ति लेश्या कहलाती है और लेश्या तभी तक रहती है जब तक योग है। तेरहवें गुणस्थान में योग है इसलिए लेश्या है। बाद में योग नहीं है अतएव लेश्या भी नहीं है। आठवें गुणस्थान ले शुक्ल लेश्या होती है, वह फिर नहीं बदलती। आगे जब तक लेश्या रहेगी, शुक्ल ही रहेगी!
प्राचार्य कहते हैं-जब नदी में पूर पाता है तब नदी. की रेत समतल रूप में जम जाती है और पृर हट जाने के बाद भी रेत पर जमी हुई तरंगें दिखाई देती हैं। यह सब नदी के प्रवाह से हुआ था । नदों का प्रवाह खत्म हो गया, पानी यह गया। लेकिन उसके निमित्त से बनी हुई लहरें जमी रह गई। इसी प्रकार योग के साथ कपाय का संबंध होने से लेश्या की रचना होती है। योग को लेश्या के रूप में परिणत करना कषाय का काम है। जव कपाय हल्की होती है तव लेश्या प्रशस्त होती है। इस प्रकार कपाय और योग से लेश्या बनी है। जैसे पानी वह जाने पर भी रेत में लहरें वनी रहती है उसी प्रकार कपाय के नष्ट होजाने पर भी योग के साथ लेश्या बनी रहती है। तदनन्तर जैसे वायु चलने से रेत की लहरें बिगड़ जाती है, उसी प्रकार तेरहवें गुणस्थान लें चौदहवें गुणस्थान में जाते समय, योग का नाश होने पर तेश्या भी सस्था नष्ट होजाती है। ..
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/ ६७९ ]
मनुष्य-वर्णन
यहाँ गौतम स्वामी के भगवान् से लेश्याओं की संख्या के संबंध में प्रश्न किया है। भगवान् ने उत्तर दिया- गौतम ! लेश्याएँ छः हैं । वे इस प्रकार हैं: - कृष्ण, नील, कापोत, तेजो, पद्म और शुरु | इनमें से एक-एक लेश्या में संख्यात असंख्यात स्थान हैं ।
WA
यहाँ यह आशंका की जा सकती है कि लेश्याओं के -स्थान असंख्यात असंख्यात क्यों है ? अनन्त या संख्यात क्यों नहीं है ? इसका समाधान यह हैं कि जिस स्थान में जीव जाता है, वहां के योग्य वेश्या ही उसमें श्राती है और उस लेइयां से हो स्थितिबंध होता है । श्रायु के समाप्त होने पर वह लेश्या अन्तर्मुहूर्त में बदल जाती है । अर्थात् जिस लेश्या में श्रायुबंध होता है, मरकर उसी लेश्या में जीव जाता है ।
"
जीव को नियत स्थान पर उत्पन्न होने के लिए कौन ले जाता है ? जीव ने तो नरक या स्वर्ग देखा नहीं है, फिर उसे कौन वहां पहुँचाता है ? सातवें नरक के नीचे से मरकर पृथ्वीकाय का जीव सिद्धशिला तक पहुँच जाता है । उसे क्या मालूम कि मुझे कहाँ जाता है और क्या करना है ? श्रतएव जीवों को नियत स्थान पर पहुँचाने वाला कोई दूसरा होना चाहिए | वह कौन ?
·
.
इस प्रकार के प्रश्नों का ठीक-ठीक उत्तर न दे सकते वालों ने ईश्वर के जिम्मे पर यह काम सौंप दिया है, वे कहते हैं, स्वर्ग या नरक में भेजने वाला ईश्वर के सिवाय और कौन हो सकता है ? बिना राजा की आशा के न कोई जेल में जाता हूँ, न उसके महल में प्रवेश कर सकता है। कहा भी है:
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श्रीभगवती सूत्र
। ६०
अज्ञो जन्तुरनीशो ऽ यमात्मनः सुख-दुःखयोः । ईश्वर प्रेरितो गच्छेत, श्वभ्रं वा स्वर्गमेव वा ।।
. अर्थात्-यह अज्ञानी जीव अपना सुख-दुःख भोगने में असमर्थ है । इसलिए ईश्वर की प्रेरणा से प्रेरित होकर स्वर्ग-नरक में जाता है।
ईश्वर सुख-दुःख का दाता है,इस संबंध में, इसी सूत्र के व्याख्यान में पहले विचार किया जा चुका है । अतएव पिष्ट पेषण करना उचित नहीं है । वास्तव में ईश्वर को सुख-दुःख का दाता मानने से उसमें अनेक दोष पाते हैं। इसलिए ईश्वर सुख-दुःख नहीं देता।
अगर ईश्वर सुख-दुःख नहीं देता तो जीव को नरक में कौन भेजता है ? इस प्रश्न का समाधान करने के लिए ही लेश्या के असंख्यात स्थान बतलाये गये हैं। और साथ ही यह भी बतलाया गया है कि जीव जिस स्थान में उत्पन्न होता है उसी की लेश्या में श्रायु-बंध होता है। इससे यह निष्कर्ष निकालना कठिन नहीं है कि नरक या स्वर्ग में ले जाने वाली लेश्या ही है । कहा भी है
मरणान्ते या गतिः सा मतिः ।
अर्थात्-मृत्यु के पश्चात जैसी गति होने वाली है, वैसी ही मति मृत्यु काल में होती है।
जब तक आयु का वंध नहीं हुआ तव तक जैसी मति है वैसी गति है, मगर आयु का बंध हो चुकने के पश्चात जैसी
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[६८१]
सनुष्य वर्णन गति है वैसी मात होती है। कल्पना कीजिए, आप दिल्ली नगर के मकानों की रचना देख रहे हैं। यह रचना किस प्रकार हुई है ? सर्व प्रथम मनुष्य के मस्तिष्क में इस रचना का विकास हुआ, फिर उसने उसे स्थूल रुप प्रदान किया । अतएव यह रचना मन के विचारों पर ही निर्भर है। जिस मन के विचार से यह रचना हुई है, उसी मन के विचार ले रह नष्ट भी हो सकती है। इसी प्रकार स्वर्ग या नरक मादि सब मन को लेश्या पर निर्भर है। जैसी लेश्या होती है, वैसी हो गति होती है। पहले लेश्या वनी या पहले स्थान बना, यह कहा नहीं जा सकता, क्योंकि दोनों में से किसी की पहल नहीं है, दोनों अनादिकालीन प्रवाह से चन रहे हैं।
लेश्या एक साधारण-सी बात मालूम होती है, पर अगर गहराई से देखा जाय तो लेश्या के ही कारण जीव अनादिकाल से भव-भ्रमण कर रहा है। अतः यह विचार मत करो कि स्वर्ग में सुख और नरक में दुःख है, वरन् निश्चित समझो कि समस्त सुख और दुःख तुम्हारी ही लेश्या में भरा पड़ा है। अनाथी मुनि ने राजा श्रेणिक को यह सब बतलाया था। उन्होंने कहा था
अप्पा कत्ता विकत्ता य, सुहाण य दुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्टिय सुप्पट्टियो।।
अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली । अप्पा कामदुहा धेरए, अप्पा:मे नंदणं वणं ।।
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श्रीभगवती सूत्र
[६८२ ]
अर्थात-विना कर्म के कुछ होता नहीं और कर्म अपने ही किये लगते हैं। इसलिए चाहे दुख हो चाहे सुख हो, वह अपना-आत्मा का ही किया हुआ है ।जो कुछ करता है, आत्मा ही करता है । अतरव प्रात्मा ही अपना मित्र है और
आत्मा ही अपना शत्रु है। . आत्मा के अपने ही कमी से सुख दुःख की प्राप्ति होती
है, इसलिए श्रात्मा ही वैतरणी नदी हैं, श्रात्मा ही कूट शाल्मलिवृक्ष है और आत्मा ही कामधेनु तथा नन्दनवन है।
लेश्या में ही संसार है । बुरी लेश्या में नरक है। अगर वैतरणी से डरते हो तो बुरी लेश्या क्यों उत्पन्न होने देते, हो? वैतरणी की लेश्या नहीं लाओगे तो वैतरणी श्राप ही दूर भाग जायगी। .
अनाथी मुनि ने वैतरणी और कूट शाल्मलि वृक्ष में सारा नरक गर्भित कर दिया है और कामधेनु एवं नन्दन वन में सम्पूर्ण स्वर्ग समा दिया है। कूट शाल्मलि, वैतरणी, नन्दनवन और कामधेनु अन्य कुछ नहीं, सव आत्मा की लेश्या में ही हैं । इस प्रकार स्वर्ग और नरक, दोनों तुम्हारी मुट्टियों में हैं । जिसे चाहो, अंगीकार कर सकते हो। तुम स्वयं अपने सुख-दुखदाता ईश्वर हो.। दूसरा कोई तुम्हें स्वर्ग नरक का अधिकारी नहीं बना सकता।
लेश्या की विशुद्धि के लिए सतत आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता है । तुम्हारे अन्तःकरण में कव, कौन सी लेश्या का प्रादुर्भाव होता है, यह वात शास्त्र रूपी दर्पण में, ज्ञाननेत्रों से देख सकते हो। जैसे वैद्यकशास्त्र में रोग के लक्षण
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[ ६८३ 1
मनुष्य वणेन बतलाये गये हैं और उन लक्षणों से यह निश्चय कर लिया जाता है कि मुझे कौन-सा रोग हुया है, इसी प्रकार शास्त्रों में लेझ्या का वर्णन पाया जाता है । शास्त्रों के अनुसार मिलान करके देखो कि मुझ में कौन-सी लेश्या उद्भूत हुई है। सम्यग्दृष्टि पुरुष लेश्यानों का विचार करके यह निश्चय करता है कि मैं स्वयमेव स्वर्ग-नरक का का हूँ। अपनी लेश्या ही फलदायिनी होती है। दूसरा कोई किसी को स्वर्ग-नरक में नहीं भेज सकता।
नमि राजर्षि से इन्द्र ने कहा था कि आप राजा हैं और राजा क योग्य ही कार्य कीजिए:
श्रामोसे लोमहारे, य गंठी भेए य तकरे । नगरस खमं काऊण, तो गच्छसिखत्तिया॥
श्री उत्तराध्ययन सूत्र इवां अ० अर्थात्-हे क्षत्रिय ! जो लोग प्रजा को लुटते हैं, ठगते हैं, और गाँट काटते हैं, उन्हें कठोर शिक्षा (सज़ा.) देकर . अपन गज्य में ऐसी व्यवस्था का प्रचार का दो कि आपके राज्य में कोई चोर, लुटेरा या गिरहकट न रहने पावे। ऐसे लोगों द्वारा नगर को संताप होता है। अतएव इनके द्वारा होने वाला संताप मिटाकर शान्ति का संचार कीजिए । इसके पश्चात साधु बनना । जब तक आप इन द्रव्य-चोरों को वश में नहीं करोगे तब तक भावं. चोरों को किस प्रकार अधीन कर सकोगे? प्रतण्व पहले इन चोरों का निग्रह करो।
कई लोग कहते हैं- धन हमने उपार्जन किया और
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श्रीभगवती सूत्र
[६८८ ] बढ़ते हैं। आज चोरी का एक उपाय दिवाला निकालना भी है। सिक्के की कृपा से चोरी के अनेक शिष्टसम्मत तरीके ईजाद हुए हैं। सिक्के के अभाव में कोई संग्रह करता भी तो धान्य का संग्रह करता । पर धान्य का कितना संग्रह किया जा सकता है ? सिवा खाने के वह और किस काम आ सकता हैं ? लेकिन सिके तो ज़मीन में गाड़ कर रखें जाते हैं। - प्रश्नव्याकरण सूत्र का तीसरा द्वार देखो तो पता चलेगा कि वास्तव में चोर कौन है ? टाल्स्टाय के प्रन्थ देखने से पता चलता है कि भगवान महाचीर के अधिकांश उपदेश उसकी बुद्धि में उतर गये थे।
तात्पर्य यह है कि लेश्या की शुद्धता के लिए वस्तु-तत्त्व) का और अपने अन्तःकरण का गंभीर निरीक्षण करते रहना चाहिए । सदा अपनी चौकसी करने वाला आत्मशुद्धि की ओर शीघ्रता से प्रगति करता है। .
भगवान ने गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर में कहागौतम ! लेश्याएँ छः हैं! पनवणा सूत्र के ३४वें पद के दूसरे उद्देशक में लेश्या का जो वर्णन किया गया है, वह सब यहाँ समझ लेना चाहिए । वहाँ इस प्रकार का पाठ है:
प्र०-भगवन् ! लेश्याएँ कितनी हैं ? .. उ०-गौतम ! लेश्याएँ छः है-शुक्ल लेश्या से कृष्ण लेश्या तक।
'प्र०-भगवन ! नैरथिक के कितनी लेश्याएँ हैं ? उ०-गौतम । तीन हैं।
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[६८९
सनुष्य वर्णन
यहाँ यह विचारने योग्य है कि जीव कृष्ण, नील और कापोत लेन्या से नरक गया है और उन्हीं लेश्याओं से, नरक से निकल कर तीर्थकर भी होता है ।जो लेश्याएँ नरक गति में जाने का कारण बनी थीं, वही तीर्थकर होने का भी कारण बनती हैं। इसी से यह समझा जा सकता है कि प्रत्येक लेश्या बैंकिटने कितने श्रवान्तर भेद हैं।
हे गौतम ! नरक के जीवा में तीन लेश्याएं होती हैं। विर्यच योनि के जीवों में छहों लेश्याएँ पाई जाती हैं। एकेन्द्रियों में चार लेश्याएं हो सकती हैं। पृथ्वीकाय, जलकाय और वनस्पति कार में चार लेश्याएँ होती है, तेजस्काय, वायुकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय में तीन लेश्याएँ हैं।तिर्यच पंचेन्द्रिय और मनुष्य में छहों लेश्याएं हैं। भुवनपति और व्यन्वर के चार लेश्याएँ है ज्योतिक देवों में तेजो लेश्या है। पहले और दूसरे देवलोक में तेजो लेश्या, तीसरे से पांचवे में एन लेश्या तथा आगे के स्वर्गों में शुक्ल लेश्यां होती है। ., गौतम स्वामी, भगवान से प्रश्न करते हैं-भगवन् ! कृष्ण लश्या से शुक्ल लेश्या तक के जीवों में से कौन कम ऋद्धि वाला है और कौन किससे अधिक ऋद्धि राला है? इसके उत्तर में भगवान् ने फर्माया-कृष्ण लेश्या वाले से नील खेश्या वाला महा-ऋद्धिमान हैं। इस प्रकार सबसे अधिक ऋद्धिमान शुक्ल लेश्या वाले हैं और संबसे कम ऋद्धिमार कृष्ण लेश्या वाले हैं।
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संसार संस्थान काल
मूलपाठ
प्रश्न - जीवस्स णं भंते ! तीतद्धाए दिट्ठस्स कई विहे संसार सं चिट्टण काले
परापते ?
.
उत्तर - गोयमा ! चउविहे संसार संचिट्ठ काले पत्ते, तंजहारइय संसार सं चिट्ठ काले, तिरिक्ख- मणुस्स- देवसंसार सं चिट्ठण काले य. पण्णत्ते !
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[ ६९१ }
मनुष्य पनि ___ प्रश्न-नेरइय संसार सं चिट्ठण काले णं भैते : कविहे पुण्णते ?
उत्तर-गोयमा तिविहे पण्णते, तजहा: सुन्नकाले, असुन्नकाले, मिस्सकाले। · · अश्च-तिरिक्ख जोणित्र संसारपुच्छा ? . उत्तर-गोयमा । दुविहे पणते, तंजहाअसुन्नकाले य मिस्सकाले य । मणुस्साण य देवाण य जहा नेरड्याएं ।
प्रश्न-एअस्स ण भैते । नेरइ अस्स संसार संचिट्ठण कालस्स सुन्नकालस्स,असुन्त्रकालस्स, मीसकालस्स य कयरे, कयरेहितो अप्पे वा, बहुए वा, तुल्ले वा, विसेसाहिए वा? ..
उत्तर-गोयमा सव्वत्यो वे असुन्नकाले मिस्सकाले अतगुणे, सुन्नकाले अणंतगुणे !
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श्रीभगवती सूत्र
1 ६९२ तिरिक्स जोणियाण संवत्योबे असुन्नकाले, मीसकाले अणतगुणे, मणुस्स-देवाण य जहा नेरइयाएं!
प्रश्न- एप्रस्स णं भंते ! नेरइ असंसार संचिहणकालस्स जाव- देवसंसारसंचिट्ठणकालरस जाव-विसेसाहिए वा ?
उत्तर- गोयमा ! सम्वत्योचे मणुस्ससंसार संचिट्ठणकाले, नेरइन संसारसंचिट्ठणकाले असंखेनगुणे, देवसंसारसंचिट्ठणकाले असंखेजगुणे, तिरिक्खजोणिय संसारसंचिट्ठणकाले अणंतगुणे ।
- संस्कृत-छाया प्रश्न - जीवस्य भगवन् ! प्रतीतकाले अादिष्टस्य कतिविधः संसार संस्थान कालः प्रज्ञप्तः ?
उत्तर-~मौतम ! चतुर्विधः संसार. संस्थान काल: प्रजना,
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[ ६८५ ]
संसार संस्थानकाल
तद्यथा नैरथिकसंसार संस्थानकाल:, तिर्यग्- मनुष्य-देव-संसार संस्थान
कालश्व प्रज्ञप्तः ।
प्रश्न - नैरयिक संसारसंस्थानकालो भगवन् ! कतिविधः प्रज्ञप्तः ?
उत्तर - गौतम ! त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा: शून्यकालः, शून्यकाल:, मिश्रकाल:' |
प्रश्न – तिर्यग्योनिकसंसार • पृच्छा ?
उत्तर - गौतम ! द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - श्रशून्यकालच, मिश्रकांश्च । मनुष्याणां च देवानाश्च यथा नैरयिकाणाम् ।
"
प्रश्न - एतस्य भगवन् ! नैरथिकस्य संसारसंस्थानकालस्य शून्यकालस्य, शून्यकालस्य, मिश्रकालस्य च कतरः कतरेभ्योऽल्पो वा, बहुको वा, तुल्यो वा, विशेषाधिको वा ?
उत्तर - गौतम ! सर्वस्तोकोऽशून्यकालः, मिश्रकालोऽनन्तगुणः, शून्यकालोऽनन्तगुणः ।
तिर्यग्यानिकानां सर्वस्तोकोऽशून्यकालः, मिश्रकालोऽनन्त“गुणः, मनुष्य देवानाश्च यथा नैरयिकाणाम् ।
प्रश्न --- एतस्य भगवन् !. नैरयिकसंसार संस्थानकालस्य यावत्देवसंसारसंस्थानकालस्य यावत् विशेषाधिको वा ?
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श्रीभगवती सूत्र
[६८३ ] उत्तर-गौतम ! सर्वस्तोको मनुष्यसंसारसंस्थानकालः, नैरयिकसंसारसंस्थानकालोऽसंख्येयगुणः, देवसंसारसंस्थानकालोऽसंख्येयगुणः, तिर्यग्-योनिकसंसारसंस्थानकालोऽनन्तगुणः ।
मूलार्थ-प्रश्न-भगवन् ! अतीतकाल में आदिष्टनारक आदि विशेषण-विशिष्ट जीवों का संसार-संस्थानकाल कितने प्रकार का कहा गया है ?
उत्तर-गौतम! संसार-संस्थान का काल चार प्रकार का कहा है, वह इस प्रकार है:-नरयिकसंसारसंस्थानकाल तिर्यचसंसारसंस्थानकाल, मनुष्यसंसारसंस्थान काल और देवसंसारसंस्थान काल ।
. प्रश्न-भगवन् ! नैरयिकसंसारसंस्थान काल कितने प्रकार का कहा गया है ? ___ उत्तर-गौतम! तीन प्रकार का कहा है, वह इस प्रकार
शून्यकाल, अशून्यकाल और मिश्रकाल । ____ प्रश्न-भगवन् ! तिर्यंच संसारसंस्थानकाल कितने प्रकार का कहा है ?
उत्तर-गौतम ? दो प्रकार का कहा है, वह इस
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[ ६८७ ]
संसार संस्थानकाल
प्रकार - अशून्यकाल और मिश्रकाल | मनुष्यों और देवों के संसारसंस्थान काल के प्रकार नारकियों के समान ही समझने चाहिए ।
प्रश्न- भगवन् ! नारकियों के संसारसंस्थान काल के तीन शून्य - शून्य और मिश्र कालों में कौन किससे कम, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ?
उत्तर - गौतम ! सब से कम शून्य काल है, उससे मिश्रकाल अनंतगुना है और उसकी अपेक्षा भी शून्य काल " अनंतगुणा है ।
तियंच संसार संस्थान काल के दो भेदों में से सब से कम अशून्य काल है और उसकी अपेक्षा मिश्रकाल अनंतगुणा हैं।
मनुष्यों और देवों के संसार संस्थान काल की न्यूनाधिकता नारकियों के संसार संस्थान काल की न्यूनाधिकता के समान ही समझना चाहिए ।
प्रश्न -- भगवन् ! नारकियों के, तीर्यंचों के, मनुष्यों के और देवों के संसार संस्थान कालों में कौन किससे कम, ज्यादा, तुल्य या विशेषाधिक है ?
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श्रीभगवती सूत्र
| દરર !
तो वहां कितने प्रकार का काल मोगा? यहां लोकोत्तर काल से अभिप्राय समझना चाहिए। भगवान ने उत्तर दिया-गौतम! नरक में जीवने तीन प्रकार का काल बिताया है:-शून्य काज शून्यकाल और मिश्रकाल । आगम में कहा है।
सुन्नासुन्नो मीसो तिविहो संसार चिटणा काला । तिरियाणं सुन्नवजो सेसाणं होइ तिविदो वि।
अर्थात्-संसार संस्थान काल तीन प्रकार है:-शून्यकाल, अशून्यकाल और मिथकाल तिर्यों में शून्यकाल नहीं होता, ओर सव गातयों में तीनों प्रकार का संस्था काल होता है।
· अव प्रश्न यह है कि शून्य काल किसे कहते हैं ? इस विषय में टीकाकार का कथन है चाप पहले शून्यकाल का नाम आया है, तथापि पहले अशुन्यकाल का स्वरुप बतलाया जाता ह! अशून्यकाल समझ लेने पर शष दो सरलता से समझे जा सके।
वर्तमान काल में सातो नरकों में जितने जीव विद्यमान हैं, उनमें से जितने समय तक न कोई जीव भरे और नया उत्पन्न हो, अर्थात् उतने के उतने ही जीव जितने समय तक रहे, उस समय को नरक की अपेक्षा प्रशून्य काल कहते हैं। उदाहरणार्थ-इस समय व्याख्यान सभा में जितने थोता. भौजूद हैं उनमें से जव तक.न एक भी जावे और न एक भी नया आवे, उस समय को अशून्य काल ललना चाहिए। तात्पर्य यह है नरक में एक ऐसा भी समय प्राता है जब ने कोई नया जीव नरक में जाता है और न पहले के नारकियों
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[६९३ ]
संसार संस्थानकाल में से कोई बाहर निकल कर आता है। वही काल नरक का अशून्य काल कहलाता है ! कहा है- ..
आइट्ठसमइयाणं, नरइयाणं न जाव एको वि । उन्चट्टइ अन्नो वा, उववज्जइ सो असुन्नो ओ॥
अर्थात्-श्रादिष्ट समय वाले नारकी जीवों में से जब तक न एक भी मरकर निकलता है, न कोई नया उत्पन्न होता है, तव तक का काल अशून्यकाल कहलाता है।
वर्तमान काल के इन नारकियों में से एक, दो, तीन त्यार, इत्यादि क्रम से निकलते-निकलते जब एक ही नारकी. शेष रह जाए, अर्थात् मौजूदा नारकियों में से एक का निकलना जय प्रारंभ हुआ तब से लेकर जब एक शेप रहा तव तक के समय को मिथकाल कहते हैं । उदाहरणार्थ-वर्तमान काल में यहां जितने मनुप्य बैठे हैं, वे सब एक-एक करके चले जावें, सिप मनुष्य शेष रह जाय और दूसरे नये पाजावे, तब तक का समय मिश्रकाल कहलाता है।
वर्तमान काल के जिन नारकियों का ऊपर विचार किया है, उनमें से जब समस्त नारकी, नरक से निकल आवें एन भी शेष न रहे, और उनके स्थान पर सभी नये नारकी पहुँच जायें, वह समय शुन्यकाल कहलाताहै ।जैसे-व्याख्यान में एक हजार श्रादमी बैठे थे. धीरे-धीरे वे सब चले गये । उनमें से एक भी बाकी न रहा और उनके बंदले नये आदमी आ येठे, यह शुन्यकाल कहलाया।
भगवान् फर्माते हैं- हे गौतम ! यह जीव नरक में
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श्रीभगवती सूत्र
[६९४] रहा है। इसने कभी ऐसी अवस्था भोगी है जब नरक के अपने साथियों से बिछुड़ कर अकेला ही रहा, कभी इसने ऐसी अवस्था भोगी, जब इसके साथी अनेक जीव वहां मौजूद थे और कभी ऐसा भी समय आया जब इसके साथ पहले वालों में कोई भी शेष नहीं रहा था। ____ गौतम स्वामी पूछते हैं-भगवन ! तिर्यंच योनि में यह जीव कैसे रहा ? भगवान् फर्माते हैं-गौतम ! तिथंच योनि में जीव दो प्रकार ले रहा-शून्यकाल में और मिश्रकाल में।
मिश्रकाल के नारकी जीवों का जो विचार किया है, वह वर्तमान काल के जीवों की अपेक्षा से ही नहीं किया है, किन्तु जिस काल में नरक के जीव नरक में थे, वे निकला कर दूसरी योनि में गये-फिर चाहे वे किसी भी योनि में गये, हो, परन्तु उनकी अपेक्षा से भी विचार किया है। उदाहरण के लिए व्याख्यानसभा में एक हजार मनुप्य बैठे थे। उनमें से और सब चले गये, सिर्फ एक ही मनुष्य शेष रहा। वे गये हए मनुष्य, कहीं भी जाकर व्याख्यान में श्रा जावें, वह समय मिश्रकाल कहलाता है।
अगर ऐसा, न माना जायगा तो दोप पायगा। आगे अशल्यकाल की अपेक्षा मिश्रकाल अनन्तगुणा कहा है, सो घट नहीं सकेगा। प्रशून्यकाल अर्थात् विरहकाल बारह महूर्त का है। अगर यहाँ नरक के जीवों की ही अपेक्षा ली जाय तो वह असंख्यातगुणा ही ठहरेगा, अनन्तगुणा नहीं। इसलिए जो जीव नरक से निकल कर वनस्पति में गया, वह भी नरक की अपेक्षा वाले मिश्रकाल में गिना जायगा, तभी मिश्रकाल की अनन्तगुणा सिद्ध होगी। कहा भी है:
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[६९५ 1
संसार संस्थानकाल एयं प्रण ते जीवे. पडुच्च मुत्तं न तब्भवं चेवः। जइ होज्ज तब्भवं तो, अनन्तकालो न संभव ॥ ..
अर्थात-यह सत्र जीवों को उसी भव के आश्रित नहीं है। अगर उसी भव के आश्रित माना जाय तो मिश्रकाल अनन्तगुणा संभव न होगा।
मिश्रकाल की अनन्तगुणता में क्यों वाधा श्राएगी, इसे स्पष्ट कर देना आवश्यक है। नरक के वर्तमानकालीन नारकी अपनी आयु पूर्ण करके नरक से निकलते ही हैं और नरक
की आयु असंख्यातकाल की ही है, अनन्तकाल की नहीं है । ‘ऐसी अवस्था में बारह मुहूर्त वाले अशून्यकाल की अपेक्षा मिथकाल असंख्यातगुणा सिद्ध होगा, अनन्तगुणा नहीं । अत एव नरक के जीव जब तक नरक में रहे तभी तक मिश्रकाल नहीं समझना चाहिए, वरन् नरक के जीव नरक से निकल कर दूसरी योनि में जन्म लेकर फिर नरक में आवें, तब तक का काल मिश्रकाल है।
तियच योनि में दो ही संस्थानकाल हैं-अशून्यकाल और मिश्रकाल | शून्यकाल तिर्यंच योनि में नहीं है । शून्यकाल तब होता है जब उस योनि में पहले वाला एक भी जीवन रहे, मगर तिर्यंच योनि में अनन्त जीव हैं। वे सब के सब उसमें से निकल कर नहीं जाते। इसलिए तिर्यंच योनि में . शून्यकाल नहीं है।
- मनुष्य योनि और देवयोनि में तीनों काल हैं। अतएव इन दोनों का वर्णन पूर्वोक्त नारकियों के वर्णन के समान ही समझना चाहिए।
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श्रीभगवती सूत्र
[ ६६६ ]
इसके अनन्तर गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं कि नरक की अपेक्षा से तीनों कालों में कौन-सा फालं संघ से कम अधिक हैं? भगवान् ने फर्माया-नरक की अपेक्षा से संव से कम अशून्यकाल है । श्रशून्यकाल उत्कृष्ट से उत्कृष्ट चारह मुहूर्त्त का है। मिश्रकाल, श्रंशून्यकाल से श्रनन्तगुणा है । जीव नरक से निकलकर दूसरी गति में जाकर त्रस और वनस्पति आदि में गमनागमन करके फिर नरक में आवे, तब तक मिश्रकाल ही है ।
:
''.
मिश्रकाल अनन्तगुणा है, इसका कारण यह है कि 'नारकी का निर्लेपनं काल और वनस्पति का कायस्थिति काल भागता है । इसलिए मिश्रकाल अनन्तगुण है
शून्यकाल, मिश्रकाल से भी अनन्तगुणा है । नरक के जीव 'तरक से निकलकर वनस्पति में जाते हैं और वनस्पति की स्थिति अनन्तकाल की है अतएव शून्यकाल अनन्तगुणा है ।
तिर्यवों की अपेक्षा सव से कम अशून्यकाल है । चारह मुहूर्त्त का विरह होता है, इसलिए शून्यकाल कम है ।
- तिर्यच पंचेन्द्रिय की अपेक्षा अशून्यकाल वारह मुहर्त्त 'है, तीन विकलेन्द्रिय का अनन्तमुहूर्त्त का है और पांच समूर्छिम तियेचों की अपेक्षा अशून्यकाल है ही नहीं । एकेन्द्रिय की अपेक्षा से भी अशून्यकाल नहीं होता, मिश्रकाल ही रहता है।
पृथ्वीकार्य आदि में भी असंख्य जीव उत्पन्न होते हैं,
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[ ६९७ ] ..
संसार संस्थानकाल
और नये जाते हैं, अतएव पृथ्वीकाय आदि में भी मिश्रकाल अनन्तगुणा है ।
मनुष्यों और देवों के संस्थान काल की होनाधिकता नारकियों के ही समान समझनी चाहिए ।
3
संसार की अपेक्षा जीव का तीन काल का संसारसंस्थान काल समाप्त होता है । इसके अनन्तर मोक्ष का प्रश्न उपस्थित होता है । उस पर आगे विचार किया जाता है ।
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ग्रह किया
Docomracracke
मूलपाठप्रश्न-जीवेणं भंते! अंतकिरियं कर जा?
उत्तर-गोयमा ! प्रत्थेगइए करेजा, अत्थेगइएनो करेजा, अंतकिरियापर्य नेयव्वं ।
संस्कृत-बाया-प्रश्न-जीवो भगवन् ! अन्तक्रियां कुर्यात् ।
उत्तर-गौतम ! अस्त्येककः कुर्यात् प्रत्येकको नो कुर्याद, अन्तक्रियापदं ज्ञातव्यम् ।
मूलार्थ-भरन-भगवन् ! जीव अन्तक्रिया (मोक्षप्राप्ति)
लता है?
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[ ६ ]
अंत किया
उत्तर - गौतम ! कोई जीव करता है, कोई जीव नहीं करता है; यहां प्रज्ञापना सूत्र का वीसवां अन्तक्रिया पद समझना चाहिए ।
व्याख्यान — कई लोगों का कथन है कि जीव स्वभाव से संसार में परिभ्रमण करता रहता है और जीव का स्वभाव सदा कायम रहता है, इसलिए उसका भव-भ्रमण भी सदा कायम रहता है । इस कथन का आशय यह निकला कि जीव कभी मुक्ति वहीं प्राप्त करता । कदाचित् किसी जीव को मोक्ष प्राप्त हो जाय तो वहां पर भी वह कुछ समय रहकर दूसरी योनि में जन्म ले लेता है | उनकी मान्यता के अनुसार मोक्ष भी संसार की हो एक अवस्था है । वे मोक्ष को ऐसा नहीं मानते, जहाँ पहुँच कर जीव का परिभ्रमण समाप्त हो जाता है; फिर कभी वहां से वापस नहीं लौटना पड़ता ।
इस मान्यता पर दृष्टि रखते हुए गौतम स्वामी पूछते ३- भगवन् ! जीव संसार में ही रहता है या संसार-विच्छेद कर मोक्ष भी जाता है ? अर्थात् जीव अन्तक्रिया करता है ?
जिस क्रिया के पश्चात् फिर कभी दूसरी क्रिया न करनी पड़े. वह अंतक्रिया कहलाती है अथवा फर्मों का सर्वथा अन्त करने वाली क्रिया भी अन्तक्रिया कहलाती है । दोनों का श्राशय एक ही है - सकल कर्म समूह का क्षय करके मोक्षप्राप्ति की क्रिया अन्तक्रिया है ।
इस प्रश्न के उत्तर के लिए आचार्य पन्नवणासूत्र के 'अन्तक्रिया' नामक चीलर्वे पद का हवाला देकर कहते हैं
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श्रीभगवती सूत्र
[७०० ] अन्तक्रिया पद में विस्तार पूर्वक वर्णन है, वह यहाँ समझ लेना चाहिए। प्रज्ञापनासूत्र में किया हुश्रा वर्णन संक्षेप में इस प्रकार है:
प्रश्न-भगवन् ! जीव अन्तक्रिया करता है? . ... . उत्तर- गौतम ! कोई जीव करता है, कोई जीव नहीं करता।
प्रश-भगवन इसका क्या कारण है ? : : उत्तर-गौतम! मव्यजीव.अन्तक्रिया करते हैं, अभयजीव अन्तक्रिया नहीं करते हैं।
यह समुच्चय जीव के संबंध में प्रश्नोत्तर हैं। इसी । अंकार नैरयिंक से लेकर वैमानिक देवो तक के वियय में प्रश्न करना चाहिए । इन सर्व प्रश्नों का उत्तर यही होगा कि कोई जीव अन्तक्रिया करते हैं, कोई नहीं करते । अर्थात् भव्य जीव, करते हैं, अभव्यजीव नहीं करते।
- इसके पश्चात् गौतम स्वामी पूछते हैं-अगर भव्य नारक श्रादि अन्तकिया करते हैं तो क्या उसी भव से करते हैं ? .... उत्तर-हे.गौतम नहीं। नरक के जीव मनुष्य भन पाकर अन्तक्रिया करते हैं। मनुष्य भव के बिना अन्तक्रिया नहीं हो सकती।
. .. : “यहाँ यह प्रश्न होता है कि पहले नारकियों का अन्तक्रिया करना कहा है और यहाँ उसका निषेध प्योंदिया
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[७०१ ]
संसार संस्थानकाल
है ? इसका उत्तर यह है कि कोई नारकी अन्तक्रिया करते हैं, यह कथन भविष्य की अपेक्षा से है। इस कथन द्वारा यह प्रकट किया गया है कि नारकियों में भी अंतक्रिया करने की शक्ति विद्यमान है, मगर उस शक्ति की अभिव्यक्ति नारक भव में होती नहीं है। नारक जीव मनुष्य पर्याय पाकर ही अंतक्रिया करते है।
जीव में जब तक कर्म-बंध का सद्भाव रहता है, तव तक वह अंतक्रिया नहीं करता, कर्म शेष रहने से कोई-कोई जीव देवपर्याय में भी उत्पन्न होता है, अतएव अब देवता सम्बन्धी प्रश्न उपस्थित होता है।
इस विषय में गौतम स्वामी ने चौदह प्रश्न किये हैं '. और भगवान् ने अनेक उत्तर दिये हैं। इसका वर्णन आगे
दिया जाता है।
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देवोपपात
मूलपाठ -
प्रश्न - अह भंते! असंजय भवियदव्व
देवाणं श्रविराहिय संजमाणं विराहियसंजमाणं, श्रविराहियसंजमा संजमाणं, विराहियसंजमा संजयाणं, श्रसरणीणं, ताव साणं. कंदपित्र्त्राणं, चरगपरिव्वायगाणं. किव्विसिया णं, तेरिच्छित्राणं, आजीवित्राणं, त्राभिश्रोमित्राणं, सलिंगी, दंसणवावण्णगाणं, एएसिं णं देवलोगेसु स्ववज्जमाणाएं कस्स कहिं उववाए पण्णत्ते ?
·
उत्तर - गोयमा ! असंजयभवियदव्वदेवाणं जहणणं भवणवासिसु, उक्कोसेणं उवरिम
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[७०३]
देवोपयात
गेविजएसु; अविराहिअसंजमाएं जहण्णेणं सोहम्मे कप्पे, उक्कोसेगं सव्वट्ठसिद्ध विमाणे; विराहियसंजमाणं जहणणेणं भवणवासिसु उक्कोसेणं सोहम्मे कप्पे; अविराहियसंजमासंजमाणं जहरणेणं सोहम्मे कप्पे, उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे; विराहियसंजमासंजमाणं जहरणेणं भवणवासिसु उक्कोसेणं जोइसिएसु; असण्णीणं जहणणेणं भवणवासिसु, उक्कोसेणं वाणमंतरेसुः अवसेसा सव्वे जहण्णेणं भवणवासिसु, उक्कोसेणं वोच्छामि-तावसाणं जोतिसिएसु, कंदप्पिाणं सोहम्मे कप्पे, चरगपरिवायगाणं बंभलोए कप्पे, किबिसियाणं लंतगे कप्पे, तेरिच्छिाणं सहस्सारे कप्पे, आजीवित्राणं अच्चुए कप्पे, अभिोगिना अच्चुए कप्पे, सलिंगीण दंसणसमावण्णगाणं उवरिमगेविजएतु ।
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श्रीभगवती सूत्र
[१२] है! श्राशय यह है कि चारित्रमा उपचात नहान से, प्रभावी होने पर भी भाग कदा।
अब तीसरा प्रश्न विराधक संयमी का है। विराधक संयमी अगर देवगति में जाय तो जघन्य भवनवासी और उत्कृष्ट सौधर्मकल्प में इतना होता है।
पहले पाराधर संयमी का जो स्वरूप यनलाया गया है. उनसे विपरीत विरामक संयमी कहलाता है। अयांत जिसने महावत ग्रह. तो किये हैं, मगर उनका पालन भली-- भाँति नहीं किया, जो नियंठों की मर्यादा नांवर महावत में दोप लगाता है, वह विरोधक संयमी कसाता है।
चौथा प्रश्न अविराधक संयमासंयमी का है। जिस समय से देशविरति को ग्रहण किया, उस समय स अवडित रूप से उसका पालन करने वाला भाराधक संयमासंबी कहलाता है। ऐसा शावक अगर देवलोक में उत्पन्न होतो जघन्य लोधर्म फल्प में और उत्ष्ट अच्युत विमान (यारहवें स्वर्ग) में उत्पन्न होता है।
इसी प्रकार विराधक संयमास यमी अगर देवगति प्राप्त करे तो जघन्य भुवन-वाली में और उत्कृष्ट ज्योतिष्क में उत्पन्न होता है।
छठा प्रश्न अशी जीचों का है। जिनके मनोलब्धि नहीं है, उन जीवों को असंशी कहते हैं। असंशी जीव काम
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। ७१६ 1
देवोपपात
का समाधान यह है कि सुकुमारिका ने मूल गुण की नहीं, किन्तु उत्तरगुण की विराधना की थी अर्थात् बुक्कलपन धारण किया था। वार-बार मुँह-हाथ धोते रहने से साधु का चारित्र कवरा हो जाता है। सुकुमारिका का यही हुश्रा था। यह उत्तरगुण की विराधना हुई, मूलगुण की नहीं। यहाँ जिन विराधक संयमियों का उत्कृष्ट सौधर्म कल्प में उत्पाद बतलाया गया है, वे मूलगुण के विराधक समझने चाहिए।
अगर यह हर किया जाय कि चाहे मूलगुण का विराधक हो, चाहे उत्तरगुण का, पहले देवलोक से आगे नहीं जाता तो वुक्कस नियंठा वाला उत्तरगुण का परिसेवी होने पर भी वारहवें देवलोक तक जाता है । इस कथन से विरोध आता है। इसलिए जो विशिष्टता गुण का विराधक हो वह नीची गति में जाता है, और कथंचित् विरोधक-कथंचित् आराधक, विराधक संयमी की तरह नीची गति में नहीं जाता।
अव एक प्रश्न और शेप रह जाता है। असंशी जीव का जघन्य भवनवासी और उत्कृष्ट वाणव्यतंर में उत्पाद बतलाया गया है, इससे ऐसा प्रतीत होता है कि भवनवासी से व्यंतर बड़े है। क्या वास्तव में यही बात है ? इसके सिवाय चमरेन्द्र तथा वलेन्द्र की ऋद्ध बड़ी कही है। आयुष्य भी इनका सागरोपम से अधिक है, जव कि वाणव्यन्तर का पल्यापम प्रमाण ही है। फिर वाण-व्यतंर बड़े कैसे माने जा सकते हैं ? इसका उत्तर यह है कि कई वाणव्यतंर, कई भवनवासियों से भी उत्कृष्ट ऋद्धि वाले हैं और कई भवनवासी
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দ্ধিসুদি জাফজ্জাম্বুজ।
मूलपाठप्रश्न-कतिविहे णं भंते ! असनिभाउए पन्नते ?
उत्तर-गोयमा ! वउविहे असन्निपाउए पन्नते; तंजहा-नेरइन असन्निभाउए, तिरिक्ख मणुस्स-देवप्रसन्निपाउए ।
प्रश्न-असण्णी णं भंते ! जीवे किं नेरइयाउअंपकरेइ,तिरिक्खमणु-देवाउअंपकरेइ ?
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श्रीभगवती सूत्र
E ] मूलार्थ-प्रश-भगवन् ! असंजी का ग्राम्य कितने प्रकार का कहा है ?
उत्तर-गौतम ! असंज्ञी का आग्रुप्य चार प्रकार का कहा है, वह इस प्रकार-नैरपिक-अंसंज्ञी-प्रायुष्य, तिर्यंच असंजी-आयुष्य, मनुष्य-मंजी-आयुप्प, देव-संतीआयुष्य
प्रश्न-भगवन् ! क्या असंज्ञी नारकी की आयु उपार्जन करता है ? और तिर्यंच की, मनुष्य की तथा देव की आयु उपार्जन करता है ?
उत्तर-गौतम ! हाँ, नारकी की आयु भी उपार्जन करता है, और तिर्यंच की, मनुष्य की अथवा देव की आयु भी उपार्जन करता है। नारकी की आयु-उपार्जन करता हुआ असंज्ञी जीव जघन्य दस हजार की और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग की उपार्जन करता है । तिर्यंचयोनि की आयु उपार्जन करने वाला असंज्ञी जघन्य अन्तर्मुहर्त की और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यात भाग की उपार्जन करता है, मनुष्य की आयु भी इतनी ही
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[ ७२७ ]
असंज्ञी का आयुष्य' वना का निराकरण करने के लिए यह प्रश्न किया हे कि असंही का श्रायुष्य क्या असंज्ञी द्वारा ही उपार्जन किया जाता है ?
गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फर्मायाहाँ गौतम, असंही द्वारा उपार्जन किया हुआ आयुन्य है।
आत्मा जंब प्रकृष्ट अज्ञान की स्थिति में आता है, तव अपने आपको ही भूल जाता है। उसे यह पता नहीं रहता कि मैं क्या करता हूँ। तथापि भगवान् अपने निर्मल ज्ञान में सब कुछ देखते हैं। शरावी को भान नहीं होता कि वह क्या कर रहा है, क्या बोल रहा है, किधर जा रहा है, पूछने पर भी वह ठीक-ठीक उत्तर' नहीं दे सकता, लेकिन समझदार
मी शराबी की सव चपाए देखता है। इसी प्रकार मनोलब्धि विकसित न होने से असंही जीव को मालूम नहीं होता कि वह क्या अच्छा-बुरा कर रहा है। मगर उसके आन्तरिक अंध्यवसाय को हस्तामलकवत् जानने वाले ज्ञानी कह देते हैं कि वह असंही जीव नरक की श्रायु उपार्जन करके नरक में, या स्वर्ग में, इतने समय के लिए जाता है।
' . आप अपनी वाह्य चेप्टाएँ जानते हैं, मगर समस्त आन्तरिक प्रवृत्तियों को; जो प्रतिक्षण हो रही है, जान लो तो सर्वज्ञ होते देर न लगे। किन्तु सर्वज्ञ की स्थिति प्राप्त करने के लिए पहले सर्वज्ञ के वचनों पर विश्वास-सुदृढ़ श्रद्धा करने की आवश्यकता है। ऐसा करने से एक वह दिन अवश्य आएगा जब परमात्मा में और तुममें कुछ भी अन्तर नं रहेगा।
अन्तरात्मा में क्या होता है, इस बात का किंचित्
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श्रीभगवती सूत्र
[ ७२८ ]
आभास नित्य मिलता है। लेकिन वहिर्द्रष्टि पुरुष उस ओर लक्ष्य नहीं देते । उदाहरण के लिए भोजन को ही लीजिए । श्राप भोजन करते हैं, मगर आपको यह पता नहीं है कि यह भोजन कब किस रूप में पलटता है, उसका श्रापके मन पर और तने पर क्या प्रभाव पड़ता है ! लेकिन अभ्यास से पता लगना बहुत कठिन नहीं है । जैसे- जब आपकी आँखों में गर्मी भन्ना रही है, तब आपको कोई तेज़ मसालेदार तेल की चीज़ खिलाना चाहे तो क्या आप खाएँगे १
"नहीं !"
क्योंकि आपको मालूम है कि इस भोजन का परिणाम हानिकारक होगा यद्यपि यह बात प्रत्यक्ष नहीं दीखती । इसी प्रकार आप जो-जो कार्य करते हैं, उनके विषय में शास्त्र से यह पता लग ही जाता है कि इनका फल अमुक-अमुक होगा । इस बात को पूर्ण रूप से प्रत्यक्ष जानने के लिए सर्वज्ञता की 'श्रावश्यकता है। असंही जीव नरक की आयु भी बाँधते हैं और स्वर्ग की आयु भी बाँधते हैं । कहाँ नरक की भीषण यातनाएँ और कहाँ स्वर्ग का अनुपम सांसारिक सुख ! लेकिन अपने ज्ञान में भगवान् ने जैसा देखा है, जगत् के कल्याण के लिए कह दिया है ।
गौतम स्वामी, भगवान् से पूछते हैं-प्रभो ! श्रसंज्ञी जीव मनोहीन हैं, इसलिए सभी असशी क्या नरक की समान आयु का वध करते हैं ? भगवान् ने उत्तर दिया नहीं गौतम, यह बात नहीं है । कोई जीव जघन्य दश हजार वर्ष की आयु बाँधते हैं और कोई उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें - साग की आयु चाँधते हैं ।
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________________ श्रीभगवती सूत्र [730 ] बतलाई है वह भी गुगलिया मनुय की अपेक्षा से ही समझना चाहिए। - अंसंज्ञी मनुष्य अगर देवा उपार्जन करता है तो जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट पल्यापम के असंख्यात भाग की आयु प्राप्त करता है। तात्पर्य यह है कि देव और नरक गति का अंघन्य आयुष्य दस हजार वर्ष का और उत्कृष्ट पल्यापम के अंसं. ख्यात भाग का उपार्जन करता है। इसी प्रकार मनुष्य और तिर्यंच का जघन्य अन्तर्मुर्त और उत्कृष्ट पल्यापन के प्रम ख्यातवें भाग का आयुष्य पाता है। ... गौतम स्वामी फिर पूछते हैं-भगवन् ! इन चारों मायुष्यों में से कौन किससे कम और कौन फिससे ज्यादा है ? भगवान् उत्तर देते हैं-गौतम ! असंज्ञी देव-श्रायुप्य सबसे कम है, असंशो- मनुष्यायुप्य उससे असंख्यातगुणा ज्यादा है। असंज्ञी, देवगति में जाता तो है, लेकिन उसका शुभ आयुष्य अधिक उपार्जन करना कठिन है। इसजिर वह दब का आयुष्य वहुत कम बाँधता है और मनुष्य का ओयुप्य उसकी अपक्षा अंसंख्यातगुणा अधिक बाँधता है। तियव का श्रादुष्य, "मनुष्य-श्रायुष्य की अपेक्षा भी असंख्यातगुणा वाँधता है। और नारकायु, तिथंचायु की अपेक्षा असंख्यात गुणा चौधता है।