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________________ [ ५६१ ] संवृत, अनगार ग्रामः - जहाँ थोड़ी बुद्धि वाला और बहुत बुद्धि वालादोनों प्रकार के मनुष्य रह सकते हों, वह ग्राम कहलाता है । एक जगह एक टीका में लिखा है कि जहाँ बसने से बुद्धि नष्ट होजाय, वह ग्राम है। मगर ग्राम का यह अर्थ उपयुक्त नहीं जँचता, क्योंकि अधिकतर मस्तिष्कशक्ति की उत्पत्ति ग्रामों में ही होती है। असली तत्त्व ग्रामों में ही हैं । नागरिक लोग, ग्रामों में उत्पन्न पदार्थ ही खाते हैं। आम तौर पर यह खयाल किया जाता है कि नगर के लोग चतुर होते हैं । लेकिन कच्चा लोहा खान से निकलता है और शाण पर चढ़ने से वह तीक्ष्ण हो जाता है, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह शाण पर चढ़ा लोहा वहीं बना है। इसी प्रकार नगर में बुद्धि का संघर्ष होता है, इस कारण नगर निवासियों की बुद्धि में तीक्ष्णता आ जाती हैं, मगर बुद्धि की उत्पत्ति ग्रामों में ही होती है । आकर-खदान को 'आर' कहते हैं । जहाँ लोहा यदि धातुएँ निकलती हैं, वह भूभाग आकर कहलाता है । नगर-नं कर अर्थात् जहाँ कर (टेक्स) न लगे, वह स्थान नगर है । श्राज़ नगरों पर खूब कर लग गया है और नवीन नवीन कर लगते जाते हैं, मगर प्राचीन काल में नगरों पर कर नहीं थे। इसलिए नगरों में खूब क्रय-विक्रय होता था और नागरिक लोग ग्रामीणों की भी सार - सँभाल कर सकते थे । श्राज के नागरिकों पर इतना वोझ लदा है कि उन्हें अपनी ही सुध-बुध नहीं है । वे ग्राम्य जनता की क्या सुध ले सकेंगे ! निगम -- जहाँ व्यापारी अधिक निवास करते हो, इस - ·
SR No.010494
Book TitleBhagavati Sutra par Vyakhyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherSadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
Publication Year1947
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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