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श्रीभगवती सूत्र
[३३२] की कामना न करो। जो कर्तव्य प्रारंभ किया है, उसी में जुटे रहो; फल आप ही दिखाई देने लगेगा। 'चलमाणे चलिए का सिद्धान्त यही सिखलाता है कि मोक्ष गया नहीं है लेकिन जाने लगा कि गया ही समझो। इसलिए असंख्यात भंवों में जिस मोक्ष को जाना है वह मोक्ष आज ही हुआ क्यों न कहा जाय?
यह नौ प्रश्न विश्वासमय बनाते हैं। जिस मनुष्य के मन में निराशा छाई रहती है वह कोई भी काम दृढ़तापूर्वक नहीं कर सकता। उसका तन काम करता है, और मन विद्रोह. करता है । तन और मन के संघर्ष में उसकी शक्तियाँ क्षीण हो जाती हैं और उसे सफलता भाग्य से ही मिल सकती है। इस निराशा को रोकने का सर्वश्रेष्ठ साधन यही है कि फल की आशा ही न की जाय । 'न रहेगा वांस, न वजेगी बांसुरी
आशा ही न होगी तो निराशा कहाँ से आएगी? आशा ही निराशा की जननी है। सफलता के लिए श्राशा-त्याग की अनिवार्य आवश्यकता है। इसी उद्देश्य से जैनशास्त्रों में निदान शल्यं को त्याज्य कहा है और इसीलिए गीता में भी निष्काम कर्स का उपदेश दिया गया है। ... स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ।
अर्थात्--स्वल्प-सा धर्म होने पर भी अपना कल्याण हुआ समझ, घबरा मत उसी से तुझे निर्भयंता प्राप्त होगी।
काल के हिस्से के हिस्से करने पर अन्त में 'समय'. हाथ आता है। लकड़ी के दो, चार, आठ आदि टुकड़े करते: करते आखिर कभी न कभी यह होगा कि अंव और टुकड़े