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श्रीभगवती सूत्र
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वाले जीव को संक्षी कहते हैं और जिन्हें संक्षीपन प्राप्त हुआ है, उसे संक्षिभूत कहते हैं ।
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संशिभूत का दूसरा अर्थ है - जो पहले संधी (मिथ्यादृष्टि ) थे और द संजी ( सम्यग्दृष्टि ) हो गये हैं, अर्थात् जिन्हें सम्यग्दर्शन रूप जन्म मिला हैं, नरक में ही जो मिथ्यात्व छोड़कर सम्यग्द्दष्टि हुए हैं, वे संज्ञी कहलाते हैं । संक्षित को बहुत वेदना होती है |
यह आशंका की जा सकता है कि सम्यन्हटि को कम वेदना होनी चाहिए परन्तु यहां अधिक वेदना बतलाई गई है । इसका क्या कारण है ? इस आशंका का समाधान यह है कि सम्यग्दृष्टि जब नरक में जाता है-या नारकी को जब सम्यन दर्शन हो जाता है तब वह अपने पूर्वकृत कर्मों का विचार करता है और सोचता है: -'अहो ! मैं कैसे घोर संकट में श्रा पड़ा हूँ ! यह संकट अचानक ही श्रां गया है। भगवान् श्रन्त का धर्म सब संकट टालने वाला और परमानन्द देने वाला है, उसका मैं ने श्रांचरण नहीं किया । इसी कारण यह अचिन्तित आपदा श्री पड़ी है । मैं विषय रूपी विष के लालच में फंस गया, जो ऊपरी दृष्टि से अच्छे प्रतीत होते थे, मगर जिनका परिणाम अत्यन्त दारुण है ! इन विषयों के जाल में फंस जाने के कारण ही मैंने अर्हन्त भगवंत के धर्म का आचरण नहीं किया । और श्रव इस घोर विपदा में पड़ा हूं ' इस प्रकार का पश्चात्ताप संनिभूत नारकी को होता है जिससे उसकी मानसिक वेदना, ग्लान और क्षोभ बढ़ जाता है और वह महान् वेदना का पात्रं होता है।
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असंक्षिभूत को यह मालूम ही नहीं कि 'हम अपने कर्म -
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