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समवेदनादि-प्रश्नोत्तर
का फल भोग रहे हैं।' अतरव उन्हें पश्चात्ताप नहीं होता और न मानसिक पीड़ा ही होती है। इसी कारण असशिभूत. को कम वेदना होती है।
__ यह वात लोक व्यवहार में भी देखी जाती है। कोई कुलीन तथा बुद्धिमान् पुरुष, अपने पूर्वजों की सुशिक्षा को जानता हो, उस पर श्रद्धा भी रखता हो, और कुमार्ग से घृणा करता हो, तथापि कभी किसी के बहकाने-फुसलाने में पाकर अगर कोई नीति विरुद्ध काम कर डालता है, और कदाचित् उसे कारागार की सज़ा मिलती है तो उसके पश्चात्ताप की सीमा नहीं रहती। आत्मग्लानि की घोर वेदना से वह बेचैन रहता है। कारागार के कभी-कभी होने वाले कप्टों की अपेक्षा आत्मग्लानि और पश्चात्ताप का कष्ट उसके लिए बहुत अधिक और असह्य हो जाता है। इसके विपरीत जो, अकुलीन और निर्लज हैं, उनके लिए कारागारं सुसराल बन जाता है । उन्हें न पश्चात्ताप होता है, न ग्लानि होती है। वे वहाँ मस्त और प्रसन्न रहते हैं। ऐसे लोगों को कारागार में कम कष्ट होता है।
तात्पर्य यह है कि सम्यग्दृष्टि को वेदना अधिक होती है, क्योंकि उसे पश्चात्ताप अधिक होता है और असशिभूत अर्थात् मिथ्यादृष्टि को कम वेदना होती है क्योंकि स्वकृत कर्म को न जानने से उन्हें पश्चात्ताप नहीं होता। यह एक प्राचार्य का अभिप्राय है।
बहुत से लोगों को अपने विषय में ही यह नहीं मालूम होता है कि मैं सम्यग्दृष्टि हूं। इस बात को जानने के लिए अपने आत्मा को अपने ही गज से नापना चाहिए। जिस.