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श्रीभगवती सूब
[५४८] योग और कपाय की प्रवृति प्रायः साय ही होती है। दोनों के लिए एक शब्द का प्रयोग किया जाय तो 'लेश्या' शब्द का प्रयोग किया जा सकता है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि जैसी लेश्या होगी, वैसा ही कर्म वैवेगा।
' असंवृत अनगार थोड़े प्रदेश वाले कर्म-दलिकों को बहुप्रदेशी दलिक बना लेता है। प्रदेश बंध योग से होता है और असंवृत अनगार में अशुभ योग विद्यमान रहता है ।
असंवृत अनगार असातावेदनीय कर्म का बार-बार उपचय करता है। यहाँ यह आशंका की जा सकती है कि असातावेदनीय कर्म, सात कमों के अन्तर्गत वेदनीय कर्म में आ गया है । फिर उसे अलग क्यों कहा गया ?
इसका उत्तर यह है कि असंवृत अनगार अत्यन्त दुःखी होता है, यह प्रकट करने के लिए असातावेदनीय कर्म का पृथक् उल्लेख किया है। इससे यह शिक्षा मिलती है कि साता से बचने के लिए असंवृतपन का त्याग करना चाहिए । . यह सब वर्णन असंवृत अनगार को लक्ष्य करके किया गया है।जो पुरुष. साधु होकर भी सुख की भ्रान्ति से पासव में प्रवृत होता ह, उसके लिए शास्त्र कहता है-तू आस्रव की प्रवति में मत पड़ । ऐसा करेगा तो दुखी होगा। संसार के 'सुख की लालसा मिटने से पाप मिटता है। लेकिन आश्चर्य तो यह है कि संसार के सुख को दुख रूप समझ लेने पर भी उसकी लालसा नहीं मिटती! इसी भ्रमणा के कारण पाप में पड़ना पड़ता है। उदाहरण के लिए अफीम समझिए। अफी. मची सुख के लिए अफीम खाता है और समझता है कि मैं इस पर माधिपत्य रक्खूगा लेकिन अफीम उसी पर कब्जा