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________________ [ ५४३] असंवृत अनगार जोगा पयडिपri | अर्थात् — योग से प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध होता है । संवृत अनगार थोड़ी स्थिति वाली कर्म-प्रकृतियों को दीर्घकाल की स्थिति वाली बना लेता है, क्योंकि संवृतपन कषायरूप भी है और कषाय स्थितिबंध का कारण है । इस संबंध में कहा है ठि भागं कसाय कुणइ । . अर्थात् स्थितिबंध और अनुभागबंध कषाय से होते हैं। अनुभाग का अर्थ है - रस । संवृत अनगार मंद रस चाली कर्म - प्रकृतियों को तीव्र रस वाली बनाना आरंभ करता है । अर्थात् पतले रस वाले कर्मों को गाढे रस वाले बनाता है । जैसे नीम के पत्ते का रस पतला होता है । उसे श्रौटाया तो वह गाढ़ा हो गया । वह जितना गाढ़ा होगा, उतना ही अधिक कटुक होगा। इसी प्रकार अलंकृत अनगार पतले रस वाले कर्मों को गाढ़े रस वाले करता है, जिससे कि उन कर्मों में तीव्र फल देने की शक्ति आ जाती है । रसबंध भी कषाय से होता है और असंवृत अनगार में कपाय की तीव्रता होती है । कर्म-बंध के चार प्रकार हैं - प्रकृतिबंध, प्रदेशबंध, स्थितिबंध और अनुभागबंध । इनमें प्रकृति और प्रदेश बंध योग से होते हैं और स्थिति तथा अनुभागच कषाय से होते हैं । संवृत अनगार का योग अशुभ होता है और कषाय तीव्र होते हैं । इसलिए वह चारों ही बंधों में वृद्धि करता है ।
SR No.010494
Book TitleBhagavati Sutra par Vyakhyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherSadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
Publication Year1947
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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