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श्रीभगवती सूत्र
१५४२] जो लोग चारित्र-भ्रष्ट को भी मोक्ष मानते हैं, उनकी मान्यता को दूपित करने के लिए यह कथन किया गया है।
____ यहाँ वायुकर्म को पृथक् कर दिया है, क्योंकि वह वार-वार नहीं बँधता, बल्कि एक भव में एक बार ही बघता है और वह भी एक अन्तर्मुहूर्त में ही बँध जाता है। शेष सात कर्मों को, अगर वे शिथिल बँधे होतो मज़दूत रूप से वाँध लेता है । मोक्ष, कर्मों का, सर्वथा नाश होने पर होता है
और असंवृत अनगार कर्मों को और अधिक सुदृढ़ बनाता है। ऐसी स्थिति में उसे मोक्ष कैले प्राप्त हो सकता है ?
असंवृत अनगार ढीले कर्मों को मजबूत करता है, रूखे कर्मों को चिकने करता है, अर्थात् आत्मप्रदेशों के साथ कमों का प्रगाढ़ संबंध कर लेता है।
यहाँ शुभ कर्म का ग्रहण न करके अशुभ कर्म का ही ग्रहण करना चाहिए। क्योंकि यहाँ असंवृत अनगार की निन्दा का प्रकरण है । तात्पर्य यह है कि असंवृत अनगार अशुभ कर्मों को ही मजबूत करता है, शुभ कमों को नहीं। असंवृत अनगार पहले के अशुभ कर्म के बंध को निधत कर लेता है और निधत्त को निकाचित के रूप में परिणत करता है।
'पकरेई' पद में जो 'प्र' उपसर्ग है,वह प्रारंभ का सूचक है। असंवृत अनगार कलों को प्रगाढ़ बंधन में वाँधना प्रारंभ करता है । इसी प्रकार अन्यत्र समझना चाहिए। .
' असंवृत अनगार की प्रास्तव में जो प्रवृति होती है, वह प्रकृति बंध रूप है, क्योंकि असंवृतपन अशुभ योग रूप होता है और योग से प्रकृातवंध होता है। कहा भी है- .