________________
श्रीभगवती सूत्र
[ ३१० ]
भरा हुआ मिलता । राजा प्रदेशी कहता- देखो, काय के श्रतिरिक्त श्रात्मा अलग नहीं है । यहां अकेला शरीर ही दिखाई दे रहा है ।
कभी-कभी प्रदेशी राजा किसी चोर को चीर डालता और उसके टुकड़े टुकड़े करके श्रात्मा को देखता था । जब आत्मा दिखाई न देता तो अपने मत का समर्थन हुआ समझता और कहता कि शरीर से अलग श्रात्मा नहीं है । तात्पर्य यह कि प्रदेशी राजा घोर हिंसक था और महान् पाप
करता था ।
जो आत्मा अज्ञान अवस्था में घोर पाप करता है, ज्ञान होने पर वही किस प्रकार ऊँचा उठ जाता है, इसके लिए प्रदेशी का उदाहरण मौजूद है ।
घन धन केशी सामजी, सारया प्रदेशी ना काम जी ।
केशी श्रमण ने प्रदेशी राजा को समझाया, तब वह जीव और शरीर को अलग-अलग मानने लगा । पहले वही प्रदेशी लोगों की आजीविका छीन लेता था और साधु सन्तों के प्राण लेने में संकोच नहीं करता था । चित नामक प्रधान ने केशी स्वामी से प्रार्थना की कि - 'महात्मन् ! श्राप सिताम्विका नगरी में पदार्पण कीजिये । वहां अतीव उपकार होने की संभावना है। वहां के लोग बड़े धर्मात्मा हैं । वे बहुत प्रेम से आपका उपदेश सुनेंगे। तब केशी श्रमण ने उत्तर दिया- हे चित्त ! एक सुन्दर बगीचा है । उसमें तरह-तरह के फल लगे हैं । अत्यन्त आनन्द दायक वह वगीचा है । बताओ, ऐसे उद्यान में पक्षी आना चाहेगा कि नहीं ?