________________
[३११]
चलमाणे चलिए
चित --'क्यों नहीं महाराज! अवश्य पाना चाहेगा।
केशी श्र०-'लेकिन उस उद्यान में एक पारधी, धनुष चढ़ाकर पक्षियों को मार डालने के लिए उद्यत खड़ा है। ऐसी दशा में वहां कोई पक्षी जायगा' ?
चित-अपने प्राण गंवाने कौन जायगा ?
के.श्र.-इसी प्रकार सिताम्बिका नगरी उद्यान की भाँति सुन्दर है, किन्तु वहाँ का राजा प्रदेशी हम साधुओं के लिए पारधी के समान है । वह साधुओं के प्राण लिए विना नहीं मानता। वह अपने अज्ञान से साधुओं को अनर्थ-की जड़ समझता है । ऐसी दशा में, तुम्ही बताशो, हमारा वहाँ जाना उचित होगा?
चित-भगवन् , अापको राजा से क्या प्रयोजन ? उपदेश तो वहाँ की जनता सुनेगी।
चित की बात सुनकर फेशी श्रमण ने सोचा-अाखिर चित यहाँ का प्रधान है । इसका आग्रह है तो जाने में क्या हानि है ? सम्भव है राजा भी सुधर जाय । परीपह और उपसर्ग मारेंगे तो हमारा लाभ ही होगा-कर्मों की विशेष निर्जरा होगी।
इस प्रकार विचार कर केशी श्रमण ने सितम्बिका जाने की स्वीकृति दे दी और वहाँ पधारं भी गये । चित प्रधान घोड़े फिराने के बहाने प्रदेशी राजा को उनके पास ले श्राया। फेशी श्रमण ने राजा को उपदेश दिया। उपदेश से प्रभावित हो राजा ने थावक के घारह व्रत धारण किये।