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श्रीभगवती सूत्र
[३१२] जव राजा जाने लगा तो केशी स्वामी ने उसने कहा'राजन' अव तुम रमणिक हुए हो; मगर हमारे चले जाने पर फिर परमणिक न बन जाना।
राजा ने उत्तर दिया-नहीं महाराज! मेरे नेत्र आपने खोल दिये हैं। अब देखते हुए गड्ढे में नहीं निरूँगा। बल्कि अपने राज्य के सात हजार ग्रामों के चार भाग आपके सामने ही किये देता हूँ। एक हिस्सा राज्य-भण्डार के लिए, दूसरा अन्तःपुर के लिए, तीसरा राज्य की रक्षा के लिए और चौथे हिस्से से श्रमणों-माहणों के लिए एवं भिखारियों के लिए देता हुआ तथा अपने व्रतों का पालन करता हुश्रा विचसँगा।
मित्रो! राजा प्रदेशी एक दित दूसरों के हाथ का ग्रास छीन लेता था, अव छीनता नहीं वरन् देता है। क्या उसके यह दोनों कार्य बराबर हैं ? अगर कोई जैनदर्शन के नाम पर इन दोनों कार्यों को समान वतलाकर एकान्त पाप कहता है तो उस क्या कहना चाहिए?
तात्पर्य यह है कि राजा प्रदेशी ने घोर पाप करके कर्मों का बंध किया था। कथा में उल्लेख है कि उसने वेलेबेले पारणा किया और शास्त्र में कहा है कि उसने समभाव धारण किया । इस प्रकार प्रदेशी ने अपने इन कर्मों का नाश कर दिया।
राजा प्रदेशी ने ही सूरीकन्ता नार । इष्टकान्त वल्लभ धणी सरे, शास्तर में अधिकार । निज स्वारथ वश पापिणी सरे, मार्यो निज भार ।