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________________ [ ६६१ ] मनुष्य वर्णन है, उतनी चांदी नहीं फैलतीं-चांदी से. उतने बर्तनों पर मुलम्मा नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार सारभूत आहार में जितने पुद्गल होते हैं, निस्सार आहार में उतने नहीं होते । तात्पर्य यह है कि देवकुरू-उत्तरकुरू के मनुष्यों का आहार दीखने में कम होता है मगर उसमें अल्पशरीरी के आहार की अपेक्षा अधिक पुद्गल होते हैं । यही कारण है कि उन्हें बहुत पुद्गलों का श्राहार करने वाला कहा गया है । अल्पशरीरी मनुष्य बार-बार अाहार करता है, यह वात प्रत्यक्ष देखी जाती है, जैसे कि बालंक बार-बार आहार करता है। . तीन गव्यूति (गाउ ) की अवगाहना वाले महाशरीरी मनुष्य भी मनुष्य कहलाते हैं और मल-मूत्र में उत्पन्न होने वाला, अंगुल के असंख्यातवें भाग की अवगाहना वाला मनुष्य भी मनुष्य कहलाता है। भगवान ने ऐसे मनुष्य कीटों के आहार पर भी विचार किया है। फर्म और वर्ण, पहले उत्पन्न हुए मनुष्यों के विशुद्ध और पीछे उत्पन्न होने वालों के अविशुद्ध होते हैं। यद्यपि पहले उत्पन्न होने वाले वृद्ध मनुष्य के कर्म और. वर्ण भी अशुद्ध देखे जाते हैं; तथापि इस कथन में कोई बाधा नहीं 'श्राती, क्योंकि यह कथन सापेक्ष है। . . इसके पश्चात् क्रिया का प्रश्न श्राता है । भगवान् ने फर्माया है कि मनुष्य सम्याहाष्टि, मिथ्याष्टि और मिश्रदृष्टि के भेद से तीन प्रकार के हैं । सम्यग्दृष्टियों में भी तीन भेद हैं
SR No.010494
Book TitleBhagavati Sutra par Vyakhyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherSadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
Publication Year1947
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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