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शीभगवती सूत्र
[६६.] और उनमें भी प्रवान्तर भेद हैं। उनमें भिन्न-भिन्न संख्या वाली क्रियाएँ होती हैं, जिनका कथन ऊपर आ चुका है।
जिसकी श्रद्धा यथार्थ हो वह सम्यग्दृष्टि कहलाता है। विपरीत श्रद्धा अर्थात् अताश्चिक श्रद्धा वाला मिथ्याष्टि कहलाता है। जिसकी श्रद्धा में वास्तविकता और वास्तविकता का सम्मिश्रण हो वह मिदृष्टि है। मिश्रष्टि, मिथ्याष्टि के ही समान है । जैसे अपरीक्षक काँच और हीरे को समान समझता है, मलयपर्वत की भीलनी चन्दन और साधारण लकड़ी को समान समझ कर जलाती है, उसे साधारण लकड़ी और चंदन की लकड़ी का विवेक नहीं है, उसी प्रकार यथार्थ और अयथार्थ के विवक से शून्य मिथदृष्टि वाला पुरुष होता है।
जो संयम का पालन करता है, चारित्र रूपी यतना का विवेक रखता है वह संयत कहलाता है और जिसमें चारित्र की क्रिया नहीं है वह असंयत है । जो देशचारित्र की आराधना करता है, जिसके अणुव्रत है पर महाबत नहीं है, वह संयतासंयत या. श्रावक कहलाता है।
- जो संयम का पालन करता है किन्तु जिसका काय क्षीण या उपशान्त नहीं हुआ है वह मराग संयमी कहलाता है। प्रश्न किया जा सकता है कि जिसमें क्रोध और मान विद्यमान है, वह साधु कैसे हो सकता है ? इसका उत्तर यह हैं कि शास्त्रकारों ने क्रोध आदि प्रत्येक कपाय के चार-चार भेद बतलाये हैं। अनन्तानुबन्धों, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान के क्रोध, मान आदि जब तक विद्यमान रहते हैं तब