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मनुष्य वर्णन
तक साधु अवस्था प्रकट नहीं हो सकती । यह बारह कवाय सफल संयम के विरोधी हैं । लेकिन संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ में इतनी तीव्रता नहीं है । इनसे सकल संयम का घात नहीं होता । संज्वलन कषाय यथारूपात चारित्र का घातक है, मगर सामायिक चारित्र का घातक नहीं है । श्रतएव संज्वलन कपाय की विद्यमानता में भी जो सकल संयम का पालन करते हैं वे सराग संयमी कहलाते हैं ।
जिनके काय का सर्वथा अभाव हो गया है वह वीतनाग संयत करते हैं। वह भी दो प्रकार के हैं:-तीरा कषायी श्रीर उपशान्त कपायी। जैसे अनि को राख से ढँक कर दवा दिया जाता है उसी प्रकार कर्म-प्रकृति की शक्ति को दवा देना उपशम कहलाता है और अग्नि को बिलकुल बुझा देने के समान कमों को नष्ट कर देना जय कहलाता है । ग्यारवे गुणस्थान वाले उपशान्त करायी वीतराग कहलाते हैं श्री चारुवं तथा धागे के गुणस्थान वाले क्षीणकषायी वीतराग कहलाते हैं ।
जो महापुरुष कपायों से सर्वथा मुक्र हो गये हैं, वे क्रिया से न्ध की कारणभूत किया से रहित हैं । यद्यपि संयोगी वस्था में योग की प्रवृत्ति से होने वाली पथिक किया उनमें विद्यमान है पर वह क्रिया नहीं के बराबर है और इन क्रियाओं में उसकी गणना नहीं है ।
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सराय संयमी प्रमत्त और अप्रमत्त के भेद से दो प्रकार के हैं । श्रप्रमत्त संयमी के सिर्फ एक मायाप्रत्यया क्रिया होती है, क्योंकि उनमें अभी कपाय अवशिष्ट है । इसीलिए पूर्वा