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श्री भगवती सूत्र
(४६० )
गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर में भगवान् फ़रमाते हैं - गौतम | कई जीव ऐसे है जो, श्रात्मारंभी भी हैं, परारंभी भी हैं, उभयारंभी हैं, पर श्रारंभी नहीं हैं । तथा कुछ जीव ऐसे भी है जो न श्रात्मारंभी हैं, न परारंभी हैं, न उभयारंभी हैं, किन्तु श्रारंभी हैं ।
प्रश्न किया जा सकता है कि अगर आत्मा रूपी है तो आरंभी कैसे हो सकता है ? अगर श्रात्मा श्ररूपी होते हुए भी श्रारंभी है तो सभी आरंभी होने चाहिए। कोई श्रारंभी और कोई अनारंभी, यह भेद किस कारण से है ?
इस प्रश्न का समाधान यह है कि जीव एक ही प्रकार हैं- एक संसारी अर्थात् संसारी अर्थात् जन्म
के नहीं है। जीवों के मुख्य दो भेद जन्म-मरण करने वाले और दूसरे मरण से मुक्त-सिद्ध भगवान् ।
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एक प्रश्न और हो सकता है कि संसार में से सिद्ध हुए हैं या सिद्धों में से संसारी जीव श्राये हैं ? यह दो भेद कब से बने हैं ? अगर दोनों भेद श्रनादिकाल से हैं तो सिद्ध, संसार में रहकर बने हैं या संसार से बाहर रहकर ? अगर संसारी जीव पहले हैं और सिद्ध उन्हीं में से निकले हैं, तो जीव मूलतः एक ही प्रकार के हुए । अगर सिद्धों को अनादिकालीन माना जाय तो यह भी मानना पड़ेगा कि कोई जीव स्वभाव से निरंजन, निर्विकार हैं और कोई स्वभाव से संसारी होते हैं। ऐसा माने बिना दो भेद किस प्रकार हो सकते हैं ?
यह प्रश्न उपर से अटपटा जान पड़ता है, लेकिन