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श्रात्म-परारम्भादि वर्णन वास्तव में अटपटा नहीं है । शानी जनों का कथन है कि जीव अनादिकाल से, स्वभाव से, निश्चयनय की अपेक्षा असंसारी ही है, किन्तु कर्म-रूप उपाधि के संसर्ग से संसारी यना हुआ है यद्यपि जीवों के मौलिक स्वभाव में तनिक भी भेद नहीं है, मगर शुद्धि-अशुद्धि के कारण भेद हो गया है।
थोड़ी देर के लिए मान लिया जाय कि जीव अनादिकाल से असंसारी है, तो यह सवाल खड़ा होता है कि संसार कबसे है?
'अनादिकाल से!'
जब संसार अनादिकाल से है, तो जीव कर्म नाश करने का उपाय भी तभी से कर रहा है, ऐसी स्थिति में सिद्ध जीव की आदि किस प्रकार होगी? कल्पना कीजिए, एक नगर में दो मुहल्ले हैं। एक मुहल्ले के रहने वाले दूसरे मुहले में गये हैं अय प्रश्न यह है कि शहर कय से है ?
'अनादि से !'
अगर नगर को अनादि से मानोगे तो दोनों मुहल्ले और एक मुहल्ले से दूसरे मुहल्ले में जाना अनादि से मानना पड़ेगा। ऐसा न मानने पर नगर को भी अनादि नहीं माना जा सकता।
कल का भविष्य काल पहले वर्तमान के रूप में आया; तय भूतकाल हुआ है। आगे के इजार, लाख और करोड़ वर्ष भी इसीप्रकार समझ लीजिए । लेकिन भूतकाल कितना वीता, इसकी कोई सीमा है ? 'नहीं!