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श्रीभगवंती सूत्र
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जब भूतकाल, कभी न कभी वर्त्तमान के रूप में रह चुका है, और वर्तमान के बाद ही भूतकाल बना है, तब उसे श्रनादि क्यों कहा जाता है ? इसलिए कि उसकी आदि कां पता नहीं है । इसी प्रकार कोई भी जीव, विना संसारी श्रवस्था के सिद्ध नहीं हुआ है लेकिन कब से संसारी सिद्ध हो रहे हैं इस बात का पता नहीं लगाया जा सकता ।
तात्पर्य यह है कि जीव दो प्रकार के हैं—संसारी और श्रसंसारी । संसारी जीव आत्मारंभी, परारंभी, उभयारंभी और अनारंभी भी हैं तथा श्रसंसारी निरारंभी ही हैं । श्रसंसारी किसी भी प्रकार का प्रारंभ नहीं करते । संसारी जीव आरम्भ करते हैं, इसी कारण वे संसार में हैं और प्रारम्भ ... की सर्वथा परित्याग कर देने पर असंसारी हो जाते हैं ।
आजकल आरंभ का संकुचित अर्थ लिया जाता है, लेकिन शास्त्रकार का कथन है कि मेन, वचन, काय के बुरे योग को भी श्रारम्भ कहते हैं ।
इस संबंध में बहुत-सी बातें हैं, मगर हमें गड़बड़ में नं पड़कर यही देखना है कि मोक्ष कैसे हो सकता है ? वास्तव में आरंभ ही कर्म -बंध का कारण है । कर्मबंध रुक जाय और पूर्वसंचित कर्मों का क्षय हो जाय तो मुक्ति प्राप्त हो जाती है ! गीता में भी कहा है
सहजं कर्म कौन्तेय ! सदोषमपि न त्यजेत् । - - सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः ॥
जैनदर्शन को चाहे जिस दर्शन से मिलाओ, इसकी छाया सभी दर्शनों में दिखेगी। गीता में कहा है- हे अर्जुन !