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________________ [४६३].. • प्रात्म-परारम्भादि, वर्णन संसार में जितने भी भारम्भ है, वह सब धर्मवन्ध के कारण हैं। जैसे अग्नि और धूम का अविनाभाव सम्बन्ध है, उसी प्रकार श्रारम्भ और दोष का भी अविनाभाव है। जहाँ श्रारम्भ है, वहाँ कर्मवन्ध रूप दोप अवश्य होता है। प्रारम्भ ही दोप का कारण है। कारण हट जाने पर कार्य आप ही इंट जाता है। . यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रारम्भ के बिना न खेती होती है, न व्यापार होता है, न श्वासोच्छ्वास ही लिया जा सकता है। ऐसी दशा में प्रारम्भ न करके क्या मर जाना चाहिए? इस सम्बन्ध में गीता का कथन है कि कर्म के दो भेद करना चाहिए-सहज कर्म और असहज फर्म । जैन शास्त्रों में भी अल्पारम्भ और महारम्भ का विभाग किया है। विना किश्चित् श्रारम्भ के कोई जी नहीं सकता। कर्मभूमि अर्थात् श्रारम्भ का स्थान । कदाचित्. शकर्मभूमि में कोई हो तो वह मोक्ष नहीं जा सकता। जब बिना भारम्भ के जीवन निभना कठिन है, तो शास्त्र कहता है कि श्रारम्भ के दो भेद कर लो अल्पारम्भ और महारम्भ । इस अल्पारम्भ और महारम्भ को ही गीता में, फुछ भेद के साथ सहजकर्म और मसहज कर्म कहा है। , . ' सहज कर्म और असहज कर्म में ज्या अन्तर है, इसे समझिए । व्यापार करना कर्म है। लेकिन एक आदमी झूठ चोल कर व्यापार करता है और दूसरा झूठ बोले विना करता है। व्यापार में झूठ का आश्रय न लेने वाला सहज कर्म करता है.और झूट का प्रयोग करने वाला असहज फर्म करता है।
SR No.010494
Book TitleBhagavati Sutra par Vyakhyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherSadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
Publication Year1947
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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