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पारस
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आत्म-परारम्भादि वर्णन अविरति की अपेक्षा से आत्मारंभ भी है, और यावत् अनारंभ नहीं है। इसलिए हे गौतम ! इस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि 'कितनेक जीव आत्मारंभ भी हैं, यावत् अनारंभ भी हैं। . .
. व्याख्यान-गौतम स्वामी भगवान से प्रश्न करते हैंभगवन् ! जीव आत्मारंभी हैं, परारंभी है, तदुभयारंभी अर्थात् आत्मारंभी और परारंभी हैं, या अनारंभी हैं ? ....
श्रारंभ शब्द अनेक अर्थों में प्रचलित है। किसी कार्य को शुरू करना भी आरंभ कहलाता है । लेकिन यहां यह अभिप्राय नहीं है । यहां प्रारंभ का अर्थ है-ऐसा सावध कार्य करना, जिससे किसी जीव को कष्ट पहुँचती हो, या उसके प्राणों का धात होता हो। अर्थात् प्रानव द्वार में प्रवृत्ति करना प्रारंभ कहलाता है। "
. आत्मारंभ के दो अर्थ है -पानवद्वार में आत्मा को प्रवृत्त करना और आत्मा द्वारा स्वयं प्रारम्भ करना । जो ऐसा करता हैं वह आत्मारंभी कहलाता है । दूसरे को आस्रव में प्रवृत्त करना या दूसरे के द्वारा प्रारंभ कराना परारंभ है और ऐसा करने वाला प्रारंभी कहलाता हैं। श्रात्मारंभ और परारंभ दोनों करने वाला उभयारंभी कहा जाता है. । जो जीव, आत्मारंभ, परारंभ. और उभयारंभ से रहित होता है, वह अनारंभी है।श्री गौतम स्वामी ने इसी संबंध में भगवान से प्रश्न किये हैं।