SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५१५] दण्डकों में आत्मा-रम्भादि वर्णन मनुष्या यथा जीवाः , नवरं सिद्धविरहिता भीणतव्याः । . वानव्यन्तरा यावद . वैमानिकाः , यथा नैरयिकाः । सलेश्या यथा भौधिकाः । कृष्णलेश्यस्य, नीललेश्यस्य, कापोत. लेश्यस्य यथा भौधिका जीवाः, नवरं प्रमत्ताऽप्रमत्ता न भणितव्याः। तेजोलेश्यस्य, पदमलेश्यस्य, शुक्ललेश्यस्य, यथा श्रोधिका जीवा, नवरं सिद्धा न भणितव्याः । मूलार्थ-प्रश्न-भगवन् ! नारकी जीव क्या आत्मारंभी है, परारंभी है, तदुभयारंभी है, या अनारंभी है ? . उत्तर-गौतम ! नारकी आत्मारंभी भी है; यावत् अनारंभी नहीं है। प्रश्न-भगवन् ! किस कारण से ? . उत्तर-गौतम ! अविरति की अपेक्षा से-इस लिए अविरति रूप हेतु से नारकी. यावत् अनारंभी नहीं है । इसी प्रक र यावत् असुरकुमार भी । पूर्वोक्त सामान्य जीवों की भांति पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनि वाले तक जानना चाहिए। मनुष्यों में ज्यों समुच्चय जीव का कहा वैसे कहना । विशेषता यह है कि सामान्य जीवों में सिद्ध कहे हैं सो यहां नहीं कहना चाहिए।
SR No.010494
Book TitleBhagavati Sutra par Vyakhyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherSadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
Publication Year1947
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy