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________________ [ ६७७ मनुष्य वन लेश्या पद का दूसरा उद्देशक कहना चाहिए । वह ऋद्धि की वनाव्यता तक कहना चाहिए। व्याख्यान-लश्या के भेदों को भलिभाँति समझने के लिए उसके स्वरूप को समझ लेना आवश्यक है । लेश्या के संबंध में पहले कुछ विवेचन किया गया है, फिर भी यहाँ दूसरे प्रकार से वर्णन करना आवश्यक है । जिसके द्वारा श्रात्मा के साथ फर्मपुद्गलों का श्लप दो-आत्मा और फर्म मिलकर एकमेक हो जाएं उसे लश्या कहते हैं। मैंने पहले बतलाया था कि काय से अनुरंजित योग की प्रवृति लेश्या कहलाती है। मगर योगफी प्रवृति भी लेश्या कहलाती है। लेश्या का यह लक्षण बतलाते हुए एक प्राचार्य ने कहा है जहां योगद यही लेश्या होती है और जहां योग नहीं है वहां लेश्या भी नहीं होती, जैसे चौदहवें गुण स्थान में । अतएव योग की प्रवृति को दी लेश्या कहना चाहिए। फपाय से अनुजित योग की प्रकृति को लेश्या माना जाय तो तरह गुण स्थान में लक्ष्या का अभाव हो जायगा, क्योंकि इस गुण स्थान में जो योग की प्रवृति है वह कपाय सअनुजित नहीं है, क्योंकि यहां कपाय का सर्वथा अभाव हो जाता है। श्रतएव लेक्ष्या का यह लक्षण ठीक नहीं जान पड़ता। यह एक पक्ष का कथन है। दुसरे पक्ष की युति इस प्रकार :-योग की प्रवृति कोही लश्या मानना उचित नहीं है, क्योंकि कपाय के बिना योग से स्थितिबंध नहीं सकता। योग से सिर्फ प्रतिबंध और प्रदेशबंध होता है, स्थितिबंध नहीं होता। स्थितियध और
SR No.010494
Book TitleBhagavati Sutra par Vyakhyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherSadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
Publication Year1947
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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