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________________ श्री भगवती सूत्र { ५५८ ] अनगार की गति के सम्बन्ध में प्रश्न किये और भगवान् ने उन प्रश्नों के उत्तर भी दिये। लेकिन संमार में और भी जीव हैं जो संवृत या असंवृत अनगार नहीं हैं। वे असंयत और - अविरत कहलाते हैं । वे इस भव के पश्चात् देवगति में जाते हैं या नहीं ? यह गौतम स्वामी का प्रश्न है । इस प्रश्न का अभिप्राय यह है किं मनुष्य गति मिलना कठिन है, लेकिन देवगति का मिलना उतना कठिन नहीं है । इसी अभिप्राय से गौतम स्वामी ने प्रश्न किया है कि-भगवन् ! जो जीव असंयत हैं, असाधु हैं, वे यहाँ से मर कर देवगति प्राप्त करते हैं ? असंयम वाला सम्यग्दृष्टि भी हो सकता है, इसलिये यहाँ स्पष्ट कर दिया है कि जिसने प्राणातिपात आदि के व्रत - प्रत्याख्यान नहीं धारे हैं । अथवा 'वि' अर्थात् विशेष प्रकार की 'ते' अर्थात् तल्लीनता होना, तात्पर्य यह कि जिसमें तप आदि के प्रति विशेष तल्लीनता नहीं है, वह अविरत कहलाता है । जिसने भूतकालीन पाप को निन्दा गर्दा आदि के द्वारा दूर कर दिया हो वह प्रतिहत-पाप-कर्मा कहलाता है । जिसने भविष्यकालीन पापों का त्याग कर दिया हो वह प्रत्याख्यात - पापकर्मा कहलाता है । यहाँ पाप से हिंसा, असत्य, चोरी आदि अठारह पाप समझने चाहिए । जो मनुष्य पाप-कर्मों को प्रतिहत और प्रत्याख्यात नहीं करता अर्थात् जो भूतकाल के पापों की आलोचना नहीं करता और भविष्य के पापों का त्याग नहीं करता, वह अप्रतिहतप्रत्याख्यात पापकर्मा कहलाता है । प्रश्न में 'अस्संजए अविरइए ' पाठ श्राया है। इसका
SR No.010494
Book TitleBhagavati Sutra par Vyakhyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherSadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
Publication Year1947
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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