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श्रन्यतरेषु वानव्यन्तरेषु देवलोकेषु देवतया उपपत्तारो भवन्ति ।
मूलार्थ - प्रश्न – हे भगवन् ! असंयत, अविरत और पापकर्म का हनन तथा त्याग न करने वाला जीव इस लोक से चयकर - मर कर - परलोक में देव होता है ?
संवृत अनगार
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उत्तर - गौतम ! कितनेक देव होते हैं, कितनेक देव नहीं होते ।
प्रश्न- भगवन् ! यहाँ से चयकर यावत् पूर्वोक्त जीव, कोई देव होते हैं, कोई देव नहीं होते, इसका क्या कारण है ?
उत्तर - गौतम ! जो जीव ग्राम, आकर, नगर, निगम, राजधानी, खेट, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमुख, पट्टन, आश्रम तथा सन्निवेश में अकाम तृपा से, अकाम क्षुधा से,
काम ब्रह्मचर्य से काम शीत आतप तथा डांस-मच्छरों के काटने के दुःख को सहन करने से, काम अस्नान, पसीना, जल्ल, मैल तथा पंक (कीचड़ ) से होने वाले परिदाह से, थोड़े समय तक या बहुत समय तक अपने आत्मा को क्लेशित करते हैं। वे आत्मा को क्लेशित करके, मृत्यु के समय मर कर वान- व्यन्तर देवलोकों के किसी देवलोक में, देव रूप से उत्पन्न होते हैं ।
व्याख्यान - गौतम स्वामी ने असंवृत और संवृत