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श्रीभगवती सूत्र :
[३२४] कल्पना कीजिए, गर्म पानी का एक हंडा चूल्हे पर से उतारकर नीचे रक्खा है । वह गर्म पानी प्रतिक्षण ठंडा होता है, लेकिन छूने वाले को प्रथम क्षण में नहीं मालूम होता कि
यह ठंडा हो रहा है। मगर प्रथम क्षण में उसका कुछ ठंडा • होना निश्चित है । अगर प्रथम क्षण में वह जरा भी ठंडा न
हो तो फिर कभी ठंडा न होगा-ज्यों का त्यों गर्म बना रहेगा। अतएव यह मानना चाहिए कि पानी एक-एक क्षण में ठंडा हो रहा है । भले ही प्रतिक्षण का ठंडा होना.किसी को प्रत्यक्ष ज्ञातं न हो मगर उसके ठंडे होने में शंका को अवकाश नहीं है।
ठीक यही वात मृत्यु के संबंध में है। जीव ने जितने श्रायुकर्म के दलिक वांधे हैं, उनमें से थोड़े-थोड़े प्रतिक्षण, उदय में श्राकर क्षीण हो जाते हैं और आयुकर्म के दलिका का क्षीण होना ही मृत्यु कहलता है । अगर यह कहा गया जिस समय समस्त श्रायुकर्म के दलिक क्षीण हो जाते हैं, उसी समय मृत्यु होती है , तो यह कथन ठीक नहीं; क्योंकि समस्त आयुकर्म के दालिक किसी भी समय क्षीण नहीं होते। अंतिम समय में वही आयु के दलिक क्षीण होते हैं जो पहले क्षीण होने से बच रहते हैं- समस्त नहीं । मत: लव यह है कि अतिम समय में भी जब समस्त दलिक क्षीण नहीं होते शेप रहे हुए कुछ दलिक ही क्षीण होते हैं और : पहले भी कुछ दलिक क्षीण हैं तो क्या कारण है कि श्रीतम समय में मृत्यु होना माना जाय और पहले (जीवित अवस्था में ) न माना जाय ? आयु कर्म का क्षीण होना ही मृत्यु है। श्रतएव प्रतिक्षण मृत्यु मानना ही युक्तिसंगत है । अगर प्रतिक्षण मरना न माना जायगा तो जीव कभी नहीं मरेगा।
गौतम स्वामी का नवमाँ प्रश्न है :