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________________ श्रीभगवती सूत्र 1 ६६६ ! के लिए । इस प्रकार अप्रमत्त सरागी को भी मायाप्रत्यया क्रिया लगती है। वैक्रिय लन्धि फोड़कर वेश बनाना प्रमत्त संयत में ही संभव है, किन्तु वेप परिवर्तन अप्रमत्त संयत में भी संभव है। प्रमत्त सरागः संयमी के दो क्रियाएँ है आरंभिया और मायावत्तिया । यहाँ पर प्रश्न किया जा सकता है कि प्रमत्त संयमी ने घर-द्वार सब त्याग किया है, फिर उसे प्रारंभिया क्रिया क्यों लगती है ? इसका उत्तर यह है कि उसमें प्रमाद का अस्तित्व है और प्रमाद प्रारम्भरूप ही है । जहाँ गफनत आई कि प्रारंभ हुत्रा । इसी कारण प्रमादी संयमी को श्रारंभिया क्रिया यहाँ वतलाई गई है। प्रमत्त संयमी को प्रारंभिया तो लगती ही है, इसलिए भोजन बनाने आदि का प्रारंभ करने में भी क्या शनि है ? इस प्रकार का तर्क करना अनुचित है, क्योंकि सर्व विरति के साथ जिस प्रारंभ का परित्याग किया गया है, वह प्रारंभ करने से सर्व विरति का भंग हो जाता है। असावधानी से चलने-फिरने के कारण अरंमिया किया लगती है। अगर साधु होकर भी प्रारंभ की स्थापना की जाय, श्रारंभ करने में हानि नहीं है, इस प्रकार की प्ररूपणा की जाय तो व्रतों के साथ सम्यक्त्व भी नष्ट हो जाता है। अतएव प्रमत संयत को उन्मत्थ अप्रमत्तगुणस्थानों का काल बहुत ही कम है-इस लिये एलो या प्रमत्तगुणस्थान में ही की जाती हैं फिर भी शुभयोग प्रत्यय होती या दह किया अप्रमत्तगुणस्थानों में भी कायम रह सकती है। प्रनाशक
SR No.010494
Book TitleBhagavati Sutra par Vyakhyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherSadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
Publication Year1947
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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