SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 191
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [५११] आत्म-परारम्भादि वर्णन साधुओ.! इस प्रश्नोत्तर से आपके लिए एक बात स्पष्ट हो जाती है। आप यह न समझे कि आपने तीन करण, तीन मेग से पाप का त्याग कर दिया सो पाप एकदम निप्पाप अवस्था में पहुंच गये हैं। अब कोई भी पाप आपको स्पर्श नहीं कर सकता..त्याग की प्रतिज्ञा का शाब्दिक उच्चारण करने से ही त्याग नहीं हो जाता। वास्तविक त्यागी और निरारंभी बनने के लिए सावधानी रखने की आवश्यकता है। जिस श्रद्धा के साथ संसार का परित्याग किया है, वही श्रद्धा आजीवन, स्थिर रहे, बल्कि बढ़ती जाय,.ऐसा प्रयत्न सदैव करना चाहिए । इसी प्रयोजन से भगवान् ने गौतम को क्षण भर भी प्रमाद न करने के लिए कहा है। प्रमाद ही श्रारंभ है। अतएव आरंभ का त्याग कर देने पर भी संयज में साबधानी न रखने से प्रारंभ होता है। . . प्रश्न हो सकता है कि जो निरारंभी नहीं हैं, उन्हें साधु कैसे कहा जा सकता है ? इसका समाधान यह है कि उनमें गफलत आ गई है, पर उस गफलत को मिटाने की इच्छा उनमें है और उनकी लेश्याशुद्ध है। अन्तःकरण में लेश्या की अशुद्धि नहीं है, इसलिए वे साधु-पद में ही.गिने जाते हैं । ऐसा व्यक्ति शीघ्र ही शुद्ध हो सकता है । जिसकी लेश्या विगड़ जायगी, चह लिंग-धारी होने पर भी साधु नहीं है । भेप होने पर भी मिथ्यात्व होता है। तात्पर्य यह है कि प्रमादी संयमी अशुभ योग की अ... पेक्षा तो श्रात्मारंभी हैं, परारंभी हैं, उभयारंभी हैं-अनारंभी नहीं हैं, और शुभ योग की अपेक्षा न आत्मारंभी, न परारंभी. न उभयारंभी हैं, वरन् अनारंभी हैं।
SR No.010494
Book TitleBhagavati Sutra par Vyakhyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherSadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
Publication Year1947
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy