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श्री भगक्ती जून मापासमिति से वोलते हैं और जब चलते हैं तो यतना के साथ चलते हैं। अतएव मुनि सर्वथा अहिंसक हैं।
। अव प्रश्न होता है कि जिनकल्पी मुनि वस्त्र नहीं रखते हैं, फिर वे यतता कैसे करते हैं ? इसका उत्तर यह है कि सुनि चाहे जिनकल्पी हो या स्थविरकल्पी, उसमें लिंग का होना आवश्यक है। और लिंग में रजोहरण तथा मुलवस्त्रिका का होना आवश्यक है । तात्पर्य यह है कि जहाँ प्रमाद कायोग. है-अबतना है-असावधानी है-यही हिंसा होती है। मुनि प्रत्येक किया यततापूर्वक ही करते हैं, अतएव वे पूर्णरूप से हिंसक है। .
. संसार-समापन्न जीवों के दो भेद कहे गये हैं संयत और असंयत । मुनि-महात्मा संयत कहलाते हैं। जिन्होंने कपाय पर विजय प्राप्त कर ली है और जो आत्मा के असली प्रानन्द का उपभोग करते हैं, वे संयत हैं, और जो ऐसा नहीं कर पाये हैं, वे असंयत है, । संयत-मुनियों में भी दो भेद हैं-अप्रमादी और प्रमादी । अप्रमादी संयत न आत्मारंभी हैं, न परारंभी हैं, न उभयारमी हैं, किन्तु निरारंभी हैं। सातवें गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान तक के साधु अप्रमादी कोटि में अन्तर्गत है । प्रमादी संयत भी दोप्रकार के हैंएक शुभयोगी, दूसरे अशुभयोगी । शुभयोगी के दिपय में पहले ही कहा जा चुका है । विस्तार के भय से उस पर और अधिक विचार नहीं किया जा सकता। जो शुभ योगी नहीं हैं, अर्थात् जो साधु हो गये हैं मगर यतना को भूले हुए हैं, जिन्होंने प्रारम्भ का त्याग तो कर दिया है मगर सावधानजागरूक नहीं है। वे शब्दनय से आत्मारंभी हैं, परारंभी हैं, अभयारंभी है. किन्त निरारंभी नहीं हैं।