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श्रात्म-परारम्भादि वर्णन होने के कारण अनारम्भी है। इसके विपरीत हलन चलन न करने वाले कर योग भी अंगर श्रेशुभ है तो वहं प्रारंभी ही "माना जायगा
जैनधर्म में हिंसा और अहिंसा क्या है, यह देखने योग्य हैं। कई लोग यह तर्क किया करते हैं कि जैनशास्त्रों में एकेन्द्रिय जीव के घात को भी हिंसा कहा गया है। उधर साधुको पूर्ण आहंसक भी माना है। यह कैसे संभव हो सकता है ? मुनि से शयुकाय के जीवों की हिंसा होती है, चलनेफिरने में हिंसा होती है, विना हिंसा किए कोई जीव
जीवित नहीं रह सकता, ऐसी स्थिति में साधु भी पूर्ण --अहिंसक कैसे हो सकते हैं ? कदाचित् और क्रियाएँ नंद हो जाएँ तो भी जीवन के लिए श्वासोच्छ्वास अनिवार्य है। थोड़ा बहुत हलन-चलन भी अनिवार्य है। इसमें जीवधात होता है । फ़िर पूर्ण अहिंसा की साधना कैसे संभव हो सकती है ? अतएवःया तो इतनी सूक्ष्म हिंसा को हिंसा ही न समझा जाय या अहिंसा को अव्यवहार्य माना जाय।
जैवशास्त्रों में हिंसा का जो स्वरूप बतलाया गया है, इस पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने से इस प्रश्न का समा
शन सहज ही हो जाता है। हिंसा का लक्षण इस प्रकार है.. अमत्तयोगात्. प्राणज्यपरोपणं हिंसा ।'
तत्त्वार्थसत्र । प्रमाद के योग से अर्थात् उपयोग से भ्रष्ट हो कर जीव . के प्राणों का घात करना हिंसा हैं। मुनि जव चोलते हैं तो