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शान्तिलालजी वनमाली शेट कर रहे थे श्रीमद्भगवती सूत्र की व्याख्या सं० १९८८ के देहली चातुर्मास से प्रारम्भ हुई और सं० १९९२ के रतलाम चातुर्मास तक की गई थी। इन अनेक चातुर्मासों में प्रथम शतक की तथा द्वितीय शतक के कुछ ही उद्देशकों की ही व्याख्या हो पाई है। पूज्य श्री को अगर सम्पूर्ण व्याख्या भगवती सूत्र पर करने का अवकाश मिला होता तो हमारे लिए कितने सद्भाग्य की बात होती । पर ऐसा न हो सका।
श्रीभगवती सूत्र की इस व्याच्या को जनता के लिए उपयोगी एवं मार्गदर्शक समझ कर मैं ने इसे मासिक रूप में प्रकाशित करने की प्राज्ञा मण्डल के मोरवी-अधिवेशन में प्राप्त की थी। किन्तु ग्राहकों की संख्या पर्याप्त न होने तथा अन्य अनेक कठिनाइयों के कारण वह विचार उस समय कार्यान्वित ल हो सका। दो वर्ष पहले श्रीमान् सेठ इन्द्रचन्द्रजी गेलड़ा की तरफ से श्रीमान् सेठ ताराचन्दजी सा० गेलड़ा ने मण्डल से प्रस्तुत व्याख्या को उत्तम शैली से सम्पादित करवा कर प्रकाशित करने की प्रेरणा की और साथ ही आर्थिक सहायता भी दने की तत्परता दिखलाई। श्री गेलड़ाजी की इस पवित्र प्रेरणा से प्रेरित होकर मण्डल ने पं० श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल, न्यायतीर्थ द्वारा, जो उच्च कोटि के लेखक और विद्वान् हैं, यह व्याख्या उत्तम शैली से सुन्दर और, रोचक भाषा में सम्पादन करवाई है। उसे पाठकों के करकमलों में पहुंचाते हुए हमें अत्यन्त प्रसन्नता है । हमारा यह प्रकाशन फिलहाल प्रथम शतक तक ही परिमित रहेगा।
प्रस्तुत सूत्र के प्रथम शतक की व्याख्या ही इतनी