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श्रीभगवती सूत्र
[६९०] दूसरा निमित्त मात्र है। वास्तव में तो जीव अपना किया कर्म ही भोगता है।
उक्त बातों को ध्यान में रखते हुए ही गौतम स्वामी ने अपने किये हुए कर्म के विषय में प्रश्न किया है। पहला प्रश्न दुःख के सम्बन्ध में किया गया है, अतः पहले यह देखना चाहिए कि दुःख किसे कहते हैं ? ___ मगर इस प्रश्न का उत्तर देने से पूर्व एक बात पर और विचार कर लेना आवश्यक है। वह यह है कि दुःख अगर अपने ही किये भोगे जाते हैं तो सुख किस का किया भोगा जाता है ? इस का उत्तर यह है कि संसार के दुःख तो दुःख हैं ही, लेकिन संसार के सुख भी दुःख ही हैं । पर के संयोग ले कभी सुख नहीं प्राप्त होता, दुःख ही होता है।
___ कहा जा सकता है कि संसार में साक्षात् सुख अनुभव किया जाता है, सभी सुख को जानते हैं, फिर उन्हें सुख न मानकर दुःख क्यों कहा गया है ? इस सम्बन्ध में यहां इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि भोगोपभोग से प्राप्त होने वाला सुख, दुःख का कारण है। सुख भोगने से दुःख की दीर्घ परम्परा पैदा होती है । इसके अतिरिक्त वह सुख पराधीन है-भोग्य पदार्थों के, इन्द्रियों के और शारीरिक शक्ति के अधीन है। जहां पराधीनता है वहां दुःख है। उस सुख में निराकुलता नहीं है, व्याकुलता है, अतृप्ति है, भय है, उसका शीत्र अन्त हो जाता है । उसकी मात्रा अत्यल्प होती है । इन सब कारणों से सांसारिक सुख, वास्तव में दुःखरूप है, दुःख.