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________________ श्रीभगवती सूत्र [ ५९२ ] होते थे, वही थोड़े समय वाद दुःखदायी कैसे प्रतीत होने लगे? लड्डू में अगर सुख देने का स्वभाव है तो वह प्रत्येक स्थिति में सुख क्यों नहीं देता? इससे यह स्पष्ट है कि लड्डू में सुख की कल्पना करना भ्रम है.। वास्तविक बात यह है कि जव एक दुःख होता है तो उस दुःख के कारण दूसरा दुःख मी सुख प्रतीत होने लगता हैं । संसार में तो दुःख ही दुःख है। नरक से लेकर. सर्वार्थसिद्ध विमान तक यही वात है। संसार की जिस वस्तु में जितना अधिक सुख माना जायगा, उसके पीछे उतना ही अधिक दुःख लगा हुआ है। उदाहरणार्थ-चांदी के कड़ों में कम और सोने के कड़ों में अधिक सुख माना जाता है । अतएव चांदी के कड़ों के गुम . जाने की अपेक्षा सोने के कड़े गुम जाने में अधिक दुःख है। इल प्रकार जिसे जितना ज्यादा आनन्द दायक मानोगे, वह , उतना ही अधिक दुःखद सिद्ध होगा। . . .. - सारांश यह है कि संसार के सुख भी. वस्तुतः ढुंःख ही हैं । किंपाक फल दीखने में बहुत सुन्दर और खाने में बहुत खादिष्ट होता है, पर उसका खाना मृत्यु को आमंत्रण देना है। उसे आप सुख मानेंगे या दुःख ?.. 'दुःख!' । इसी प्रकार कर्म-मात्र दुःखरूप है, चाहे वह सातावेदनीय हो, या असातावेदनीय हो। . - गौतम स्वामी का प्रश्न है कि जीव अपने किये कर्म भोगता है या नहीं भोगता? इसके उत्तर में भगवान् ने फर्मा. या-किसी कर्म को भोगता है, किसी को नहीं भोगता।
SR No.010494
Book TitleBhagavati Sutra par Vyakhyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherSadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
Publication Year1947
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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