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श्रीभगवती सूत्र
[५०६] देखता है, वही सव हम आपको सुनाते हैं । जो भव्य पुरूष इन उपायों का सदा ध्यान रखते हैं और परमात्मा की स्तुति में मम लगाते हैं, वे संसारी से असंसारी बन जाते हैं, प्रारंभी से निरारंभी बन जाते हैं।
भगवान् कहते हैं-गौतम ! संसारी जीव भी दो तरह के हैं-संयत और असंयत । जो मनुष्य सव प्रकार की वाह्याभ्यन्तर ग्रंथि से और विषय-कपाय से निवृत्त हो गये हैं, वह संयत कहलाते हैं। जो विपय-कपाय से निवृत्त नहीं हुए. हैं और प्रारंभ में प्रवृत्त है, वह असंयत कहलाते हैं।
संयत भी दो प्रकार के हैं-प्रमादी और अप्रमादी। अप्रमादी संयत न आत्मारंभी हैं, न परारंभी है, न उभया. रंभी हैं, किन्तु निरारंभी हैं। प्रमादी संयत के दो भेद हैं - - शुभ योग वाले और अशुभ योग वाले शुभ योग वाले प्रमादी संयत न आत्मारंभी हैं, न परारंभी है, न उभयारंभी हैं, किन्तु निरारंभी हैं । अशुभ योग वाले प्रमादी संयत निरारंभी नहीं हैं, किन्तु श्रात्मारंभी हैं, परारंभी हैं और उभयारंभी हैं।
पूरी तरह विचार न करने वाला इन्हीं वचनों से झगड़े में पड़ जाता है । तेरहपंथी भाइयों का कथन है कि यहां शुभ योग वाला निरारंभी है, ऐसा कहा है। वे मन, वचन और काय के योग को ही योग समझते हैं और ऐसे शुभ योग वाले को ही निरारंभी समझते हैं । इसी आधार पर वे मिथ्यात्वी की क्रिया को भी भगवान् की आज्ञा में बतलाते हैं। लेकिन ऐसा शुभ योग तो सभी गुणस्थानों में है-मिथ्या दृष्टि में भी ऐसा शुभ योग मिल सकता है। अगर इस शुभ योग के होने से ही कोई निरारंभी हो जाता है तो फिर प्रथम