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आत्म-परारम्भादि वर्णन वाला है । यद्यपि हाथ से लिखा जाता है, तथापि प्रकाश के अभाव में लिखना शक्य नहीं है। लेखन-क्रिया में हाथ कर्ता है, लेकिन प्रकाश भी निमित्त कर्ता है । जैसे सूर्य आँख को प्रकाश देता है, उसी प्रकार ईश्वर हृदय को प्रकाश देता है । अतः ईश्वर को निमित्त कर्ज मानने में कोई हानि नहीं है । स्तुति में भी कहा हैकारण पद कापणे रे, करि आरोप अभेद । निज-पद अर्थी प्रभु थकीरे, करे अनेक उमेद।
___अजित जिन! तारजोरे ॥ जिसे कारण कहते हैं, उसे का मान कर, अभेद रूप से उसकी स्तुति करते हैं। अपने आत्मा की स्वतंत्रता चाहने वाला प्राणी, उस परमात्मा से अनेक उम्मीदें करता है और कहता है-प्रभो! मुझे तारो।
सिद्ध निरारंभी है, इसी कारण हमें तार सकते हैं अगर वह निरारंभी न होते तो हमें तार भीन सकते ।
. सिद्ध पद ध्येय है। इसी की प्राप्ति के लिए सव कुंछ किया जाता है। मगर देखना चाहिए कि उस पद की माप्ति कैसे हो सकती है?
सर्व प्रथम आप लोगों को यह शान प्राप्त करना चाहिए कि आप यहां क्यों भाये हैं ? हमारा और आपका ध्येय एक ही है । श्राप हमारे ध्येय को अपना ध्येय बनाकर यहां उपस्थित हुए है, इसलिए हमारा यात्मा,परमात्मा को जिस रूप में स्वीकार करता है, परमात्म-पद प्राप्त करने के जो उपाय