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श्रीभगवती सूत्र
[ ५२ : अशोक वृक्ष को लोकभाषा में प्रासापाला कहते हैं। अशोक वृक्ष की शोभा देखने से मन की चिन्ता और शोक मूल जाता है । असक वृक्ष की उपमा देकर भगवान् ने
और भी अनेक रुपमाएँ दी हैं। जैसे-सप्तपर्ण ( सादड़) के वृक्षों का वन, चम्पा का वन, श्रावन, तिलक वृक्षों का वप, तूंवे की वेलों का वन, वड़ वृक्षों का वन, छत्रौघ का बन, कुसुभ वन, सरसों का वन, प्रशन वृक्षों का वन, लन का वन, अलली का वन, बंधुजीव का वन, यह सब शोभा देते हैं उसी प्रकार वाण-व्यन्तर देवों का देवलोक शोभा देता है। जैसे इन वनों में फल आते हैं, मौर आते हैं, कोपलें आती हैं, फूलों के गुच्छे लगते हैं, यह लता समूह ले व्याप्त होते हैं, इन वृक्षों के धन कतार में खड़े होते हैं, फूलों, फलों और लताओं के भार से झुके होते हैं, उस समय की शोभा अवर्णनीय होती है। ऐसे वन जिस प्रकार सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार वाण-व्यन्तरों के देवलोक सुशोभित होते हैं।
भगवान् ने वन की शोभा देवलोक से. इसी लिए दी है कि वन का सौन्दर्य कृत्रिम नहीं है,प्राकृतिक है। कभी-कभी कृत्रिय वस्तु में सुन्दरता दिखलाई पड़ती है, वह सुन्दरता वास्तव में उस अकृत्रिम वस्तु की ही समझना चाहिए, जिसकी नकल कृत्रिम में उतारी गई है । लेकिन वह सुन्दरता सिर्फ देखने भर को होती है, वह कोई लाभ नहीं पहुँचा सकती। लाभ तो साक्षात् वनश्री ही पहुँचाती है। यदि मंसार में वनस्पति न हो तो मनुष्यों का जीवन कठिन हो जाता । कई लोग अपने भ्रम के कारण समझते हैं कि हमें जंगल भला नहीं लगता और महल सुहावना लगता है। अगर यह सच हो तो महल में रहने वाला क्यों जंगल की