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________________ [५७१] व्यन्तरों के स्थान पारसीज़न वायु पथ्य है। मनुष्य आक्सीज़न वायु के बिना जीवित नहीं रह सकता। यह वायु महल से नहीं, वृक्ष से मिलती है। महल, मनुष्य के जीवन को प्रकृति विरोधी बनाता है। इस प्रकार वृन्न की छाया में जो भानन्द है, वह वेचारे महल में कहाँ! महलों के कारण लोग प्रकृति से इतने दूर जा पड़े हैं कि महल की दीवार पर बने हुए वन के दृश्य तो प्रसत्रता चूर्वक देखते हैं, लेकिन वन को साक्षात् देखना नहीं चाहते। मगर चाहे आप यज को साक्षात् न देखना चाह तथापि दिना चन के चन नहीं है ! इसी कारण वन के चित्र देखने पड़ते हैं। आप प्रकृति से दूर भागना चाहते हैं मगर प्रकृति आपको अपनी ओर खींच रही है। इसलिए आप नैसर्गिक चन के बदले कृत्रिम बन के चित्र की ओर आकृष्ट होते हैं। मनुष्य-जीवन के लिए जो वस्तुएँ अत्यन्त उपयोगी हैं, वह महल से नहीं निकलती हैं। बल्कि महल ऐसी वस्तुओं का विनाश करता है। ऐसी वास्तविक वस्तु वन में ही उपजती है । इसलिए वाण व्यन्तर देवा के स्थान की रपमा . चक्रवर्ती के महल से न देजर धन से दी गई है। भगवान् कहते हैं-गौतम ! वाण-व्यन्तर देवों का स्थान वैसा ही सुशोभित होता है, जैसा सनुन्यलोक में अशोक वृक्ष सावन शोभा देता है। . भगवान् ने इस उपमा द्वारा यह सृचित किया है कि प्राकृतिक वस्तु जैसी शोभा देती है, कृत्रिम वस्तु वैसी शोभा वहीं दे सकती।
SR No.010494
Book TitleBhagavati Sutra par Vyakhyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherSadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
Publication Year1947
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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