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________________ [३६३] नारक-वर्णन होता है तो बुराई में से भी अच्छाई निकल पाती है । भावी तीर्थकर पहले से लेकर तीसरे नरक तक रह सकते हैं और चरम शरीरी अर्थात् पहले ही मनुष्य भव में मोक्ष जाने वाले “जीव चौथे नरक में भी रहते हैं । लेकिन भावी तीर्थकर का, तीर्थकर गोत्र का प्रायुप्य नरक में ही बँधता है तो वे उत्कृष्ट से उत्कृष्ट प्राडार-पुद्गल खींचते हैं । यद्यपि उत्कृष्ट थाहारपुद्गल उनके लिए बाहर से वहां नहीं पहुँचते हैं, लेकिन नरक योनि के पुद्गलों में से ही वे ऐसे उत्तम पुद्गल ग्रहण करते हैं, जिनसे उनका दिव्य शरीर बनेगा। भाषी तीर्थंकरों ने तीर्थकर गोत्र की जो सामग्री मनुष्य जन्म में वाँधी उसके साथ ही दूसरे नरक की भी सामग्री उपार्जित की। नरक की इस सामग्री से ही वे नरक गये हैं। उनका तीर्थकर गोत्र का श्रायुज्य नरक में ही बंधेगा। • नरक के जीव जिन पुद्गलों का आहार करते हैं, वह अशुभ और घृणित होते हैं। लेकिन सम्यग्दृष्टि और भाषी तीर्थकर अशुभ में से भी शुभ को खींचकर आहार करते हैं। अशुभ पुद्गलों में शुभ पुद्गल उसी प्रकार विद्यमान रहते हैं, जैसे मालवा की काली मिट्टी में हिंगलु के समान लाल जानवर रहते हैं। मिट्टी तो काली और खुरदरी होती है मगर उसमें वह जानवर लाल और मुलायम होता है । तात्पर्य यह है कि उपादान अगर समर्थ हो तो वह अशुभ में से भी शुभ को खींच लेता है। , दुर्गन्ध वाला विटा खेतों में पड़ता है, मगर उसलें होने वाला गुलाव दुर्गन्ध वाला नहीं, सुगन्ध वाला होता है।
SR No.010494
Book TitleBhagavati Sutra par Vyakhyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherSadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
Publication Year1947
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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