________________
श्रीभगवती सूत्र
[६९८]
तत्र ये ते वीतरागसंयतास्तेऽक्रियाः । तत्र ये ते सरागसंयतास्ते . द्विविधाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा- प्रमत्तसंयताश्च, अप्रमत्तसंयतःश्च । तत्रं ये ते अप्रमत्तसंयतास्तैरेका मायाप्रत्यया क्रिया क्रियते । तत्र ये ते प्रमत्तसंयतास्तै क्रिये क्रियते, तद्यथा-श्रारम्भिकी, मायाप्रत्यया । तत्र ये ते संयतासंयतास्तर द्यास्तिसः क्रियाः क्रियन्ते, तद्यथा-प्रारम्भिकी, पारिप्रहिकी, मायाप्रत्यया । असंयतैः चतस्रः क्रियाः क्रियन्ते, प्रारम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया, अप्रत्याख्यानप्रत्यया । मिथ्यादृष्टीनां पञ्चप्रारम्भिकी, 'पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया, अप्रत्याख्यानप्रत्यया, मिध्यादर्शनप्रत्यया । सम्यग्-मिथ्यादृष्टीनां पञ्च ।
- मूलार्थ- मनुष्यों का वर्णन नारकियों के समान समझना चाहिए । उनमें भेद यह है-जो महाशरीर वाले हैं वे बहुतर पुद्गलों का आहार करते हैं और वे कभी कभी
आहार करते हैं। जो अल्प शरीर वाले हैं वे अल्पतर पुद्गलों का आहार करते हैं और बार-बार आहार करते हैं। शेषः सब नारकियों के समान वेदना पर्यन्त समझना।
अप्र-भगवन् ! सब मनुष्य समान क्रिया वाले हैं ? उत्तर-गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्रश्न--सो किस कारण भगवन् ? :