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श्रीभगवती सूत्र
[३२२] तपस्या करके शुभ कर्म उत्पन्न किये थे। लेकिन तीन दिन के पाप से वे शुभ कर्म भिद्यमान हो कर अशुभ हो गये। मगर उसी के भाई पुण्डरीक ने हजार वर्ष तक राज्य करके जो अशुभ कर्म वाँधे थे, वे तीन दिन की तपस्या से शुभ कर्म के रूप में परिणत होगये। करण की विशेपत्ता, कर्म में इल प्रकार की विशेषता उत्पन्न कर देती है। यह शुभ या अशुभ विशेषता उत्पन्न होना कर्म का भिद्यमान होना कहा जाता है। कर्मभेदन की इस क्रिया में असंख्यात लमय लगते हैं, मगर प्रथम समय में जो मिद्यमान हो रहा है, उसे 'भेदा गरा' कहना चाहिए। गौतम स्वामी का सातवाँ प्रश्न है:
डज्झमाणे डड्ढे ?
अर्थात् जो जलता है वह जला, ऐसा कहना चाहिए?
कर्म रूपी काष्ठ को ध्यान रूपा अग्नि से जलाकर उसका रूपान्तर कर देना-अकर्म रूप परिणत कर देना, दग्ध कर देना कहलाता है। जैसे लकड़ी अग्नि से जलकर राख रूप में परिणत हो जाती है, उसी प्रकार श्रात्मा के साथ जो कर्म परमाणु लगे हुए हैं और सुख-दुख देने वाल कर्म कहलाते हैं, उन्हें ध्यान रूपी प्रज्वलित अग्नि से फिर पुद्गल रूप बना देना, अर्थात उन्हें श्रकर्म के रूप में पहुँचा देना दग्ध करना कहा जाता है।
ध्यान की अग्नि से भस्म किये हुए कर्म फिर भोगने नहीं पड़ते । ध्यान-अग्नि से भस्म हुए कर्म, कर्म ही नहीं रहते, अकर्म रूप पुद्गल बन जाते हैं। ..