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श्रीभगवती सूत्र
१५०२) संसारी जीवों से उसमें कोई विशेषता न रह जायगी । अतः जैन-धर्म ऐसा नहीं मानता । जैन धर्म के अनुसार सिद्ध कृतकृत्य होते हैं, उन्हें कोई भी काम करना शेष नहीं रहा है। विना इच्छा के जगत्-निर्माण होना संभव नहीं है और ईश्वर, में इच्छा शेष नहीं रहती।
जो लोग ईश्वर को कर्ता मानते हैं, उनसे यह पूछना चाहिए कि आप ईश्वर को पूर्णतया कर्ता मानते हैं या अंशतया? अगर ईश्वर पूर्णतया कर्ता है, तो हम लोग कुछ भी करने-घरने वाले नहीं रहे । जो कुछ किया, ईश्वर ने ही किया । खिलाना, पिलाना, चलाना श्रादि हमारी समस्त • क्रियाओं का कर्ता भी ईश्वर ही ठहरता है । सभी भले बुरे काम उसके ही कर्तव्य हैं । अगर यह सत्य है तो जीवों को भिन्न भिन्न फल क्यों भोगने पड़ते हैं ? मान लीजिए, एक वादशाह की प्रेरणा से पांच आदमियों ने पांच काम किये। जब पांचो वादशाह के बताये हुए काम करके लौटे, तो वादशाह ने उनमें से एक को वजीर बनाया, एक को दूसरा कोई ओहदा दिया, एकं को पुरस्कार दिया, एक की सम्पत्ति छीन ली और एक को जेल में डाल दिया । सभी ने वादशाह की इच्छा से, प्रेरणासे, उसके बतलाए काम किये, फिर किसी को पुरस्कार और किसी को दंड क्यों ? ऐसा करने वाला वादशाह क्या न्यायी कहला सकता है ? नहीं।
इली प्रकार आत्मा यदि ईश्वर की प्रेरणा से कार्य करता है, स्वयं नहीं करता, तो फिर ईश्वर भिन्न-भिन्न फल क्यों देता है ? एक को सुखी और दूसरे को दुखी क्यों वनाता है ? . किसी को स्वर्ग में और किसी को नरक में क्यों भेजता है ?