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________________ [५०१] श्रात्म-परारम्भादि वर्णन इस प्रश्न का उत्तर भगवान ने यह दिया है कि-गौतम! कई जीव 'आत्मारंसी हैं, कई परारंभी हैं, कई उभयारंभी है, पर निरारंभी नहीं कई जीव ऐसे भी हैं जो न वात्मारंभी हैं, न परारंभी हैं, न उभयारंभी है, किन्तु निरारंभी हैं। - ठाणांगसूत्र में, श्रात्मा को एक कहा गया है, वह शुद्ध संग्रहनय की अपेक्षा से ही। व्यवहारनय से जीप दो प्रकार के है-संसारी और सिद्ध। . - संसरणं संसारः । अर्थात् एक गति से दूसरी गति में जाना संसार है। श्रात्मा की चंचल दशा ही संसार है। जो आत्मा चंचल दशा में है; वह संसारी है और जो चंचल दशा में नहीं है वह संसारी या मुक्त है। इन्हीं को सिद्ध कहते हैं। - अष्टकर्म रूपी काष्ठ को या जीव के पात्रव श्रादि के हेतुओं को शुक्लध्यान की अग्नि से जलाकर, आवागमन-रहित होने वाले को सिद्ध कहते हैं। गीता में कहा है___ 'यद् गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम' अथोर-जिस स्थिति में पहुँच जाने पर फिर लौट कर नहीं.भाना पड़ता, उस स्थिति को सिद्ध गति कहते हैं । जो यह स्थिति प्राप्त करते हैं, वह सिद्ध कहलाते हैं। - सिद्ध भगवान् न आत्मारंभी हैं, न परारंभी हैं और न उभयारंभी हैं। वे सर्वथा निरारंभी हैं। कुछ लोगों का कथन है कि जो शक्ति, ईश्वर मानी गई है, वही जगत् का कर्ता है। अगर यह कथन मान लिया तो ईश्वर को भी प्रारंभी मानना पड़ेगा । इस हालत में
SR No.010494
Book TitleBhagavati Sutra par Vyakhyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherSadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
Publication Year1947
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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