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आत्म-परारम्भादि वर्णन
अगर यह कहा जाय कि जीव जैसा कर्म करता है वैसा फल भोगता है, तो फिर कर्म का कर्त्ता कौन ठहरा ? आत्मा ही कर्म का कर्त्ता सिद्ध हुआ । श्रात्मा श्रगर कर्म का कर्त्ता हैंता ईश्वर पूर्णतया कर्त्ता नहीं रहा ।
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अव आप कह सकते हैं कि कर्म का कर्त्ता श्रात्मा ही है, लेकिन फल देने वाला कोई और है । जैसे चोर स्वेच्छा से जेल नहीं जाता, उसी प्रकार आत्मा अपने कर्म का फल नहीं भोगना चाहता है। ऐसी हालत में फल देने वाला कोई और ही होना चाहिए ।
इसका समाधान यह है कि जो जेल में भेजता है, वह जेल जाने योग्य कामों को करने से रोकता भी है । अगर परमात्मा कर्म फल देता है, वह ज्ञानी भी है- सभी कुछ जानता है और सर्वशक्तिमान भी है, तो वह चुरे काम करने वाले को रोक क्यों नहीं देता ? अगर वह उसी समय रोक दे तो कर्म फल देने की श्रावश्यकता ही न रहे। आखिर आप उस पिता को क्या कहेंगे, जो अपने पुत्र को, अपनी आँखों के सामने, जान-बूझकर कुएँ में गिरने देता है, रोकने का सामर्थ्य होने पर भी नहीं रोकता; और फिर अन्त में कुएँ में गिरने के लिए दंड देने पर उतारू हो जाता है । क्या वह पिता शक्तिमान्, न्यायी और दयालु कहला सकता है ?
तव प्रश्न होता है, आाखिर जीव किसकी प्रेरणा से कर्म का फल भोगता है ? इसका सरल समाधान यह है कि अगर कोई अपने मुँह में मिश्री डालेगा तो उसे मिठास आप ही आएगी । यह मिठास ईश्वर ने दी या मिश्री में ही मिठास का गुण है ? मिर्च खाने वाले का मुँह जलेगा । सो ईश्वर