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वाणाव्यन्तरादि देव वर्णन संस्कृत छाया-वानव्यन्तराणां स्थितौ नानात्वम्, अवशेष यथा नागकुमाराण'म् ।
एवं ज्योतिष्काणामपि, नवरं उच्छ्वासो जघन्येन मुहूर्तपृथक्त्वेन, उत्कृष्टेनापि मुहूर्तपृथक्त्वेन । अ हारो जघन्येन दिवसपृथक्त्वेन, उत्कृष्टेनापि दिवसपृथक्त्वेन | शेषं तथैव ।
वैमानिकानां स्थिति णितव्या श्रौधिकी । उच्छ्वासो जघन्येन मुहूर्तपृथक्त्वेन उत्कृष्टेन त्रयस्त्रिंशता पक्षः, श्राहार श्राभोगनिर्वतितो नयन्येन दिवसपृथक्त्वेन, उत्कृष्टेन त्रयस्त्रिंशता वर्षसहस्त्रैः। शेषं चलि+ तादिकं तथैव निर्जरयन्ति । .
मूनार्थ-वाण-व्यन्तरदेवों की स्थिति में भेद है, शेष सब नागकुमारों के समान समझना चाहिए ।
यही ज्योतिषी देवों के संबंध में भी जानना चाहिए । विशेषता यह है कि-ज्योतिपीदेवों का उच्छवास-निश्वास जघन्य
और उत्कृष्ट मुहूर्त-पृथक्त्व के वाद होता है; और आहार जघन्य एवं उत्कृष्ट से दिवस-पृथक्त्व के पश्चाव हुआ करता है । और सब बातें पहले के समान ही समझनी चाहिए। . वैमानिकों की स्थिति ओधिकी (सामान्य) कहनी चाहिए । उनका उच्छ्वास जघन्य मुहूर्त्त-पृथक्त्व और उत्कृष्ट तेतीस पन के पश्चात् होता है। उनका आभोग