________________
[५३७]
असंवृत अनगार मूलार्थ-प्रश्न-भगवन् ! क्या असंवृत अनगार सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है, निर्वाण प्राप्त करता है, सब दुःखों का अन्त करता है ?
उत्तर-गौतम ! यह अर्थ समर्थ-ठीक नहीं है ।
प्रश्न-भगवन् ! सो किस कारण से यावत् दुःखों का अंत नहीं करता ?
उत्तर-गौतम! असंवृत अनगार आयु को छोड़ कर शिथिल बंध से बाँधी हुई सात कर्म--प्रकृत्तियों को घन रूप
बांधना आरंभ करता है, अल्पकालीन स्थिति वाली प्रकतेयों को दीर्घ कालीन स्थिति वाली करता है, मंद अनुभाग वाली प्रकृत्तियों को तीन अनुभाग वाली करता है और थोड़े प्रदेश वाली प्रकृत्तियों को बहुत प्रदेश वाली बनाता है । और आयु कर्म को कभी वांधता है। कभी नहीं भी बांधता । असाता वेदनीय कर्म को पारंवार उपार्जन करता है। तथा अनादि अनंत, दीर्घ मार्ग वाले, चतुर्गति रूप संसार रूपी अरण्य में बार-बार पर्यटन करता है। इस कारण हे गौतम ! असंवृत अनगार सिद्ध नहीं होता, यात्-सर्व दुःखों का अंत नहीं करता।
व्याख्यान-श्रीगाँतम स्वामी प्रश्न करते हैं कि-हे भगवन् ! असंवृत अनगार क्या सिद्ध गति को प्राप्त करता