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________________ । ७१६ 1 देवोपपात का समाधान यह है कि सुकुमारिका ने मूल गुण की नहीं, किन्तु उत्तरगुण की विराधना की थी अर्थात् बुक्कलपन धारण किया था। वार-बार मुँह-हाथ धोते रहने से साधु का चारित्र कवरा हो जाता है। सुकुमारिका का यही हुश्रा था। यह उत्तरगुण की विराधना हुई, मूलगुण की नहीं। यहाँ जिन विराधक संयमियों का उत्कृष्ट सौधर्म कल्प में उत्पाद बतलाया गया है, वे मूलगुण के विराधक समझने चाहिए। अगर यह हर किया जाय कि चाहे मूलगुण का विराधक हो, चाहे उत्तरगुण का, पहले देवलोक से आगे नहीं जाता तो वुक्कस नियंठा वाला उत्तरगुण का परिसेवी होने पर भी वारहवें देवलोक तक जाता है । इस कथन से विरोध आता है। इसलिए जो विशिष्टता गुण का विराधक हो वह नीची गति में जाता है, और कथंचित् विरोधक-कथंचित् आराधक, विराधक संयमी की तरह नीची गति में नहीं जाता। अव एक प्रश्न और शेप रह जाता है। असंशी जीव का जघन्य भवनवासी और उत्कृष्ट वाणव्यतंर में उत्पाद बतलाया गया है, इससे ऐसा प्रतीत होता है कि भवनवासी से व्यंतर बड़े है। क्या वास्तव में यही बात है ? इसके सिवाय चमरेन्द्र तथा वलेन्द्र की ऋद्ध बड़ी कही है। आयुष्य भी इनका सागरोपम से अधिक है, जव कि वाणव्यन्तर का पल्यापम प्रमाण ही है। फिर वाण-व्यतंर बड़े कैसे माने जा सकते हैं ? इसका उत्तर यह है कि कई वाणव्यतंर, कई भवनवासियों से भी उत्कृष्ट ऋद्धि वाले हैं और कई भवनवासी
SR No.010494
Book TitleBhagavati Sutra par Vyakhyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherSadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
Publication Year1947
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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