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श्रीभगवती सूत्र
[४६] की स्थिति है। तीसरी बालुका पृथ्वी की चौदह हजार वर्ष की, चौथी मनःशिला पृथ्वी की सोलह हजार वर्ष की, पाँचवीं शर्करा पृथ्वी की अठारह हजार वर्ष की, और छठी खर । पृथ्वी की वाईस हजार वर्ष की स्थिति है।
विमात्रा-श्राहार कहने से यह तात्पर्य है कि उसमें कोई मात्रा नहीं है । जोई कैसा श्राहार लेता है, कोई कैसा। •पृथ्वीकाय के जीवों का रहन-सहन मिन्न-भिन्न और शिचित्र है। इसलिए उनमें श्वास की भी मात्रा नहीं है कि कब-कितना लेते हैं। तात्पर्य यह है कि इनका श्वासोच्छ्वास विषम रूप है। उसकी मात्रा का निरूपण नहीं किया जा सकता।
शास्त्र सम्बन्धी वार्ता बड़ी प्रानन्ददात्री है। मगर .. जिसमें इस वार्ता का रस लेने का सामर्थ्य हो, वही श्रानन्द ले सकता है । अाजकल हम लोगों का ज्ञान अत्यल्प है और जीवन में संजाल बहुत हैं । अतएव हम लोग शास्त्र के रहस्य को भली भांति समझ नहीं पाते । मगर श्राज जीवन कितना हो व्यस्त क्यों न हो, जिस समय शास्त्र का निर्माण हुत्रा. उस समय ऐसा जंजाल न था। इस कारण उस समय शास्त्र बड़े महत्व की दृष्टि से देखे जाते थे।
उक्त वर्णन से इस बात का भी भलीभांति अनुमान किया जा सकता है कि जैन धर्म क्या है ? उसको वारकिी और व्यापकता कहां तक जा पहुँची है ! एक छोटे से राज्य का राजा होता है, दूसरा बड़े राज्य का होता है। वासुदेव का भी राज्य है और चक्रवर्ती का भी। चक्रवर्ती का राज्य सबले वड़ा गिना जाता है, क्योंकि उसके राज्य में सभी एक छत्र में आ जाते हैं। सब का एक छत्र के नचेि आ जाना, यही चक्रवर्ती का चक्रवर्तीपन है।