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दरंडक-व्याख्यान
हम लोग तीर्थंकरों की महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं-'प्रभो ! तू त्रिलोकीनाथ है। अगर भगवान् त्रिलोकी नाथ है, तो उनके राज्य में तीनों लोक के जीवों का समावेश होजाना चाहिए । फिर भले ही कोई छोटा हो या बड़ा हो। चक्रवर्ती मनुष्यों पर ही शासन करता है, लेकिन निलोकीनाथ का छन तो चौवीस दण्डकों के जीवों के सिर पर है। उनका छत्र नारकी जीवों पर भी है। जैसे बड़ा राजा, अपने राज्य को प्रान्तों में विभक्त करता है, उसी प्रकार भगवान ने अपना राज्य चौवीस दंडक रूपी प्रान्तों में विभक्त किया है। इन दंडकों में से पहला दंडक नारकी का है। भगवान् ने नारकियों को सव से पहले याद किया है। मनुष्य के शरीर में 'भी पहले पाँव गिना जाता है, सिर नहीं । लोग पैर पूजना कहते हैं, सिर पूजना नहीं कहते । पैर का महत्व बढ़ने से सिर का महत्वं श्राप ही बढ़ जाता है। भगवान् का राज्य तीनों लोकों में फैला है। उन्होंने नरक को भी-एक प्रान्त बनाया है।
यहां यह प्राशका हो सकती है कि सुरकुमार श्रादि के, जो समीप ही हैं, दस दंडक माने गये हैं और नारकी जीवों का एक ही। इसका क्या कारण है ? इस आशंका का समाधान यह है कि नारकी जीवों में इतनी अधिक उथलपुथल नहीं होती; क्योंकि वे दुख में पड़े हैं। भवनवासी उथल-पुथल करते रहते हैं। इत्यादि कारणों से उनके दस देडक किये गये हैं।
* इस विषय में सूत्रों में कोई स्पष्टीकरण नहीं है किन्तु प्राचार्यों की धारणा ऐसी है कि नारकी में सातों नरक के नेरपिक परस्पर
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