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कालचलितादि-सूत्र
भूतकाल का पुण्य-पाप सर्वथा नष्ट हो जावे और श्रात्मा के साथ उसका सम्बन्ध न रहे, तो फिर भूतकाल के कर्म, वर्त्त - मान में उदित ही न हों। भूतकाल और भविष्यकाल को एकदम अस्वीकार कर देने से संसार के समस्त व्यवहार ही भंग हो जाएँगे । मान लीजिए, एक मनुष्य ने दूसरे को ऋण दिया । कुछ दिनों बाद ऋण देने वाला माँगने गया तो ऋण लेने वाला कहेगा- वाह ! किलन ऋण दिया और किसने ऋण लिया है ! जिसने ऋण दिया था और जिसने लिया था, वह दोनों तो उसी समय सर्वथा समाप्त हो गये । श्रव तुम कोई दूसरे हो और मैं भी और ही हूँ। इसी प्रकार अगर कर्म भी नष्ट हो जाते हों तो उनका फल भी किसी को भोगना न पड़ेगा और स्वर्ग-नरक आदि की मान्यताएँ हवा में उड़ जाएँगीं ।
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उदीरणा भूतकाल में बँधे हुए कर्म की होती है । वर्चज्ञान में कर्म वँध ही रहा, उसकी उदीरणा नहीं हो सकती । और भविष्यकालीन कर्म अवतक बँधे ही नहीं हैं। उनकी उदीरणा होगी ही कैसे |
यहां तैजस और कार्मण दोनों शरीरों का कथन क्यों किया गया है ? अकेले कार्मण शरीर का कथन क्यों नहीं किया गया ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि तैजस शरीर श्राठस्पर्शी है और कार्मण चतुःस्पर्शी है। कार्मण शरीर तैजस के बिना नहीं रह सकता, जैसे बिजली और तांबे का तार । शक्ति विजली में होती हैं मगर तांबे के तार के बिना वह ठहर नहीं सकतीः । श्रतएव विजली और तार मिलकर उपयोगी होते हैं । इसी प्रकार विना तैजस शरीर के कार्मण शरीर ठहर नहीं सकता । इसी कारण यहां दोनों का ही ग्रहण किया गया है ।