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व्यन्तरों के स्थान
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का वन तथा दुपहरिया वृक्षों का चन, अतीव अतीव शोभा से सुशोभित होता हैं, इसी प्रकार वारा व्यन्वर देवों के देवलोक जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति वाले और उत्कृष्ट यल्योपम की स्थिति वाले, बहुत से वाण - व्यन्तर देवों और देवियों से व्याप्त, विशेष व्याप्त, उपस्तीर्ण - एक दूसरे के ऊपर आच्छादित, परस्पर मिले हुए भोगे हुए. या प्रकाश वाले, अत्यन्त श्रवगाढ़, शोभा से अतीव तीव सुशोभित रहते हैं । हे गौतम : वारा व्यन्तर देवों के स्थान, देवलोक इस प्रकार के कहे गये हैं । इस कारण हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि असंयत जीव यावत् देव होता है ।
व्याख्यान - श्रव गौतम स्वामी वाण-व्यन्तर देवों के देवलोक के विषय में प्रश्न करते हैं । व्यन्तरों का देवलोक कैसा है ? वहाँ क्या कोई सुख है ?
इस प्रश्न के उत्तर से पहले यह जान लेना श्रावश्यक हैं कि वारा व्यन्तर देव किन्हें कहते हैं ? इस सम्बन्ध में कहा गया है कि वन विशेष में उत्पन्न होने वाले अर्थात् बसने वाले देव वान-व्यन्तर कहलाते हैं ।
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दूसरे आचार्य के मत से वन में उत्पन्न होने वाले यान कहताते हैं और वन में क्रीड़ा करने वाले व्यन्तर देव कहलाते हैं । चन से यद्यपि फूल - फल भी उत्पन्न होते हैं, मगर यहाँ उनका ग्रहण नहीं करना चाहिए । यहाँ देवयोनि के उन जीवों को ही लेना चाहिए जो यन में उत्पन्न होकर वन में क्रीड़ा करते हैं ?