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दण्डक - व्याख्यान
पृथ्वीकाय की ही तरह जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिका का भी एक-एक दण्डक माना गया है । फिर द्वन्द्रिय, त्रन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और विर्यश्च पंचेन्द्रिय का एकएक दंडक किया और एक दंडक मनुष्य का किया है । चाहे मनुष्य किसी भी क्षेत्र का और किसी भी जाति का हो, सबका दंडक एक ही है । मनुष्य के दंडक के बाद वान - व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक का दंडक गिना गया है ।
देव और असुर दो योनियां हैं | देव में ज्योतिष्क और वैमानिक गिने जाते हैं और असुर योनि में असुरकुमार आदि गिने जाते हैं । देवों में इतने झगड़े नहीं होते, जितने असुरो - में होते हैं । भगवान् ने असुरकुमार आदि दस के दस दडक गिनाये और देवों का एक ही दंडक गिता । यह त्रिलोकीनाथ का राज्य है ।
पृथ्वीकायिक जीवों के आहार के विषय में कहा गया है कि अगर व्याघात न हो तो उनका श्राहार छहों दिशाओं से होता है । यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि व्याघात किसे कहते हैं ?
लोक के अन्त में, जहां लोक और श्रलोक की सीमा मिलती है, वहीं व्याघात होना संभव है। जहां व्याघात नहीं है वहां छह दिशा का श्राहार लेते हैं, जहां व्याघात हो वहां सीन, चार या पाँच दिशा से आहार लेते हैं । तात्पर्य यह है कि लोक के अन्त में, कौने के ऊपर रहा हुआ पृथ्वीकार्य का. जीव तीन, चार या पाँच दिशाओं से आहार ग्रहण करता हैं। जयंतीम दिशाएँ अलोक में दव जाती हैं-तीन तरफ अलोक या जाता है, जैवं तीन दिशा से आहार लेते हैं। जब दो